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स्त्री के पुरातन दुखों का संसार

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नीलम ज्योति

 आज थोड़ा स्त्रियों के पुरातन दुखों के संसार में चलते हैं, जहाँ आम स्त्री के गहन प्यार का वितान है, आततायी, निर्मम सत्ताधारी वर्ग है और उस सत्ताधारी वर्ग के सुख-आनंद की खातिर प्यार की उस दुनिया के विनाश की त्रासद कथा है.
   यह भोजपुरी क्षेत्र के पुराने लोकगीतों की दुनिया है जहाँ एक हिरन और हिरनी की कथा के माध्यम से यह दर्शाया गया है कि सत्ता अपनी प्रकृति से प्यार और मनुष्यता की शत्रु होती है और आम लोगों के अगाध शोक की अंधकारमय पृष्ठभूमि में ही उनके आनंदोत्सव जगमगाते हैं.
  यह लोकगीत सोहर की शैली या विधा में है. सोहर प्रायः पुत्र-जन्म या छट्ठी-बरही के अवसर पर गाये जाते हैं, पर यह भी स्त्री-मानस की एक विशिष्टता ही है कि वह आनंद के अवसरों पर भी गाये जाने वाले गीतों में कई बार अपने ह्रदय की सारी पीड़ा और करुणा उड़ेलकर रख देती है.
 स्त्री आनंद के समय भी अपने दुखों को याद करती है, इस आत्मपीड़क अनुष्ठान के रहस्य को स्त्रियों के अंतर्जगत और बहिर्जगत की बहुपरती संरचना को समझकर ही समझा जा सकता है.

जो मित्रगण भोजपुरी से परिचित नहीं हैं, उनकी सुविधा के लिए इस सोहर का अर्थ भी बताते चलते हैं.
घने पत्तों वाला छोटा सा ढाक का एक पेड़ है, जिसके नीचे हिरनी खड़ी है. उसका मन बहुत उदास या अनमना सा है.
चरते-चरते हिरन हिरनी की उदासी को देखकर उसका कारण पूछता है,”हे हिरनी, तुम इतनी उदास क्यों हो ? क्या तुम्हारा चरागाह सूख गया है या तुम पानी बिना इस तरह मुरझा गयी हो ?”
हिरनी कहती है, “हे प्रिय, न तो चरागाह ही सूखा है और न ही मैं पानी बिना मुरझा रही हूँ. बात कुछ और है| आज राजाजी के यहाँ उनके पुत्र की छट्ठी है. वे आज तुम्हें मार डालेंगे.”

इसके आगे वैसा ही होता है, इसके संकेत गीत की आगे की पंक्तियों से मिल जाता है.
गीत में अब अगला दृश्य आता है :
कौशल्या रानी मचिया पर बैठी हुई हैं. हिरनी उनसे विनती कर रही है, “हे रानी, हिरन का मांस तो आपकी रसोई में सीझ ही रहा है.
आपसे एक विनती है, हिरन की खाल ही हमें दिलवा दीजिए | मैं उसे पेड़ पर टांगूँगी और हेर-फेरकर देखा करूँगी और अपने मन को समझाऊँगी मानो मेरा हिरन अभी भी जीवित है.”
इसपर कौशल्या रानी हिरनी को फटकारते हुए कहती हैं,”जाओ हिरनी, अपने घर जाओ. हिरन की खाल मैं तुम्हें नहीं दूँगी. इस खाल से खंजड़ी मढ़ी जाएगी. इसे मेरे बेटे राम बजाएंगे और इससे खेलेंगे.

निराश-असहाय हिरनी लौट जाती है.
जब-जब खंजड़ी बजती है, उसकी आवाज़ सुनकर हिरनी के कलेजे में टीस उठती है. वह उसी ढाक के पेड़ के नीचे जाकर खड़ी हो जाती है और हिरन को याद कर-करके बिसूरने लगती है.
छापक पेड़ छिउलिया तौ पतवन गहवर हो,
ललना तेहि तर ठाढ़ि हिरनिया त मन अति अनमनि हो।
चरतइ चरत हरिनवां तौ हरिनी से पूछइ हो,
हरिनी, की तोर चरहा झुरान कि पानी बिन मुरझिउं हो।
नाहीं मोर चरहा झुरान न पानी बिन मुरझिउं हो,
हरिना आज राजा जी के छट्ठी तुम्हहिं मारि डरिहइं हो।
मचियाहिं बैठी कौसिल्ला रानी हिरनी अरज करइ हो,
रानी मसवा तौ सिझहीं रसोइया खलरिया मोहिके देतिउ हो।
पेड़वा से टंगबइ खलरिया तौ मन समझाइब हो,
रानी हेरि फेरि देखबइ खलरिया जनुक हिरना जीतइ हो।
जाहु जाहु हिरनी घर अपने खलरिया नाहीं देबइ हो,
हिरनी खलरी कै खंजड़ी मढ़ाइब त राम मोर खेलिहइं हो।
जब-जब बाजइ खंजड़िया सबद सुनि अनकइ हो,
हरिनी ठाढ़ि ढ़कुलिया के नीचे हरिन क बिसूरइ हो। (चेतना विकास मिशन).

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