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*भारतीय ज्योतिष और मानव जीवन*

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         पक्न कुमार

मनुष्य स्वभाव से ही अन्वेषक प्राणी है। वह सृष्टि की प्रत्येक वस्तु के साथ अपने जीवन का तादात्म्य सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है। उसकी इसी प्रवृत्ति ने ज्योतिष के साथ जीवन का सम्बन्ध स्थापित करने के लिए बाध्य किया है। फलतः वह अपने जीवन के भीतर ज्योतिष तत्त्वों का प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहता है। इसी कारण वह शास्त्रीय एवं व्यावहारिक ज्ञान द्वारा प्राप्त अनुभव को, ज्योतिष की कसौटी पर कसकर देखना चाहता है कि ज्योतिष का जीवन में क्या स्थान है?

समस्त भारतीय ज्ञान की पृष्ठभूमि दर्शनशास्त्र है, यही कारण है कि भारत अन्य प्रकार के ज्ञान को दार्शनिक मापदण्ड द्वारा मापता है।

        इसी अटल सिद्धान्त के अनुसार वह ज्योतिष को भी इसी दृष्टिकोण से देखता है। भारतीय दर्शन के अनुसार आत्मा अमर है, इसका कभी नाश नहीं होता है, केवल यह कर्मों के अनादि प्रवाह के कारण पर्यायों को बदला करता है। अध्यात्मशास्त्र का कथन है कि दृश्य सृष्टि केवल नाम रूप या कर्म ही नहीं है, किन्तु इस नामरूपात्मक आवरण के लिए आधारभूत एक अरूपी, स्वतन्त्र और अविनाशी आत्मतत्त्व है तथा प्राणीमात्र के शरीर में रहनेवाला यह तत्त्व नित्य एवं चैतन्य है, केवल कर्मबन्ध के कारण वह परतन्त्र और विनाशीक दिखलाई पड़ता है। वैदिक दर्शनों में कर्म के संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण ये तीन भेद माने गये हैं। किसी के द्वारा वर्तमान क्षण तक किया गया जो कर्म है चाहे वह इस जन्म में किया गया हो या पूर्व जन्मों में,यह सब संचित कहलाता है अनेक जन्म-जन्मान्तरों के संचित कर्मों को एक साथ भोगना सम्भव नहीं है; क्योंकि इनसे मिलनेवाले परिणामस्वरूप फल परस्पर-विरोधी होते हैं, अतः इन्हें एक के बाद एक कर भोगना पड़ता है। संचित में से जितने कर्मों के फल को पहले भोगना शुरू होता है, उतने ही को प्रारब्ध कहते हैं तात्पर्य यह है कि संचित अर्थात् समस्त जन्म-जन्मान्तर के कर्मों के संग्रह में से एक छोटे भेद को प्रारब्ध कहते हैं। यहाँ इतना स्मरण रखना होगा कि समस्त संचित का नाम प्रारब्ध नहीं, बल्कि जितने भाग का भोगना आरम्भ हो गया है, प्रारब्ध है। जो कर्म अभी हो रहा है या जो अभी किया जा रहा है, वह क्रियमाण है। इस प्रकार इन तीन तरह के कर्मों के कारण आत्मा अनेक जन्मों-पर्यायों को धारण कर संस्कार अर्जन करता चला आ रहा है।

आत्मा के साथ अनादिकालीन कर्म-प्रवाह के कारण लिंगशरीर-कार्मण शरीर और भौतिक स्थूल शरीर का सम्बन्ध है। जब एक स्थान से आत्मा इस भौतिक शरीर का त्याग करता है तो लिंगशरीर उसे अन्य स्थूल शरीर की प्राप्ति में सहायक होता है। इस स्थूल भौतिक शरीर में विशेषता यह है कि इसमें प्रवेश करते ही आत्मा जन्म-जन्मान्तरों के संस्कारों की निश्चित स्मृति को खो देता है। इसलिए ज्योतिर्विदों ने प्राकृतिक ज्योतिष के आधार पर कहा है कि यह आत्मा मनुष्य के वर्तमान स्थूल शरीर में रहते हुए भी एक से अधिक जगत् के साथ सम्बन्ध रखता है। मानव का भौतिक शरीर प्रधानतः ज्योतिः, मानसिक और पौगालिक इन तीन उपशरीरों में विभक्त है। यह ज्योतिः उपशरीर Astrals’s body द्वारा नाक्षत्र जगत् से, मानसिक उपशरीर द्वारा मानसिक जगत् से और पौद्गलिक उपशरीर द्वारा भौतिक जगत् से सम्बद्ध है। अतः मानव प्रत्येक जगत् से प्रभावित होता है तथा अपने भाव, विचार और क्रिया द्वारा प्रत्येक जगत् को प्रभावित करता है। उसके वर्तमान शरीर में ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनेक शक्तियों का धारक आत्मा सर्वत्र व्यापक है तथा शरीर प्रमाण रहने पर भी अपनी चैतन्य क्रियाओं द्वारा विभिन्न जगतों में अपना कार्य करता है। मनोवैज्ञानिकों ने आत्मा की इस क्रिया की विशेषता के कारण ही मनुष्य के व्यक्तित्व को बाह्य और आन्तरिक दो भागों में विभक्त किया है।

बाह्य व्यक्तित्व वह है जिसने इस भौतिक शरीर के रूप में अवतार लिया है। यह आत्मा की चैतन्य क्रिया की विशेषता के कारण अपने पूर्वजन्म के निश्चित प्रकार के विचार, भाव और क्रियाओं की ओर झुकाव प्राप्त करता है तथा इस जीवन के अनुभवों के द्वारा इस व्यक्तित्व के विकास में वृद्धि होती है और यह धीरे-धीरे विकसित होकर आन्तरिक व्यक्तित्व में मिलने का प्रयास करता है।

आन्तरिक व्यक्तित्व वह है जो अनेक बाह्य व्यक्तित्वों की स्मृतियों, अनुभवों और प्रवृत्तियों का संश्लेषण अपने में रखता है।

    बाह्य और आन्तरिक इन दोनों व्यक्तित्व सम्बन्धी चेतना के ज्योतिष में विचार, अनुभव और क्रिया ये तीन रूप माने गये हैं। बाह्य व्यक्तित्व के तीन रूप आन्तरिक व्यक्तित्व के इन तीनों रूपों से सम्बद्ध हैं, पर आन्तरिक व्यक्तित्व के तीन रूप अपनी निजी विशेषता और शक्ति रखते हैं, जिससे मनुष्य के भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक इन तीनों जगतों का संचालन होता है। मनुष्य का अन्तःकरण इन तीनों व्यक्तित्व के उक्त तीनों रूपों को मिलाने का कार्य करता है। दूसरे दृष्टिकोण से यह कहा जा सकता है कि ये तीनों रूप एक मौलिक अवस्था में आकर्षण और विकर्षण की प्रवृत्ति द्वारा अन्तःकरण की सहायता से सन्तुलित रूप को प्राप्त होते हैं। तात्पर्य यह है कि आकर्षण की प्रवृत्ति बाह्य व्यक्तित्व को और विकर्षण की प्रवृत्ति आन्तरिक व्यक्तित्व को प्रभावित करती है और इन दोनों के बीच में रहनेवाला अन्तःकरण इन्हें सन्तुलन प्रदान करता है। मनुष्य की उन्नति और अवनति इन सन्तुलन के पलड़े पर ही निर्भर है।

मानव जीवन के बाह्य व्यक्तित्व के तीन रूप और आन्तरिक व्यक्तित्व के तीन रूप तथा एक अन्तःकरण इन सात के प्रतीक सौर-जगत् में रहनेवाले ७ ग्रह माने गये हैं। उपर्युक्त ७ रूप सब प्राणियों के एक-से नहीं होते हैं, क्योंकि जन्म-जन्मान्तरों के संचित, प्रारब्ध कर्म विभिन्न प्रकार के हैं, अतः प्रतीक रूप ग्रह अपने-अपने प्रतिरूप्य के सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार की बातें प्रकट करते हैं प्रतिरूप्यों की सच्ची अवस्था बीजगणित की अव्यक्त मान कल्पना द्वारा निष्पन्न अंकों के समान प्रकट हो जाती है।

आधुनिक वैज्ञानिक प्रत्येक वस्तु की आन्तरिक रचना सौर मण्डल से मिलती-जुलती बतलाते हैं। उन्होंने परमाणु के सम्बन्ध में अन्वेषण करते हुए बताया है कि प्रत्येक पदार्थ की सूक्ष्म रचना का आधार परमाणु हैं। अथवा यों कहें कि परमाणु की ईंटों को जोड़कर पदार्थ का विशाल भवन निष्पन्न होता है और यह परमाणु सौर-जगत् के समान आकार-प्रकारवाला है। इसके मध्य में एक धनविद्युत् का बिन्दु है जिसे केन्द्र कहते हैं। इसका व्यास एक इंच के १० लाखवें भाग का भी १० लाखवाँ भाग बताया गया है। परमाणु के जीवन का सार इसी केन्द्र में बसता है इस केन्द्र के चारों ओर अनेक सूक्ष्मातिसूक्ष्म विद्युत्कण चक्कर लगाते रहते हैं और ये केन्द्रवाले धन-विद्युत्कण के साथ मिलने का उपक्रम करते रहते हैं। इस प्रकार के अनन्त परमाणुओं के समाहार का एकत्र स्वरूप हमारा शरीर है भारतीय दर्शन में भी ‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे’ का सिद्धान्त प्राचीन काल से ही प्रचलित है। तात्पर्य यह है कि वास्तविक सौर-जगत् में सूर्य, चन्द्र आदि ग्रहों के भ्रमण करने में जो नियम कार्य करते हैं, वे ही नियम प्राणीमात्र के शरीर में स्थित सौर-जगत् के ग्रहों के भ्रमण करने में भी काम करते हैं। अतः आकाश स्थित ग्रह शरीर स्थित ग्रहों के प्रतीक हैं।

प्रथम कल्पनानुसार बाह्य के तीन रूप और आन्तरिक व्यक्तित्व के तीन रूप तथा एक अन्तःकरण इन सातों प्रतिरूप्यों के प्रतीक ग्रह निम्न प्रकार हैं : 

   १. बाह्य व्यक्तित्व के प्रथम रूप-विचार का प्रतीक बृहस्पति है। यह प्राणीमात्र के शरीर का प्रतिनिधित्व करता है और शरीर संचालन के लिए रक्त प्रदान करता है। जीवित प्राणी के रक्त में रहनेवाले कीटाणुओं की चेतना से इसका सम्बन्ध रहता है। इस प्रतीक द्वारा वाह्य व्यक्तित्व के प्रथम रूप से होनेवाले कार्यों का विश्लेषण किया जाता है। इसलिए ज्योतिषशास्त्र में प्रत्येक ग्रह से किसी भी मनुष्य के आत्मिक, अनात्मिक और शारीरिक-इन तीन प्रकार के दृष्टिकोणों से फल का विचार किया जाता है। कारण स्पष्ट है कि मनुष्य के व्यक्तित्व के किसी भी रूप का प्रभाव शरीर, आत्मा और वाह्य जड़, चेतन पदार्थ, जो शरीर से भिन्न है, पड़ता है। उदाहरण के लिए बाह्य व्यक्तित्व के प्रथम रूप विचार की लिया जा सकता है; मनुष्य के विचार का प्रभाव शरीर और चेतना शक्तियाँ-स्मृति, अनुभव, प्रत्यभिज्ञा आदि तथा मनुष्य से सम्बद्ध अन्य वस्तुओं पर भी पड़ता है। इन तीनों से अलग रहकर मनुष्य कुछ नहीं कर सकेगा, उसका जीवन जड़वत् स्तम्भित हो जायेगा। अतएव प्रथम रूप के प्रतीक बृहस्पति का विवेचन निम्न प्रकार अवगत करना चाहिए।

अनात्मा- इस दृष्टिकोण से बृहस्पति व्यापार, कार्य, वे स्थान और व्यक्ति जिनका सम्बन्ध धर्म और कानून से है-मन्दिर, पुजारी, मन्त्री, न्यायालय, न्यायाधीश, शिक्षा संस्थाएँ, विश्वविद्यालय, धारासभाएँ, जनता के उत्सव, दान, सहानुभूति आदि का प्रतिनिधित्व करता है।

आत्मा इस दृष्टिकोण से यह ग्रह विचार मनोभाव और इन दोनों का मिश्रण, उदारता, अच्छा स्वभाव, सौन्दर्य प्रेम, शक्ति, भक्ति एवं व्यवस्थाबुद्धि, ज्ञान ज्योतिष-तन्त्र-मन्त्र-विचार शक्ति इत्यादि आत्मिक भावों का प्रतिनिधित्व करता है।

 शरीर इस दृष्टिकोण से पैर, जंया, जिगर, पाचनक्रिया, रक्त एवं नसों का प्रतिनिधित्व करता है।

२. बाह्य व्यक्तित्व के द्वितीय रूप का प्रतीक मंगल है यह इन्द्रियज्ञान और आनन्देच्छा का प्रतिनिधित्व करता है। जितने भी उत्तेजक और संवेदनाजन्य आवेग हैं उनका यह प्रधान केन्द्र है। बाह्य आनन्ददायक वस्तुओं के द्वारा यह क्रियाशील होता है और पूर्व की आनन्ददायक अनुभवों की स्मृतियों को जागृत करता है। वांछित वस्तु की प्राप्ति तथा उन वस्तुओं की प्राप्ति के उपायों के कारणों की क्रिया का प्रधान उद्गम है। यह प्रधान रूप से इच्छाओं का प्रतीक है।

 अनात्मिक दृष्टि से यह सैनिक, डॉक्टर, प्रोफेसर, इंजीनियर, रासायनिक, नाई, बढ़ई, लुहार, मशीन का कार्य करनेवाला, मकान बनानेवाला, खेल एवं खेल के सामान आदि का प्रतिनिधित्व करता है। 

आत्मिक दृष्टि से यह साहस, बहादुरी दृढ़ता, आत्मविश्वास को लड़ाकू प्रवृत्ति एवं प्रभुत्व प्रभृति भावों और विचारों का प्रतिनिधि है।

 शारीरिक दृष्टि से यह बाहरी सिर खोपड़ी, नाक एवं गाल का प्रतीक है। इसके द्वारा संक्रामक रोग, याद, खरोंच, ऑपरेशन, रक्तदोष, दर्द आदि अभिव्यक्त होते हैं। 

३. बाह्य व्यक्तित्व के तृतीय रूप का प्रतीक चन्द्रमा है, यह मानव पर शारीरिक प्रभाव डालता है और विभिन्न अंगों तथा उनके कार्यों में सुधार करता है। वस्तु जगत् से सम्बन्ध रखनेवाले पिछले मस्तिष्क पर इसका प्रभाव पड़ता है। बाह्य जगत् की वस्तुओं द्वारा जो क्रियाएँ होती हैं, उनका इससे विशेष सम्बन्ध है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि चन्द्रमा स्थूल शरीरगत चेतना के ऊपर प्रभाव डालता है तथा मस्तिष्क में उत्पन्न होनेवाले परिवर्तनशील भावों का प्रतिनिधि है।

 अनात्मिक दृष्टि से यह श्वेत रंग, जहाज बन्दरगाह, मडली, जल, तरल पदार्थ, नर्स,दासी, भोजन, रजत एवं बैंगनी रंग के पदार्थों पर प्रभाव डालता है। 

आत्मिक दृष्टि से यह संवेदन, आन्तरिक इच्छा, उतावलापन, भावना, विशेषतः घरेलू जीवन की भावना, कल्पना, सतर्कता एवं लाभेच्छा पर प्रभाव डालता है। 

शारीरिक दृष्टि से इसका पेट, पाचनशक्ति, आंतें, स्तन, गर्भाशय, योनिस्थान, आँख एवं नारी के समस्त गुप्तांगों पर प्रभाव पड़ता है।

 ४. आन्तरिक व्यक्तित्व के प्रथम रूप का प्रतीक शुक्र है, यह सूक्ष्म मानव चेतनाओं की विधेय क्रियाओं का प्रतिनिधित्व करता है। पूर्णवली शुक्र निःस्वार्थ प्रेम के साथ प्राणीमात्र के प्रति भ्रातृत्व भावना का विकास करता है।

 अनात्मिक दृष्टि से इसका सुन्दर वस्तुएँ, आभूषण, आनन्ददायक चीजें नाच, गान, वाय, सजावट की चीजें, कलात्मक वस्तुएँ एवं भोगोपभोग की सामग्री आदि पर प्रभाव पड़ता है। 

अनात्मिक दृष्टि से स्नेह, सौन्दर्य-ज्ञान, आराम, आनन्द, परख-बुद्धि, कार्यक्षमता आदि पर इसका प्रभाव पड़ता है। विशेष प्रेम, स्वच्छता,परख-बुद्धि, कार्यक्षमता आदि पर इसका प्रभाव पड़ता है। 

शारीरिक दृष्टि से गला, गुरदा, आकृति, वर्ण, केश जहाँ तक सौन्दर्य से सम्बन्ध है, साधारणतः शरीर-संचालित करनेवाले अंग एवं लिंग आदि पर इसका प्रभाव पड़ता है। 

५. आन्तरिक व्यक्तित्व के द्वितीय रूप का प्रतिनिधि बुध है। यह प्रधान रूप से आध्यात्मिक शक्ति का प्रतीक है। इसके द्वारा आन्तरिक प्रेरणा, सहेतुक निर्णयात्मक बुद्धि, वस्तु-परीक्षण शक्ति, समझ और बुद्धिमानी आदि का विश्लेषण किया जाता है। इस प्रतीक में विशेषता यह रहती है कि गम्भीरतापूर्वक किये गये विचारों का विश्लेषण बड़ी खूबी से करता है। 

अनात्मिक दृष्टि से स्कूल, कॉलेज का शिक्षण, विज्ञान, वैज्ञानिक और साहित्यिक स्थान, प्रकाशन-स्थान, सम्पादक, लेखक, प्रकाशक, पोस्ट मास्टर, व्यापारी एवं बुद्धिजीवियों पर इसका विशेष प्रभाव पड़ता है। पीले रंग और पारा धातु पर भी यह अपना प्रभाव डालता है। 

आत्मिक दृष्टि से यह समझ, स्मरण शक्ति, खण्डन-मण्डन शक्ति, सूक्ष्म कलाओं की उत्पादन शक्ति एवं तर्कणा आदि का प्रतिनिधि है। 

शारीरिक दृष्टि से यह मस्तिष्क, स्नायु क्रिया, जिह्ना, वाणी, हाथ तथा कलापूर्ण कार्योत्पादक अंगों पर प्रभाव डालता है। 

६. आन्तरिक व्यक्तित्व के तृतीय रूप का प्रतिनिधि सूर्य है। यह पूर्ण देवत्व की चेतना का प्रतीक है, इसकी सात किरणें हैं जो कार्यरूप से भिन्न होती हुई भी इच्छा के रूप में पूर्ण होकर प्रकट होती हैं। मनुष्य के विकास में सहायक तीनों प्रकार की चेतनाओं के सन्तुलित रूप का यह प्रतीक है। यह पूर्ण इच्छा-शक्ति, ज्ञानशक्ति, सदाचार, विश्राम, शान्ति, जीवन की उन्नति एवं विकास का द्योतक है।

 अनात्मिक दृष्टि से जो व्यक्ति दूसरों पर अपना प्रभाव रखते हो ऐसे राजा, मन्त्री, सेनापति, सरदार, आविष्कारक, पुरातत्त्ववेत्ता आदि पर अपना प्रभाव डालता है।

आत्मिक दृष्टि से यह प्रभुता, ऐश्वर्य, प्रेम, उदारता, महत्त्वाकांक्षा, आत्मविश्वास, आत्मनियन्त्रण, विचार और भावनाओं का सन्तुलन एवं सहृदयता का प्रतीक है।

शारीरिक दृष्टि से हृदय, रक्त संचालन, नेत्र, रक्त-वाहक छोटी नरों, दाँत, कान आदि अंगों का प्रतिनिधि है।

 ७. अन्तःकरण का प्रतीक शनि है। यह बाह्य चेतना और आन्तरिक चेतना को मिलाने में पुल का काम करता है। प्रत्येक नवजीवन में आन्तरिक व्यक्तित्व से जो कुछ प्राप्त होता है और जो मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन के अनुभवों से मिलता है, उससे मनुष्य को यह वृद्धिंगत करता है। यह प्रधान रूप से ‘अहं’ भावना का प्रतीक होता हुआ भी व्यक्तिगत जीवन के विचार, इच्छा और कार्यों के सन्तुलन का भी प्रतीक है। विभिन्न प्रतीकों से मिलने पर यह नाना तरह से जीवन के रहस्यों को अभिव्यक्त करता है। उच्च स्थान अर्थात् तुला राशि का शनि विचार और भावों की समानता का द्योतक है।

अनात्मिक दृष्टि से कृषक, हलवाहक, पत्रवाहक, चरवाहा, कुम्हार, माली, मठाधीश, कृपण, पुलिस अफसर, उपवास करनेवाले साधु-संन्यासी आदि व्यक्ति तथा पहाड़ी स्थान, चट्टानी प्रदेश, बंजर भूमि, गुफा, प्राचीन ध्वंस स्थान, श्मशानघाट, कब्रिस्तान एवं चौरस मैदान आदि का प्रतिनिधि है। 

आत्मिक दृष्टि से तात्त्विकज्ञान, विचार-स्वातन्त्र्य, नायकत्व, मननशीलता, कार्यपरायणता, आत्मसंयम, धैर्य, दृढ़ता, गम्भीरता, चारित्रशुद्धि, सतर्कता, विचारशीलता एवं कार्यक्षमता का प्रतीक है।

 शारीरिक दृष्टि से हड्डियों, नीचे के दाँत, बड़ी अंति एवं मांसपेशियों पर प्रभाव डालता है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सौर-जगत् के सात ग्रह मानव-जीवन के विभिन्न अपयों के प्रतीक हैं। इन सालों की क्रियाफल द्वारा ही जीवन का संचालन होता है। प्रधान सूर्य और चन्द्रमा बौद्धिक और शारीरिक उन्नति-अवनति के प्रतीक माने गये हैं। पूर्वोक्त जीवन के विभिन्न अवयवों के प्रतीक ग्रहों का क्रम दोनों व्यक्तित्वों के तृतीय, द्वितीय, प्रथम और अन्तःकरण के प्रतीकों के अनुसार है अर्थात् आन्तरिक व्यक्तित्व के तृतीय रूप का प्रतीक सूर्य, बाह्य व्यक्तित्व के तृतीय रूप का प्रतीक चन्द्रमा बाह्य व्यक्तित्व के द्वितीय रूप का प्रतीक मंगल, आन्तरिक व्यक्तित्व के द्वितीय रूप का प्रतीक बुध, बाह्य व्यक्तित्व के प्रथम रूप का प्रतीक बृहस्पति, आन्तरिक व्यक्तित्व के प्रथम रूप का प्रतीक शुक्र एवं अन्तःकरण का प्रतीक शनि इस प्रकार सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र और शनि इन सातों ग्रहों का क्रम सिद्ध होता है। अतः स्पष्ट है कि मानव जीवन के साथ ग्रहों का अभिन्न सम्बन्ध है।

आचार्य वराहमिहिर के सिद्धान्तों को मनन करने से ज्ञात होगा कि शरीरचक्र ही ग्रह-कक्षावृत्त है। इस कक्षावृत्त के द्वादश भाग मस्तक, मुख, वक्षस्थल, हृदय, उदर, कटि, वस्ति, लिंग, जंघा, घुटना, पिण्डली और पैर क्रमशः मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ और मीन संज्ञक हैं। इन बारह राशियों में भ्रमण करनेवाले ग्रहों में आत्मा रवि, मन चन्द्रमा, धैर्य मंगल, वाणी बुध, विवेक गुरु, वीर्य शुक्र और संवेदन शनि है। तात्पर्य यह है कि वराहमिहिराचार्य ने सात ग्रह और बारह राशियों की स्थिति देहधारी प्राणी के भीतर ही बतलायी है। इस शरीरस्थित सौरचक्र का भ्रमण आकाशस्थित सौर मण्डल के नियमों के आधार पर ही होता है। ज्योतिषशास्त्र व्यक्त सौर-जगत् के ग्रहों की गति, स्थिति आदि के अनुसार अव्यक्त शरीर स्थित सौर-जगत् के ग्रहों की गति, स्थिति आदि को प्रकट करता है। इसीलिए इस शास्त्र द्वारा निरूपित फलों का मानव जीवन से सम्बन्ध है।

प्राचीन भारतीय आचार्यों ने प्रयोगशालाओं के अभाव में भी अपने दिव्य योगबल द्वारा आभ्यन्तर सौर-जगत् का पूर्ण दर्शन कर आकाशमण्डलीय सौर-जगत् के नियम निर्धारित किये थे, उन्होंने अपने शरीरस्थित सूर्य की गति से ही आकाशीय सूर्य की गति निश्चित की थी। इसी कारण ज्योतिष के फलाफल का विवेचन आज भी विज्ञानसम्मत माना जाता है। (चेतना विकास मिशन).

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