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कन्या जन्म पर माँओं को दुःखी होने पर विवश करती पितृसत्ता

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नीलम स्वर्णकार

अक्सर कहा जाता है कि बेटी पैदा होती है तो माँयें चिंतित हो जाती हैं। हम यह कभी नहीं सोचते कि बेटी या ट्रांसजेंडर बच्चे के जन्म लेने पर माँओं की आंखें नम होने के पीछे क्या वजह हैं? माँयें अपनी इच्छा से दुखी नहीं होतीं, बल्कि इसके पीछे सालों की चली आ रही पितृसत्ता का माहौल और उसका दबाव है। हमें कहना ये चाहिए कि बेटी पैदा हो तो पिता, परिवार और समाज उतना ही सहज और खुश हो, जितना बेटे के पैदा होने पर होता है। इस माहौल में एक माँ को रोने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।

बेटी होने पर इसी तथाकथित सभ्य समाज द्वारा कहा जाता है, ‘अरे कोई बात नहीं, अगली बार बेटा होगा।’

‘अभी से पैसे बचाना शुरू कर दो।’

‘एक बेटी तो पहले से ही है, दूसरा बेटा हो जाता तो जोड़ी बन जाती।’

‘अरे… तुमने जांच नहीं कराई थी, उसमें पता चल जाता है कि लड़का या लड़की।’

यानी सीधे-सीधे यह कहा जाता है कि इस नवजात कन्या की हत्या क्यों नहीं की, अब आगे बड़ी दिक्कत होगी।

और भी इसी तरह की अन्य असंवेदनशील बातें कह कर नवप्रसूता माँ को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दुखी कर दिया जाता है। उस पर अगली बार बेटा पैदा करने के लिए दबाव डाला जाता है।

लड़के और लड़की में क्रूरता की हद तक भेदभाव किया जाता है

बेटी या ट्रांसजेंडर बच्चे पैदा होने पर पितृसत्तात्मक समाज द्वारा माँओं की वो दुर्गति, वो अत्याचार किए जाते हैं कि उसके खौफ से स्त्रियां हर समय बस यही सोचती हैं कि बस बेटा ही पैदा हो। माँओं और बच्चियों पर हुई खौफनाक यातनाओं से अखबारों के पन्ने भरे पड़े हैं।

स्त्रियों को बेटी के जन्म पर इतनी शारीरिक और मानसिक यातनाएं दी जाती हैं कि वह भय के कारण मन्नतें मांगने लगती हैं कि उन्हें बेटी न हो।इसमें उनका दोष नहीं है। दोष पितृसत्तात्मक सोच और इस समाज का है, अगर इस समाज ने एक विशेष लिंग को इतनी तरजीह न दी होती तो बेटी या अन्य जेंडर पैदा होने पर स्त्रियों को रोना, गालियां खाना, पिटना या मरना नहीं पड़ता।

देश के अधिकतर हिस्सों में आज भी महिलाओं को बोझ माना जाता है। पितृसत्तात्मक समाज की सोच है कि स्त्री का या तो शोषण किया जाना चाहिए या त्याग दिया जाना चाहिए। क्योंकि वह अपने परिवार को शादी और दहेज के खर्चों से दुःखी कर देती है, इसलिए उसे बचपन से ही आर्थिक और शारीरिक उपेक्षा सहनी पड़ती है। देश के कई हिस्सों में आज भी बेटी के जन्म का दुःख के साथ स्वागत किया जाता है। उसके साथ भेदभाव जन्म से ही शुरू हो जाता है।

यूनिसेफ के साथ-साथ भारतीय सामाजिक वैज्ञानिकों द्वारा किए गए व्यापक अध्ययनों से भारत में युवा लड़कियों और वृद्ध महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के एक पैटर्न का पता चलता है। उनके खुलासे चौंकाने वाले हैं।

भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है, जहां महिलाओं और पुरुषों का अनुपात पिछले कुछ वर्षों से गिर रहा है। भारत उन मुट्ठी भर देशों में से एक है, जहां महिला-शिशु मृत्यु दर, पुरुष-शिशु मृत्यु दर से अधिक है। इस तथ्य के बावजूद कि जन्म के समय महिला शिशु जैविक रूप से अधिक मजबूत होती है।

लड़कियों को लड़कों की तुलना में कम बार और कम समय तक स्तनपान कराया जाता है। जब वह बड़े हो जाते हैं तो उन्हें अपने भाइयों की तुलना में कम पोषण दिया जाता है।

शिशुओं, बच्चों और प्रीस्कूलों के एक सर्वेक्षण से पता चला था कि उनके संयुक्त आयु समूहों के भीतर, 28 प्रतिशत पुरुषों की तुलना में 71 प्रतिशत महिलाएं गंभीर कुपोषण से पीड़ित थीं।

इससे संबंधित एक आंकड़े से पता चलता है कि सामान्य बीमारियों के इलाज के लिए लड़कियों की तुलना में दोगुनी संख्या में लड़कों को अस्पताल ले जाया जाता है। लड़के-लड़कियों की तुलना में अधिक बार बीमार नहीं पड़ते हैं, बल्कि उन्हें केवल माता-पिता द्वारा अधिक स्वास्थ्य देखभाल प्रदान की जाती है, जो बेटियों की तुलना में बेटों को अधिक महत्व देते हैं।

पितृसत्ता ने बेटे को सदैव प्राथमिकता दी

माँ के लिए तो उसके सभी बच्चे समान होते हैं, लेकिन पितृसत्तात्मक समाज ने सिर्फ बेटों को अपने पास रखा, आज भी रखते आ रहे हैं। बेटियों को विदा करके उनकी माँओं से दूर कर दिया जाता है और ट्रांसजेंडर बच्चे को तो कुछ भी नहीं मिलता।

पिताओं ने बेटों को अपने पास रखा, पर माँओं से उनकी बेटियां दूर कर दी गईं। बेटियों को दूसरे घर के पुरुष और उनके माता-पिता की सेवा करने को भेज दिया गया और अपने घर में भी अपने बेटे से सेवा न करवाकर दूसरे की बेटी (बहू) ले आए। इस बात को खूब प्रशंसित किया गया कि बेटी दूसरे के घर जाकर किसी अजनबी लड़के के माता-पिता की सेवा करेगी और हम अपनी सेवा के लिए बहू ले आयेंगे। कभी किसी को खयाल नहीं आया कि अपने बेटे से सेवा और घरेलू काम क्यों नहीं करवा सकते, उसके लिए दूसरे की बेटी लाना क्यों अनिवार्य कर दिया गया?

बेटियों को कभी अपना समझा ही नहीं गया। उन्हें जन्म से ही दूसरे के घर जाकर काम करने की ट्रेनिंग दी गई। बेटे के दिमाग में यह बात भर दी गई कि शादी से पहले तक उसके काम माँ और बहन करेंगी। शादी के बाद किसी दूसरे घर की बेटी को उसके माता-पिता से दूर कर तुम्हारे (बेटे के) काम करने और बच्चे पालने के लिए लाया जाएगा।

बरसों से बेटियां इस घर से दूसरे घर अवैतनिक घरेलू श्रम करने, बच्चे पालने के लिए विदा करवाई जा रही हैं। पितृसत्तात्मक व्यवस्था ऐसी की गई कि किसी को भी ये बिलकुल भी विचित्र और क्रूर नहीं लगता।

लिंग निर्धारण के लिए पुरुष गुणसूत्र जिम्मेदार

बेटी गर्भ में आ जाए तो भ्रूण हत्या।

बेटी पैदा हो तो माँ को ताने। माँ और बेटी के साथ भेदभाव।

बेटी पैदा होने पर माँ मारना-पीटना, …हत्या तक करना बेहद सामान्य बना दिया गया।

बेटी पैदा होने पर पूरा दोष स्त्री के माथे मढ़कर पुरुषों ने बाहर अफेयर चलाए, दूसरी-तीसरी शादियां तक कीं… जबकि लिंग निर्धारण के लिए पुरुष गुणसूत्र का योगदान होता है।

ससुराल वालों को बेटी में कुछ अच्छा नहीं लगा तो भी माँ को ही ताने दिए जाते हैं कि उसने कुछ नहीं सिखाया। घर में बेटी कुछ करे तो पूरा समाज माँ को ही कोसने आ जाता है। बेटी पैदा होने पर माँओं और बेटियों के साथ इतने शारीरिक और मानसिक अत्याचार किए गए कि अपनी उपेक्षा पर कभी उनका ध्यान ही नहीं जाता। दहेज प्रथा, बाल विवाह जैसी अन्य कुरीतियों से स्त्रियों के प्रति क्रूरता बढ़ती गई।

भारत की 15 वर्ष और उस से कम आयु की लड़कियों की दुर्दशा

लड़कियों की देखभाल और उन पर ध्यान देने की सख्त ज़रूरत है। वे देश की आबादी का 20 प्रतिशत (लगभग) हिस्सा हैं, लेकिन उन्हें पर्याप्त भोजन और देखभाल से वंचित किया जाता है। आर्थिक परिथितियों और क्रूर परंपराओं के चलते लड़कियों/ महिलाओं को बहुत कुछ झेलना पड़ता है। नई-नवेली दुल्हनों को दहेज की मांग पर जला दिया जाता है। कुछ समाज तो ऐसे भी हैं कि अगर किसी बच्ची का बाल विवाह होने से पहले उसके पति की मौत हो गई तो उसे जीवन भर विधवा होने की सजा दे दी जाती है।

भारत के अधिकतर हिस्सों में हर उम्र की (बच्ची, युवा और वृद्ध) महिलाओं को जीवन से वंचित किया जाता है, इसे लेकर पितृसत्ता के तमाम क्रूर तर्क हैं। कन्या-भ्रूण हत्या हमारे समाज में इतनी आम हो गई हैं कि उसे करते-करवाते वक्त किसी के हाथ नहीं कांपते। कई मामलों में पति और परिवारों द्वारा शारीरिक और मानसिक हिंसा करके भी महिला को धमकी दी जाती है कि ‘बेटा नहीं दे सकती तो बेटी को मार दो या पैसे/सोना लेकर आओ।’

अपना नजरिया बदलें… माँओं को दोष देना बंद करें

स्त्रियों को बेटी के जन्म पर इतनी शारीरिक और मानसिक यातनाएं दी जाती हैं कि वह भय के कारण मन्नतें मांगने लगती हैं कि उन्हें बेटी न हो।इसमें उनका दोष नहीं है। दोष पितृसत्तात्मक सोच और इस समाज का है, अगर इस समाज ने एक विशेष लिंग को इतनी तरजीह न दी होती तो बेटी या अन्य जेंडर पैदा होने पर स्त्रियों को रोना, गालियां खाना, पिटना या मरना नहीं पड़ता।

अगली बार आप किसी माँ को बेटी पैदा होने पर दुखी होता देखें तो उसे दोष न दें, ध्यान रखें वह दुखी होती नहीं, बल्कि करवाई जाती है। पितृसत्त्ता और पुरुष प्रधानता से भरे इस समाज में हमें अभी बहुत कुछ सुधार करना है।

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