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*ध्यान : भोग, तप और सहजयोग*

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            डॉ. विकास मानव

सबसे पहले भोग की बात : क्या कठिनाई है आम मन की? स्त्री को प्रेम करोगे और पूरा कर भी न पाओगे। पूरा करते-करते ऊब जाते हो। प्रेम भी करते हो, करने से बच भी नहीं सकते; क्योंकि पूरा प्रवाह जीवन-धारा का कामुकता से भरा है।  प्रेम न करोगे तो वही-वही सोचोगे। सारा चित्त, मन, वासना के आसपास घूमने लगेगा। स्वप्न भर जायेंगे उसी से। कविता लिखने लगोगे, चित्र बनाने लगोगे, सब तरफ स्त्री दिखाई पड़ने लगेगी। जहां नहीं है, वहां भी दिखाई पड़ने लगेगी। तुम्हारा मन स्त्री से लिप्त हो जायेगा, धक्के मारेगा। यही बात पुरुष को लेकर स्त्री पर भी लागू होती है.

आप अगर स्त्री को भोगोगे (या स्त्री आप को भोगोगी) तो पूरा न भोगोगे, क्योंकि भोगते वक्त बुद्ध, महावीर वेगैरह पीछा करेंगे। उनके वचन सुनाई पड़ेंगे। क्या पाप कर रहे हो? कैसा अपराध कर रहे हो? कहां उलझे हो कीचड़ में, छूटो, भागो, मुक्त होओ। यही तो बंधन है।

   आपको सब ज्ञान उसी वक्त याद आयेगा, जब स्त्री मिलेगी। स्त्री न मिले तो स्त्री याद आयेगी। स्त्री मिले तो ज्ञान याद आयेगा। तो स्त्री को भी आधा-आधा भोग पाओगे।

     यह जो कुनकुनी-कुनकुनी बुद्धि है वह छुटकारा नहीं पा सकती। पूरे कहीं भी नहीं हो। पूरा भोग लो और छुटकारा हो जाएगा। भोग से बाहर हो जाओगे। तब समझ पाओगे कि बुद्ध के कहने का क्या अर्थ है; उसके पहले नहीं।

पश्चिमी चिंतक गुरजिएफ ने एक में संस्मरण लिखा है की उसे कोई फल खाना प्रीतिकर था। इतना ज्यादा प्रीतिकर था, कि उसके कारण वह अक्सर बीमार पड़ता। पेट में दर्द होता। कच्चा जंगली फल! आखिर उसके दादा ने, एक दिन टोकरी भर कर वह फल ले आया। उसने कहा, ‘आज तू खा, जितना खा सके।’

    गुरजिएफ ने पूछा, ‘जितना खा सकूं?’ हाँ, जितना तू खा सके। वह दादा डंडा ले कर उसके पास बैठ गया। जब वह पूरा खा चुका और घबड़ाने लगा तो उसके दादा ने कहा, ‘आज पूरा ही करना है। टोकरी पूरी खतम करनी है।’

   उसने कहा, लेकिन मुझे अब वमन की हालत हो रही है। उसने कहा, ‘वह वमन हो जाये, उसकी फिक्र नहीं लेकिन टोकरी पूरी करनी है, नहीं तो डंडा है मेरे पास।’ आज हालत उल्टी हो गई। रोज डंडा फल न खाने के लिए था–कि फल खाया, कि डंडा पड़ा। आज डंडा फल खाने के लिए था।

      उसका मन भागने लगा। वह खा रहा है, लेकिन फल बेस्वाद मालूम पड़ने लगा। वह खा रहा है, लेकिन फल अब तिक्त हो गया। वह खा रहा है, लेकिन अब उलटी आने की हालत पैदा हो गई। और दादा है, कि डंडा हिला रहा है कि तू इस टोकरी को पूरा कर। किसी तरह उसके दादा ने टोकरी पूरी करवा दी।

      गुरिजएफ ने लिखा है, ‘फिर मैं सत्तर साल जीया। फिर, फिर भूल कर वह फल मैंने…मुझे दिखाई भी पड़ जाये, तो मेरे पेट में दर्द होता है। क्योंकि वमन हुई, दस्त लगे। कोई आठ दिन तक तकलीफ रही, बुखार रहा, लेकिन उस फल से छुटकारा हो गया।’

आपको जीवन में ऊब नहीं आई है। अभी भी रस कायम है। अभी भी आशा बनी है। अभी भी सोचते हो कि मिल जायेगा सुख वहां। अब तक नहीं मिल पाया, क्योंकि ठीक से कोशिश नहीं की है। अब तक नहीं मिल पाया, क्योंकि धीमे-धीमे चल रहे हो। अब तक नहीं मिल पाया, क्योंकि आपके अनुसार दूसरे लोग चालाक हैं, वे पा रहे हैं। आप सीधे-सादे हो, नहीं पा रहे हो। अभी आपको यह नहीं दिखाई पड़ा, कि वहां रस ही नहीं है। चाहे तेज चलो, चाहे धीमे, चाहे चालाकी करो, चाहे मत करो। जहां रस नहीं है, वहां रस पाया नहीं जा सकता।  रेत से तेल न निचोड़ पाओगे। आकाश-कुसुम की तलाश में हो। वह फूल कहीं है ही नहीं।

 यह सच आपको कैसे दिखाई पड़े? यह मुझे पढ़ने से दिखाई पड़ता तो बड़ी आसान बात थी। जिंदगी इतने आसान रास्ते नहीं मानती। यह आपको अनुभव से देखना पड़ेगा। पीड़ा से गुजरना ही होगा। उस सीमा तक जाना पड़ेगा, जहां सब सुख, दुख हो जाएं।

     स्मरण रखो: जहां सब सुख दुख हो जायें, वहीं आनंद का जन्म है। वहीं से दीये के नीचे का अंधेरा मिटना शुरू होता है। तब रोशनी भीतर लौटने लगती है। तब यह यात्रा समाप्त हुई। बाहर कुछ भी नहीं है। परिपूर्ण मन से यह जान कर, कि बाहर कुछ भी नहीं है, फिर पूरे के पूरे भीतर लौट आते हो।

     पूरे बाहर चले जाओ। डर क्या है? भयभीत किससे हो? भय के कारण बाहर नहीं जा रहे। बाहर न जाने के कारण बाहर में रस बना हुआ है। रस बना है, तो आशा जगी है। आशा जगी है, तो भीतर न मुड़ पाओगे।   

     आधे-आधे हो सब जगह। न मालूम कितनी नावों पर सवार हो। सीढ़ी पर ऊपर भी जाना चाहते हो, नीचे भी जाना चाहते हो। एक पैर नीचे की तरफ रखा हुआ है, एक पैर ऊपर की तरफ रखा हुआ है। आपका जीवन बड़े व्यर्थ के संकट में अटका हुआ है।

    मैं कहता हूं: आपको पाप में रस है तो पूरे पापी हो जाओ। उसमें ही पूरे डूबो। अभी पुण्य की चिंता छोड़ दो। लेकिन आप अपने को ही धोखा देते हो।  कहते हो कि दोनों सम्हालना ज्यादा ठीक है। थोड़ा पुण्य भी सम्हाले रखो, और थोड़ा पाप भी सम्हाले रखो। वेश्या, रखैल के घर भी जाते रहो, मंदिर में दान भी करते रहो। शराब भी पीते रहो, मंदिर में जाकर कसमें भी खाते रहो। संकल्प करते रहो कि अगले वर्ष सब ठीक कर लेंगे, सब छोड़ देंगे। बस, एक ही साल की बात और है। कि आज का ही सवाल है, कल से तो सब ठीक कर लेना है।

      सभी कसमें खाने वालों के साथ यही हो रहा है। मंदिर में कसम खाते हो ब्रह्मचर्य की, उसी क्षण स्त्री इतनी सुंदर दिखाई पड़ने लगती है, जितनी कसम के पहले न थी। आपकी कसमें भी स्वाद को जगाने का उपाय तो नहीं? स्त्री में रस खो रहा होता है, तो ब्रह्मचर्य की कसम खा लेते हो। उससे रस वापिस लौट आता है। भोजन से ऊबने लगते हो, तो उपवास कर लेते हो। उससे रस लौट आता है। सभी विपरीत चीजें रस को जन्माती हैं।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं, कि पति-पत्नी को एक ही कमरे में नहीं रहना चाहिए। उससे रस क्षीण होता है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं, कि उन्हें दो अलग कमरों में रहना चाहिए और चौबीस घंटे मिलना-जुलना नहीं चाहिए। उससे रस क्षीण होता है।

     इसलिए पति-पत्नी एक दूसरे से ऊब जाते हैं। परेशान हो जाते हैं। पत्नी को कभी-कभी मायके चले जाना चाहिए। उससे रस वापिस लौट आता है। जिस चीज से ऊबने लगो, उससे विपरीत करने से स्वाद लौट आता है। आपका जीवन ऐसे ही है जैसे मिठाई खाने वाला नमकीन भी खाता है। नमकीन से मीठे का रस वापिस लौटता है। विपरीत से जीभ साफ हो जाती है।

     जो ज्यादा भोजन करने वाले लोग हैं, अक्सर उपवास में उत्सुक हो जाते हैं। जिन्होंने ज्यादा खा लिया है, अब उपवास के सिवाय कुछ बचता भी नहीं है करने को। उपवास से उनके खाने की वृत्ति फिर वापिस लौट आती है। बहुत कामी-चित्त के लोग ब्रह्मचर्य में उत्सुक हो जाते हैं। क्योंकि काम शिथिल हो जाता है, घबड़ा जाते हैं। ब्रह्मचर्य फिर से रस दे देता है। जैसे घड़ी का पेंडुलम बांये से दांये तरफ जाता है, दांये से बांये तरफ आता है। जब वह दांए जा रहा है, तब आपको पता नहीं है, बांये आने की शक्ति जुटा रहा है। जितनी लंबी झूल लेगा दांये तरफ, उतनी ही लंबी झूल लेगा बांये तरफ।

   आपका चित्त ऐसे ही द्वंद्व में भटकता है। पूरे भाव से संसार को भोग लो, उसी क्षण मुक्त हो जाओगे। संसार इतना व्यर्थ है कि आश्चर्य है कि उसमें रस कायम कैसे रह जाता है; उसमें रस कायम रह जाता होगा, तो उसका कारण एक ही है कि आप ने पूरी आंख खोलकर भी नहीं देखा।

*क्या है तप?*

   ‘तप’ शब्द को सुनकर ही याद आती है उन लोगों की जो अपने को कष्ट देने में कुशल हैं। ‘तप’ से आपके मन में क्या खयाल उठता है? ‘तप’ शब्द भीतर कौनसी आकृतियां उभारता है? आत्मदमन, आत्मपीडन। वास्तव में तप से इसका कोई संबंध नहीं है।

दुनिया में दो तरह के हिंसक हैं। जो दूसरों को सताते हैं, छोटे हिंसक हैं. दूसरे कों सताओगे, तो दूसरा कम से कम आत्मरक्षा तो कर सकता है। प्रत्युत्तर तो दे सकता है। भाग तो सकता है! पैरों पर गिरकर गिड़गिड़ा तो सकता है! कोई उपाय खोज सकता है। रिश्वत दे सकता है। चापलूसी कर सकता है। सेवा कर सकता है। गुलाम हो सकता है।

     दूसरे तरह के वे आत्महिंसक हैं, जो खुद को सताते हैं। वहां कोई बचाव नहीं है। वह हिंसा बड़ी है। अब खुद ही अपने को सताओगे, तो कौन बचायेगा! कौन प्रतिकार करे? अपना ही हाथ अगर आग में जलाना हो; आपने ही अगर तय किया हो आग में जल जाने का, तो फिर बचना मुश्किल है!

    तप का ठीक-ठीक अर्थ इतना ही होता है कि जीवन में बहुत दुख हैं, इन दु:खों को सहजता से, धैर्य से, संतोष से, अहोभाव से अंगीकार करना। दुख पैदा करने की जरूरत नहीं है; दुख क्या कुछ कम है! पांव पांव पर तो पटे पड़े हैं। दुख ही दुख ही तो हैं चारों तरफ। लेकिन इन दुखों को भी वरदान की तरह स्वीकार करने का नाम तप है।

     सुख को तो कोई भी वरदान समझ लेता है। दुख को जो वरदान समझे, वह तपस्वी है। जब बीमारी आये, उसे भी प्रभु की अनुकम्पा समझे; उससे भी कुछ सीखे। जब दुर्दिन आयें, तो उनमें भी सुदिन की संभावना पाये। जब अंधेरी रात हो, तब भी सुबह को न भूले। अंधेरी से अंधेरी बदली में भी वह जो शुभ्र बिजली कौंध जाती है, उसका विस्मरण न हो।

   संसार मे तरह तरह के दुख हैं। जीवन चारों तरफ संघर्ष, प्रतियोगिता, वैमनस्य, ईर्ष्या, जलन, द्वेष-इन सबसे भरा है। एक दुश्मन नहीं, हजार दुश्मन हैं। जिनको दोस्त कहते हो, वे भी दुश्मन हैं। कब दुश्मन साकार हो जायेंगे कहना मुश्किल है।

 पश्चिम के चाणक्य  मैक्यावली ने अपनी अद्भुत किताब ‘प्रिंस’ में लिखा है कि अपने दोस्तों से भी वह बात मत कहना, जो तुम अपने दुश्मनों से न कहना चाहो। क्यों? क्योंकि तुम्हारा जो आज दोस्त है, वह कल दुश्मन हो सकता है। दोस्त से भी मत उघाड़ना अपने हृदय को, क्योंकि वह भी नाजायज लाभ उठायेगा किसी दिन। फिर तुम पछताओगे।

*सहज योग क्या है?*

      सहज योग सबसे कठिन योग है, क्योंकि सहज होने से ज्यादा कठिन और कोई बात नहीं। सहज का मतलब क्या होता है? सहज का मतलब होता है जो हो रहा है उसे होने दें, आप बाधा न बनें। अब एक आदमी नग्न हो गया, वह उसके लिए सहज हो सकता है, लेकिन बड़ा कठिन हो गया। सहज का अर्थ होता है हवा—पानी की तरह हो जाएं, बीच में बुद्धि से बाधा न डालें, जो हो रहा है उसे होने दें।

     बुद्धि बाधा डालती है, असहज होना शुरू हो जाता है। जैसे ही हम तय करते हैं, क्या होना चाहिए और क्या नहीं होना चाहिए, बस हम असहज होना शुरू हो जाते हैं। जब हम उसी के लिए राजी हैं जो होता है, उसके लिए राजी हैं, तभी हम सहज हो पाते हैं।

      इसलिए पहली बात समझ लें कि सहज योग सबसे ज्यादा कठिन है। ऐसा मत सोचना कि सहज योग बहुत सरल है। ऐसी भ्रांति है कि सहज योग बड़ी सरल साधना है।

      कबीर का लोग वचन दोहराते रहते हैं. साधो, सहज समाधि भली। भली तो है, पर बड़ी कठिन है। क्योंकि सहज होने से ज्यादा कठिन आदमी के लिए कोई दूसरी बात ही नहीं है। क्योंकि आदमी इतना असहज हो चुका है, इतना दूर जा चुका है सहज होने से कि उसे असहज होना ही आसान, सहज होना मुश्किल हो गया है। पर फिर कुछ बातें समझ लेनी चाहिए :

जीवन में सिद्धात थोपना जीवन को विकृत करना है। लेकिन हम सारे लोग सिद्धात थोपते हैं। कोई हिंसक है और अहिंसक होने की कोशिश कर रहा है; कोई क्रोधी है, शांत होने की कोशिश कर रहा है, कोई दुष्ट है, वह दयालु होने की कोशिश कर रहा है, कोई चोर है, वह दानी होने की कोशिश कर रहा है। यह हमारे सारे जीवन की व्यवस्था है जो हम हैं, उस पर हम कुछ थोपने की कोशिश में लगे हैं।

      हम सफल हों तो भी असफल, हम असफल हों तो भी असफल। क्योंकि चोर लाख उपाय करे तो दानी नहीं हो सकता। 

 जो हैं, उसी को जीएं :

      हमारे सारे जीवन में जो हमारी असहजता है, वह इसमें है कि जो हम हैं, उससे हम भिन्न होने की पूरे समय कोशिश में लगे हैं। नहीं, सहज योग कहेगा जो हैं, उससे भिन्न होने की कोशिश मत करें, जो हैं, उसी को जानें और उसी को जीएं। अगर चोर हैं तो जानें कि मैं चोर हूं और अगर चोर हैं तो पूरी तरह से चोर होकर जीएं।

बड़ी कठिन बात है।

      चोर को भी इससे तृप्ति मिलती है कि मैं चोरी छोड़ने की कोशिश कर रहा हूं। छूटती नहीं, लेकिन एक राहत रहती है कि मैं चोर हूं आज भला, लेकिन कल न रह जाऊंगा। तो चोर के अहंकार को भी एक तृप्ति है कि कोई बात नहीं आज चोरी करनी पड़ी, लेकिन जल्द ही वह वक्त आएगा जब हम भी दानी हो जानेवाले हैं, कोई चोर न रहेंगे। तो कल की आशा में चोर आज सुविधा से चोरी कर पाता है।

सहज योग कहता है : अगर तुम चोर हो तो तुम जानो कि तुम चोर हो—जानते हुए चोरी करो, लेकिन इस आशा में नहीं कि कल अचोर हो जाओगे।

    जो हम हैं, अगर हम उसको ठीक से जान लें और उसी के साथ जीने को राजी हो जाएं, तो क्रांति आज ही घटित हो सकती है। चोर अगर यह जान ले कि मैं चोर हूं तो ज्यादा दिन चोर नहीं रह सकता। यह तरकीब है उसकी चोर बने रहने के लिए कि वह कहता है, भला चोर हूं मुश्किल है आज इसलिए चोरी कर रहा हूं कल सुविधा हो जाएगी फिर चोरी नहीं करूंगा। असल में मैं चोर नहीं हूं परिस्थितियों ने मुझे चोर बना दिया है। इसलिए वह चोरी करने में उसको सुविधा बन जाती है, वह अचोर बना रहता है। वह कहता है मैं हिंसक नहीं हूं परिस्थितियों ने मुझे हिंसक बना दिया है, मैं क्रोधी नहीं हूं वह तो दूसरे आदमी ने मुझे गाली दी इसलिए क्रोध आ गया। और फिर क्रोधी जाकर क्षमा मांग आता है; वह कहता है, माफ कर देना भाई! न मालूम कैसे मेरे मुंह से वह गाली निकल गई, मैं तो क्रोधी आदमी नहीं हूं। उसने अहंकार को वापस रख लिया अपनी जगह। सब पश्चात्ताप अहंकार को पुनर्स्थापित करने का उपाय है। उसने रख लिया, क्षमा मांग ली।

नहीं, सहज योग यह कहता है :  तुम जो हो, जानना कि वही हो, और इंच भर यहां—वहां हटने की कोशिश मत करना, बचने की कोशिश मत करना। तो उस पीड़ा से, उस दंश से, उस दुख से, उस पाप से, उस आग से, उस नरक से—जो तुम हो— अगर उसका पूरा तुम्हें बोध हो जाए, तो तुम छलांग लगाकर तत्काल बाहर हो जाओगे, बाहर होना नहीं पड़ेगा।

   अगर कोई चोर है और पूरी तरह चोर होने को जान ले, और अपने मन में कहीं भी गुंजाइश न रखे कि कभी मैं चोर नहीं रहूंगा; मैं चोर हूं तो मैं चोर ही रहूंगा, और अगर आज चोर हूं तो कल और बड़ा चोर हो जाऊंगा, क्योंकि चौबीस घंटे का अभ्यास और बढ़ जाएगा। अगर कोई अपनी इस चोरी के भाव को पूरी तरह पकड ले और ग्रहण कर ले, और समझे कि ठीक है, यही मेरा होना है, तो आप समझते हैं कि आप चोर रह सकेंगे?

     यह इतने जोर से छाती में तलवार की तरह चुभ जाएगी कि मैं चोर हूं कि इसमें जीना असंभव हो जाएगा एक क्षण भी। क्रांति अभी हो जाएगी, यहीं हो जाएगी।

      लेकिन हम होशियार हैं, हमने तरकीबें बना ली हैं—चोर हम हैं, और अचोर होने के सपने देखते रहते हैं। वे सपने हमें चोर बनाए रखने में सहयोगी होते हैं, बफर का काम करते हैं। जैसे ट्रेन है, रेलगाड़ी के डब्बों के बीच में बफर लगे हैं। धक्के लगते हैं, बफर पी जाते हैं धक्के। डब्बे के भीतर के यात्री को पता नहीं चलता। कार में सिग लगे हुए हैं, शॉक—एब्‍जार्वर लगे हुए हैं। कार चलती है, रास्ते पर गड्डे हैं, शॉक—एज्जार्बर पी जाता है। भीतर के सज्जन को पता नहीं चलता कि धक्का लगा।

     ऐसे हमने सिद्धांतों के बफर और शॉक—एज्जार्बर लगाए हुए हैं।

चोर हूं मैं, और सिद्धांत है मेरा अचौर्य, हिंसक हूं मैं, अहिंसा परम धर्म की तख्ती लगाए हुए हूं— यह बफर है; यह मुझे हिंसक रहने में सहयोगी बनेगा। क्योंकि जब भी मुझे खयाल आएगा कि मैं हिंसक हूं मैं कहूंगा कि क्या हिंसक! अहिंसा परम धर्म! मैं अहिंसा को धर्म मानता हूं।

     आज नहीं सध रहा, कमजोर हूं कल सध जाएगा; इस जनम में नहीं सधता, अगले जनम में सध जाएगा; लेकिन सिद्धांत मेरा अहिंसा है। तो मैं झंडा लेकर अहिंसा का सिद्धांत सारी दुनिया में गाड़ता फिरूंगा, और भीतर हिंसक रहूंगा। वह झंडा सहयोगी हो जाएगा। जहां अहिंसा परम धर्म लिखा हुआ दिखाई पड़े, समझ लेना आसपास हिंसक निवास करते होंगे। और कोई कारण नहीं है।

      आसपास हिंसक बैठे होंगे, जिन्होंने वह तख्ती लगाई है अहिंसा परम धर्म! वह हिंसक की तरकीब है। और आदमी ने इतनी तरकीबें ईजाद की हैं कि तरकीबें—तरकीबें ही रह गई हैं, आदमी खो गया है।

सहज होने का मतलब है जो है, दैट व्हिच इज इज; जो है, वह है। अब उस होने के बाहर कोई उपाय नहीं है। उस होने में रहना है। उसमें ही रहूंगा। लेकिन वह होना इतना दुखद है कि उसमें रहा नहीं जा सकता। नरक में आपको डाल दिया जाए तो आप हैरान होंगे कि नरक में रहने में आपके सपने ही सहयोगी बनेंगे।

     तो आप आंख बंद करके सपना देखते रहेंगे। उपवास किया है किसी दिन आपने? तो आप आंख बंद करके भोजन के सपने देखते रहेंगे। उपवास के दिन भी भोजन का सपना ही सहयोगी बनता है उपवास पार करने में; भोजन का सपना चलता रहता है भीतर। अगर भोजन का सपना बंद कर दें तो उपवास उसी वक्त टूट जाए। लेकिन कल कर लेंगे सुबह।

कल की आशा आज को गुजार देती है। कल की आशा आज को बिता देती है। हिंसक अपनी हिंसा गुजार रहा है, अहिंसा की आशा में, क्रोधी अपने क्रोध को गुजार रहा है, दया की आशा में; चोर अपनी चोरी को गुजार रहा है, दान की आशा में; पापी अपने पाप को गुजार रहा है, पुण्यात्मा होने की आशा में। ये आशाएं बड़ी अधार्मिक हैं। नहीं, तोड़ दें इनको।

     जो हैं, हैं— उसे जान लें और उसके साथ जीएं। वह जो फैक्ट है, उसके साथ जीएं। वह कठिन है, कठोर है, बहुत दुखद है, बहुत मन को पीड़ा देगा कि मैं ऐसा आदमी हूं!

अब एक आदमी है सेक्सुअलिटी से भरा है, ब्रह्मचर्य की किताब पढ़कर गुजार रहा है! काम से भरा है, किताब ब्रह्मचर्य की पढ़ता है, तो वह सोचता है कि हम बड़े ब्रह्मचर्य के साधक हैं। काम से भरा है। अब वह किताब ब्रह्मचर्य की बड़ा सहारा बन रही है उसको कामुक रहने में; वह कह रहा है, आज कोई हर्ज नहीं, आज तो गुजर जाए, आज और भोग लो, कल से तो पक्का ही कर लेना।

        सहज योग का मतलब है. जो है, वह है। असहज होने की चेष्टा न करें; जो है उसे जानें, स्वीकार करें, पहचानें और उसके साथ रहने को राजी हो जाएं। और फिर क्रांति सुनिश्चित है। जो है, उसके साथ जो भी रहेगा, बदलेगा। क्योंकि साठ साल फिर उपाय नहीं है कामुकता में गुजारने का। कितने दफे व्रत लेंगे? व्रत लेंगे तो उपाय हो जाएगा।

अगर मैंने आप पर क्रोध किया और क्षमा मांगने न जाऊं, और जाकर कल कह आऊं कि मैं आदमी गलत हूं और अब मुझसे दोस्ती रखनी हो तो ध्यान रखना, मैं फिर—फिर क्रोध करूंगा, क्षमा मैं क्या मांग! मैं आदमी ऐसा हूं कि मैं क्रोध करता हूं।

       सब दोस्त टूट जाएंगे। सब संबंध छिन्न—भिन्न हो जाएंगे। अकेले क्रोध को लेकर जीना पड़ेगा फिर। फिर क्रोध ही मित्र रह जाएगा। क्रोध करनेवाला भी कोई, क्रोध सहनेवाला भी कोई, क्रोध उठानेवाला भी कोई पास न होगा। तब उस क्रोध के साथ जीना पड़ेगा। जी सकेंगे उस क्रोध के साथ? छलांग लगाकर बाहर हो जाएंगे। कहेंगे, यह क्या पागलपन है?

         नहीं, लेकिन तरकीब हमने निकाल ली है। सुबह पत्नी पर नाराज हो रहा है पति, घंटे भर बाद मना—समझा रहा है, साड़ी खरीदकर ले आ रहा है। वह पत्नी समझ रही है कि बड़े प्रेम से भर गया है। वह बेचारा अपने क्रोध का पश्चात्ताप करके फिर पुनर्स्थापित, पुराने स्थान पर पहुंच रहा है—पुरानी सीमा पर जहां से झगड़ा शुरू हुआ था, उस लाइन पर फिर पहुंच रहा है। साड़ी—वाड़ी आ जाएगी, पत्नी वापस लौट आएगी, पुरानी रेखा फिर खड़ी हो जाएगी। सांझ फिर वही होना है।

     उसी रेखा पर सुबह हुआ था, वही रेखा फिर स्थापित हो गई। फिर सांझ वही होना है। फिर रात वही समझाना है, फिर सुबह वही होना है। पूरी जिंदगी वही दोहरना है। लेकिन दोनों में से कोई भी इस सत्य को न समझेगा कि सत्य क्या है? यह हो क्या रहा है? यह क्या जाल है? बेईमानी क्या है यह? दोनों एक—दूसरे को धोखा दिए चले जाएंगे। हम सब एक—दूसरे को धोखा दिए चले जाते हैं। और दूसरे को धोखा देना तो ठीक, अपने को ही धोखा दिए चले जाते हैं।

सहज योग का मतलब है अपने को धोखा मत देना। जो हैं, जान लेना, यही हूं ऐसा ही हूं। और अगर ऐसा जान लेंगे तो बदलाहट तत्काल हो जाएगी—युगपत, उसके लिए रुकना न पड़ेगा कल के लिए। किसी के घर में आग लगी हो और उसे पता चल जाए कि घर में आग लगी है, तो रुकेगा कल तक? अभी छलांग लगाकर बाहर हो जाएगा। जिस दिन जिंदगी जैसी हमारी है हम उसे पूरा देख लेते हैं, उसी दिन छलांग की नौबत आ जाती है।

       लेकिन घर में आग लगी है, हमने अंदर फूल सजा रखे हैं। हम आग को देखते ही नहीं, हम फूल को देखते हैं। जंजीरें हाथ में बंधी हैं, हमने सोने का पालिश चढ़ा रखा है। हम जंजीरें देखते ही नहीं, हम आभूषण देखते हैं। बीमारियों से सब घाव हो गए हैं, हमने पट्टियां बांध रखी हैं, पट्टियों पर रंग पोत दिए हैं। हम रंगों को देखते हैं, भीतर के घावों को नहीं देखते।

 असत्य बांधता है, सत्य मुक्त करता है :

     धोखा लंबा है और पूरी जिंदगी बीत जाती है और परिवर्तन का क्षण नहीं आ पाता है। उसे हम पोस्टपोन करते चले जाते हैं। मौत पहले आ जाती है, वह पोस्टपोनमेंट किया हुआ क्षण नहीं आता। मर पहले जाते हैं, बदल नहीं पाते हैं।

      बदलाहट कभी भी हो सकती है। सहज योग बदलाहट की बहुत अदभुत प्रक्रिया है। सहज योग का मतलब यह है कि जो है उसके साथ जीओ, बदल जाओगे। बदलने की कोशिश करने की कोई जरूरत नहीं है। सत्य बदल देता है।

     जीसस का वचन है : टुथ लिबरेट्स। वह जो सत्य है वह मुक्त करता है, लेकिन सत्य को हम जानते ही नहीं। हम असत्य को लीप—पोत कर खड़ा कर लेते हैं। असत्य बांधता है, सत्य मुक्त करता है। दुखद से दुखद सत्य भी सुखद से सुखद असत्य से बेहतर है, क्योंकि सुखद असत्य बहुत खतरनाक है, वह बांधेगा। दुखद सत्य भी मुक्त करेगा। उसका दुख भी मुक्तिदायी है।

        इसलिए दुखद सत्य के साथ जीना, सुखद असत्य को मत पालना। सहज योग इतना ही है। और फिर तो समाधि आ जाएगी। फिर समाधि को खोजने न जाना पड़ेगा, वह आ जाएगी। जब रोना आए तो रोना, रोकना मत, और जब हंसना आए तो हंसना, रोकना मत। जब जो हो उसे होने देना और कहना, यह हो रहा है।

 प्रामाणिकता से रूपांतरण :

       मुक्त चित्त वही हो सकता है जो सत्यचित्त हो गया। सत्यचित्त का मतलब, जो हो रहा है—रोना है तो रोएं, हंसना है तो हंसे, क्रोध करना है तो भी आथेंटिक, क्रोध में भी पूरे प्रामाणिक हों। और जब क्रोध करें तो पूरे क्रोध ही हो जाएं—कि आपको भी पता चल जाए कि क्रोध क्या है और आपके आसपास को भी पता चल जाए कि क्रोध क्या है।

       वह मुक्तिदायी होगा। बजाय इंच—इंच क्रोध जिंदगी भर करने के, पूरा क्रोध एक ही दफे कर लें और जान लें। तो उससे आप भी झुलस जाएं और आपके आसपास भी झुलस जाए और पता चल जाए कि क्रोध क्या है।

क्रोध का पता ही नहीं चलता। आधा—आधा चल रहा है। वह भी अनआथेंटिक चल रहा है। इंच भर करते हैं और इंच भर……. हमारी यात्रा ऐसी है, एक कदम चलते हैं, एक कदम वापस लौटते हैं, न कहीं जाते, न कहीं लौटते, बस जगह पर खड़े नाचते रहते हैं।

      कहीं जाना—आना नहीं है। सहज योग का इतना ही मतलब है कि जो है जीवन में, उसको स्वीकार कर लें, उसे जानें और जीएं। और इस जीने, जानने और स्वीकृति से आएगा परिवर्तन, म्यूटेशन, बदलाहट। और वह बदलाहट आपको वहां पहुंचा देगी जहां परमात्मा है।

यह जिसे मैं ध्यान कह रहा हूं यह सहज योग की ही प्रक्रिया है। इसमें आप स्वीकार कर रहे हैं जो हो रहा है; अपने को छोड़ रहे हैं पूरा और स्वीकार कर रहे हैं जो हो रहा है। नहीं तो आप सोच सकते हैं, पढ़े—लिखे आदमी, सुशिक्षित, संपन्न, सोफिस्टिकेटेड, सुसंस्कृत—से रहे हैं खड़े होकर, चिल्ला रहे हैं, हाथ—पैर पटक रहे हैं, विक्षिप्त की तरह नाच रहे हैं! यह सामान्य नहीं है। कीमती है लेकिन, असामान्य है। इसलिए जो देख रहा है उसकी समझ में नहीं आ रहा है कि यह क्या हो रहा है। उसे हंसी आ रही है कि यह क्या हो रहा है! उसे पता नहीं कि वह भी इस जगह खड़े होकर प्रामाणिक रूप से जो कहा जा रहा है, करेगा, तो उसे भी यही होगा।

        हो सकता है उसकी हंसी सिर्फ डिफेंस—मेजर हो, वह सिर्फ हंसकर अपनी रक्षा कर रहा है। वह कह रहा है, हम ऐसा नहीं कर सकते। वह हंसकर यह बता रहा है, हम ऐसा नहीं कर सकते। लेकिन उसकी हंसी कह रही है कि उसका कुछ संबंध है। उसकी हंसी कह रही है कि वह इस मामले से कुछ न कुछ संबंध उसका है। अगर वह भी इस जगह इसी तरह खड़ा होगा, यही करेगा। उसने भी अपने को रोका है, दबाया है; रोया नहीं, हंसा नहीं, नाचा नहीं।

बर्ट्रेड रसेल ने कहा कि मनुष्य की सभ्यता ने आदमी से कुछ कीमती चीजें छीन लीं—उसमें नाचना एक है। बर्ट्रेड रसेल ने कहा, आज मैं ट्रैफलगर स्कायर पर खड़े होकर लंदन में नाच नहीं सकता। कहते हैं हम स्वतंत्र हो गए हैं, कहते हैं कि दुनिया में स्वतंत्रता आ गई है, लेकिन मैं चौरस्ते पर खड़े होकर नाच नहीं सकता। ट्रैफिक का आदमी फौरन मुझे पकड़कर थाने भेज देगा कि आप ट्रैफिक में बाधा डाल रहे हैं।

        आप आदमी पागल मालूम होते हैं, चौरस्ता नाचने की जगह नहीं। बर्ट्रेंड रसेल ने कहा कि कई दफे आदिवासियों में जाकर देखता हूं और जब उन्हें नाचते देखता हूं रात, आकाश के तारों की छाया में, तब मुझे ऐसा लगता है सभ्यता ने कुछ पाया या खोया?

       बहुत कुछ खोया है। बहुत कुछ खोया है। कुछ पाया है, बहुत कुछ खोया है। सरलता खोई है, सहजता खोई है, प्रकृति खोई है, और बहुत तरह की विकृति पकड़ ली है। ध्यान आपको सहज अवस्था में ले जाने की प्रक्रिया है।

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