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लीव-इन-रिलेशन : गणिका, वेश्या, रक्षिता और अवरुद्धा

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 आरती शर्मा 

      धन-वैभव के मामले में सभी काशी नरेश का उदाहरण देते थे। तब उनकी रोज की आय थी करीब एक हज़ार कार्षापण, जो उस समय की मुद्रा थी। उस धनिक ने अपनी रूपवति कन्या का एक दिन का मोल इससे भी ज़्यादा रखा था। उसकी कन्या के साथ रात बिताने की क़ीमत थी 1100 कार्षापण। यह रकम लेकिन इतनी ज़्यादा थी कि कोई ग्राहक नहीं मिल पा रहा था। ऐसे में धनिक ने रकम आधी कर दी।

     इसके बाद उसकी बेटी का नाम पड़ गया अर्धकाशी, क्योंकि काशी नरेश की रोज की आय का आधा हिस्सा क़ीमत थी उसकी।

       अर्धकाशी एक गणिका थी। साथ में अट्ठकाशी और सालावती के भी नाम आते हैं। अट्ठकाशी एक हज़ार कार्षापण लेती थी एक रात के लिए। बाद में वह बुद्ध की शरण में चली गई। सालावती की एक रात की क़ीमत भी एक हज़ार कार्षापण ही थी। सामाजातक में सालावती के वैभव, धन, भोग, विलासिता के बारे में लिखा है। इसके मुताबिक, उसकी सेवा के लिए 500 दासियां रखी गई थीं।

इतिहास में वेश्यालयों का खूब ज़िक्र मिलता है। ऐसी महिलाओं को सिर्फ शरीर नहीं, इनके ज्ञान, गुण के आधार पर बांटा गया था। सबसे ऊपर थी गणिका। उसका सुख पाने के लिए राजा या उसके बराबर का धनवान होना पहली शर्त थी। समाज के व्यापारी, अधिकारी वर्ग के लोगों के लिए थीं रूपजीवा।

      लीव-इन-रिलेशन  की तरह रक्षिता और अवरुद्धा के साथ रहने का नियम था। निम्न वर्ग के लिए वेश्या को रखा गया था। इनके रेट भी तय थे। कुछ गणिकाओं की सुंदरता सात समुंदर पार तक फैली थी।

 सबसे महंगी वेश्या यानी गणिका बनना आसान नहीं था। उन्हें कामसूत्र की 64 और मानविकी की 72 कलाओं में पारंगत होना पड़ता था। साधारण वेश्या को इसकी ज़रूरत नहीं थी। एक सामान्य युवती को गणिका बनने के लिए कठिन परीक्षा देनी पड़ती थी। जो उस स्तर तक पहुंचकर फेल हो जातीं, उन्हें रूपजीवा की पहचान मिलती।

       कुछ ऐसी भी युवतियां होतीं, जो गणिका या रूपजीवा नहीं बन पातीं, लेकिन किसी एक के लिए समर्पित रहतीं। उन्हें रक्षिता या अवरुद्धा से पहचाना जाता।

       गणिका की शिक्षा और रहने का इंतज़ाम राज्य करते थे। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में ज़िक्र है कि कई राज्य अपनी गणिकाओं को एक हज़ार पण यानी स्वर्ण मुद्रा हर महीने वेतन देते थे। एक पण करीब 12 ग्राम का सोने का सिक्का होता था। आज के भाव से देखें, तो गणिका को हर महीने 6 करोड़ 20 लाख रुपये के आसपास वेतन मिलता था।

गणिका बूढ़ी हो जातीं, तो कुछ वृत्ति मतलब पेंशन भी मिलती। 12वीं शताब्दी के तन्मय सुंदरी के मुताबिक, गणिका की आय का 15 से 30 फ़ीसदी तक आयकर वसूलने का नियम था। लेकिन, एक रूपजीवा की शिक्षा का दायित्व उसका ख़ुद का, उसकी मां या ग्राहक का होता था। उससे आयकर भी नहीं वसूला जाता।

       ऐसा नहीं था कि गणिका को धन के दम पर कुछ भी करने की छूट हो। कड़े नियम बने थे और उनको तोड़ने पर दंड और जुर्माने का विधान था। गणिका, रूपजीवा, रक्षिता, अवरुद्धा के ग्राहक कैसे हों, यह भी तय था। मनु संहिता, याज्ञवल्क्य और कौटिल्य के अर्थशास्त्र में इन नियमों के बारे में लिखा है।

       गणिका की पुत्री से बलात्कार पर 50 पण और उसकी मां की कुल आय का 16 गुना जुर्माना देने का विधान था। विदेशी को किसी गणिका का सुख पाने के लिए पांच पण अधिक राशि देनी होती थी। रूपजीवा अभिनेता, अन्न विक्रेता, मांस विक्रेता और वैश्यों के साथ संबंध रख सकती थी। उनकी फीस 48 पण प्रति रात्रि निर्धारित की गई थी।

     मुद्रा लेने के बाद किसी ग्राहक को मना करने पर गणिका और रूपजीवा, दोनों को दोगुनी रकम लौटानी होती थी।

     शारीरिक क्षति पहुंचाने पर एक हज़ार से लेकर 48 हज़ार पण तक अर्थदंड लगता था। गणिका के अपमान पर 48 पण और कान काटने पर पौने 52 पण और साथ में कारावास की सजा का नियम था। इसी तरह गणिका की इच्छा विरुद्ध दुष्कर्म करने पर 50 पण और अगर कई लोगों ने ऐसा किया हो तो हर व्यक्ति को 24 पण जुर्माना देना पड़ता था।

      गणिका अपने लिए कैसे ग्राहक खोज सकती थी, इसका नियम वात्स्यायन के कामसूत्र में मिलता है। राजा, उसके उत्तराधिकारी, युवा, धनी, पारिवारिक दायित्व से मुक्त, उच्चपदस्थ, सद्वंशजात, प्राणवान, शिक्षित, कवि, कहानी-उपन्यासकार, सुवक्ता, कई कलाओं का मर्मज्ञ ही गणिका का ग्राहक हो सकता था।

       रक्षिता और अवरुद्धा अपने लिए ग्राहक नहीं तलाश सकती थीं। उनका भरण-पोषण करने वाले पर ही उनका संपूर्ण अधिकार होता था। किसी और के हस्तक्षेप पर 48 पण के दंड का विधान था। रक्षिता या अवरुद्धा के ऐसा करने पर उसे वेश्या की श्रेणी में रख दिया जाता। वेश्या को सबसे निम्न माना जाता था। उनकी आर्थिक स्थिति भी ठीक न थी। समाज के निम्न स्तर के लोग ही उनके पास पहुंचते थे।

गणिका और रूपजीवा विवाह भी कर सकती थीं। 24 हज़ार पण देकर कोई भी गणिका से विवाह कर सकता था। शर्त सिर्फ इतनी थी कि उस गणिका की रजामंदी होनी चाहिए। विवाह के बाद गणिका की पदवी ले ली जाती।

      कई प्रसंग ऐसे भी मिलते हैं, जहां गणिका ने अपने राष्ट्र को शत्रुओं से बचाया। अपनी विशेष शिक्षा-दीक्षा और यौवन में फंसाकर शत्रु पक्ष के उच्च अधिकारियों से गुप्त जानकारी निकलवाई। फिर भी इन्हें कभी संपत्ति पर अधिकार नहीं मिला।

        गणिका को अपनी संपत्ति गिरवी रखने, बेचने, लेन-देन करने का अधिकार नहीं था। ये अपनी संपत्ति सिर्फ दान कर सकती थीं। मृत्यु के बाद राज्य का उस पर अधिकार हो जाता। राज्य पर विपत्ति पड़ती, तब भी गणिका की आधी संपत्ति जब्त करने का नियम था।

      गणिका की आय का हिसाब-किताब रखने के लिए कोई बाहरी नहीं होता था। सामान्य तौर पर उनकी मां या पिता ही यह कार्य करते। गणिका की बहन को उसके विकल्प के रूप में माना जाता था। अचानक कोई परेशानी आ जाए और ग्राहक की सेवा में गणिका अक्षम हो, तो उसकी बहन को यह जिम्मेदारी उठानी पड़ती। इनके भाई की भूमिका भी अहम होती।

       गाने-बजाने और अभिनय में इन्हें कुशल होना पड़ता था। कई राज्यों में नियम था कि गणिका के भाई को 8 वर्षों की मनोरंजन की अनिवार्य शिक्षा लेनी होती थी। इनकी मुक्ति की क़ीमत गणिका से दोगुनी तय थी। (चेतना विकास मिशन).

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