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ध्यान : जीते हुए मरकर देखो या चूसना सीखो

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शिव प्रणीत रमण महर्षि, मेहर बाबा, कृष्णमूर्ति और हमारे द्वारा प्रयुक्त विधि)

      *~डॉ. विकास मानव*

सूत्र : मृतवत लेट रहो। क्रोध से क्षुब्ध होकर भी उसमें ठहरे रहो। या पुतलियों को घुमाए बिना एकटक घूरते रहो। या कुछ चूसो और चूसना ही बन जाओ।

    प्रयोग करो कि आप एकाएक मर गए हो। शरीर को छोड़ दो, क्योंकि मर गए हो। बस कल्पना करो कि मैं मृत हूं, मैं शरीर को नहीं हिला सकता हूं, आंख भी नहीं हिला सकता हूं मैं चीख भी नहीं सकता हूं, मैं रो भी नहीं सकता हूं, मैं कुछ भी नहीं कर सकता हूं, मैं मरा हुआ हूं।

     तब देखो कि कैसा लगता है। लेकिन अपने को धोखा मत दो। शरीर को थोड़ा हिला सकते हो। नहीं, हिलाओ नहीं। यदि मच्छर भी आ जाए तो भी शरीर को मृत ही समझो। यह सबसे अधिक उपयोग की गई विधि है।

रमण महर्षि इसी विधि से ज्ञान को उपलब्ध हुए थे। लेकिन यह उनके इस जन्म की विधि नहीं थी। इस जन्म में तो अचानक सहज ही यह उन्हें घटित हो गई। लेकिन जरूर उन्होंने किसी पिछले जन्म में इसकी सतत साधना की होगी। अन्यथा सहज कुछ भी घटित नहीं होता है। प्रत्येक चीज का कार्य—कारण संबंध रहता है।

     जब वे केवल चौदह या पंद्रह वर्ष के थे, एक रात अचानक रमण को लगा कि मैं मरने वाला हूं। उनके मन में यह बात बैठ गई कि मृत्यु आ गई है। वे अपना शरीर भी नहीं हिला सकते थे। उन्हें लगा कि मुझे लकवा मार गया है। फिर उन्हें अचानक घुटन महसूस हुई और वे जान गए कि उनकी हृदय—गति बंद होने वाली है। वे चिल्ला भी नहीं सके, बोल भी नहीं सके कि मैं मर रहा हूं।

कभी—कभी किसी दुःस्वप्न में ऐसा होता है कि जब आप न चिल्ला पाते हो और न हिल पाते हो। जागने पर भी कुछ क्षणों तक  कुछ नहीं कर पाते हो। यही हुआ।

    रमण को अपनी चेतना पर तो पूरा अधिकार था, लेकिन अपने शरीर पर बिलकुल नहीं। वे जानते थे कि मैं हूं चेतन हूं सजग हूं; लेकिन मैं मरने वाला हूं। यह निश्चय इतना घना था कि कोई विकल्प भी नहीं रहा। इसलिए उन्होंने सब प्रयत्न छोड़ दिए। उन्होंने आंखें  बंद कर लीं और मृत्यु की प्रतीक्षा करने लगे।

      धीरे— धीरे उनका शरीर सख्त हो गया। शरीर मर गया। लेकिन एक समस्या उठ खड़ी हुई। वे जान रहे थे कि शरीर नहीं है, लेकिन मैं तो हूं। वे जान रहे थे कि मैं जीवित हूं और शरीर मर गया है। फिर वे उस स्थिति से वापस आए। सुबह में शरीर भी स्वस्थ था। लेकिन वही आदमी नहीं लौटा था जो मृत्यु के पूर्व था, क्योंकि उसने मृत्यु को जान लिया था।

     अब रमण ने एक नए लोक को देख लिया था, चेतना के एक नए आयाम को जान लिया था। उन्होंने घर छोड़ दिया। उस मृत्यु के अनुभव ने उन्हें पूरी तरह बदल दिया। वे इस युग के बहुत थोड़े से प्रबुद्ध पुरुषों में हुए।

यही विधि है जो रमण को सहज घटित हुई। लेकिन आपको यह सहज ही नहीं घटित होने वाली है। प्रयोग करो तो यह सहज हो सकती है। प्रयोग करते हुए भी यह घटित हो सकती है। यदि नहीं घटित हुई तो भी प्रयत्न कभी व्यर्थ नहीं जाता है।

     यह प्रयत्न आप में रहेगा, भीतर बीज बनकर रहेगा। कभी जब उपयुक्त समय होगा और वर्षा होगी, यह बीज अंकुरित हो जाएगा।

     सब की सहजता की यही कहानी है. किसी काल में बीज बो दिया गया था, लेकिन ठीक समय नहीं आया था और वर्षा नहीं हुई थी। किसी दूसरे समय तैयार होता है. आप अधिक प्रौढ़, अधिक अनुभवी होते हो, और संसार से उतने ही निराश होते हो, तब किसी विशेष स्थिति में वर्षा होती है और बीज फूट निकलता है।

मृतवत लेट रहो। क्षुब्ध होकर उसमें ठहरे रहो। निश्चय ही जब मर रहे हो तो वह कोई सुख का क्षण नहीं होगा। वह आनंदपूर्ण नहीं हो सकता. जब आप देखते हो कि मर रहे हो। भय पकड़ेगा, मन में क्रोध उठेगा, या विषाद, उदासी, शोक, संताप, कुछ भी पकड़ सकता है। व्यक्ति—व्यक्ति में फर्क होगा।

    अगर आप को क्रोध घेरे तो उसमें ही स्थित रहो; अगर उदासी घेरे तो उसमें भी। भय, चिंता, कुछ भी हो, उसमें ही ठहरे रहो, डटे रहो।  मर गए हो, फिर क्या कर सकते हो? इसलिए वैसे के वैसे स्थिर रहो। जो भी मन में हो, उसे वैसा ही रहने दो, क्योंकि शरीर तो मर चुका है।

यह ठहरना बहुत सुंदर है। अगर आप कुछ मिनटों के लिए भी ठहर गए तो पाओगे कि सब कुछ बदल गया। लेकिन हम हिलने लगते हैं। यदि मन में कोई आवेग उठता है तो शरीर हिलने लगता है। उदासी आती है तो भी शरीर हिलता है। इसे आवेग इसीलिए कहते हैं कि यह शरीर में वेग पैदा करता है।

      मृतवत महसूस करो और आवेगों को शरीर हिलाने की इजाजत मत दो। वे भी वहां रहें और आप भी ठहरे रहो—स्थिर, मृतवत। कुछ भी हो, पर हलचल नहीं हो, गति नहीं हो। बस, ठहरे रहो। या पुतलियों को घुमाए बिना एकटक घूरते रहो। या पुतलियों को घुमाए बिना एकटक घूरते रहो.

मेहर बाबा वर्षों वे अपने कमरे की छत को घूरते रहे, निरंतर ताकते रहे। वर्षों वे जमीन पर मृतवत पड़े रहे और पुतलियों को, आंखों को हिलाए बिना छत को एकटक देखते रहे। ऐसा वे लगातार घंटों बिना कुछ किए घूरते रहते थे, टकटकी लगाकर देखते रहते थे।

   आंखों से घूरना अच्छा है, क्योंकि उससे आप फिर तीसरी आंख में स्थिर हो जाते हो। और एक बार तीसरी आंख में घिर हो गए तो चाहने पर भी  पुतलियों को नहीं घुमा सकते। वे भी थिर हो जाती हैं—अचल।

      मेहर बाबा इसी घूरने के जरिए उपलब्ध हो गए। आप कहते हो कि इन छोटे—छोटे अभ्यासों से क्या होगा!  मेहर बाबा लगातार तीन वर्षों तक बिना कुछ किए छत को घूरते रहे थे। आप सिर्फ तीन मिनट के लिए ऐसी टकटकी लगाओ और लगेगा कि तीन वर्ष गुजर गए। तीन मिनट भी बहुत लंबा समय मालूम पडेगा। लगेगा कि समय ठहर गया है और घड़ी बंद हो गई है।

    लेकिन मेहर बाबा घूरते ही रहे, घूरते ही रहे। धीरे— धीरे विचार मिट गए, गति बंद हो गई और मेहर बाबा मात्र चेतना रह गए। वे मात्र घूरना बन गए, टकटकी बन गए। तब वे आजीवन मौन रह गए। टकटकी के द्वारा वे अपने भीतर इतने शांत हो गए कि उनके लिए फिर शब्द—रचना असंभव हो गई।

   एक बार मेहर बाबा अमेरिका में थे। वहां एक आदमी था जो दूसरों के विचार को, मन को पढ़ना जानता था। और वास्तव में वह आदमी दुर्लभ था—मन के पाठक के रूप में।

   वह आपके सामने बैठता, आंखें  बंद कर लेता और कुछ ही क्षणों में वह आपके साथ ऐसा लयबद्ध हो जाता कि आप जो भी मन में सोचते, वह उसे लिख डालता था। हजारों बार उसकी परीक्षा ली गई थी, और वह सदा सही साबित हुआ था।

     कोई उसे मेहर बाबा के पास ले आया। वह बैठा और विफल रहा। यह उसकी जिंदगी की पहली विफलता थी। एक ही। फिर हम यह भी कैसे कहें कि यह उसकी विफलता हुई!

    वह आदमी घूरता रहा, घूरता रहा, और तब उसे पसीना आने लगा। लेकिन एक शब्द भी उसके हाथ नहीं लगा। हाथ में कलम लिए बैठा रहा और फिर बोला—किस किस्म का आदमी है यह! मैं नहीं पढ पाता हूं क्योंकि पढ़ने के लिए कुछ है ही नहीं। यह आदमी तो बिलकुल खाली है। मुझे यह भी याद नहीं रहता कि कोई यहां बैठा है। आंख बंद करने के बाद मुझे बार—बार यह देखने के लिए आंखें  खोलनी पड़ती हैं कि यह व्यक्ति यहां है कि यहां से हट गया है। मेरे लिए एकाग्र होना भी कठिन हो गया, क्योंकि ज्यों ही मैं आंख बंद करता हूं कि मुझे लगता है कि धोखा दिया जा रहा है, वह व्यक्ति यहां से हट गया है। मेरे सामने कोई भी नहीं है। और जब मैं आंख खोलता हूं तो उनको सामने ही पाता हूं। वह तो कुछ भी नहीं सोच रहा है। उस टकटकी ने, सतत टकटकी ने मेहर बाबा के मन को पूरी तरह विसर्जित कर दिया था।

    क्रोध से क्षुब्ध होकर उसमें ठहरे रहो : केवल यह अंश भी एक विधि बन सकता है। क्रोध में हो; लेटे रहो और क्रोध में स्थित रहो, पड़े रहो। इससे हटो नहीं, कुछ करो नहीं। स्थिर पडे रहो।

    कृष्णमूर्ति इसी की चर्चा किए चले जाते हैं। उनकी पूरी विधि इस एक चीज पर निर्भर है ‘क्रोध से क्षुब्ध होकर उसमें ठहरे रहो।’ यदि आप क्रुद्ध हो तो क्रुद्ध होओ और क्रुद्ध रहो, उससे हिलो नहीं, हटो नहीं। अगर वैसे ठहर सको तो क्रोध चला जाता है। आप दूसरे आदमी होकर उससे निकलोगे। एक बार  क्रोध को उससे आंदोलित हुए बिना देख लो तो  उसके मालिक हो गए।

पुतलियों को घुमाए बिना एकटक घूरते रहो। या कुछ चूसो और चूसना बन जाओ। यहां जरा सा रूपांतरण है। कुछ भी काम दे देगा। आप मर गए, यही काफी है। यह अंतिम विधि शारीरिक है और प्रयोग में सुगम है।

      क्योंकि चूसना पहला काम है जो कि कोई बच्चा करता है। चूसना जीवन का पहला कृत्य है। बच्चा जब पैदा होता है तब वह पहले रोता है। आप ने यह जानने की कोशिश नहीं की होगी कि बच्चा क्यों रोता है। सच में वह रोता नहीं है, वह रोता हुआ मालूम पड़ता है। वह सिर्फ हवा को पी रहा है, चूस रहा है। अगर वह नहीं रोए तो मिनटों के भीतर वह मर जाएगा। क्योंकि रोना हवा लेने का पहला प्रयत्न है। जब वह पेट में था, बच्चा श्वास नहीं लेता था। बिना श्वास लिए वह जीता था। वह वही प्रक्रिया कर रहा था, जो भूमिगत समाधि लेने पर योगीजन करते हैं। वह बिना श्वास लिए प्राण ‘को ग्रहण कर रहा था—मां से शुद्ध प्राण ही ग्रहण कर रहा था।

      यही कारण है कि मां और बच्चे के बीच जो प्रेम है, वह और प्रेम से सर्वथा भिन्न होता है। क्योंकि शुद्धतम प्राण दोनों को जोड़ता है। अब ऐसा फिर कभी नहीं होगा। उनके बीच एक सूक्ष्म प्राणमय संबंध था। मां बच्चे को प्राण देती थी, बच्चा श्वास तक नहीं लेता था।

     लेकिन जब वह जन्म लेता है, तब वह मां के गर्भ से उठाकर एक बिलकुल अनजानी दुनिया में फेंक दिया जाता है। अब उसे प्राण या ऊर्जा उस आसानी से उपलब्ध नहीं होगी, उसे स्वयं ही श्वास लेनी होगी।

    उसकी पहली चीख चूसने का पहला प्रयत्न है। उसके बाद वह मां के स्तन से दूध चूसेगा। ये बुनियादी कृत्य हैं जो आप करते हो। बाकी सब काम बाद में आते हैं। जीवन के वे बुनियादी कृत्य हैं, और प्रथम कृत्य। उनका अभ्यास भी किया जा सकता है। यह सूत्र कहता है :  कुछ चूसो और चूसना बन जाओ।

किसी भी चीज को चूसो। हवा को ही चूसो, लेकिन तब हवा को भूल जाओ और चूसना ही बन जाओ। इसका अर्थ क्या हुआ? आप कुछ चूस रहे हो, इसमें आप चूसने वाले हो, चोषण नहीं। यह सूत्र कहता है कि पीछे मत खड़े रहो, कृत्य में भी सम्मिलित हो जाओ और चोगा बन जाओ।

      किसी भी चीज से प्रयोग कर सकते हो। अगर दौड़ रहे हो तो दौड़ना ही बन जाओ और दौडने वाले न रहो। दौडना बन जाओ, दौड़ बन जाओ और दौड़ने वाले को भूल जाओ। अनुभव करो कि भीतर कोई दौडने वाला नहीं है, मात्र दौड़ने की प्रक्रिया है। सरिता जैसी प्रक्रिया। भीतर कोई नहीं है, भीतर सब शांत है। और केवल यह प्रक्रिया है।

     चूसना, चोषण अच्छा है। लेकिन तुमको यह कठिन मालूम पड़ेगा, क्योंकि हम इसे बिलकुल भूल गए हैं। यह कहना भी ठीक नहीं है कि बिलकुल भूल गए हैं, क्योंकि उसका विकल्प तो निकालते ही रहते हैं।

      मां के स्तन की जगह प्रेमिका, पत्नि का स्तन ले लेता है और स्त्री के लिए पेनिस. होसियार कामुक स्त्रियां पेनिस के डिस्चार्ज होने यानी वीर्य पी जाने के बाद भी आहिस्ता आहिस्ता ही सही पेनिस चूसती रहती हैं. यूँ 15-20 मिनट में वह फिर स्खलित होने लायक बन जाता है. अति कामुक स्त्रियां तो घंटो यह करती रहती हैं. कभी स्तन की यह जगह सिगरेट ले लेती है और आप उसे चूसते रहते हो। मानो यह स्तन ही है, मां का स्तन, मां का चुचुक। जो गर्म धुआं निकलता है वह मां का गर्म दूध है।

     इसलिए छुटपन में जिनको मां के स्तन के पास उतना नहीं रहने दिया गया, जितना वे चाहते थे, वे पीछे चलकर धूम्रपान करने लगते हैं। यह विकल्प है। विकल्प से भी काम चल जाएगा। इसलिए अगर सिगरेट पीते हो तो धूम्रपान ही बन जाओ। सिगरेट को भूल जाओ, पीने वाले को भूल जाओ और धूम्रपान ही बने रहो।

   एक विषय है जिसे चूसते हो, एक विषयी है जो चूसता है, और उनके बीच चूसने की, चोगा की प्रक्रिया है। आप चोषण बन जाओ, प्रक्रिया बन जाओ। इसे प्रयोग करो। पहले कई चीजों से प्रयोग करना होगा और तब  जानोगे कि आपके लिए क्या चीज सही है।

 पानी पी रहे हो। ठंडा पानी भीतर जा रहा है।  पीना बन जाओ। पानी न पीओ। पानी को भूल जाओ, अपने को भूल जाओ, अपनी प्यास को भी, और मात्र पीना बन जाओ। प्रक्रिया में ठंडक है, स्पर्श है, प्रवेश है, और पीना है—वही सब बने रहो। क्यों नहीं? क्या होगा? यदि चोषण बन जाओ तो क्या होगा?

   यदि चोगा बन जाओ तो निर्दोष हो जाओगे—ठीक वैसे जैसे प्रथम दिन जन्मा हुआ शिशु होता है। क्योंकि वह प्रथम प्रक्रिया है। एक तरह से आप पीछे की ओर यात्रा करेंगे।

    उसकी ललक, लालसा भी तो है। आदमी का पूरा अस्‍तित्‍व उस स्तनपान के लिए तड़पता है। उसके लिए वह कई प्रयोग करता है, लेकिन कुछ भी काम नहीं आता। क्योंकि वह बिंदु ही खो गया है। जब तक आप चूसना नहीं बन जाते, तब तक कुछ भी काम नहीं आएगा। इसलिए इसे प्रयोग में लाओ।

     यह बिलकुल स्वाभाविक है, क्योंकि मां का स्तन ही जगत के साथ आदमी का पहला परिचय बनता है। यह बुनियादी है। जगत के साथ पहला संपर्क मां का स्तन बनता है। यही कारण है कि स्तन में इतना आकर्षण है, स्तन इतना सुंदर लगता है, उसमें एक चुंबकीय शक्ति है।

     वह चुंबकीय शक्ति आपके अचेतन से आती है। वह पहली चीज है जिसके साथ आप संपर्क में आए। यह संपर्क मधुर था, बहुत मधुर। यह सुंदर लगा। इसी ने भोजन दिया, शक्ति दी, प्रेम दिया, सब कुछ दिया। यह संपर्क कोमल, ग्रहणशील और निमंत्रण जैसा था। और यह मनुष्य के मन में सदा वैसा ही बना रहा है।

     आंखें  बंद कर लो और अपनी मां का स्तन याद करो या और कोई स्तन जो पसंद हो, कल्पना करो और ऐसे चूसना शुरू करो कि यह असली स्तन है। शुरू करो। एक दिन होंठों से समझ नहीं सकते कि वह कुछ कर रहा है। लेकिन अंदर में चूसना जारी रहेगा। 

     इसे प्रयोग में लाओ। चूसो और चूसना बन जाओ। यह बहुतों के लिए उपयोगी होगा, क्योंकि यह आधारभूत है।

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