शशिकांत गुप्ते
आम आदमी को चाहिए रोजगार,और रोजगार मिलने पर मिलना चाहिए वाजिब मेहनताना। इतना की वह अपने परिवार भरण पोषण कर ले।
आम आदमी को जब रोजगार की जुगाड में घर से निकलता है,तब उसका लक्ष्य होता है,सिर्फ और सिर्फ रोजगार। आम आदमी कभी सड़कों के नाम नहीं पढ़ता है।
सड़कों के नाम विकास,प्रगति,
कल्याण होने के बावजूद आम आदमी अपनी रोजमर्रा की बुनियादी समस्याओं से जूझ ही रहा है।
शायर जावेद अख़्तर ने क्या खूब कहा है।
ज़रा मौसम तो बदला है मगर पेड़ों की शाख़ों पर नए पत्तों के आने में अभी कुछ दिन लगेंगे
बहुत से ज़र्द चेहरों पर ग़ुबार-ए-ग़म है कम बे-शक पर उन को मुस्कुराने में अभी कुछ दिन लगेंगे
दस वर्ष पूर्व तो विश्वास के साथ दावा किया था सबका विकास होगा?
शायर गुलाम मोहम्मद क़ासिर यह शेर मौजू है।
कश्ती भी नहीं बदली दरिया भी नहीं बदला
और डूबने वालों का जज़्बा भी नहीं बदला
शब्दों का खेल सिर्फ खेल होता है हक़ीक़त नहीं हैं।
इस मुद्दे पर शायर उबैद सिद्दीक़ी का यह शेर सटीक है।
उदासी आज भी वैसी है जैसे पहले थी
मकीं बदलते रहे हैं मकाँ नहीं बदला (मकीं का अर्थ निवासी)
वादा खिलाफी भी सितम ही है।
ऐसे सितमगर के लिए शायर
मोहम्मद रफ़ी सौदा फरमाते हैं।
बदला तिरे सितम का कोई तुझ से क्या करे
अपना ही तू फ़रेफ़्ता होवे ख़ुदा करे (फ़रेफ्ता का अर्थ मोहित होना)
ऊपरी आवरण बदलने से कुछ नहीं होना ऊपरी आवरण तो दिन भर में कोई भी कितनी ही बार बदल सकता है। साहस का काम तो यह है जो शायर अकबर इलाहाबादी फरमाते हैं।
लोग कहते हैं बदलता है ज़माना सब को
मर्द वो हैं जो ज़माने को बदल देते हैं
सड़कों के नाम बदलने के बाद भी उन सड़कों पर दुकानें है, उन दुकानों में दैनिक उपयोगी वस्तुएं पहले से ज्यादा महंगी ही मिलती है।
सितमगारो को यह याद रखना चाहिए।
लोगों के सब्र का इम्तिहान महंगा साबित होता है।
जब पत्थरों को आईने जवाब देने लगते हैं।
शशिकांत गुप्ते इंदौर