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भारतीय फिल्मों के युग निर्माता के रूप में अमर हैं भारत रत्न सत्यजीत राय

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कनक तिवारी

भारत रत्न सत्यजीत राय 2 मई 1921 को पैदा हुए थे. यह मेरे लिए सुखद संयोग रहा कि 2 मई 1971 को उनके 50 वर्ष पूरे होने पर टाइम्स ऑफ इंडिया समूह की अग्रणी फिल्म पत्रिका ‘माधुरी‘ के संपादक अरविन्द कुमार ने सत्यजीत राय पर मेरी रचना को अनेक चित्रों के साथ केन्द्रीय लेख के रूप में छापा था. अरविन्द जी ने मुझसे कहा था कि यह लेख मैं किसी को नहीं दूं, बस यही एक रचना मैंने ‘माधुरी’ को दी थी.

वर्षों बाद कभी संभवतः ‘सद्गति‘ फिल्म की शूटिंग को लेकर सत्यजीत राय रायपुर आए थे. तब मैंने संभालकर रखा वह अंक उनको दिया था. मुझे ख्याल पड़ता है कि सर्किट हाउस में हबीब तनवीर भी उनके साथ थे. बेहद गंभीर मुखमुद्रा के सत्यजीत राय के चेहरे पर लेख को देखकर कोई मुस्कराहट नहीं छाई. अलबत्ता अंगरेजी में उन्होंने कहा ‘धन्यवाद, यह मुझे मिल गया था.’ बेहद खराब चल रहे समय में सोचा इस महान शख्सियत की अपनी लिपिबद्ध याद आपके साथ साझा करता चलूं.

सेल्युलायड का कवि

प्रख्यात फिल्म निर्माता चिदानन्द दास गुप्ता ने सत्यजित राय को ‘एक अपवाद, एक घटना तथा कोणार्क के मन्दिर और बनारस के वस्त्रोद्योग की तरह भारत कि लिये गौरव की वस्तु‘ की संज्ञा दी थी. सत्यजित की फिल्मों में एक साथ गहरी स्थानिकता और विस्तीर्ण वैश्विकता रही है. बंगाल की धरती की महक, इठलाती नदियां, सादा ग्राम्य जीवन, रूमानी क्रांतिकारिता, रहस्यमयता और कलात्मक चेतना वाली सत्यजित राय की फिल्में बंग धरती की धड़कनें है. उनमें कविता है. विस्तृत औपन्यासिक कैनवस है. जिन्दगी के टूटते मूल्यों की असलियत का अहसास है.

टैगोर के बाद सत्यजित राय ने ‘बांग्ला-जीवन’ को सारे विश्व की सहानुभूति और संवेदना का केन्द्र बना दिया. उनके अनुसार जीवन के पुराने और नये मूल्यों का सतत संघर्ष उनकी फिल्मों का केन्द्रीय तत्व रहा है. सत्यजित की फिल्में केवल सतही दृष्टिकोण से परखी नहीं जा सकती. संवाद, प्रतीक-विधान, चरित्र कथा-वस्तु के अलावा मुख्य आग्रह पृष्ठभूमि अथवा वातावरण के प्रस्तुतिकरण में है. सत्यजित राय ने ही पहली बार प्रचलित फार्मूलों का बहिष्कार कर नवयथार्थवाद की नींव डाली और अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि के नक्शे पर हिन्दुस्तान को सम्मानजनक जगह दिलाई.

2 मई 1921 को बंगाल के प्रसिद्ध लेखक, चित्रकार और फोटोग्राफर सुकुमार राय के घर जन्मे सत्यजित राय में प्रतिभा का अंकुरण गुरुदेव टैगोर ने शांति निकेतन में किया. कोलकाता की एक व्यावसायिक विज्ञापन एजेन्सी ने कलाकार के रूप में युवा सत्यजित को 1950 में लन्दन जाने का मौका दिया. वहां उसने जी भर कर फिल्में देखीं. उनमें गहरे डूब कर पाया कलाकार का वह सौन्दर्य-बोध जिसके लिये वह भारत में छटपटाता रहा था.

विश्वविख्यात इतालवी निर्देशक विक्टोरिया डी सिका की ‘बाइसिकल थीफ‘ ने नौजवान सत्यजित में आत्मविश्वास का संचार किया. कोलकाता में ही उसने विभूति बाबू की ‘पथेर पांचाली’ पढ़ रखी थी. अब इसको फिल्माने की इच्छा ने एक आब्शेसन का रूप लिया. फिल्म उद्योग के लखपति निर्माताओं के रहते हुए विभूति बाबू के उत्तराधिकारियों ने केवल छः हजार रूपयों में उपन्यास की पट कथा के अधिकार सत्यजित राय को बेच दिये. यह उसके गहरे अध्यवसाय, तीखी कला संवेदनशीलता और कथाकार के मर्म की सही समझ का पहला पुरस्कार था.

राय ने ‘पथेर पंचाली’ को बनाने का बीड़ा उठाया. प्रथमेश चन्द्र बरुआ के बाद निष्चेष्टता और संशय का एक विराम बंगाल की फिल्म-निर्माण कला पर छा गया था. तब आया मानवीय गरिमा के गीत गाता सत्यजित राय. उसने एक नहीं चार चार फिल्में बना कर बुलंदियों के आसमान को छू लिया. फिल्मों के जर्जर ढांचे को संवदेनाओं और मनोद्वेगों से पगी राय की ‘पथेर पांचाली’ ने जोरदार टक्कर दी. चरमरा कर वह ढांचा टूट गया. ‘पथेर पांचाली’ फिल्मी दुनिया का भूचाल या तूफान है. उसने पारंपरिक मूल्यों से जकड़े अप्रबुद्ध दर्शक को बौद्धिकता की कड़वी घुट्टी पीने कहा.

इटली और अमेरिका के नव यथार्थवादी निर्देशकों से प्रभावित सत्यजित राय ने ‘पथेर पांचाली’ में प्राकृतिक परिवेश और शौकिया कलाकारों का उपयोग किया. फिल्म को बनाने में उसने अपनी पुस्तकें, रेकार्ड आदि बेच कर किसी तरह बीस हजार रूपये इकठ्ठे किये. पैसों के अभाव में निर्माण कार्य ठप्प भी हो गया था. अमेरिकी निर्देशक जान हस्टन, न्यूयार्क माडर्न आर्ट म्यूजियम के मनरो व्हीलर तथा पश्चिमी बंगाल प्रशासन के उत्साहवर्द्धन और सहयोेग से फिल्म किसी तरह पूरी हुई.

प्रख्यात सितारवादक पंडित रविशंकर ने संगीत का दायित्व पूरा कर साबित किया कि जहां मानवीय कार्य व्यापार है, वहीं उत्कृष्ट कविता है. न्यूयार्क माडर्न आर्ट म्यूजियम में इस फिल्म का निजी शो जब एडवर्ड हैरिसन जैसी फिल्मी हस्ती ने देखा तो वह दंग रह गया. उसने न केवल ‘पथेर पांचाली‘ वरन सत्यजित की सभी आगामी फिल्मों के वितरण के अधिकार खरीद लिये. केन्स फिल्म महोत्सव में निर्णायकों ने ‘पथेर पांचाली‘ को सर्वोत्तम मानवीय दस्तावेज की संज्ञा देकर पुरस्कृत किया. यह बात अलग है कि मशहूर फ्रांसीसी फिल्म समीक्षक आन्द्रे बेजिन यदि अपनी कलम के बल पर ‘पथेर पांचाली‘ का तीसरी बार प्रदर्शन आयोजित नहीं करा पाता तो सत्यजित के जीवन की यह उपलब्धि गुमनामी के अंधेरे में खो जाती.

केन्स फिल्म महोत्सव ने सत्यजित राय को दुनिया के चोटी के निर्देशकों के साथ ला खड़ा किया. उसकी फिल्में अपराजितो (1957), जलसाघर (1958), पारस पाथर (1958), अपुर संसार (1959), देवी (1961) तीन कन्या (1961), रवीन्द्र नाथ टैगोर (1961), कंचनजंघा (1962), और अभिजान (1962) दुनिया की मषहूर कलात्मक और प्रयोगात्मक फिल्मों के रूप में सराही गई. 1957 में वेनिस में ‘अपराजितो‘ ने ग्रैंड प्रिक्स पुरस्कार जीत कर भारत को संसार के सांस्कृतिक नक्षे में सम्मानजनक जगह दिला दी. अकेले ‘अपु-त्रयी‘ ने सोलह अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीतेे हैं.

महान बांग्ला साहित्यकारों में सत्यजित रवीन्द्रनाथ ठाकुर से विशेष प्रभावित रहे हैं. शरत चंद्र ने उन्हें अधिक प्रभावित नहीं किया. रवीन्द्र की कृति ‘नष्ट नीड़‘ पर आधारित फिल्म ‘चारुलता‘ उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षो के उच्च-मध्यवर्गीय बंगाली जीवन की गाथा है. पतिव्रत धर्म की आड़ में भी एक उपेक्षित विवाहिता नारी और पर-पुरुष के मांसल प्रणय की यह कहानी लिख कर स्वयं टैगोर ने अपने युग में क्रांतिकारी साहस का परिचय दिया था.

पूरी फिल्म आश्चर्यजनक ढंग से उन्नीसवीं सदी की सांझ को अपने आयामों में समाए चलती है. वातावरण में महज सच्चाई है- कटु और तिक्त नाटकीयता कहीं कुछ नहीं. माधवी मुखर्जी (चारुलता) ने इसमें अपने जीवन का लगभग श्रेष्ठतम अभिनय किया है. समीक्षकों के अनुसार इसमें सत्यजित का निर्देशन अपनी पूर्व ऊंचाइयों पर स्थिर नहीं रह पाया. सत्यजित इसे अपनी श्रेष्ठतम फिल्म करार देते हैं. वैसे समीक्षक केनेथ टाइनन को फिल्म के प्रणय दृष्य मांसल-यौन संबंधों से रहित होने के कारण यथार्थ जीवन की अनुकृति नहीं मालूम पड़ते.

प्रेमेन्द्र मित्र और परशुराम की दो कहानियों को मिला कर बनाई फिल्म ‘कापुरुष ओ महापुरुष‘ कृतिकार की उपलब्धियों का कीर्तिध्वज तो नहीं कहा जा सकता लेकिन केवल ‘कापुरुष‘ सत्यजित राय की कला के सर्वश्रेष्ठ अंशों में है. काव्यात्मक अंतर्दृष्टि और अद्वितीय तकनीक से राय ने फिल्म में लिरिकल यथार्थवाद पर अपनी पकड़ का परिचय दिया. कथानक की गति सत्यजित के स्वाभाविक शैथिल्य से कहीं ज्यादा तेज है. सेटिंग में स्वप्नशीलता है, फिर भी यथार्थवादी है.

सिने पटकथा लेखक अभिताभ राय, चाय बागानों के मालिक विमल गुप्ता, उनकी पत्नी और अभिताभ राय की भूतपूर्व प्रेमिका करुणा के चरित्र त्रिकोण में फंसी कहानी जिन्दगी के बहुत करीब है. ‘महापुरुष‘ एक अर्थ में पूर्व-कथा की प्रति-पराकाष्ठा है. विरंची बाबा की धूर्तता के कथा-तत्व से सत्यजित राय ने औसत निर्देशकों से कहीं ज्यादा सच्ची फिल्म निर्मित की है. फिर भी सत्यजित राय के सन्दर्भ में वह एक अनमने, अधूरे प्रयास का प्रतिफल मालूम पड़ती है. ‘महापुरुष‘ में कलात्मक आग्रह कुछ दब सा गया.

हावड़ा से दिल्ली जाने वाली डीलक्स ट्रेन में घटी कहानी का दूसरा नाम है ‘नायक.‘ आधुनिक जीवन की विडंबना के प्रतीक पात्रों की स्वार्थपरक, व्यवसायी प्रवृत्तियों को सत्यजित राय ने अपनी फिल्म-कथा में छोटी छोटी घटनाओें के संग्रहण से उभारा है. ऐसा करने में कैमरा-कोणों की और प्रयोजन पूर्व लिये गये कुछ विशेष ‘शॉटों‘ की मदद ली है. आधुनिक जीवन की विसंगतियों के ये प्रतिनिधि पात्र कई बार राय की अतिरिक्त सतर्कता के कारण प्रभावरहित या ज्यादा कलात्मक हो जाते हैं. कौंध या बिम्ब की तरह उभरते है, लेकिन कोई समग्र प्रभाव नहीं पड़ता.

‘प्रतिद्वंद्वी‘ में सत्यजित ने समकालीन कलकत्ता की भागती दौड़ती तेज जिन्दगी के बीच बहुत चीजों को पकड़ा है. एक मध्यवर्गीय परिवार की आशंकाओं, चुनौतियों और समस्याओं के सन्दर्भ का कुशल फिल्मांकन औसत सर्वहारा जिन्दगी में भी कविता ढूंढ़ लेता है. बाल्यकाल के प्रति सत्यजित की संवेदनशीलता स्मृत्यवर्तन (फ्लैश बैक) के बार बार कौंधने से साबित हो जाती है. औसत और साधारण को अर्थवान बनाना औसत और साधारण आदमी का काम नहीं है. महानगर की भोगी जिन्दगी की तल्ख हकीकत का अहसास इस फिल्म की असली उपलब्धि है.

‘अरण्येर दिनरात्रि‘ और ‘गोपी गायन बाघा बायन‘ को आलोचना सहनी पड़ी. सत्यजित पर पिटे-पिटाए हल्के-फुल्के, व्यावसायिक नुस्खे अपनाने का आरोप लगा. ‘पारस पाथर‘ जैसी फिल्म सत्यजित को नहीं बनाना था. यही गलती ‘कांचनजंघा‘ में भी हुई. नामी कलाकारों से लैस ‘चिड़ियाखाना‘ ने भी सत्यजित के निर्देशन को नये अर्थ और प्रतिमान प्रदान नहीं किये. उन्होंने खुद माना कि ‘चिड़ियाखाना मेरी एक घटिया फिल्म है.‘

‘क्या सत्यजित राय की संभावनाएं चुक रही थीं ?’ एक विवादास्पद लेख में प्रभात मुखर्जी ने ऐसे संकेत उभारने की कोशिश की है. कला के स्खलन की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा है कि सत्यजित में कलात्मक चेतना के प्रति सजगता का क्रमिक लोप होता गया है और उसकी जगह प्रयोगधर्मिता के आग्रह ने ले ली है. खास ऊंचाई पर जाकर भी सत्यजित पीड़ित मानवता के प्रति अपनी हमदर्दी जतलाते हैं. उनकी व्यवस्था को स्वयं भोगते नहीं लगते. ‘अरण्येर दिनरात्रि‘ में डाकबंगले के चैकीदार की बीमार पत्नी के प्रति नायक (सौमित्र चटर्जी) की उदासीनता पर किये गये व्यंग्य और इसी फिल्म में लाखा को अपने अपमान का बदला लेते हुए देख कर यह आशंका हो रही थी कि राय अपनी ‘खास ऊंचाई‘ से नीचे उतर रहे थे.

यथार्थवाद पर पकड़ के बावजूद उनका ‘जीवन‘ से अलगाव होता गया था. सत्यजित राय के लिये शायद ‘मनुष्य‘- उसकी भावनाएं, संवेदनाएं, अनुभूतियां आदि उसके परिवेश से कहीं अधिक महत्वपूर्ण और अर्थवान हो उठी थी. इस तरह उनमें फिल्म जैसी सशक्त लोक-विधा के प्रतिनिधि होने के बावजूद सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना के प्रति उदासीनता साफ दीख रही थी. ‘महानगर‘ जैसी फिल्में यद्यपि अपवाद हैं. फिर भी बेखबर सत्यजित राय ऊबड़खाबड़पन भरे जन जीवन में कविता की तलाश में एकजुट रहे हैं.

आरोपों और प्रश्नों की बौछार के बावजूद सत्यजित राय का यश अक्षुण्ण है. वे भारतीय फिल्मों के युग निर्माता के रूप में अमर हैं. उनकी अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति भारत की राष्ट्रीय उपलब्धि है. उनकी फिल्मों में बौद्धिकता का संस्पर्श है और मानव-मूल्यों के द्वंद्व का अनोखा प्रतीकात्मक चित्रण भी. उनकी फिल्में बंगाल की, इसलिये भारत की, इसलिये विश्व की मौजूदा मूल्यों से जूझती जिन्दगी का शानदार आईना हैं. सत्यजित राय के बिना भारतीय फिल्म उद्योग का इतिहास असंभव रहेगा.

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