भारत के प्रधानमंत्री अमेरिका के राजकीय अतिथि बनने के बाद अब फ्रांस में राष्ट्रीय दिवस यानी बैस्टिल दिवस की परेड में मुख्य अतिथि बन रहे हैं। विदेशों में मिल रहा यह सम्मान भारत के लिए गर्व की बात है। भाजपा इसे विश्वगुरु बनने की ओर एक और कदम घोषित कर सकती है। लेकिन इन सम्मान के इन प्रसंगों के साथ-साथ जो और हलचलें वैश्विक परिदृश्य में भारत को लेकर चल रही हैं, उन्हें नजरंदाज नहीं किया जा सकता। जब प्रधानमंत्री अमेरिका के दौरे पर गए थे, तो वहां पहले ही भारत में लोकतंत्र की स्थिति को लेकर सवाल उठने शुरु हो गए थे। कम से कम 75 सांसदों ने राष्ट्रपति जो बाइडेन को पत्र लिखकर उन्हें राजकीय भोज पर आमंत्रित न करने की अपील की थी। श्री मोदी के अमेरिकी संसद में भाषण का भी कई सांसदों ने बहिष्कार किया था, इसके अलावा न्यूयार्क की सड़कों पर ट्रकों में भारत की उन घटनाओं की ओर ध्यान दिलाया गया था, जिनमें किसी न किसी तरह लोकतंत्र या मानवाधिकारों का हनन हो रहा है और सरकार इन पर कुछ नहीं कर रही है। अमेरिका से पहले श्री मोदी आस्ट्रेलिया गए थे, तो वहां बीबीसी की ‘द मोदी क्वेश्चन’ नाम की डॉक्यूमेंट्री दिखाई गई, जिस पर भारत में प्रतिबंध लगा दिया गया है। अब श्री मोदी फ्रांस गए हैं, तब यूरोपीय संघ की संसद में मणिपुर पर सवाल उठ रहे हैं।
यूरोपीय संसद में बुधवार को होने वाली बहस का एजेंडा मणिपुर की हिंसा की निंदा और यूरोपियन यूनियन को भारत सरकार से बातचीत करने का निर्देश देना था। लेकिन भारत ने इस पर कड़ी आपत्ति दर्ज कराई है। भारत ने इसे अपना आतंरिक मामला कहा है। जबकि यूरोपीय संसद चाहती है कि यूरोपियन यूनियन के आला अधिकारी भारत सरकार से बात कर इस मुद्दे को सुलझाने के लिए कहें। इससे पहले भारत में अमेरिकी राजदूत एरिक गारसेटी ने मणिपुर में स्थिति से निपटने के लिए अमेरिकी मदद की पेशकश करते हुए कहा था कि यह एक ‘रणनीतिक’ नहीं , बल्कि एक ‘मानवीय’ मुद्दा है। अमेरिका या यूरोपीय संघ को वाकई कोई हक नहीं है कि वे किसी और के आंतरिक मामलों में दखल दें। लेकिन फिर आप वसुधैव कुटुम्बकम को अपनी सुविधा से इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं। हर देश की संप्रभुता का सम्मान होना चाहिए, लेकिन इसके साथ ही लोकतांत्रिक शासकों को ऐसी व्यवस्था भी बनानी चाहिए कि देश के साथ-साथ नागरिक अधिकारों और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का भी सम्मान हो।
हाल ही में श्री मोदी ने फ्रांस के एक अग्रणी मीडिया घराने ‘लेस इकोस’ को एक साक्षात्कार दिया और कहा कि ग्लोबल साउथ के अधिकारों को दुनियाभर में लंबे समय से नकारा गया है। मैं भारत को ‘ग्लोबल साउथ’ के लिए एक मजबूत कंधे के तौर पर देखता हूं। उन्होंने भारत-अमेरिका के रिश्तों, फ्रांस से भारत के संबंधों पर भी सवालों के जवाब दिए। जो काम श्री मोदी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सकते हैं, वही काम घरेलू स्तर पर करने में परहेज क्यों है। क्यों नहीं देश के पत्रकारों को वो पत्रवार्ता के लिए आमंत्रित करते और खुलकर उनके सवालों के जवाब देते। इसमें मणिपुर या महिला पहलवानों पर सवाल होते, तो उनके भी जवाब श्री मोदी देते। कम से कम देश और दुनिया को ये पता तो चलता कि भारत की सरकार इस मसले पर क्या सोच रही है। अभी 20 तारीख से मानसून सत्र शुरु हो रहा है। तय है कि इसमें भी विपक्ष की ओर से मणिपुर पर सवाल किए जाएंगे। इन सवालों से बचने के लिए भाजपा पहले से कोई तैयारी कर लेगी और किसी न किसी बहाने सत्र के दिन हंगामे की भेंट चढ़ते रहेंगे, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। भारतीय संसद में विपक्ष को सवाल उठाने का मौका नहीं दिया जाएगा और यूरोपीय संघ की संसद में इसे भारत का आंतरिक मसला बता कर बात करने पर आपत्ति जतलाई जा रही है। सवाल ये है कि क्या जम्मू-कश्मीर भारत का आंतरिक मसला नहीं था। वहां क्यों यूरोपीय संघ के लोगों को अनुच्छेद 370 हटने के बाद सैर कराई गई थी।
ख़बर है कि यूरोपीय सांसदों से संपर्क करने के लिए भारत सरकार ने ब्रसेल्स में एक कंपनी ‘अल्बेर एंड जिजर’ की सेवाएं ली हैं, ताकि इस मुद्दे पर बात हो सके। लेकिन भारत सरकार ने इस ख़बर की पुष्टि नहीं की है। वैसे यूरोपीय संसद में पेश किए प्रस्तावों में कुछ ऐसी बातें कही गई हैं जो भाजपा को खटक सकती हैं। जैसे इनमें भाजपा पर नफ़रती भाषण को बढ़ावा देने का आरोप लगाया है। कहा गया है कि भाजपा की नेतृत्व वाली सरकार विभाजनकारी जातीय नीतियों को लागू कर रही है। कुछ दलों ने अफस्पा, यूएपीए और एफसीआरए नियमों के दुरुपयोग का आरोप लगाया है। मणिपुर में संघर्ष के दौरान चर्चों पर हमले और हिंसा पर चिंता जताई गई है। प्रस्तावों में मणिपुर में इंटरनेट प्रतिबंध पर रोक लगाने की मांग की गई है। यूरोपीय संसद से कहा गया है कि वो मणिपुर में मानवाधिकार उल्लंघन के मामले में भारत सरकार से बात करे। वामपक्ष के एक प्रस्ताव में मणिपुर की स्थिति की तुलना जम्मू-कश्मीर से करने की कोशिश की गई है।
बाहर के लोग इस तरह हमारे देश के बारे में बात करें, तो दुख और पीड़ा होती है। लेकिन सच ये भी है कि ऐसे तमाम मुद्दे हमने ही उन्हें थाली में परोस कर दिए हैं। भारत के बारे में पिछले 50-60 बरसों में यहां की विविधता, मजबूत लोकतंत्र, अंतरिक्ष विज्ञान, रक्षा, उद्योग व्यापार, संचार जैसे क्षेत्रों में हमारी प्रगति आदि को लेकर दुनिया में बातें होती थीं। भारत को संभावनाओं से भरा देश माना जाता था। पाकिस्तान या चीन जैसे देशों से होने वाली घुसपैठ या आतंकवाद के मसले पर वैश्विक सहानुभूति हमें हासिल होती थी। लेकिन अब हम पर अपने ही नागरिकों के अधिकारों के हनन को लेकर सवाल उठने लगे हैं, तो इसके लिए किसी साजिश का एंगल तलाशने की जगह आत्मनिरीक्षण करने की ज़रूरत है। यूरोपीय संघ की संसद या अमेरिका को नसीहत देने की जगह अगर प्रधानमंत्री मोदी मणिपुर पर अपनी चुप्पी तोड़ दें तो दुनिया को जवाब वैसे ही मिल जाएगा।
देशबन्धु में संपादकीय