पुष्पा गुप्ता
० खेद-खिन्न अशान्त मन
खेद, खीझ, खिन्न एक ही मूल से निकले शब्द हैं। खेद का प्रचलन सीमित अर्थ में होने की वजह से इसे क्षमा का पर्याय मान लिया जाता है। खिन्न में उचाटपन का प्रभाव ज्यादा है किन्तु असहाय, चिन्तित के साथ अप्रसन्नता या अनमनापन जैसी अर्थछायाएँ भी भावबोध बढ़ाती हैं।
सन्यासी और दरिद्र को भी खिन्न कहा गया है। दरिद्र इसलिए खिन्न कहलाता है क्योंकि दीन-हीन है और सन्यासी इसलिए खिन्न है क्योंकि वह संसार से उदासीन है।
हिन्दी में ‘खेद-खिन्न’ युग्म का प्रयोग कम हो गया है जिसका आशय है दुखी, पीड़ित, कष्टी। मराठी में यह ‘खेदखिन’ है। सन्त नामदेव कहते हैं-
ऐसा खेदखिन जालों बहुवस।
न देखें विश्रांतीची वास।।
आशय है मनुष्य जन्म लेने के बाद से ही दुख और कष्ट से मुक्ति नहीं। शान्ति का ठौर नहीं। भाव यही है कि आत्मज्ञान मिले तो ही जीवन सफल है। इधर तुलसीदास कहते हैं-
खेद खिन्न मन तर्क बढ़ाई।
भयउ मोहबस तुम्हरिहिं नाई।।
यानी दुख के भार से दुखी मन सही सोचने की स्थति में नहीं करता है। खुद से ही कुतर्क करता है और भ्रमित होता है। इसीलिए ज्ञानी और संसारी के सम्बन्ध में वेदान्त कथन है-
सन्तुष्टोऽपि न सन्तुष्टः
खिन्नोऽपि न च खिद्यते।
अर्थात ज्ञानीजन प्रकटतः सन्तुष्ट दिखते हैं पर होते नहीं। इसी तरह वे दुखी होने पर भी दुखी नहीं होते।
० कई अर्थ
खेद, खिन्न और खीझ के मूल में खिद् क्रिया है जिसमें प्रहार, दबाव, पीड़ा जैसे भाव हैं। खेद में दुख, संत्रास, पछतावा, मलाल और शोक जैसे भाव हैं। खीझ में झुँझलाने, झल्लाने, कुढ़ने, कलपने, तमकने, चिढ़ने, रूठने या तुनकने जैसे आशय प्रकट होते हैं।
खिन्न में निराश, दुखी, उदास, उचाट, दीन, अनमना जैसे भाव हैं। यह भी ध्यान रखने की बात है कि उदासी में विरक्ति के साथ तटस्था भी आ जाती है। इसी के साथ इसमें तरह म्लान, बेदिल, उदासीन, क्लान्त, कुम्हलाया के साथ साथ चिंतित, अप्रसन्न, नाराज, दीन-हीन, असहाय जैसे आशय भी हैं। तुलसी कहते हैं-
गिरा अरथ जल बीचि सम, देखिअत भिन्न न भिन्न।
बंदौ सीताराम पद, जिनहिं परम प्रिय खिन्न।
० खेद-माफ़ी की लुकाछिपी
सार्वजनिक जीवन में प्रायः कुछ चूक हो जाने पर चतुर व घुटे हुए नेता कहते हैं- “इसके लिए खेद व्यक्त करता हूँ …” और अखबारों में छपता है कि नेताजी ने माफ़ी माँगी। इसके बाद नेताजी बयान जारी करते हैं कि हमने खेद प्रकट किया है, माफ़ी नहीं माँगी।
राजनीति में खेद व माफी की लुका-छिपी का नाटक जारी रहता है। लोग यही समझते हैं कि खेद व्यक्त करना और माफी माँगना एक ही बात है।
० तुम्हीं ने दर्द दिया…
खेद का मूल आशय है दुख, रंज, आदि। अजीब यह है कि आपने किसी को खेद पहुँचाया है और आप ही कहें कि मुझे खेद है। आदर्श स्थिति तो ‘खेद पहुँचाने के लिए लिए माफ़ी’ माँगने की होनी चाहिए।
ठीक उसी तरह जैसे दरबारी शिष्टाचार में होता था कि- “तकलीफ़ देने के लिए माफ़ी चाहता हूँ…कुछ लोग हुज़ूर से मिलना चाहते हैं”।
० खेद सिर्फ़ पछतावा भर नहीं
देखा जाए तो खेद व्यक्त करने में क्षमा माँगने की भी अभिव्यक्ति हो रही है और नहीं भी। बुनियादी तौर पर खेद में दुख, टीस का भाव है। जब हम दुख पहुँचाने के लिए खेद जताते हैं तब इसमें पश्चाताप, कचोट, मलाल जैसे भाव होता है।
शब्दकोशीय अर्थों में थकान, क्लान्त, शिथिल जैसी अर्थछायाएँ भी हैं मगर आज की हिन्दी में इनकी अभिव्यक्ति नहीं मिलती। आमतौर पर ग्लानि, मनोव्यथा अथवा पछतावा जताने के अर्थ में ही खेद की अभिव्यक्ति है।
० क्षमा करें
व्यावहारिक तौर पर खेद जताने का अंदाज़ कुछ इस तरह होता है जैसे खेद, क्षमा का अनुचर हो। क्षमा माँगने में लज्जा आती है सो खेद को रवाना कर दिया है।
कुछ यूँ कि जुल्म करने के बाद हाकिम का अर्दली आकर कहे कि “साहब ने माफ़ी मँगवाई है, दे दीजिए”। जिस तरह दुख से दुखी बनता है उसी तरह खेद से खेदित (संतप्त) भी होता है। तो खेदित व्यक्ति अपने को खेद पहुँचाने वाले के मुँह से यह नहीं सुनना चाहेगा कि उसे भी खेद है।
इसीलिए वह चाहता है कि उससे क्षमा माँगी जाए। और इसीलिए कहना चाहिए, “क्षमा चाहता हूँ”।
० खेद-खिन्न अशान्त मन
अब आते हैं खीझ पर। हिन्दी में इसकी दो वर्तनियाँ प्रचलित हैं। खीझ और खीज। किन्हीं कोशों में खीझ के आगे कोष्ठक में (देखें-खीज) लिखा है तो किन्हीं में खीज के आगे कोष्ठक में (देखें-खीझ) लिखा है।
दोनों ही प्रचलन में हैं। कुछ शब्दकोश जैसे हिन्दी शब्दसागर या अरविंद सहज समांतर कोश खीज को प्रमुखता देते हैं और खीझ को वैकल्पिक बताते हैं। हरदेव बाहरी, महेन्द्र चतुर्वेदी जैसे कोशकारों ने खीझ को प्रमुखता दी है।
मूल बात लोकप्रयोग की है। नवीं सदी के दलपत विजय खुमाण रासो में तीज की सादृश्यता पर खीज लिखते हैं-
पिऊ चित्तौड़ न आविऊ, सावण पहली तीज।
जोवै वाट विरहीणी, खिण खिण अणवै खीज
तो ब्रज, बुंदेलखण्ड के कविगण रीझ की सादृश्यता पर खीझ लिखते हैं।
बालमु बारें सौति कैं सुनि परनारि-बिहार।
भो रसु अनरसु, रिस रली, रीझ-खीझ इक बार।
० उच्चारभिन्नता आम बात
मेरे विचार में ये सब गौण बातें हैं। जो जिस वर्तनी के बरताव का आदी है, वैसा लिखे। उस दौर में ज्ञानरञ्जन या दिलबहलाव का ज़रिया कविताई ही थी। दोहा-कबित्त और नाना पद्यरूपों का लोकमानस पर प्रभाव था।
भाषा का विकास इसी तरह होता रहा है। इसीलिए अलग अलग क्षेत्रों की बोली-भाखा में विविधता दिखती है। कहीं लरिका है कहीं लड़का, कहीं शाला है कहीं साला। कहीं पकर है कहीं पकड़।
० खीझ-खीज दोनो सही
‘खिन्नोऽपि न च खिद्यते…’ के खिद्यते में जो ‘द्य’ है, भाषावैज्ञानिक नज़रिये से देखें तो प्राकृत में संस्कृत के ‘द्य’ का रूपान्तर ‘ज ‘ या ‘ज्ज’ में हो जाता है।
संस्कृत के विद्युत का प्राकृत रूप बिज्जू/ बिज्जुलि होता है। हिन्दी में बिजली प्रचलित हुआ। कुल मिलाकर तुलनात्मक रूप से खीझ का प्रयोग अधिक है, खीज का कम। और इसका प्रमाण प्राचीन काव्य से लेकर आज की कविताई तक में देखने को मिलता है।