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निजता पर प्रहार है,निजीकरण?

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शशिकांत गुप्ते

इनदिनों अच्छे दिनों के साथ अमृतकाल भी आगमन हो गया है। परिवर्तन संसार का नियम है।
राजनीति में भी बदलाव आया है।
राजनैतिक विश्लेषकों की विश्लेषण करने की मानसिकता में निष्पक्षता पर संदेह पैदा होता है? जिधर बम उधर हम वाली कहावत चरितार्थ होते दिख रही है।
एक ओर देश के प्रत्येक राज्य पर ऋण का बोझ बढ़ रहा है। दूसरी ओर विकास और प्रगति की तेज रफ्तार के कारण सत्ता को बुनियादी समस्याओं पर सोचने समझने के लिए समय ही नहीं मिल रहा है।
उपर्युक्त मुद्दों पर गंभीरता से विचार करने पर यह स्पष्ट रूप से समझ में आता है कि, भौतिकवाद संभ्रांत लोगों के साथ आमजन की मानसिकता पर गहरी पैठ करता जा रहा है। भौतिकवाद, उपभोक्तावाद का जनक है। उपभीक्तावाद से सुविधाभोगी प्रवृत्ति पनपती है, यही प्रवृत्ति बाजारवाद की पोषक होती है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के लिए बाजारवाद सहयोगी होता है।
इनदिनों हर क्षेत्र का जो
निजीकरण हो रहा है,ये निजीकरण ही बाजारवाद का पर्याय बन रहा है।
निजीकरण का सैद्धांतिक मकसद होता है,निजीकरण के बाद उपभिक्ताओं को उत्पाद वाजिब दामों में प्राप्त हो। उत्पादों को गुणवत्ता श्रेष्ठ हो। दुर्भाग्य से पूंजीवादी अर्थ व्यवस्था को बढ़ावा देते हुए,जो निजीकरण किया जा रहा है,इस निजीकरण के कारण एक सुनियोजित षडयंत्र के तहत लुभावने विज्ञापनों के माध्यम से लोगों को आकर्षित कर अच्छा उपभोक्ता बनाया जा रहा है। बाजार में उत्पादों की गुणवत्ता में प्रतिस्पर्धा नहीं हो रही,प्रतिस्पर्धा महज इसलिए हो रही है कि उपभोक्ताओं को मूर्ख कैसे बनाया जाए।
भौतिकवाद को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ावा देने में राजनीति,धार्मिक सामाजिक संगठनों की भूमिका भी कम नहीं है।
इसीलिए राजनैतिक रैलियों धार्मिक,और सामाजिक क्षेत्र के आयोजनो को पूर्ण रूप से सामंती तरीके से सम्पन्न किया जा रहा है।
उपर्युक्त समस्या का मुख्य कारण है,यथास्थितिवाद। यथास्थितिवाद, समाज के कल्याण के लिए सुधारवाद का समर्थक होता है। सुधारवाद से तात्पर्य फटे पर पैबंद (थिगला) लगाना,और परिवर्तन का अर्थ फटे को समूचा बदल देना।
महात्मा गांधीजी का यह सुवाक्य हमेशा स्मरण में एक समाज के कल्याण का तरीका सुधारवादी नहीं,परिवर्तनकारी होना चाहिए

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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