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ध्यान : कल्पना से हक़ीक़त का मुकाम*

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      डॉ. विकास मानव 

  _सूत्र : कल्पना करो कि मयूर की पूछ के पंचरंगे वर्तुल निस्सीम अंतरिक्ष में आपकी पांच इंद्रियां हैं। अब उनके सौदर्य को भीतर ही घुलने दो। उसी प्रकार शून्य में या दीवार पर किसी बिंदु के साथ कल्पना करो जब तक कि वह बिंदु विलीन न हो जाए। तब दूसरे के लिए आपकी कामना सच हो जाएगी।_

       यह सूत्र भीतर के केंद्र को कैसे पाया जाए, इससे संबंधित हैं। उसके लिए जो बुनियादी तरकीब, जो बुनियादी विधि काम में लायी गयी है वह यह है कि आप अगर बाहर कहीं भी, मन में, हृदय में या बाहर की किसी दीवार में एक केंद्र बना सके और उस पर समग्रता से अपने अवधान को केंद्रित कर सके और उस बीच समूचे संसार को भूल सके और एक वही बिंदु आपकी चेतना में रह जाए, तो आप अचानक अपने आंतरिक केंद्र पर फेंक दिए जाओगे।

 यह प्रयोग कैसे काम करता है, इसे समझो :

  आपका मन एक भगोड़ा है, एक भाग—दौड़ ही है। वह कभी एक बिंदु पर नहीं टिकता है। वह निरंतर कहीं जा रहा है, गति कर रहा है, पहुंच रहा है। लेकिन वह कभी एक बिंदु पर नहीं टिकता है। वह एक विचार से दूसरे विचार की ओर, अ से ब की ओर यात्रा करता रहता है, लेकिन कभी वह अ पर नहीं टिकता है, कभी वह ब पर नहीं टिकता है। वह निरंतर गतिमान है।

      यह याद रहे कि मन सदा चलायमान है। वह कहीं पहुंचने की आशा तो करता है, लेकिन कहीं पहुंचता नहीं है। वह पहुंच नहीं सकता है। मन की संरचना ही गतिमय है। मन केवल गति करता है। वह मन का अंतर्भूत स्वभाव है। गति ही उसकी प्रक्रिया है। अ से ब को, ब से स को, वह चलता ही चला जाता है।

     अगर आप अ या ब या किसी बिंदु पर ठहर गए तो मन आप से संघर्ष करेगा। वह कहेगा कि आगे चलो। क्योंकि अगर रुक गए, तो मन तुरंत मर जाएगा। वह गति में रहकर ही जीता है। मन का अर्थ ही प्रक्रिया है। अगर  गति नहीं की,  रुक गए, तो मन अचानक समाप्त हो जाएगा। वह नहीं बचेगा, केवल चेतना बचेगी।

       चेतना आपका स्वभाव है। मन आपका कर्म है, चलने जैसा। इसे समझना कठिन है, क्योंकि हम समझते हैं कि मन कोई ठोस, वास्तविक वस्तु है। वह नहीं है। मन महज एक क्रिया है। यह कहना बेहतर होगा कि यह मन नहीं, मनन है। चलने की तरह यह एक प्रक्रिया है। चलना प्रक्रिया है, अगर आप रुक जाओ, तो चलना समाप्त है।

   आप तब नहीं कह सकते कि चलना बैठना है। रुक जाओ, तो चलना समाप्त है। रुक जाओ, तो चलना कहां है? चलना बद। पैर हैं, पर चलना नहीं है। पैर चल सकते है, लेकिन अगर रुक जा, चलना नहीं होगा।

     चेतना पैर जैसी है, वह आपका स्वभाव है। मन चलने जैसा है, वह एक प्रक्रिया है। जब चेतना एक जगह से दूसरी जगह जाती है तब वह प्रक्रिया मन है। जब चेतना अ से ब और ब से स को जाती है तब यह गति मन है। अगर आप गति को बंद कर दो, तो मन नहीं रहेगा। आप चेतन हो, लेकिन मन नहीं है। जैसे पैर तो हैं, लेकिन चलना नहीं है। चलना क्रिया है, कर्म है; मन भी क्रिया है, कर्म है।

      अगर आप कहीं रुक जाओ तो मन संघर्ष करेगा, मन कहेगा, बढ़े चलो। मन हर तरह से आगे या पीछे या कहीं भी धकाने की चेष्टा करेगा। कहीं भी सही, लेकिन चलते रहो। अगर जिद्द करो, अगर मन की नहीं मानना चाहो, तो वह कठिन होगा। कठिन होगा, क्योंकि आपने सदा मन का हुक्म माना है। कभी मन पर हुक्म नहीं किया है, कभी उसके मालिक नहीं रहे। हो नहीं सकते, क्योंकि कभी अपने को मन से तादात्म्यरहित नहीं किया है।

    आप सोचते हो कि आप मन ही हो। यह भूल कि मन ही हो मन को पूरी स्वतंत्रता दिए देती है। क्योंकि तब उस पर मालकियत करने वाला, उसे नियंत्रण में रखने वाला कोई न रहा। तब कोई रहा ही नहीं, मन ही मालिक रह जाता है। लेकिन मन की यह मालकियत तथाकथित है। वह स्वामित्व झूठा है।

   एक बार प्रयोग करो तो आप मन के स्वामित्व को नष्ट कर सकते हो। वह झूठा है। मन महज गुलाम है जो मालिक होने का दावा करता है। लेकिन उसकी यह दावेदारी इतनी पुरानी है, इतने जन्मों से उसने मालकियत का दावा किया है कि मालिक भी मानने लगा है कि गुलाम ही मालिक है।

   वह एक महज विश्वास है, धारणा है। आप उसके विपरीत प्रयोग करके देखो और तब पता चलेगा कि यह धारणा सर्वथा निराधार थी।

भाव करो कि आपकी पांच इंद्रियां पांच रंग हैं और वे पांच रंग समस्त अंतरिक्ष को भर रहे हैं। सिर्फ कल्पना करो कि  पंचेंद्रिया पांच रंग हैं, सुंदर—सुंदर रंग, सजीव रंग और वे अनंत आकाश में फैले हैं। तब उन रंगों के बीच भ्रमण करो, उनके बीच गति करो और भाव करो कि मेरे भीतर एक केंद्र है जहां ये रंग मिलते हैं। यह मात्र कल्पना है, लेकिन यह सहयोगी है।

    भाव करो कि ये पांचों रंग आपके भीतर प्रवेश कर रहे हैं और किसी बिंदु पर मिल रहे हैं। तब ये पांचों रंग सच ही किसी बिंदु पर मिलेंगे और सारा जगत विलीन हो जाएगा।

   आपकी कल्पना में पांच ही रंग हैं, जैसे मोर की पूंछ में पांच रंग हैं। कल्पना के रंग आकाश को भर देंगे, आपके भीतर गहरे उतर जाएंगे, किसी बिंदु पर मिल जाएंगे।

      किसी भी बिंदु से काम चलेगा. भाव करो कि सारा जगत रंग ही रंग हो गया है और वे रंग आपकी नाभि—केंद्र पर, आपके ‘हारा’ के बिंदु पर मिल रहे हैं। उस बिंदु को देखो, उस बिंदु पर अवधान को एकाग्र करो और तब तक एकाग्र करो जब तक वह बिंदु विलीन न हो जाए।

    वह विलीन हो जाता है, क्योंकि वह भी कल्पना है। याद रहे कि केंद्रीभूत होने की जो कुछ भी हमने किया है सब कल्पना है। अगर आप उस पर एकाग्र होओ, तो अपने केंद्र पर स्‍थित हो जाओगे। तब विलीन हो जाएगा, आपके लिए संसार नहीं रहेगा।

इस ध्यान में केवल रंग है। आप समूचे संसार को भूल गए हो, सारे विषयों को भूल गए हो। केवल पांच रंग चुने हैं।

      यह ध्यान विधि खासकर उनके लिए है, जिनकी दृष्टि पैनी है, जिनकी रंग की संवेदना गहरी है। यह प्रयोग सबके लिए सहयोगी नहीं होगा। यदि आपके पास चित्रकार की दृष्टि नहीं है, रंगों की संवेदना नहीं है, यदि  रंगों की कल्पना नहीं कर सकते हो, तो यह आपके लिए कठिन है।

      आप ने देखा होगा कि आपके सपने रंगहीन होते हैं। सौ में सिर्फ एक व्यक्ति रंगीन सपने देखता है। शेष सिर्फ स्याह और सफेद रंग देखते हैं। क्यों? क्यों सारा जगत रंगीन है और आपके सपने रंगहीन हैं? अगर आप में से किसी को सपने रंगीन होते हों, तो यह ध्यान उसके लिए है। अगर कोई कभी—कभी भी रंगीन सपने देखता है, तो यह ध्यान उसके काम का है। यह उसका ध्यान है।

      जो आदमी रंग के प्रति संवेदनहीन है उसको कहो कि समूचे आकाश को रंग से भरा होने की कल्पना करो, तो वह यह कल्पना नहीं कर पाएगा। वह यदि कल्पना करने की कोशिश भी करेगा, वह लाल रंग की सोचेगा भी, तो लाल शब्द को देखेगा, लेकिन उसे कल्पना में लाल रंग दिखाई नहीं पड़ेगा। वह हरा शब्द तो कहेगा, शब्द भी वहां होगा, लेकिन हरियाली वहा नहीं होगी।

      तो आप अगर रंग के प्रति संवेदनशील हो, तो इस विधि का प्रयोग करो। पांच रंग हैं। समूचा जगत पांच रंग है, और वे रंग आप में मिल रहे हैं। भीतर कहीं गहरे में वे पांचों रंग मिल रहे हैं। उस बिंदु पर चित्त को एकाग्र करो, और एकाग्र करो। उससे हटो नहीं, उस पर डटे रहो। मन को मत आने दो। रंगों के संबंध में, हरे, लाल और पीले रंगों के बारे में विचार मत करो। सोचो ही मत। बस, उन्हें अपने भीतर मिलते हुए देखो, उनके बारे में विचार मत करो।

    अगर  विचार किया, तो मन प्रवेश कर गया। सिर्फ रंगों से भर जाओ, उन रंगों को अपने भीतर मिलने दो और तब उस मिलन—बिंदु पर अवधान को केंद्रित करो। सोचो मत। एकाग्रता सोचना नहीं है, विचारणा नहीं है, मनन नहीं है।

    आप अगर सचमुच रंगों से भर जाओ और  एक इंद्रधनुष, एक मोर ही बन जाओ, आपका आकाश रंगमय हो जाए, तो उससे आपको एक सौंदर्य—बोध होगा, गहरा, गहरा सौंदर्य—बोध।

     लेकिन उसके संबंध में विचार मत करो, यह मत कहो कि यह सुंदर है। विचारणा में मत चले जाओ। उस बिंदु पर एकाग्र होओ जहां ये रंग मिल रहे हैं और एकाग्रता को बढ़ाते जाओ, गहराते जाओ। वह विलीन हो जाएगा, क्योंकि वह मात्र कल्पना है। अगर आप वहां एकाग्रता को गहराते हो, तो कल्पना नहीं टिक सकती; वह विलीन हो जाएगी।

     संसार पहले ही विलीन हो चुका है, सिर्फ रंग रह गए थे। वे रंग आपकी कल्पना थे और वे काल्पनिक रंग एक बिंदु पर मिल रहे थे। वह बिंदु भी काल्पनिक था। अब गहरी एकाग्रता से वह बिंदु भी विलीन हो जाएगा।

     अब आप कहां रहोगे? अब कहां हो? अब आप अपने केंद्र में स्थित हो जाओगे। विषय कल्पना के द्वारा विलीन हुए हैं। अब कल्पना एकाग्रता के द्वारा विलीन होगी। विषयी की तरह केवल आप बचोगे। विषयगत जगत भी विलीन हो चुका; तब आप शुद्ध चेतना की भांति वहां रहोगे।

     अगर आप शून्य में रंगों की कल्पना नहीं कर सकते, तो दीवार पर किसी बिंदु से काम चलेगा। कोई भी चीज एकाग्रता के विषय के रूप में ले लो। अगर वह आंतरिक हो, अंतस का हो तो बेहतर।

     दो तरह के व्यक्तित्व होते हैं। जो लोग अंतर्मुखी हैं उनके लिए उनके भीतर ही सब रंगों के मिलने की धारणा आसान है। लेकिन जो बहिर्मुखी लोग हैं वे भीतर की धारणा नहीं बना सकते। वे बाहर की ही कल्पना कर सकते हैं, उनका चित्त बाहर ही यात्रा करता है। वे भीतर नहीं गति कर सकते, उनके भीतर कोई आंतरिकता नहीं है।

       अंग्रेज दार्शनिक डेविड झूम ने कहा है : जब भी मैं भीतर जाता हूं वहां मुझे कोई आत्मा नहीं मिलती। जो भी मिलता है वे बाहर के प्रतिबिंब हैं—कोई विचार, कोई भाव। कभी किसी आंतरिकता का दर्शन नहीं होता, सदा बाहरी जगत ही वहा प्रतिबिंबित मिलता है। यह श्रेष्ठतम बहिर्मुखी चित्त है।

 डेविड ह्यूम सर्वाधिक बहिर्मुखी चित्त वालों में एक है। इसलिए अगर आपको भीतर कुछ धारणा के लिए न मिले और मन पूछे कि यह आंतरिकता क्या है, तो अच्छा है कि दीवार पर किसी बिंदु का प्रयोग करो।

   आप अगर बहिर्गामिता ही जानते हो, अगर बाहर—बाहर गति करना ही आता है, तो आपके लिए भीतर जाना कठिन होगा। अगर तुम बहिर्मुखी हो, तो भीतर इस बिंदु का प्रयोग मत करो, उसे बाहर करो। नतीजा वही होगा। दीवार पर एक बिंदु बनाओ और उस पर चित्त को एकाग्र करो।  तब खुली आख से एकाग्रता साधनी होगी।

      अगर भीतर केंद्र बनाते हो, तो बंद आंखों से एकाग्रता साधनी है।

   दीवार पर बिंदु बनाओ और उस पर एकाग्र होओ। असली बात एकाग्रता के कारण घटती है, बिंदु के कारण नहीं। बाहर है या भीतर, यह प्रासंगिक नहीं है। यह तुम पर निर्भर है। अगर दीवार पर देख रहे हो, एकाग्र हो रहे हो, तो तब तक एकाग्रता साधो, जब तक वह बिंदु विलीन न हो जाए।

     इस बात को खयाल में रख लो : ‘जब तक बिंदु विलीन न हो जाए’  पलकों को बंद मत करो, क्योंकि उससे मन को फिर गति करने के लिए जगह मिल जाती है।

      इसलिए अपलक देखते रहो, क्योंकि पलक के गिरने से मन विचार में संलग्न हो जाता है। पलक के गिराने से अंतराल पैदा होता है और एकाग्रता नष्ट हो जाती है। इसलिए पलक झपकना नहीं है।

आप ने बोधिधर्म के विषय में सुना होगा। मनुष्य के पूरे इतिहास में जो बड़े ध्यानी हुए हैं वह उनमें से एक था। उसके संबंध में एक प्रीतिकर कथा कही जाती है। वह बाहर की किसी वस्तु पर ध्यान कर रहा था। उसकी आंखें झपक जाती थीं और ध्यान टूट—टूट जाता था। तो उसने अपनी पलकों को उखाड़कर फेंक दिया, फिर ध्यान करना शुरू किया। कुछ हफ्तों के बाद उसने देखा कि केंद्रीभूत होने की जहां उसकी पलकें गिरी थीं उस स्थान पर कोई पौधे उग आए है।

     यह घटना चीन के पहाड़ पर घटित हुई थी। उस पहाड़ नाम था टा था. इसलिए जो पौधे वहां उग आए थे उनका नाम टी पड़ा।

     यही कारण है कि चाय जागरण में सहयोगी होती है। इसलिए जब पलकें झपकने लगें और नींद में उतरने लगो, तो एक प्याली चाय पी लो। वे बोधिधर्म की पलकें हैं। इसी वजह से झेन संत चाय को पवित्र मानते हैं। चाय कोई मामूली चीज नहीं है। वह पवित्र है, बोधिधर्म की आंख की पलक है।

जापान में तो वे चायोत्सव करते हैं। प्रत्येक परिवार में एक चायघर होता है जहां धार्मिक अनुष्ठान के साथ चाय पी जाती है।  बहुत ही ध्यानपूर्ण मुद्रा में चाय पी जाती है।

     जापान ने चाय के इर्द—गिर्द बड़े सुंदर अनुष्ठान निर्मित किए हैं। वे चायघर में ऐसे प्रवेश करते हैं जैसे वे किसी मंदिर में प्रवेश करते हों। तब चाय तैयार की जाएगी और हरेक व्यक्ति मौन होकर बैठेगा और समोवार के उबलते स्वर को सुनेगा। उबलती चाय का, उसके वाष्प का गीत सब सुनेंगे। उनकी दृष्टि में वह कोई अदना वस्तु नहीं है, बोधिधर्म की आख की पलक है। चूंकि बोधिधर्म खुली आंखों से जागने की कोशिश में लगा था, इसलिए चाय सहयोगी है। चूंकि यह कथा टा पर्वत पर घटित हुई इसलिए वह टी कहलायी।

 अगर आप बाहर एकाग्रता साध रहे हो, तो अपलक देखना जरूरी है। समझो कि आपकी पलकें नहीं हैं। आपके लिए पलकों को उखाड़ फेंकने का यही अर्थ है। आपके आंखें तो हैं, लेकिन उनके ऊपर झपने को पलकें नहीं हैं।  तब तक एकाग्रता साधो जब तक बिंदु विलीन नहीं हो जाता।

      बिंदु विलीन हो जाता है। अगर  लगे रहे, अगर संकल्प के साथ मन को चलायमान नहीं होने दिया, तो बिंदु विलीन हो जाता है। अगर उस बिंदु पर एकाग्र थे और आपके लिए संसार में इस बिंदु के अलावा कुछ भी नहीं था, अगर सारा संसार पहले ही विलीन हो चुका था और यही बिंदु बचा था और यह बिंदु भी विदा हो गया, तो अब चेतना कहीं और गति नहीं कर सकती, उसके लिए जाने को कहीं न रहा; सारे आयाम बंद हो गए। अब चित्त अपने ऊपर फेंक दिया जाता है, अब चेतना अपने आप में लौट आती है। तब आप केंद्र में प्रविष्ट हो गए।

      तो चाहे भीतर हो या बाहर, तबतक एकाग्रता साधो जब तक बिंदु विसर्जित नहीं होता। यह बिंदु दो कारणों से विसर्जित होगा :

(1). अगर वह भीतर है, तो काल्पनिक है और इसलिए विलीन हो जाएगा।  

  (2). अगर यह बाहर है, तो वह काल्पनिक नहीं असली है.

    आप ने दीवार पर बिंदु बनाया है और उस पर अवधान को एकाग्र किया है, तो यह बिंदु क्यों विलीन होगा? भीतर के बिंदु का विलीन होना तो समझा जा सकता है, क्योंकि वह वहाँ था नहीं, आप ने उसे कल्पित कर लिया था। लेकिन दीवार पर तो वह है, वह क्यों विलीन होगा?

    वह एक विशेष कारण से विलीन होता है। अगर आप किसी बिंदु पर चित्त को एकाग्र करते हो, तो यथार्थ में वह बिंदु विसर्जित नहीं होता, आपका मन ही विसर्जित होता है। अगर किसी बाह्य बिंदु पर एकाग्र हो रहे हो, तो मन की गति बंद हो जाती है।

    मन गति के बिना नहीं जी सकता है। वह रुक जाता है, वह मर जाता है। और जब मन रुक जाता है, तो आप बाहर की किसी भी चीज के साथ संबंधित नहीं हो सकते हो। तब अचानक सभी सेतु टूट जाते हैं, क्योंकि मन ही तो सेतु है।

     जब आप दीवार पर, किसी बिंदु पर मन को एकाग्र कर रहे हो, तो आपका मन क्या करता है? वह निरंतर आप से बिंदु तक और बिंदु से आप तक उछलकूद करता रहता है। एक सतत उछलकूद की प्रक्रिया चलती है। जब मन विचलित होता है, तो आप बिंदु को नहीं देख सकते। क्योंकि आप यथार्थ आख में से नहीं, मन से और आख से बिंदु को देखते हो।

   अगर मन वहां न रहे, तो आंखें काम नहीं कर सकतीं। आप दीवार को घूरते रह सकते हो, लेकिन बिंदु नहीं दिखाई पड़ेगा। क्योंकि मन न रहा, सेतु टूट गया। बिंदु तो सच है, वह है। इसलिए जब मन लौट आएगा, तो फिर उसे देख सकोगे। लेकिन अभी नहीं देख सकते, अभी आप बाहर गति नहीं कर सकते। अचानक आप अपने केंद्र पर हो। यह केंद्रस्थता आपको आपके अस्तित्वगत आधार के प्रति जागरूक बना देगी, तब जानोगे कि कहां से आप अस्तित्व के साथ संयुक्त हो, जुड़े हो। आपके भीतर ही वह बिंदु है जो समस्त अस्तित्व के साथ जुड़ा हुआ है, जो उसके साथ एक है।

     जब एक बार इस केंद्र को जान गए, तो आप घर आ गए। तब यह संसार परदेश नहीं रहा और आप परदेशी नहीं रहे। तब यह जगत आपका घर है, तब आप संसार के हो गए। तब किसी संघर्ष की, किसी लड़ाई की जरूरत न रही। तब आपके और अस्तित्व के बीच शत्रुता न रही, अस्तित्व आपकी मां हो गई।

    यह अस्तित्व ही है जो आपके भीतर प्रविष्ट हुआ और बोधपूर्ण हुआ है। यह अस्तित्व ही है जो आपके भीतर प्रस्फुटित हुआ है। यह अनुभूति, यह प्रतीति, यह घटना, और फिर दुख नहीं रहेगा। तब आनंद कोई घटना नहीं है—ऐसी घटना, जो आती है और चली जाती है—तब आनंद आपका स्वभाव है। जब कोई अपने केंद्र में स्थित होता है, तो आनंद स्वाभाविक है। तब कोई आनंदपूर्ण हो जाता है।

     फिर धीरे— धीरे उसे यह बोध भी जाता रहता है कि वह आनंदपूर्ण है। क्योंकि बोध के लिए विपरीत का होना जरूरी है। अगर आप दुखी हो, तो आनंदित होने पर आपको आनंद की अनुभुति होगी। लेकिन जब दुख नहीं है, तो धीरे—धीरे आप दुख को पूरी तरह भूल जाते हो। तब अपने आनंद को भी भूल जाते हो। जब अपने आनंद को भी भूलते हो तभी सच में आनंदित हो। तब वह स्वाभाविक है।

   अब जैसे तारे चमकते हैं, नदियां बहती हैं, वैसे ही आप आनंदपूर्ण हो। आपका होना ही आनंदमय है। तब यह कोई घटना नहीं है, तब आप ही आनंद हो– परमानंद।

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