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*आदिपुरुष और मोदीवाद : खुद ही अधर्म है धर्मान्धता*

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             प्रस्तुति : सुधा सिंह 

    आजकल फिल्म अदिपुरूष के आपत्तिजनक संवादों पर मनोज मुंतशिर निशाने पर हैं। उनकी जबरदस्त आलोचना हो रही है और फिल्म आदिपुरुष को बैन करने की बात उठ रही है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि, न केवल इस फिल्म के संवाद स्तरहीन और लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाले हैं, बल्कि पूरी फिल्म, रामकथा को एक भोंडे मजाक के रूप में प्रदर्शित करती है। 

       लेकिन क्या आप को, बीजेपी के एक नेता का वह ट्वीट याद है जिसमे एक पेंटिंग ट्वीट की गई थी, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, राम को उनकी अंगुली पकड़ कर उनके ‘घर’ में ले जाते हुए दिख रहे हैं। इस चित्र ने, बीजेपी आरएसएस के कितने मित्रों को आहत किया, इसका आप उस ट्वीट पर आए हुए, कमेंट्स से अनुमान लगा सकते हैं।

इस ट्वीट में, बीजेपी महासचिव शोभा करांदलजे ने पीएम मोदी को भगवान राम को मंदिर ले जाते दिखाया था। पेंटिंग में भगवान राम का कद पीएम मोदी से छोटा दिखाया गया था और वह पीएम का हाथ पकड़े हुए दिख रहे हैं। 

     लेकिन, चूंकि इस पेंटिंग में, साक्षात नरेंद्र मोदी जी राम को, उनकी अंगुली पकड़ कर ले जाते हुए दर्शाए गए हैं तो, भला आरएसएस और बीजेपी के किस नेता और कार्यकर्ता की हैसियत और साहस है कि, वह यह भी कह सके कि, ऐसे पेंटिंग बनाने वालों पर कार्यवाही हो, या ऐसा ट्वीट नहीं करना चाहिए था।

      हालांकि, बाद में बीजेपी नेता शोभा करांदलजे ने शायद डैमेज कंट्रोल के लिए एक और पेंटिंग ट्वीट किया जिसमें भगवान राम को हाथी पर सवार होकर आते और पीएम मोदी और यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ को उनकी अगुआनी करते दिखाया गया है।

    उस ट्वीट के बारे मे, सबसे पहली आपत्ति उठाई, कांग्रेस नेता और तिरुअनंतपुरम से सांसद, शशि थरूर ने। उन्होंने इस ट्वीट पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि, “खुद को राम से बड़ा दिखाना राम चरित मानस के किस हिस्से से सीखा है।” 

आज जब मनोज मुंतशिर कह रहे हैं कि, हनुमान तो भक्त थे, उन्हे भगवान हमने बनाया तो हंगामा खड़ा हो गया। वही हंगामा, इस पेंटिंग और ट्वीट पर, इसलिए खड़ा नहीं हुआ कि, क्योंकि राम किसी मुंतशिर के साथ अपने घर में नहीं जा रहे थे, वे जा रहे थे मोदी जी के साथ, जिनके बारे में निर्लज्जता से यह धारणा फैलाई गई है कि, राम को घर तो उन्ही की कृपा से मयस्सर हुआ है। 

       जिस हिंदुत्व की बात आरएसएस बीजेपी करते नहीं थकते, वह न तो सनातन धर्म है और न ही हिंदुइज्म। यह धर्मांधता की चाशनी में पगाकर, उन्माद की आइसिंग से युक्त एक राजनीतिक विचारधारा है जो धर्म को राष्ट्र के पर्यायवाची के रूप में रख कर देखती है। इस विचारधारा का ही एक नाम फासिस्ट राष्ट्रवाद है जो, प्रथम विश्वयुद्ध के बाद, यूरोप की फासिस्ट सोच से उपजी हुई राजनीतिक सोच है।

       इसी संकीर्ण सोच को भारत में आरएसएस के रूप में रोपा गया और फिर सावरकर और गोलवलकर ने हिंदुत्व की नई परिभाषा गढ़ी जिसे सनातन धर्म का पर्याय माना जा रहा है। 

यह भी एक विडंबना है कि, आजादी के समय, धर्म केंद्रित राजनीति और धर्म आधारित राष्ट्रवाद की बात करने वाले, सावरकर और जिन्ना दोनों ही अधार्मिक व्यक्ति थे। जिन्ना तो, रोजा नमाज से ही परहेज करते थे और सावरकर तो घोषित रूप से नास्तिक थे।

    पर उनके राजनीतिक स्वार्थ ने, धर्मांधता की ऐसी आग लगाई जिसने, न केवल आपसी सद्भाव, सहिष्णुता, सांझी विरासत और संस्कृति को झुलसा दिया बल्कि, भारत विभाजन की नीव डाल दी और दुनिया के इतिहास में ऐसी बर्बर हिंसा, जलावतानी सुनी तक नहीं गई थी। उन्होंने मिलकर, एक ऐसी विचारधारा की विषबेल फैलाई जिसका खामियाजा आज तक भारत भुगत रहा है। 

जब भावनाएं, सेलेक्टिव रूप से आहत होने लगें तो वे भवानाओ के आहत होने का मामला नहीं रहता है, उसका उद्देश्य अपनी राजनीतिक सोच को, स्थापित करना होता है। आरएसएस बीजेपी से जुड़ा साहित्य आप पढ़िए आप को इनके इरादे साफ साफ दिखने लगेंगे।

     धर्म, आस्था उपासना आदि चीजें, जिसे आस्था हो वह जरूर करें। किसी की भी आस्था का मजाक नहीं बनाना चाहिए। धर्म और धर्मांधता में स्पष्ट अंतर है। धर्मांधता, अपने आप में ही एक अधर्म है।

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