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भारत में प्रतिरोध की भाषा आचरण कर्म और मुद्दे विनोबा ने नहीं लोहिया ने उठाये थे

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रमाशंकर सिंह 

19   जुलाई  2023 को यानी तीन दिन पहले मैं सर्व सेवा संघ  वाराणसी के इसी परिसर के प्रकाशन केंद्र से गांधी जी और भगत सिंह पर छपी क़रीब 90 पुस्तकें ख़रीद रहा था अपने पुस्तकालय के लिये ! 

गांधी जी की इस मूर्ति को देखा था और निकट ही जेपी की उपेक्षित मूर्ति और उस पुस्तकालय की ओर भी झांका था जहॉं हज़ारों पुस्तकों को दीमक चाट रही है और बाहर प्रशासन समेत कुल तीन ताले ठुके हुये हैं। आज पुलिस द्वारा सारी किताबें बाहर खुले में फैंकी जा चुकीं हैं और रात में यदि बारिश हो गयी तो वही होगा जो सरकार चाहती हैं कि गांधी विचार के निशान बचे नही। 

सरकार एक मैगा व्यावसायिक प्रोजेक्ट बना रही है जिसे निजी हाथों को दिया जायेगा और जिसमें एक भी बिंदु गांधी विचार का नहीं है। सर्व सेवा संघ के साथ इसी परिसर से सटे अन्य स्थान भी हैं जिनसे डा ० राजेंद्र प्रसाद , जे कृष्णमूर्ति , आचार्य विनोबा , लाल बहादुर शास्त्री , जयप्रकाश नारायण निकट और गहरे से जुड़े रहे हैं। यह बारह एकड़ का स्थान गंगा किनारे राजघाट पर स्थित है जहॉं अब प्रधानमंत्री के नाम से भी एक नमो घाट बन चुका है। 

साठ दिन के मात्र सांकेतिक विरोध के बाद आज सुबह पुलिस ने इसे पहले दबंगई से ख़ाली कराया और लगता है कि आज रात इस परिसर की सभी इमारतें सील या ज़मींदोज़ कर दी जायेंगीं। ज़्यादा तादाद में पुलिस पहुँचने लगेी है ! कुल क़रीब दस गांधीवादी गिरफ़्तार किये गये हैं। किताबें और जेपी की तस्वीर बाहर फैंकी जा चुकी है। 

गुजरात के साबरमती आश्रम और गुजरात विद्यापीठ से ये क़ब्ज़ा करने की जो प्रक्रिया शुरु हुई और गांधीवादियों ने जिस तरह का शर्मनाक आत्म समर्पण किया था उसके बाद दूसरा निशाना आज  वाराणसी के ये केंद्र बने और यहॉंभी यह साबित हुआ कि देश भर के गांधीवादी उनकी संस्थायें मूक समर्थन देने से भी दूर रहीं। इनमें आपस में भी भयंकर कलह फूट है। अपवाद स्वरूप इनेगिने दो चार लोग बाहर से आये , उप्र से भी कोई ख़ास समर्थन नहीं दिखा बल्कि जो कुछ समर्थन मिला भी वह मौखिक , सोशल मीडिया और घर पर लेटा हुआ समर्थन था।  मैदाने जंग में यानी कार्यवाही स्थल से गांधीवादियों की ऐसी कायरतापूर्ण दूरी बनाना हमें समझ में आता है कि आज़ादी के बाद से ही सरकारी संरक्षण पोषण की संस्कृति में टिके रह कर सत्याग्रह व प्रतिरोध का वैचारिक विरोध व उपहास उड़ाने का काम ही तो इन कथित गांधीवादियों ने किया था। आज वही पाप इनके लिये आत्मघाती बन रहा है।  

आज़ादी के बाद गांधी जी द्वारा सीधे या प्रेरित कर सैंकड़ों  संस्थाओं का निर्माण हुआ और शहरों के विस्तारीकरण के बाद तमाम स्थानों पर ये ज़मीनें शहर के मध्य या किनारे पर आ चुकीं थीं और उनकी क़ीमत भी बहुत ज़्यादा हो चुकी है।  संस्थाओं में फूट और निष्क्रियता के कारण सामान्य जनता से कटाव दुराव इस हद तक बढ़ा कि आज 42 लाख की आबादी के शहर में सर्वेसर्वा संघ के समर्थन में 42 लोग भी सक्रिय नहीं थे। 60 दिनों का धरना भी परिसर स्थित आंगनवाड़ी की महिलाओं के कारण चल सका था।  

मुझे मालूम है कि गांधीवादी इस तीखी टिप्पणी पर नाक भौं सिकोडेंगें , सिकोड़ते रहें ; इनके पास कुछ बचा नहीं रहेगा ज़ब तक कि सब एक जुट होकर अपनी झूठी ढोंगी निष्पक्षता और राजनीतिक न्यूट्रल रहने का विनोबाई स्वॉंग त्याग कर प्रतिरोध की एक निश्चित मुद्रा में नहीं आ जाते।  

अभी भी जाग सकते हो कि अगला नंबर उन गांधीवादी संस्थाओं का है जो समझ रहें हैं कि हम तो बचे हुये हैं। राजघाट की एक संस्था पर उनका आदमी पहले ही क़ाबिज़ हो चुका है।  जनता से कटे और जनता के मुद्दों से विमुख ये प्रतिष्ठान अब हिल सकते हैं  और पलीता अन्य कोई नहीं इन्हीं के ‘ भाई जी ‘ लगायेंगें। 

अंत में यही कि प्रतिरोध की भाषा “ अंधेरे में तीन प्रकाश, गांधी विनोबा जयप्रकाश “ नहीं है बल्कि “ अंधेरे में तीन प्रकाश , गांधी लोहिया जयप्रकाश “ है 

भारत में प्रतिरोध की भाषा आचरण कर्म और मुद्दे विनोबा ने नहीं लोहिया ने उठाये थे। जब तक इस पर दिमाग़ी सफ़ाई नहीं होगी आपको रास्ता ही नहीं दिखेगा !

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