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ये कब्र का पत्थर नहीं राहत इंदौरी का कंधा है

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दीपक असीम

राहत इंदौरी सिर्फ मशहूर शायर नहीं बल्कि बेहतरीन फिल्मी गीतकार भी थे। आपने दर्जनों फिल्मों में एक से एक बढ़कर गाने लिखे। जैसे महेश भट्ट की सर, राजकुमार संतोषी की घातक और इंद्र कुमार की इश्क।

-करीब फिल्म का गीत चोरी चोरी जब नजरें मिली,
-खुद्दार फिल्म का तुमसा कोई प्यारा कोई मासूम,
-इश्क का नींद चुराई मेरी किसने ओ सनम,
-घातक का कोई जाए तो ले आए,
-मर्डर का दिल को हजार बार रोका….

ये सभी गीत राहत साहब की कलम से निकले हैं।

इंदौर में जब भी मुशायरा होता है और बाहर से कोई शायर आता है तो सबसे पहले उन्हें राहत इंदौरी की याद आती है।

हिमाचल के शायर शाहिद अंजुम परसों जब इंदौर आए तो सबसे पहले मरहूम राहत इंदौरी के साहबजादे सतलज राहत को फोन किया। कहा एक काम है, मुझसे मिलो आकर। सतलज जब गए तो कहा राहत साहब की कब्र पर ले चलो, मुझे वहां फातिहा पढ़ना है। सतलज जब उन्हें कब्रिस्तान ले गए तो कब्र पर पहुंचते ही उन्होंने आवाज़ लगाई अस्सलाम वालेकुम राहत साहब…जैसे राहत साहब जवाब देंगे वालेकुम सलाम शाहिद कैसे हो, कब आए इंदौर।😘

फिर उनकी कब्र के पत्थर पर बाजू रखकर खड़े हो गए। सतलज से कहा मुझे लग रहा है मैं राहत साहब के कंधे पर हाथ रखकर खड़ा हूं, मेरा फोटो खींच दो…। 😭

परिजनों को अच्छा लगता है जब कोई इस तरह उनके अपने को याद करे, इतनी मुहब्बत और इतनी बेतकल्लुफी भरी सादगी से। मुशायरे के अगले दिन सतलज को उन्होंने फिर बुलाया और इस बार वे नूह आलम की कब्र पर गए। वैसा ही सलाम किया, जैसे नूह आलम के मिलने पर किया करते थे।

नूह आलम से तो खैर शाहिद अंजुम को लगाव रहा। मगर राहत इंदौरी के ज्यादा करीब वे नहीं थे। कुछ मुशायरो में साथ रहा होगा। राहत इंदौरी ने बड़प्पन भरा बर्ताव किया सो उसका कर्ज महसूस करते हैं और पिछली बार भी इंदौर आए तो उनकी कब्र पर गए थे। शाहिद अंजुम मुहब्बत और वफादारी से भरे हुए हैं। कहते हैं नूह की याद में मुशायरा हुआ तो अपने पैसों से टिकिट लेकर आऊंगा। अपने खर्च पर होटल में ठहरूंगा।🥲

जब लाभमंडपम में मुशायरा हो रहा था, तो पास बैठे संजय वर्मा को याद आया कि राहत साहब की मौजूदगी से मंच कितना भरा-भरा और रौनक वाला लगता था। उनका होना ही मुशायरों को उमंग और उत्साह से भर देता था। सुनने वालों को इस बात की गारंटी होती थी कि जाने से पहले उन्हें कुछ मनपसंद सुनने को मिलेगा।

जब राहत का जिक्र छिड़ गया तो यह भी याद आया कि मुशायरे में किसी शायर ने मंच से उनका नाम नहीं लिया। रहमान मुसव्विर ने पचासों शेर अपनी याददाश्त के सुनाए मगर उनमें राहत कहीं नहीं थे। जो शायर पढ़ने आए, उनमें से भी किसी ने नहीं कहा कि राहत साहब के शहर में शायरी पढ़ रहा हूं। आम तौर पर यह जुमला तो शायर बोलते ही हैं। राहत इंदौरी के सबसे अच्छे दोस्तों में से एक होने का दावा करने वाले ताहिर फराज ने भी उनका नाम नहीं लिया और शबीना अदीब ने भी। यह संयोग नहीं हो सकता और ना राहत इंदौरी इतनी जल्दी अप्रासंगिक हो सकते हैं।

शायर असल में माहौल और मजमा देखकर बात करते हैं। इस मजमे में कुछ लोग ऐसे भी हो सकते थे, जिन्हें राहत इंदौरी की शायरी से कुछ कष्ट रहा हो। याद कीजिए कि उनकी मौत के बाद भी उन्हें उनके कुछ अशआर के लिए ट्रोल किया गया था। नफरती चिंटुओं के डर से उनका नाम किसी ने नहीं लिया। मगर इतनी भी क्या ज़मानासाज़ी कि झूठे से भी नाम न लो। दूसरे ना लें तो चल जाए मगर दशकों के साथी भी नाम भूल जाएं तो बुरा लगता है।

राहत अब हमारे बीच नहीं रहे लेकिन उनकी यादें इंदौरियों के जहन में ताजा है। कितना अच्छा हो मुशायरे की निजामत करने वाले और इंदौरी शायर कम से कम उन्हें याद करके खिराजे अकीदत पेश करें….🌹🌹🌹
Deepak Aseem Javed Shah Khajrana

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