~ सुधा सिंह
भूत-प्रेत के अस्तित्व पर हमेशा से बहस होती रही है और आगे भी होती रहेगी, लेकिन इतना तो सच है कि वे हजारों सालों से हमारी सोच के हिस्सा रहे हैं।
यह और बात है कि हमारी सोच के बहुत बड़े हिस्से पर अंधविश्वास हावी है, वरना भूत-प्रेत के अस्तित्व पर यह विश्वास एकदम अवैज्ञानिक भीनहीं है।सोचने की बात है कि मरने के बाद यह देह तो मिट्टी में मिल जाती है, लेकिन हमारे भीतर तमाम बुद्धि-विवेक के साथ जो संचालक ऊर्जा मौजूद है वह कहां जाती होगी ?
ऊर्जा का कभी विनाश नहीं होता। इसी विदेह ऊर्जा को हम चेतना, आत्मा,भूत या प्रेत कहते रहे हैं। अब तो वैज्ञानिकों का एक वर्ग भी मानने लगा है कि हमारी चेतना देह के नष्ट होने के बाद भी अपनी बुद्धिमत्ता के साथ इस सृष्टि में मौजूद रहती है। स्वर्ग और नर्क की बातें तो कल्पनाएं हैं।
जब देह और इन्द्रिय ही नहीं तो स्वर्ग के सुख और नर्क की यातनाओं का कोई अर्थ नहीं। विदेह ऊर्जाएं पृथ्वी के वातावरण में ही मौजूद रहती हैं।शायद अपने लिए नई देह की तलाश में।
एक तरह से हम सब अपने पूर्वजों की ऊर्जाओं या प्रेतों से घिरे हुए हैं। परामनोवैज्ञानिकों की मान्यता और कुछ लोगों के ऐसे अनुभव रहे हैं कि अदृश्य चेतनाएं हमसे संवाद करना चाहती हैं।
हम उन्हें अपनी चेतना का स्तर बदलकर ही सुन सकते हैं। चेतना का स्तर बदलना बहुत श्रमसाध्य है और यह काम ध्यान और समाधि के माध्यम से सिद्ध योगी ही कर सकते हैं। आमलोगों तक अपना संदेश पहुंचाने के लिए ये ऊर्जाएं उनके अचेतन मष्तिष्क से खेलती हैं।
यह मानसिक संदेश टेलीपैथी जैसा कुछ होता है जिसे हम तंद्रा की अवस्था में अक्सर सुनते और देखते तो हैं, लेकिन भ्रम मानकर अनसुना, अनदेखा भी कर देते हैं।
हमारी यह परंपरागत सोच गलत है कि पृथ्वी के वातावरण में मौजूद ये ऊर्जाएं हमारे लिए खतरनाक होतीं हैं। वस्तुतः वे उतनी ही अच्छी या बुरी होती हैं जितनी वे अपनी देह और अपने देहकाल में रही हैं।
अच्छी ऊर्जाएं आसपास हों तो हमारे मनोमस्तिष्क पर उनका प्रभाव सकारात्मक होता है। हर्ष, उल्लास, उत्साह और अच्छे विचारों के रूप में। नकारात्मक ऊर्जाओं की उपस्थिति हमारे भीतर नकारात्मकता का संचार करती हैं। कभी-कभी विचलित भी करती हैं और अगर ज्यादा शक्तिशाली हुईं तो मानसिक तौर पर बीमार भी।
इस विचलन को आम लोग भूत चढ़ना कहते हैं। भूत-प्रेतों द्वारा हत्या, हिंसा, उत्पात की बातें लोककथाओं, काल्पनिक साहित्य, सिनेमा और बेहूदे टीवी सीरियलों की देन हैं। कुछ लोग प्रेत ऊर्जाओं को देखने के दावे भी करते हैं, लेकिन सच यह है कि ऊर्जा को सिर्फ महसूस किया जा सकता हैं। हां, आप अत्यधिक डरे हुए हों तो आपको प्रेत दिखाई दे जा सकते हैं।
भय के अतिरेक में आपका मस्तिष्क आपके भीतर के डर को ही आपके द्वारा तस्वीरों और फिल्मों में देखे और सोचे गए विभिन्न शक्लों वाले भूत-प्रेतों के रूप में प्रोजेक्ट करता है। मनोवैज्ञानिक इसे इसे मतिभ्रम कहते हैं। यह वैसा ही है जैसे भक्ति के अतिरेक में कुछ लोगों को देवी-देवताओं के साक्षात दर्शन हो जाते हैं।
आज के वैज्ञानिक युग में भी भूत-प्रेतों के प्रति हमारा विश्वास कम तो हुआ है, खत्म नहीं हुआ है। यह और बात है कि हमारे दिलोदिमाग में उन्हें लेकर कचरा ही ज्यादा भरा हुआ है।
विदेह ऊर्जाओं के रूप में उनके वास्तविक स्वरूप और भूमिका को लेकर बहुत शोध नहीं हुए हैं। जिन्हें हम भूत-प्रेत कहकर सदियों से डरते और उन्हें लेकर असंख्य झूठी-सच्ची कहानियां गढ़ते रहे हैं वे वस्तुतः हमारी ही ऊर्जाएं हैं। मरने के बाद हम सबको प्रेत ही होना है।
अपने अस्तित्व के इस सत्य को भयानक और अवांछित तौर पर देखने और प्रचारित करने के आग्रह के कारण हमने इसके इर्दगिर्द असंख्य अंधविश्वासों की रचना कर ली है। ज़रूरी है कि इन तमाम अंधविश्वासों को एक तरफ रखकर प्रेत ऊर्जाओं के बारे में खुले दिमाग से बात और शोध हों। परामनोवैज्ञानिकों द्वारा इस दिशा में कुछ प्रयास हो तो रहे हैं, लेकिन वैज्ञानिकों की मुख्यधारा के इससे जुड़े बगैर यह रहस्य खुलने वाला नहीं।
वैज्ञानिक चेतना का अर्थ बिना जांचे-परखे किसी भी चीज़ को खारिज़ कर देना नहीं होता। जो सवाल मनुष्यता को आदिम युग से परेशान करते रहे हैं उनका समाधान तो होना ही चाहिए। अंधविश्वास अगर गलत है तो अंधअविश्वास कैसे सही हो सकता है ?
(स्रोत : अखबार ‘अमृत विचार’)