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*देह ही देश : धिक्कार है पुरुषों तुमको !*

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       डॉ. गीता

‘देह ही देश’ यानी क्रोएश्यिा प्रवास डायरी कुछ समय से काफी चर्चा में है। इसे लिखा है जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की प्रोफेसर डॉ. गरिमा श्रीवास्तव ने। यह डायरी शायद कभी न लिखी जाती, अगर वे पूर्वी यूरोप के प्राचीनतम जाग्रेब विश्वविद्यालय में प्रतिनियुक्ति पर पढ़ाने नहीं जातीं और युद्ध पीड़ित महिलाओं से न मिलतीं। भारत लौट कर भी गरिमा को चार साल लग गए इसे प्रकाशित कराने में। इच्छा ही नहीं हुई। उनके मन में अकसर ये खयाल आता रहा कि अगर यह न भी छपे तो किसी को क्या फर्क पड़ता है। 

      मगर ‘देह ही देश’ छपा। इसकी चर्चा हो रही है। प्रो. गरिमा की यह डायरी उन लाखों औरतों के नाम है जिनकी देह पर सारे युद्ध लड़े जाते हैं। यह सच है। बांग्लादेश के उदय से पहले वहां स्त्रियों पर पाकिस्तानी सैनिकों ने जो अत्याचार किए उसे कौन नहीं जानता। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सोवियत संघ ने भी जर्मनी पर अधिपत्य जमाने के लिए यही सब किया। जापानी सेना ने चीन के नानकिंग में यौन हिंसा की। कौन भूल सकता है इसे। वे स्त्रियां भी आजीवन नहीं भूल पार्इं। जब भी कोई देश दूसरे देश पर आक्रमण करता है, तो वहां उसके निशाने पर सबसे पहले बुजुर्ग, बच्चे और खासतौर स्त्रियां होती हैं। ऐसा दमन जिसके बारे में जान कर कलेजा मुंह को आ जाए।

   ‘देह ही देश’ को पढ़ कर जाना कि प्रकृति के सबसे सुंदर रूप नारी के प्रति पुरुष कितने बेरहम हो सकते हैं। 

   गरिमा कहती हैं कि लेखन के लिए खूब यात्राएं करनी चाहिए। मगर इन यात्राओं की क्या कीमत होती है, यह लेखक के सिवाय कौन जान सकता है। नदीन गोर्डिमर ने लेखन को एक तरह का दुख कहा था जो सबसे ज्यादा अकेलेपन और आत्मविश्लेषण की मांग करता है। सही कहा। मैं कहता हूं कि कोई भी सृजन लेखक के लिए एक स्त्री की प्रसव पीड़ा की तरह ही होता है।

      अभी हाल में यूक्रेन पर हमले के दौरान रूसी बलों ने वहां क्या किया होगा। आप अंदाजा लगा सकते हैं। वहां हुए दमन की कहानियां कई साल बाद सामने आएंगी। मगर ये भी सच है कि इन स्त्रियों की आकुलता और करुण पुकार को इतिहास की किसी भी किताब में शायद ही यथोचित जगह मिले। जैसा कि बोस्निया और क्रोएशिया की स्त्रियों के मामले में हुआ। 

      प्रो गरिमा की क्रोएशिया प्रवास डायरी, दरअसल बोस्निया, क्रोएशिया और हर्जेगोविना की स्त्रियों का क्रूरता से किए गए यौन दमन का इतिहास है। उसमें उनकी बेबसी, उनकी पीड़ा और उनकी चीख है जिसे दुनिया ने नहीं सुनी। या सुनना ही नहीं चाहा। वह दुनिया जो नब्बे के दशक में आधुनिकीकरण और उदारीकरण के सबसे बड़े दौर से गुजर रही थी। तब इसी धरती पर सर्बिया नाम का देश एक पड़ोसी देश में घुस कर उसके ‘शुद्धिकरण’ के नाम पर वहां की स्त्रियों की योनि में अपने ‘सैन्य बलों के वीर्य’ भर रहा था। उसने कई महिलाओं को देह श्रमिक बनने पर मजबूर कर दिया। 

‘देह ही देश’ को लिखते हुए कई बार प्रोफेसर गरिमा व्याकुल हुईं। मगर हिम्मत बांध कर वे युद्ध पीड़ित कई महिलाओं से लगातार मिलती रहीं। ज्यादातर महिलाओं ने पीड़ा की उस घड़ी को साझा करने से इनकार कर दिया। मगर जो भी कुरेद कर वे निकाल पाईं, वे सब अपनी डायरी में दर्ज करती रहीं।

      बोस्निया सरकार बताती है कि 50 हजार स्त्रियों के साथ सैन्य बलों ने बलात्कार किया। इन सैन्य बलों ने रेप कैम्प बना रखे थे जहां एक युवती के साथ कई-कई सैनिक दिन रात और जब चाहे बलात्कार करते। कई स्त्रियों की निर्ममता से हत्या कर दी गई। कई स्त्रियों ने दम तोड़ दिया। ऐसा यौन दमन जिसे याद कर स्त्रियां आज भी सिहर उठती हैं। उन सबसे बात कर उनकी पीड़ा को डायरी में दर्ज करना लेखिका के लिए आसान नहीं रहा होगा। 

       गरिमा ने एक जगह लिखा है कि युद्ध की विभीषिका ऐसी कि सर्बिया के हमले के 15 साल बाद एक मां फोका के वेश्यालय में अपनी बेटियों को ढूंढ निकालती है। कब्रिस्तान में लोग युद्ध के बरसों बाद भी गड़े मुर्दे निकालते रहे, कहीं कोई आत्मीय पहचान मिले। ऐसे अनंत किस्से हैं। डायरी लिखने के क्रम में गरिमा लिलियाना यानी लिली से मिलती हैं जिसने सर्ब सैनिकों की यौन हिंसा और सामूहिक बलात्कार को झेला है।

     अब वह देह श्रमिक बन गई है। उसके साथ की कई स्त्रियां जो जाग्रेब में हैं, सर्ब सैनिकों से घर्षित हुईं। इन में कई तो यौन दासी बन कर सैन्य शिविरों में रहीं। अच्छी खासी संख्या वृद्धाओं की भी है जो किसी न किसी बलात्कार की साक्षी रहीं। कई युवा स्त्रियों ने अपमान से बचने के लिए गर्भपात करा लिया। कुछ ने संतान पैदा कर सरकारी अनाथालय में मुुक्ति पाई। 

देह ही देश को पढ़ते हुए पाठक बेचैन हो सकते हैं। कुछ हद तक अवसाद में जा सकते हैं। एक जगह लेखिका ने एक युद्ध पीड़िता लिली के भेजे गए मेल को जस का तस यों लिखा है- रोज रात को सफेद चीलें हमें उठाने आतीं और सुबह वापस छोड़ जातीं। कभी-कभी वे बीस की तादाद में आते। वे हमारे साथ सब कुछ करते। जिसे कहा या बताया नहीं जा सकता। हमें उनके लिए खाना पकाना और परोसना पड़ता नंगे होकर।

      हमारे सामने ही उन्होंने कई लड़कियों का बलात्कार कर हत्या कर दी। जिन्होंने प्रतिरोध किया, उनके स्तन काट कर धर दिए गए। 

बोस्निया पर हमले में न जाने कितनी स्त्रियों की शुचिता नष्ट हुई, इसका कोई हिसाब नहीं। कितनी अकथनीय पीड़ा उन्होंने सही, जिसे सुनने वाला परिवार का कोई सदस्य नहीं बचा था। एक के बाद एक मार्मिक कहानी है इस डायरी में। पढ़ कर दिल टूट जाए। आप रातों की नींद खो दें। ऐसी चीखें जो कान फाड़ देती हैं।

       डॉ. गरिमा क्रोएशिया डायरी लिखती हुए खुद सघन पीड़ा से गुजरी हैं। इस डायरी को लिखने के क्रम में उन्होंने भाषा की सहजता और प्रवाह का ध्यान रखा है। यह डायरी नहीं है, एक लहूलुहान अतीत से साक्षात्कार है। खुद को नश्तर चुभोने की तरह है ताकि आप याद रखें कि हर स्त्री एक मां है तो बहन भी, पत्नी है तो प्रेमिका भी। उसे कष्ट देकर आप खुद भी नहीं बच पाएंगे एक दिन। सर्बिया के पुरुषों लानत है तुम पर।  

     भारत भी ऐसे सच से भरा पड़ा है, बस रूप अलग हैं. प्रो गरिमा की इस पुस्तक को कभी मेट्रो में, तो कभी विमान यात्रा में, तो कभी ट्रेन में सफर करते हुए मैंने पढ़ी। इसे पढ़ना वाकई बहुत मुश्किल था मेरे लिए। कई रात नींद नहीं आई। कभी अवसाद में चली गया। कई बार आंखें नम हुई। कई बार रोइ । कितनी बार दिल चाक हुआ।

     फिर भी हौसला बटोर कर पढ़ा।स्त्रियों के दमन पर लिखी गई यह डायरी बोस्निया और क्रोएशिया की युद्ध पीड़ित महिलाओं पर एक भावनात्मक दस्तावेज है। (चेतना विकास मिशन).

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