अग्नि आलोक
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दौर-ए-इलेक्शन

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दौर-ए-इलेक्शन में
कहां कोई इंसान नज़र आता है ?
कोई हिंदू, कोई मुसलमान
कोई ब्राह्मण
तो कोई शूद्र नज़र आता है

बीत जाता है जब
इलाक़ों से इलेक्शन का दौर
तब हर इंसान
रोज़ी-रोटी के लिए
परेशान नज़र आता है

हमारे पास पैसे नहीं
बढ़ी दाढ़ी बनवाने के लिए
वो दाढ़ी बढ़ा लेते है
शौक़-ए-फ़क़ीरी के लिए

अजब फ़क़ीरी है
इलेक्शन से पहले जो
मोरों को
दाना चुगाया करते थे
इलेक्शन के बाद
मोरपंखी माला
गले में डाले नज़र आते हैं

वाह ! क्या बाजीगरी है
सारे शहर को आग लगाकर
मुल्क़ के चौकीदार
रोशनी का दावा करने लगे हैं

कुछ तो ख़ासियत है
यहां गण की
कुछ तो बात है
इस करामाती तंत्र में

सचमुच कमाल का है
मेरा यह गणतंत्र
वोट देता हूं फ़कीरों को
कमबख़्त शहंशाह बन जाते है
और हम, हर बार
वहीं के वहीं रह जाते हैं

रह जाते हैं हम
अगली बार फिर से
सिर्फ़ उंगली रंगाने के लिए

नए फ़कीरों को
आबा-बाबाओं को
अनपढ़ ज़ाहिल-गंवार
रंगे सियारों को
फिर से,
शहंशाह बनाने के लिए ।

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