डॉ. विकास मानव
वेदों में देववाणी संस्कृत का एक शब्द है -- हिरण्यम्। हिरण्य का अर्थ है सोना, सोने का पात्र, वीर्य, जिसका हरण किया जाय वा जो हरण करे, मूल्यवान् वस्तु स्त्री की योनि हरिण्यम् अर्थात् स्वर्णपात्र है।
यह पुरुष के शुक्र/वीर्य को हरती है, खींच कर अपने में समाहित करती है, आकर्षित करती है। पुरुष का वीर्य हिरण्य वा मूल्यवान वस्तु है। यह स्त्री द्वारा खींचा जाता है, स्त्री की योनि की ओर स्वतः आकर्षित होता है। इसलिये यह हरिण्य है।
स्त्री हिरण्यगर्भा है। पुरुष हिरण्यगर्भ है। दोनों के योग से प्रजाएँ उत्पन्न होती हैं। ये दोनों प्रजापति हैं। प्रजनन स्थान सप्तम है। इसके लिये दोनों को क्या करना चाहिये ?
ऋषि कहता है :
‘अथ यद्युदक आत्मानं परिपश्येत् तदभिमन्त्रयेत मयि तेज:
इन्द्रियं यशो द्रविणं सुकृतमिति श्रीर्ह वा एषा स्त्रीणां यन्मलोद्वासास्तस्मान्मलोद्वाससं यशस्विनीमभिक्रम्योपमन्त्रयेत।‘
~बृहदारण्यक् उपनिषद (६।४।६ )
अथ = और। यदि = जो ।उदक (उद् + अक) = वीर्य [सामान्यतः उदक को जल कहते हैं। अक् गतौ धातु से निष्पन्न होने के कारण उदक का अर्थ है-श्रेष्ठ वा तीव्र गति वाला। आकाश से गिरने वाले जल को उदक कहते हैं। इसकी गति तीव्र एवं अनवरोध्य है।
ऐसे ही वीर्य तीव्रगति से स्त्री की योनि में गिरता है। जब एक बार यह चल देता है तो इसे स्त्री की योनि में जाने से रोकना अति कठिन वा असंभव है। अनवरोध्य होने से उदक को वीर्य कहते हैं वा वीर्य को उदक कहते हैं। इस मन्त्र में उदक = शुक्र ।]
आत्मानम् = अपने स्वरूप को, अपने आपको। परिपश्येत् = भली भाँति देखे, पहिचाने। तत् = उसे। अभिमन्त्रयेत = विचार करे। मयि = मुझमें ।तेजः= तेज, तीक्ष्णता। इन्द्रियम् =बल,ज्ञान।यशः=विस्तार, व्यापकत्व। द्रविणं= समृद्धि, ऐश्वर्यमयता।
सुकृतम्= पुण्य, सत्कर्म, शुभत्व । इति = ऐसा । यहाँ उदक = उदके (सप्तम) = वीर्य में।
पुरुष का यह जो वीर्य है, इसमें वह अपनी आत्मा का दर्शन करे। पुरुष अपने वीर्य में सर्वस्व देखे, मूल्यवान समझे अपने वीर्य को अपने वीर्य की महत्ता का विचार करे और यह जाने की मेरे इस वीर्य में तेज है, बल है, यश है, धन है तथा पुण्य है।
श्रीः = शोभा, लक्ष्मी, कान्तिमती। ह वै = निश्चय हो। एषा = यह स्वी/ भार्या। यत् = जो। मलोद्वासाः = ऋतुस्नान की हुई, मैले वस्त्र उतारी हुई, पवित्रमन वाली, शुद्धाचार युक्ता, निर्मला । तस्नात् = उससे मलोद्वाससम् = ऋतुस्नाता स्त्री को यशस्विनीम् = (सदाचार के कारण) यश प्राप्त करने वाली। अभिक्रम्य = पास जाकर। उपमन्त्रयेत = (सन्तति हेतु मैथुन के लिये) विचारविमर्श करे, तैयार करे।
स्त्रियों में यह पत्नी निश्चय ही पुरुष की शोभा है लक्ष्मीरूपा है क्योंकि यह निर्मल स्वाली, पवित्र मानसम्मान वाली अदूषित आचार वाली, अकलंकित चरित्रवाली, विशुद्धा है। इसलिये पुरुष ऐसी निर्मला ऋतुस्नाता स्त्री के पास जाकर सन्तान की प्राप्ति के लिये, मैथुन हेतु उस यश प्रिया अंगना से वार्तालाप करे, सम्भोग के लिये मनावे तैयार करे।
यही इस मंत्र का अर्थ है। स्त्रियों को मानिनी कहा गया है। स्त्रियाँ मान करती हैं, रूठती हैं। ऐसी दशा में पुरुष को उन्हें मनाना पड़ता है, प्रसन्न करना पड़ता है इच्छुक स्त्रियों का नकार/ अस्वीकार, हाँ/ सकार, स्वीकृति का बोधक होता है। इसके लिये पुरुष प्रेम से उनको स्वीकृति (मौन स्वीकृति) अवश्य ले.
*'सा चेदस्मै न दद्यात्काममेनामवक्रीणीयात् सा चेदस्मै नैव दद्यात्काममेनां यष्ट्या वा पाणिना वोपहत्यातिक्रामेदिन्द्रियेण ते यशसा यश आदद इत्ययशा एव भवति।'*
सा चेत् अस्मैनदद्यात् = वह (स्त्री) यदि इस (पुरुष) को न (स्वीकृति) देवे।
कामम् = चाहे।
एनाम्= इसको।
अवक्रीणीयात्= खरीदे (भूषणादि से प्रलोभित करे, अनुकूल करे)।
सा चेत् = वह यदि।
अस्मै न एवं दद्यात् = फिर भी (पति पुरुष को) अनुमति न दे (तो)।
कामम् = चाहे।
एनाम् = इसको।
यष्ट्या वा = दण्ड से।
पाणिना वा= हाथ से ।
अपहत्य मारकर।
अतिक्रामेत् = (रतिकर्म का विचार) छोड़ दे।
इन्द्रियेण = इन्द्रियबल से ज्ञान से।
ते= तेरे।
यशसा = यश से ।
यशः =कीर्ति को।
आददे= (मैं) लेता हूँ, छीन लेता हूँ।
इति = ऐसा (कहे)।
अयशा= (वह अपयशवाली ।
एव= ही
भवति =हो जाती है।
पुरुष अपनी स्त्री के पास मैथुन यज्ञ का प्रस्ताव रखे और वह स्त्री इसके लिये तैयार न हो, अपनी योनि वेदी न दे तो पुरुष को चाहिये कि वह उसे कोमल उपायों से वश में करे। पर पुरुष की कामना वाली, स्वपति से घृणा करने वाली वह स्त्री यदि पुरुष को स्वीकृति न दे तो पुरुष उसे डण्डे से या हाथ से पीटे मारे मारकर वश में कर बलपूर्वक उसका यश ले, उसे सुधारे। इतना करने वा मारने पर भी वह न सुधरे तो वह अपकीर्ति वाली होती है। यही इसका अर्थ है।
ऋषि ने इस मंत्र में यही कहा है कि रतिमहायज्ञ के लिये यदि स्त्री (पत्नी) सौम्य साधनों से न तैयार हो तो उसके साथ कुछ बर्ताव करे। इतने पर भी वह नहीं सुधरती, व्यभिचार से विमुख नहीं होती तो वह स्वतः अयशस्वी (कलंकिनी) हो जाती है। बलपूर्वक स्त्री के साथ मैथुन करने का निषेध है- यही तात्पर्य है।
आगे ऋषि कहता है :
‘सा चेदस्मै दद्यादिन्द्रियेण ते यशसा यश आदधामीति यशस्विनावेव भवतः।
~बृह.उप. (६/४/८)
यदि वह स्त्री मारपीट धौंस से पुरुष को मैथुन करने दे तो पुरुष उससे कहे कि मैं तुम्हें अपने यश से तुम्हें यशस्वी बनाता हूँ, तुम्हें आदर देता हूँ। ऐसा होने पर दोनों यशस्वी होते हैं। अर्थात् सन्तान यज्ञ द्वारा अपने यश का विस्तार करते हैं। इस मन्त्र में रतियज्ञ से यशविस्तार की बात कही गई है।
*’स यामिच्छेत् कामयेत मेति तस्यामर्थं निष्ठाय मुखेन मुखं संध्योपस्थमस्या अभिमृश्य जपेत्।
अङ्गादङ्गात्संभवी हृदयादधि जायसे।
स त्वमङ्गकषायोऽसि दिग्धमिद्धाभिव मादयेमाममूं मयीति।’
~बृह.उप.(६/४/९)
इस मंत्र में मैथुन यज्ञ की प्रकृया / प्रक्रिया का वर्णन हुआ है।
सः =वह पुरुष। याम् = जिस स्त्री को। इच्छेत् = चाहे। कामयेत = (यह स्त्री) इच्छा करे, आकृष्ट हो, कामभाव को पूरा करे। मा = मुझको ।इति=ऐसा।तस्याम् = उस (स्त्री) में। अर्थम् = अपने अभिप्राय को ।निष्ठाय = रखकर, निष्ठा से प्रकट कर। मुखेन =अपने मुख से।
मुखम् = (स्त्री के) मुखको=। संघाय = मिलाकर उपस्थम् = जननेन्द्रिय को। अस्याः =इस (स्त्री) के। अभिमृश्य = अन्दर से स्पर्श कर, गाढ़स्पर्श कर। जपेत् । = जप करे (आगे के मन्त्र का)। अंगात् अंगात्= प्रत्येक अंग से, देह के हर अंग से। सम्भवसि = उत्पन्न होता है। हृदयात् = हृदय (भावना) से। अभिजायते= पैदा होता है।
सः = वह ।त्वम् = तू। अंगकषाय = अंग का रस । असि= है। दिग्धविद्धाम् = विषबुझे वाण से विधी। इव =तरह ।मादय= मस्त कर दें। इमाम् = इसको अमूम् = उसको। मयि = मुझ (पुरुष) पर इति यह (मन्त्र जपे) ।
पुरुष संभोग यज्ञ करने जा रहा है। इस याग को प्रयाग भी कहते हैं। यहाँ गंगा-यमुना का संगम नहीं, प्रत्युत स्त्री-पुरुष का संगम होता है। स्त्री की देह का पुरुष की देह से शिश्न का योनि से संगम होना ही प्रयाग है। दोनों स्त्री-पुरुष का एकाकार होना ब्रह्मानन्द है।
अब इस मंत्र के अर्थ का अवलोकन करता हूँ। वह पुरुष जिस स्त्री को चाहे कि वह मुझको चाहे, वह स्त्री मुझसे सतत प्रेम करती रहे, हमारे काम भाव की पूर्ति करती रहे, मुझे काम सुख दे तो वह पुरुष उस स्त्री में अपने प्रयोजन को स्थापित करे, अपनी भावना से उसे अवगत कराये अपने अर्थ को अर्थात् अपनी संभोगेच्छा के प्रस्ताव को रखकर उससे अनुराग करे।
मुखेन मुखे संधाय = मुख से मुख को मिलाकर अर्थात् चुम्बन करे, अधर रस पान करे। यह अधरामृत वस्तुतः अ-धरामृत है। पुरुष अपने दोनों होठों को स्त्री के दोनों होठों से मिलाये। स्त्री के अधर को अपने दोनों अधरों के बीच में रख करे उसे चूसे, चूमे।
उपस्थम् अस्या अभिमृश्य= स्त्री की योनि को भीतर से दूर तक अर्थात् उसकी योनि में अपने शिश्न को अन्दर गहराई तक डालकर, योनि से उपस्थ को एक करे। फिर क्या करे ? जपेत् = इस मन्त्र का जप करे, इस विचार में डूब जाय। कौन सा मन्त्र वा विचार ?
अंगद अंगात् सम्भव हृदयाद अधिजायते =यह प्रेम मेरे अंग प्रत्यंग से पैदा हो रहा है तथा यह प्रेम हार्दिक है-मेरे हृदय की गहराई से उत्पन्न हो रहा है।
इस बात को पुरुष उस स्त्री से कहे कि वह उससे तन-मन से प्रेम करता है, हर प्रकार से चाहते हुए उसमें अनुरक्त है तथा उस पर न्यौछावर है। सः त्वम् अंगकषाय असि = त्वम् सः असि, अंगकपाय असि।
हे स्त्री ! तुम वह (विष्णु) हो। मेरे लिये तुम सब कुछ हो। तुम ब्रह्म हो। ब्रह्म आनन्द है। तुम मेरे लिये आनन्द हो, सुख की स्रोत हो। इसलिये तुम वह बस हो।
तुम अंगकपाय हो, मेरे अंगों की रस हो, सार हो। कोष में कषाय का अर्थ है- मधुर स्वर वाली, सुगन्धित अतः यहाँ पर पुरुष यह भाव लाये कि यह स्त्री मधुकण्ठा है, सुगन्धी है। (अतएव) प्रेय है। दिग्वविद्धाम् इव मादव इमाम् अमूम् मवि इति = जैसे विषलिप्त वाणों के लगने से मृगी चेतना शून्य हो जाती है, अधिकार में आ जाती है, समर्पण कर देती है, वैसे ही यह स्वी मेरे प्रेम से विद्ध होकर मुझमे मत्त हो जाय, मेरे लिये मतवाली हो जाय सतत सम्भोग के लिये उत्सुक रहे। इमाम्= इस स्त्री को, अमूम् = वह मेरा प्रेम, मयि= मुझमें मादय = मतवाली कर दे। बिना मेरे वह रह न सके। यह मंत्र है।
ऋषि का आदेश है कि पुरुष सम्भोग के समय / सम्भोग काल में/सम्भोग करते समय / देहाश्लेष होने पर, एकामचित्त होकर स्त्री को ध्येय बनाकर, सम्भोग क्रिया का ध्यान करते हुए मन ही मन मन्त्र का जप करे।
इससे ध्याता पुरुष जो सुख पाता है और जो सुख उस स्त्री को देता है, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। यह अनिर्वाच्य ब्रह्मानन्द सदृश होता है।
‘उपस्थम् अस्या अभिमृश्य’ वाक्यांश का अर्थ यह भी है-इसके उपस्थ को हाथ से छूकर। कामशास्त्र की यह विधि है कि स्त्री की योनि को हाथ से छूने, मालिश करने पर वह पुरुष के प्रति शीघ्र अनुरक्त होती है आत्मसमर्पण करती है। इसके बाद उपस्थ का उपस्थ से संस्पर्श करना बताया गया है अर्थात् तब योनि छिद्र में कृच्छ लिंग डाले। ‘मुखेन मुखम् संघाय – चुम्बन / मुख चुम्बन/ ओष्ठ चुम्बन से स्त्री के योनि की कठोरता दूर होती है, मृदुता आती है साथ ही साथ पुरुष का लिंग कठोरता को धारण करता है, कोमलता त्यागता है। इसलिये, ओष्ठ दंशन एवं उपस्थ स्पर्श मैथुन यज्ञ के दो आवश्यक पूर्व कर्म हैं। विज्ञ गृहस्थ इसे करता है।
संभोग यज्ञ में शुक्र ग्रह की मुख्य भूमिका होती है। भाव २ वृषराशि मुख है। भाव ७ तुला राशि उपस्थ है। दोनों राशियों शुक्र की हैं। इस यज्ञ में पुरुष का मुख स्त्री के मुख से मिलता है, उपस्थ उसके उपस्थ से मिलता है। ये दोनों द्वितीय (मुख) एवं सप्तम (उपस्थ) मारक भाव हैं। इन्हीं दो के चक्कर में सारा संसार फँसा है। इससे निकलने का कौन प्रयास करता है ?
मुख के अन्तर्गत कई अंगों की अवधारणा होती है।【 यथा- २ आँख, २ कान, २ नासाछिद्र २ ओष्ठ, २ जबड़े दंत पंक्ति, २ कपोल, १ चिबुक (ठोढी), १ जिह्वा, १ ललाट इनका कुल योग होता है- १५ अर्थात् पूरा एक पक्ष पक्ष की कालावधि का विचार शुक्रमह से होता है। क्षण =लग्न, मूहूर्त २ घटी = चन्द्रमा, बार १ दिन= मंगल, पक्ष १५ दिन= शुक्र, ऋतु २ मास= बुध, मास ३० दिन गुरु, आयन ६ मास = सूर्य, वर्ष = शनि】स्त्री पुरुष एक दूसरे को देखते हैं यह चक्षु व्यापार है।
दोनों एक दूसरे के वाक्य सुनते हैं। यह श्रोत्र व्यापार है। जब दोनों में दैहिक निकटता आती है तो दोनों ओठ आपस में मिलते हैं। यह ओष्ठ व्यापार (अधरामृतपान) है रतियुद्ध में दोनों परस्पर दोनों दन्त पंक्तियों को एक दूसरे पर गड़ाते हैं, दन्तक्षत करते हैं। यह दन्त व्यापार है। एक दूसरे से अपने कपोल सटाते हैं, चूमते हैं। यह कपोल व्यापार है।
संभोग में नाक मिलती है, श्वाँस वायु से फुफ्फुस का सिंचन करते हैं। यह बाण व्यापार है। चिबुक से चिबुक टकराता है, जिह्वा से जिहा लड़ती है, माथे से माया छूता है। यह सब भाव २ से, मुख क्षेत्र से सम्पन्न होता है। वृष भोग राशि है।
सप्तम भाव से तुला व्यापार होता है। इसमें योनि और लिंग एक दूसरे में लीन हो जाते हैं। इस प्रकार दोनों स्त्री-पुरुष अपने-अपने सप्तम एवं द्वितीय भावों से जूझते हैं। इस रति कलह में दोनों घायल होते हैं, मरते हैं, पराजित होते हैं। इसीलिये ऋषियों ने इन दो भावों २ एवं ७ को मारक की संज्ञा दी है।
और कौन-कौन से ग्रह है ? जो रतियज्ञ में शुक्रग्रह के सहायक हैं। शुक्र के बाद चन्द्रमा का स्थान है। चन्द्रमा मन है। बिना मन के यज्ञ सम्भव ही नहीं है। चन्द्रमा वक्ष/स्तन है। पुरुष तो स्त्री के स्तनों से कोड़ा करता ही है तथा स्त्री अपने स्तनों से / पर पुरुष के वक्ष का कठोर स्पर्श/ भार की आकांक्षा रखती है चन्द्रमा के बाद आता है, बुध बुध की दो राशियों हैं-मिथुन और कन्या मिथुन दोनों भुजाएँ हैं, कंन्या कटि प्रदेश है।
स्त्रीपुरुष परस्पर अपनी भुजाओं में बँधते हैं, आलिंगन, परिरम्भन में भुजाओं से एक दूसरे को अपनी-अपनी ओर खींचते हैं। कटि प्रदेश जननांगों के सर्वाधिक निकट है। इसकी लोच्यता से रतिकर्म सफल एवं सुखद होता है।
मिथुन और कन्या का स्वामी बुध है। अतः बुध पूरी शक्ति से इस यज्ञ में भाग लेता है। बुध कोमल/ सैण ग्रह है। बुध के बाद गुरु का स्थान है। गुरु की मूल त्रिकोणराशि है, धनु। धनु है जघन प्रदेश, नितम्ब। शरीर का सर्वाधिक पुष्ट भाग है, यह जनननांगों की स्थिति इसी में है। नितम्ब काम का रहस्यमय निवास है।
दोनों जाँघे और नितम्ब रतिक्रिया को आह्लादक बनाते हैं। ये उत्प्रेरक हैं। केवल यही चार ग्रह- शुक्र चन्द्र बुध गुरु हैं जो रति कर्म को बढ़ावा देते हैं, संचालित करते हैं, सम्भालते हैं, स्थायित्व देते हैं। ये सभी शुभ ग्रह हैं। इसलिये रति कर्म एक शुभ कर्म है, पुण्य कर्म है, दिव्य कर्म है। इसका वर्णन शब्दों में सम्भव नहीं।
अशुभ ग्रहों के प्रवेश से रतिकर्म का आनन्द चला जाता है, यह क्रिया अभिशाप बन जाती है। इसको दूषित करने वाले ग्रह हैं तीन सूर्य, मंगल शनि ये तीनों पापी और पृथक्कारक यह शुष्क हैं, कठोर हैं निर्दय हैं। यहाँ भावना का स्थान नहीं। सूर्य क्या करता है ? सूर्य की राशि सिंह= पेट। स्त्री गर्भवती होती है, पेट फूल आता है, मैथुन में बाधा होती है। पुरुष वा स्त्री की तोंद निकलने पर भी मैथुन में व्यवधान खड़ा होता है। मंगल क्या करता है ?
मंगल की मूल त्रिकोण राशि मेष =सिर= विचार ।विचार दूषित कर बलात्कार कराता है, झगड़ा कराता है। इस प्रकार रतिसुख को यह सबसे ज्यादा चौपट करता है। शनि क्या करता है ? शनि की रशि/मूलत्रिकोण राशि है, कुम्भ= टाँग ।मैथुन में टांगों का कोई प्रयोग नहीं होता। शनि है ठण्डा, पुरुष नपुंसक। यह मैथुनशक्ति क्षीण करता है, मैथुन कर्म से विलग करता है। यह है बूढ़ा।
वृद्धावस्था में मैथुन से प्रायः उदासीनता ही रहती है। इस प्रकार ये तीनों यह रतियज्ञ के बाधक है, साधक नहीं।
शुभ ग्रहों की उपस्थिति में रति संग्राम रोचक होता है। गुरू देह को मांसल एवं भरी पुरी रखता है। बुध विनोदप्रिय एवं क्रीड़ाकुशल बनाता है। शुक्र मुख को आकर्षक करता तथा जननांगों को सामर्थ्य देता है। चन्द्रमा मन को भोगी एवं चञ्चल किये रहता है। इस कारण से रतियुद्ध ध्वंसक न होकर सर्जक होता है।
इसके लिये जोड़ा ठीक होना चाहिये। दोनों स्त्री-पुरुष तन-मन से एक दूसरे के पूरक एवं सहयोगी हों, गुण पर्याप्त मिलते हो !
जब इस युद्ध में बुध गुरु शुक्र चन्द्र पर पाप ग्रहों का प्रभाव होता है तो खटपट होना निश्चित है। न्यूनाधिक रूप से हर कुण्डली में ये पाप ग्रह- सूर्य मंगल शनि प्रभाव डालते ही हैं। इनके कारण दाम्पत्य जीवन नरक हो जाता है। जीवन का रस चला जाता है। राहु एक ऐसा ग्रह है जो जीवन को नीरस नहीं अपितु कुरस कर देता है। केतु का प्रभाव विचित्र एवं अवाच्य है।
गीता का एक श्लोक है :
‘त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
काम क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥’
(अध्याय १६, श्लोक २१)
त्रिविधम् नरकस्य इदम् द्वारम् नाशनम् आत्मनः । कामः क्रोधः तथा लोभः तस्मात् एतत् त्रयम् त्यजेत्॥
यहाँ काम को नरक के तीन द्वारों में से एक द्वार कहा गया है। वस्तुतः है ऐसा नहीं ! इसमें काम, क्रोध, लोभ का अर्थ कुछ और है।
काम= अयुक्त इच्छा / दुरिच्छा ।
क्रोध= असहनशीलता।
लोभ = अदेयता / दान न देने की वृत्ति।
नरक= दुःख ।
जिसमें सदिच्छा नहीं है, वह कामी है। जिसमें सहनशक्ति का अभाव है, वह क्रोधी है। जो अर्जन करता है, पर दान नहीं करता वह लोभी है। कामी क्रोधी लोभी- ये तीनों दुःखी रहते हो। ये तीनो मैथुन यज्ञ के लिये अयोग्य होते हैं।
जो अकाम है, अक्रोध है, अलोभ है, वही सम्भोग के महासमर में प्रफुल्लित रहता है, वही शुक्राभिषेक का सुख भोगता है, वही रतियोग से निकले हुए धुएँ की सुगन्धित वायु में साँस लेता है- आनन्दित होता है।