राजेंद्र शर्मा*
नरेंद्र मोदी के राज के नौ साल की एक अनोखी उपलब्धि है। कथनी और करनी में अंतर तो संभवत: हरेक राज में ही होता है, पर मोदी राज में इस अंतर को बढ़ाते-बढ़ाते इतनी ऊंचाई पर पहुंचा दिया गया है, जहां कथनी और करनी विरोधी ध्रुव ही बन गए हैं। मोदी राज जो करता है, उससे ठीक उल्टा बोलता है। हैरानी की बात नहीं है कि मौजूदा राज की कथनी और करनी का यह बैर, नये संसद भवन के कथित लोकार्पण (वास्तव में गृह प्रवेश) के मौके पर, सामान्य से भी ज्यादा मुखर रूप से देखने को मिल रहा था। बाईस विपक्षी पार्टियों के विरोध तथा अंतत: बहिष्कार के बावजूद और राष्ट्रपति का साफ तौर पर अनादर करते हुए तथा तमाम संसदीय नियम-कायदों को सत्ता के मद में पांवों तले कुचलते हुए, प्रधानमंत्री मोदी ने, हठपूर्वक खुद ही नये संसद भवन का उद्घाटन किया। इसके ऊपर से इस लंबे आयोजन के पूरे के पूरे पूर्वार्द्घ को पूजापाठ का ऐसा सरकारी आयोजन बनवा दिया गया, जिसकी हमारे संविधान के हिसाब से धर्मनिरपेक्ष राज्य के सात दशक से ज्यादा के इतिहास में, अगर दूसरे किसी आयोजन से तुलना की जा सकती है, तो वह है राममंदिर के ”शिलापूजन” का प्रधानमंत्री मोदी का ही आयोजन।
बहरहाल, नये संसद भवन के उद्घाटन के नाम पर, संविधान की भावना ही नहीं, प्रावधानों के भी जिस खुले उल्लंघन को नये नार्म के तौर स्थापित किया गया है, उसके निहितार्थों पर हम जरा आगे चर्चा करेंगे। यहां तो हम सिर्फ एक गहरी विडंबना को ध्यान में लाना चाहेंगे कि ठीक उस समय जब प्रधानमंत्री, अपने ही निर्णय से निर्मित तथा अपने कर-कमलों से शिलान्यासित तथा तभी-तभी उद्घाटित, नये संसद भवन में स्वतंत्रता सेनानियों के सपने पूरे करने का दावा कर रहे थे, ठीक उसी समय सीधे उनके ही राज द्वारा नियंत्रित दिल्ली पुलिस, नये संसद भवन से मुश्किल से डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर, देश के अनेक जाने-माने, अंतर्राष्ट्रीय पदक विजेता पहलवानों को जबरन हिरासत में लेकर, घसीट-घसीटकर वाहनों में भर रही थी। लेकिन, क्यों? क्योंकि देश के लिए पुरस्कार जीतने वाले ये पहलवान, जो नये संसद भवन के उद्घाटन की तारीख से पैंतीस दिन पहले से, संसद तथा शासन के सामने अपनी आवाज उठाने के लिए देश की राजधानी में प्रदर्शनों के लिए इंगित किए गए स्थान, जंतर-मंतर पर भीषण गर्मी-बारिश झेलते हुए लगातार धरने पर बैठे हुए थे, किसानों तथा अन्य संगठनों के नये संसद भवन के सामने, महिला महापंचायत आयोजित करने के आह्वान पर, उस कार्रवाई में शामिल होने के लिए जा रहे थे।
और इस महिला पंचायत का आयोजन किसलिए किया गया था? महिला पंचायत का आयोजन इस उम्मीद में किया गया था कि शायद, नयी संसद के बाहर आयोजित महिला पंचायत की आवाज ही, देश के शासकों यानी मोदी राज के कानों तक पहुंच जाए और उन्हें महिला पहलवानों की शिकायतों पर कुछ करने का ख्याल आ जाए। यह सभी जानते हैं कि किस तरह अनेक महिला पहलवानों ने, भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष पद पर बैठे, भाजपा सांसद ब्रजभूषण शरण सिंह पर, जो हत्या से लेकर तस्करी के नैटवर्क तक, दर्जनों मामलों में आरोपित कुख्यात हिस्ट्रीशीटर रहा है, यौन उत्पीड़न/ प्रताड़ना समेत बदसलूकी के गंभीर आरोप लगाए हैं। इस साल के शुरू में जब, इन मैडल विजेता पहलवानों के जंतर-मंतर पर ही धरने के साथ, पहली बार ये शिकायतें सार्वजनिक हुई थीं, मोदी सरकार के गंभीरता से तथा त्वरित जांच कराने तथा कड़ी कार्रवाई करने के आश्वासन के बाद, हफ्ते भर से कम में ही आंदोलनकारी पहलवान वापस भी लौट गए थे।
बहरहाल, तीन महीने के इंतजार के बाद, जब यह साफ दिखाई देने लगा कि जांच के नाम पर सिर्फ लीपा-पोती की जा रही थी और शिकायतों की सारी गंभीरता के बावजूद मोदी निजाम, बाहुबली भाजपा सांसद के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए तैयार ही नहीं था, उल्टे शासन शिकायतकर्ताओं को डराने-धमकाने और चुप कराने में ही मदद कर रहा था, आंदोलनकारी पहलवानों ने एक बार फिर दिल्ली का रुख किया। उन्होंने दिल्ली में, जहां भारतीय कुश्ती संघ की सुविधाएं स्थित हैं तथा आरोपी सांसद का आवास भी है, पुलिस थाने में यौन उत्पीड़न की अपनी शिकायतें दर्ज करायीं और पुलिस के एफआइआर दायर करने में टाल-मटोल करने पर, एक बार फिर जंतर-मंतर पर धरने पर बैठ गए।
पहलवानों के दोबारा धरना शुरू करने के बाद भी, पूरे सात दिन बाद ही उनकी शिकायतों की एफआइआर दर्ज हो पायी और वह भी शिकायतकर्ता पहलवानों के इस सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने और सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप करने के बाद। सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से पहले तक तो सीधे मोदी निजाम द्वारा नियंत्रित दिल्ली पुलिस, आरोपों की सारी गंभीरता के बावजूद, एफआइआर से पहले छानबीन करने का ही बहाना बना रही थी। वैसे हैरानी की बात नहीं है कि एफआइआर दर्ज करने के बाद भी, शीर्ष पर बैठे अपने आकाओं के इशारे पर, दिल्ली पुलिस ने कछुआ चाल ही अपनाए रखी है और एफआइआर के हफ्तों बाद तक शिकायतकर्ताओं के मजिस्ट्रेटी बयान तक नहीं कराए गए थे और न ही आरोपी से कोई वास्तविक पूछताछ की गयी थी। दर्ज की गयी दो एफआइआर में, एक नाबालिग पहलवान लड़की के यौन उत्पीड़न की, पोस्को कानून के अंतर्गत शिकायत होने के बावजूद, ब्रजभूषण शरण की गिरफ्तारी तो दूर, उसके भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष पद तक से नहीं हटाए जाने से साफ था, मोदी राज महिला पहलवानों के सम्मान के साथ नहीं, अपने बाहुबली सांसद के बचाव के लिए ही खड़ा रहेगा।
आंदोलनकारी महिला पहलवानों तथा उनके समर्थकों के लिए अब न्याय हासिल करने का एक ही रास्ता था — आंदोलन के जरिए बढ़ता जनसमर्थन जुटाएं और मोदी निजाम को यह समझने के लिए मजबूर कर दें कि अपने दोषी सांसद का साथ देना, उसके लिए राजनीतिक-चुनावी पहलू से महंगा पड़ रहा हैै। जिन पहलवानों ने जनवरी में विपक्षी नेताओं को ‘आंदोलन को राजनीतिक नहीं बनाने’ का आग्रह करते हुए, वापस भेज दिया था, वे अब अपनी न्याय की लड़ाई में ‘हरेक से समर्थन’ की अपील कर रहे थे। उसके बाद से अनेकानेक राजनीतिक पार्टियों, किसान व महिला तथा युवा आदि अनगिनत जनसंगठनों, सामाजिक संगठनों और बहुत बड़ी संख्या में आम देशवासियों का, महिला पहलवानों की मोदी निजाम से न्याय की मांग को सक्रिय समर्थन मिला है और इसी समर्थन के बल पर, न सिर्फ जंतर-मंतर पर पहलवानों का धरना जारी रहा है तथा उसके साथ समर्थन जताने के लिए हर रोज हजारों लोग पहुंचते रहे हैं, बल्कि देश भर में महिला पहलवानों की न्याय की मांग के पक्ष में, हजारों जगहों पर प्रदर्शनों समेत, तरह-तरह की कार्रवाइयां हुई हैं। वास्तव में इसी व्यापक तथा बढ़ते हुए जनसमर्थन का दबाव था कि दो अलग-अलग मौकों पर पहलवानों को धरने की जगह से हटाने की कोशिश करने के बाद भी, दिल्ली पुलिस सवा महीने में उनका धरना नहीं हटा पायी थी।
बहरहाल, अब जब प्रधानमंत्री मोदी नये संसद भवन के उद्घाटन के बहाने से स्वतंत्रता सेनानियों के सपनों को साकार करने की लफ्फाजी कर रहे थे, ठीक उसी समय सीधे उनके राज द्वारा नियंत्रित दिल्ली पुलिस ने, न सिर्फ आंदोलनकारी पहलवानों तथा उनके समर्थकों के विरोध जताने के न्यूनतम जनतांत्रिक अधिकार को कुचलते हुए, उनके साथ बेजा जोर-जबर्दस्ती की, उनके खिलाफ सरकारी काम-काज में बाधा डालने आदि के नाम पर, खुद ही तुरत-फुरत एफआइआर भी दायर कर लीं। और उसके बाद, इससे भी आगे बढ़कर दिल्ली पुलिस ने यह एलान भी कर दिया कि जंतर-मंतर पर धरना स्थल खाली करा लिया गया है और अब पहलवान आंदोलनकारियों को वहां वापस नहीं जाने दिया जाएगा।
हां! अगर उनकी ओर से कोई प्रार्थना आती है, तो दिल्ली में कहीं और उन्हें धरना देने की इजाजत देने पर, पुलिस विचार कर सकती है! यौन उत्पीड़न के खिलाफ महिला पहलवानों की न्याय की लड़ाई को आज जितने व्यापक पैमाने पर समर्थन हासिल है, उसे देखते हुए मोदी राज की उन्हें जंतर-मंतर से हटाने की यह कोशिश अंतत: कितनी कामयाब हो पाएगी, यह तो वक्त ही बताएगा। फिर भी इतना साफ है कि मोदी राज ने, महिला पहलवानों के धरने को तोड़ने के लिए, नये संसद भवन के उद्घाटन के मौके का ”एडवांटेज” लेने की कोशिश की है। और यह किया गया है, स्वतंत्रता सेनानियों के सपनों को पूरा करने की लफ्फाजी और भारत के ‘जनतंत्र की जननी’ तथा ‘वैश्विक लोकतंत्र का आधार’ होने तक के हवाई दावों के शोर को बढ़ाते हुए।
हैरानी की बात नहीं है कि नये संसद भवन के उद्घाटन तथा संसद भवन में सेंगोल उर्फ राजदंड की स्थापना के कर्मकांड के जरिए, मोदी राज ने भारतीय जनतंत्र को राजशाही के तथा प्रधानमंत्री के पद को, राजा के पद के और नजदीक खिसका दिया है। याद रहे कि यह राजशाही भी, एक धर्म विशेष को राजधर्म मानकर चलने वाली राजशाही है। सेंगोल का ठीक इन्हीं दोनों तत्वों के योग के लिए, विशेष महत्व है। बेशक, जनतंत्र के संदर्भ में सेंगोल की कहानी में झोल ही झोल हैं। आखिर, यह कैसी सत्ता के हस्तांतरण का प्रतीक है? जाहिर है कि धर्म-आधारित सत्ता के हस्तांतरण का ही! और जनतंत्र में तो संप्रभुता नागरिकों में निवास करती है। जाहिर है कि इसे सत्ता का हस्तांतरण तो, राजशाही की व्यवस्था के संदर्भ ही माना जा सकता है।
मोदी राज ठीक ऐसे ही सत्ता के हस्तांतरण का रास्ता बना रहा है। लेकिन, यह रास्ता बनाया जा रहा है, चोरी-छुपे, रेंग-रेंगकर। इसके लिए सिर्फ एक उदाहरण काफी होगा। सेंगोल की स्थापना समेत, नयी संसद के उद्घाटन के कार्यक्रम का पूरा पूर्वार्द्घ, सब ने देखा कि कैसे शुद्घ धार्मिक पूजा-पाठ को समर्पित था। मगर श्रीमान 56 इंच कार्यक्रम के उत्तरार्द्घ के अपने संबोधन में, एक बड़े अर्द्घ-सत्य के जरिए इस सचाई पर पर्दा डालते ही नजर आए। उनके शब्द थे, ”आज सुबह ही, संसद भवन परिसर में, सर्वधर्म प्रार्थना सभा हुई।” जी हां, सिर्फ सर्वधर्म प्रार्थना सभा! हैरानी की बात नहीं है कि ऐसे ही चोरी-छिपे, सावरकर के जन्म दिन पर नये संसद भवन का उद्घाटन किया गया है।
*(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोक लहर’ के संपादक हैं।)*