कुमार चैतन्य
सफल होने के लिए पूर्व में कहा जाता था कि ब्रेन के बायें से प्रबन्धन करना चाहिए जबकि दायें से नेतृत्व : किन्तु आज के इस सूचना युग में जो भी लीडर, मैनेजर ब्रेन के दोनों हिस्सों का प्रयोग करना नहीं जानते, वे नेपथ्य में चले जायेंगे।
मानव मस्तिष्क पर सम्पूर्ण विश्व में रिसर्च किये जा रहे हैं। अन्य पदार्थ की तुलना में मानव मस्तिष्क अत्यन्त अटपटा ( complex) है। कवि और लेखक भावनाओं ( प्रेम, भय, करुणा, स्नेह वगैरह) का स्थान हृदय को मानते हैं जो सच नहीं है। हृदय का कार्य रक्त को पंप करने का होता है। हमारे विचार, इच्छा, कल्पना, भावना, सभी मस्तिष्क में ही पैदा होते हैं।
औद्योगिक युग में नौकरी करने वाले कर्मचारियों एवं कामदारों का ध्येय वेतन एवं उससे जुड़ी अन्य सुविधाओं तक थी। जबकि 21वीं सदी कम्प्यूटर और इंटरनेट की सदी है। आज के इस सूचना युग में मुख्य ध्येय सेल्फ-फूलफिलमेंट अर्थात कार्य में से मिलता संतुष्टि होता है।
पहले भौतिक सुख सुविधाओं वाला जीवन जीने के लिए लोग बिना पसंद वाला काम भी करते थे। वहीं इस समय के मैनेजर कार्य के असंतुष्टि ( dissatisfaction) से पैदा हुई अलगाव (Alienation) को चलाने के लिए तैयार नहीं है।
हालांकि लोग मस्तिष्क के दोनों हिस्सों का प्रयोग करते हैं, परंतु आम तौर पर हर व्यक्ति में एक हिस्सा ही अधिक प्रबल होता है।
जाहिर है आदर्श स्थिति तो यह होगी कि व्यक्ति मस्तिष्क के दोनों हिस्सों के बीच अच्छा तालमेल रखे तथा दोनों की ही योग्यताओं को विकसित करे,ताकि वह पहले यह जान सके कि इस स्थिति में किस चीज की जरूरत है और फिर वह उससे निबटने के लिए उचित साधन का इस्तेमाल करे। परंतु लोगों में अपने आधिपत्य (Dominance) वाले गोलार्ध के ” आरामदेह दायरे ” (Comfort zone) में बने रहने की प्रवृत्ति होती है,इसलिए वे हर स्थिति का विश्लेषण दायें या बायें मस्तिष्क की वरीयता के अनुसार करते हैं।
अब्राहम माश्लो के शब्दों में :
” जो व्यक्ति हथौड़े के प्रयोग में निपुण होता है, उसमें हर चीज को कील समझने की प्रवृत्ति होती है.”
अमेरिकी, यूरोपीय स्कॉलरों के अनुसार भारतीय विद्यार्थी बुद्धिशाली जरूर हैं किन्तु रचनात्मक ( creative) बिलकुल नहीं। प्रॉब्लम सोल्वर होते हैं किन्तु प्रॉब्लम फाइंडर नहीं। उच्च ग्रेड तो लाते हैं किन्तु क्वेश्चनिंग माइंड नहीं। बुद्धि और सृजन के अर्थ अलग अलग होते हैं। भारत के अनेक बुद्धिशाली लोग, बिलकुल सृजनताविहीन ( non creative) पाये जाते हैं।
दुनिया में जो भी रिसर्च हुए हैं उनमें एक भी भारतीय नाम नहीं है। रेलवे, टीवी, विमान, कंप्यूटर, कार, बिजली जैसी असंख्य चीजों में से एक भी भारतीय शोध नहीं। सभी शोध पश्चिमी देशों में किया गया है।
इसका कारण है कि वहाँ लेफ्ट ब्रेन के साथ राइट ब्रेन को भी पुष्पित पल्लवित करने की स्वतन्त्रता वहाँ का समाज, वहाँ के लोग देते हैं। स्कूल, कॉलेजों में स्टूडेंट्स से अनेकों प्रकार के प्रोजेक्ट्स कराये जातें हैं। अमेरिका और इंग्लैंड में पीएचडी या मास्टर डिग्री के लिए यदि मुख्य विषय कंप्यूटर इंजीनियरिंग है तो उसके साथ दो गौण विषय म्यूजिक और स्विमिंग लिया जा सकता है।
जबकि भारत में यह हास्यास्पद लगेगा क्योंकि हमारे मुल्क में शैक्षणिक प्रयोग करने की छूट नहीं। बीकॉम का स्टूडेंट्स मुख्य विषय एकाउंटिंग के साथ दो गौण विषय बायोकेमिस्ट्री और मनोविज्ञान या अंग्रेजी साहित्य नहीं ले सकता।
यह लम्बा नहीं चल सकता यदि अपनी संस्थाएं प्रयोगात्मक नहीं होगी तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अथवा वैश्विक स्पर्धा हमारी संस्थाओं को खत्म कर डालेंगी।
भारत की लगभग सभी संस्थाएं लेफ्ट ब्रेन डोमिनेंट ( सत्ता एवं नियंत्रण प्रधान) हैं। जिसमें सिस्टम्स और प्रोसीजर्स का कठोरता के साथ पालन होता है किन्तु जिस मिशन को लेकर संस्था खड़ी की गई है उसका हृदय ही ना हो तो ऐसी संस्थाएं थोड़ी ढीली पड़ जाती हैं, जबकि थोड़ी कम यांत्रिक हो तो संस्था का उद्देश्य अच्छी तरह सिद्ध होता है।
यही कारण है कि कुछ अपवादों को यदि छोड़ दिया जाय तो हम मुल्क में टिकाऊ संस्थाओं को खड़ा ही नहीं कर पाये हैं क्योंकि हम लेफ्ट ब्रेन के आधिपत्य ( अर्थात तर्क, व्यवस्था, ऑडिट, नियंत्रण, समयबद्धता, नियमबद्धता वगैरह) में जीते आये हैं।
कुछ वर्ष पूर्व भारत आये एप्पल कम्पनी के को- फाउंडर स्टीव वोज्नियाक से जब पूछा गया कि :
“भारत के बारे में आपके क्या विचार हैं? क्या आपको लगता है कि यहां से कोई वैश्विक टेक कंपनी उभर
सकती है?
उन्होंने जवाब देते हुए कहा :
”भारत में सफलता पढ़ाई और नौकरी पर आधारित है… रचनात्मकता कहाँ है?”
आगे उन्होंने कहा :
“मैं मानवविज्ञानी नहीं हूं और मैं भारत की संस्कृति को पर्याप्त रूप से नहीं जानता हूं। मैं तकनीकी कंपनियों में इतनी बड़ी प्रगति नहीं देखता। यहां की सबसे बड़ी टेक कंपनी इंफोसिस कौन सी है ? शायद ? मुझे इंफोसिस से ऐसी कोई बात सामने आती नहीं दिख रही है और मैंने उनके लिए तीन बार मुख्य व्याख्यान दिया है।
भारत की संस्कृति अकादमिक उत्कृष्टता, अध्ययन, सीखने, अभ्यास करने और अच्छी नौकरी और शानदार जीवन पर आधारित सफलता की संस्कृति है। ऊपरी भारत के लिए, निचले नहीं। मुझे दो भारत दिखते हैं. यह काफी हद तक सिंगापुर की पढ़ाई जैसा है, पढ़ाई करो, कड़ी मेहनत करो और आपको एमबीए मिल जाएगा, आपके पास मर्सिडीज होगी लेकिन रचनात्मकता कहां है?
जब आपका व्यवहार बहुत अधिक पूर्वानुमानित और संरचित होता है, हर कोई एक जैसा होता है तो रचनात्मकता छूट जाती है। न्यूज़ीलैंड जैसे छोटे देश को देखें, वहां के लेखक, गायक, खिलाड़ी, यह एक बिल्कुल अलग दुनिया है.”
इसी तरह अभी कुछ दिन पूर्व ही भारत आये चैट जीपीटी के सीईओ सैम आल्टमैन से गूगल इंडिया के
पूर्व प्रमुख राजन आनंदन ने पूछा था कि : सैम, हमारे पास भारत में एक बहुत ही जीवंत पारिस्थितिकी तंत्र है, लेकिन विशेष रूप से आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, क्या ऐसे स्थान हैं, जहां आप भारत के एक स्टार्टअप को आधारभूत (एआई) मॉडल बनाते हुए देखते हैं, हमें इसके बारे में कैसे सोचना चाहिए, भारतीय स्टार्ट्अप्स को इस दिशा में काम करने के लिए किस तरह से काम करना
चाहिए? आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस टूल
‘ओपनएआई’ के संस्थापक और सीईओ सैम ऑल्टमैन ने कहा है, कि चैट जीपीटी जैसा टूल बनाना भारतीय कंपनियों के वश की बात नहीं है.”
स्टीव वोज्नियाक ,सैम आल्टमैन या किसी अन्य द्वारा की गई ऐसी टिप्पणियों से हमारे अहम पर चोट पहुंचती है, जो कि एक देशभक्त नागरिक होने के कारण लाजिमी है। किन्तु सत्यता हमारे समाज, संस्कृति, व्यवस्था, प्रबन्धन,नेतृत्व पर बड़ा प्रश्न खड़ा कर रही है।
क्योंकि यह सत्य हैं कि हम भारतीय जिस संस्कृति, व्यवस्था में रहतें हैं, वहाँ मुख्यत: बायें मस्तिष्क का ही आधिपत्य है। इसमें शब्दों, नाप- तौल और तर्क को सिंहासन पर बिठाया जाता है, जबकि हमारे स्वभाव के अधिक रचनात्मक या कलात्मक पहलू, हमारे बोध को अकसर उतनी प्रधानता नहीं दी जाती। हममें से बहुत से लोगों को अपने दायें मस्तिष्क का दोहन करना मुश्किल लगता है।
हमारे देश में राजनीतिक, शैक्षणिक, सामाजिक, व्यवसायिक किसी भी प्रकार की संस्थाएं हैं उनका नेतृत्व एवं प्रबन्धन लेफ्ट ब्रेन डॉमिनेंट हैं। हमारे यहाँ टाटा, बिरला, अदानी, महिंद्रा, इंफोसिस, रिलायंस जैसी जायंट कम्पनियाँ हैं, किन्तु ये सभी मैनुफैक्चरर्स है, कॉपी बेस्ड है। कोई न्यू आइडिया, शोध बेस्ड कंपनियां नहीं हैं, जिसने मानव सभ्यता को इंफ्लुएंस किया हो, यहाँ कोई गूगल, फेसबुक, एप्पल जैसी कम्पनी नहीं पैदा हुई क्योंकि यहाँ स्पेस ही कहाँ है?
लीडरशिप बुनियादी तौर पर राइट ब्रेन का एक अत्यन्त शक्तिशाली गतिविधि है। एक तरह से यह कला अधिक है। यह जीवन दर्शन पर आधारित होती है, क्योंकि मस्तिष्क का राइट भाग विश्लेषणात्मक( analytical) नहीं, परंतु संकलनात्मक या एकात्मक ( synthesizing) है। संश्लेषण (synthesis) से यानी यह अलग अलग टुकड़ो को मिलाकर देखता है।
यह क्रियेटिविटी , इमैजिनेसन का कार्य करता है एवं इसका सम्बन्ध सबके एक साथ एवं संपूर्ण (holistic) चिंतन से है। बायां गोलार्ध समयबद्ध है, जबकि दायां समयमुक्त है।
रेशनल माइंड एवं इफेक्टिव लीडरशिप से ही समाज में पैराडायमेटिक परिवर्तन होता है, यथास्थितिवाद (status quo) के पूर्व धारणाओं को तोड़कर मौलिक तब्दीली (transformation) होती हैं। जैसे राजतन्त्र के आधार पर खड़ी समाजव्यवस्था के विरोध स्वरूप लोकतन्त्र के चिंतन का जन्म हुआ, जिससे समग्र सामाजिक चिंतन एवं व्यवहार बदल गया।
मानव समाज में ऐसे पैराडायमेटिक परिवर्तनों में विकासवाद का सिद्धांत ( डार्विन), मनोविश्लेषण का सिद्धांत (फ्रायड), द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का सिद्धांत ( मार्क्स) सापेक्षवाद का सिद्धांत ( आइंस्टीन) का मानव सभ्यता में पैराडायमेटिक परिवर्तन लाने में महत्वपूर्ण योगदान है।
अत: हमारा व्यक्तिगत जीवन हो या सामाजिक, प्रोफेशनल हमें नेतृत्व,प्रबन्धन आदि में राइट ब्रेन के साथ लेफ्ट ब्रेन का प्रयोग करना चाहिए एवं इसके फलने फूलने के लिए स्पेस पैदा किया जाना चाहिए जिससे रेशनलिटी,क्रियेटिविटी, साइंस, इनोवेशन आदि के माध्यम से हम एक बेहतर इंडिया का निर्माण कर सकें।