अग्नि आलोक
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*हैरत है,गैरत गायब*

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शशिकांत गुप्ते

शर्मसार देश,देश को है हैरत
कहाँ गायब हो गई लोगों की गैरत
मणिपुर के हाल है बेहाल
नियंत्रण से बाहर
आपसी बहस में
आरोप प्रत्यारोप में
एक दूसरे पर दोषा रोपण के
लिए शब्दों बाढ़
कहावत हो रही चरितार्थ
सांड सांड की लड़ाई नुकसान में बाड़।
प्रतिस्पर्धा हैवानियत में
लानत है,ऐसी सियासत में
कब,कहां,कितनी, कैसी लूटी अस्मिता
शर्मसार है मानवता
सूबे में जो आग है ये अलाव नहीं हैं
ठंडे बस्ते को सेंकने के लिए
ना ही तंतुर है रोटी सेंकने के लिए
कब तक सेंकोगे सियासी रोटी
जाहिल नोच रहें हैं होकर बैखोफ
अबलाओं की बोटी बोटी
नतीजा शायर बशीर महताब
के इस शेर में बयां होता है
इस दौर-ए-आख़िरी की जहालत तो देखिए
जिस की ज़बाँ-दराज़ हुकूमत उसी की
(ज़बाँ-दराज़ मतलब गुस्ताख़ या मुंहफट)
अंत में मोहम्मद कमाल अज़हर के निम्न शेर के माध्यम से कहा गया तंज प्रस्तुत है।
चुल्लू-भर पानी में जाके डूब मर
कुछ न कुछ ग़ैरत ही खा के डूब मर

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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