अग्नि आलोक
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*सियासत : हम बेशर्म हैं, हमें शर्म नहीं आती*

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         ~ पुष्पा गुप्ता

   लोकसभा में केंद्र की क़रीब एक दशक पुरानी सरकार के ख़िलाफ़ विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ अविश्वास प्रस्ताव लेकर आया है। यह प्रस्ताव पारित होने से तो रहा लेकिन आम चुनाव जब गिनने भर दिन दूर हैं तो इसे लाना ज़रूरी हो गया था। विपक्ष के पास अपनी बात कहने की कोई जगह नहीं बची है। संसद में भी अब सहज संवाद, विमर्श के अवसर लगभग विलुप्त हैं।

      कहने-सुनने की, बहस की अब वहाँ खुली गुंजाइश नहीं। ऐसे अन्य मंच भी सब ध्वस्तप्राय हैं। इन दस सालों में मीडिया तो देश को विपक्ष से मुक्त मान बैठी है, भले ही लोकतंत्र के सौभाग्य से अभी विपक्ष है, प्रदेशों में उसकी सरकारें हैं. लेकिन विपक्ष का गला अवरुद्ध कर दिया गया है। कथित मुख्यधारा के मीडिया में वह तब ही ग़लत कारणों से ख़बरों में रहता है जब सरकार की ऐजेंसियाँ उसको घेरती और आशंका-दहशत- लाचारी के बीच घुमाती रहती हैं।

      प्रायोजित सोशल मीडिया से ज़हरीला सैलाब रोज़ सुबह उमड़ता है। झूठ की बाढ़ अहर्निश सच को पछाड़ती, बहाती रहती है। तथ्यों की शामत आयी हुई है। अविश्वास प्रस्ताव विपक्ष द्बारा बोलने और मन की बात कहने का इकलौता उपलब्ध, हथियाया हुआ मौक़ा है। इसका हश्र वह जानता है, पर गला भी खुलना चाहिए, आवाज़ बुलंद होनी चाहिए, चुप्पियाँ टूटनी और तोड़नी चाहिए।

        यह भी सच है कि अंततः मीडिया के भोपुओं और भक्त सम्पादकों- बुद्धिजीवियों और संघ- सेना और फेफड़ों के धनी लोगों की कर्कशता ही सारी आवाजों पर भारी पड़ेगी।

विवेक, उदारता, भलमनसाहत, मेलमिलाप की आवाज़ों पर ये आवाज़ें भारी पड़ रही हैं तो इसलिए कि होशो हवास को गुम करके हमने सब्ज़बाग़ दिखाती, नफ़रत, विभाजन, कट्टरता, फैलाती, भदेस, ललकारती, हिंस्र आवाज़ को चुना था। अब यह भेद खुल चुका है कि  इस आवाज़ का मकसद समाज में धर्मान्ध विद्वेष, उग्रता बोने का था जिसमें वह कामयाब रही,अन्यथा वह खोखली, निरर्थक आवाज़ है जिसका कामधाम से कोई लेना-देना नहीं, उसकी कोई सरोकारी गूँज नहीं।

        आज जब हम उस उत्तेजक आवाज़ के कारण उस व्यक्ति के ही शिकंजे में फँस चुके हैं जो अपनी ज़रूरत पर ही आवाज़ देता है और ऐन बहुत अहम सार्वजनिक मौक़े पर नहीं बोलता तो नहीं ही बोलता। मुश्किल यह आन पड़ी है कि बाक़ी सबकी बोलती बंद की जा चुकी है. संसद में हंगामा तो है पर विचार- विमर्श का सन्नाटा कर दिया गया है। यह हंगामा भी बोलने देने और ‘आप भी’ बोलिये की गुज़ारिश को लेकर था… और कमसकम सदन में तो मुँह खुले उसके लिए बात अविश्वास तक पहुँच गयी।

        सब आवाज़ों पर भारी इस आवाज़ को संवेदना, सहानुभूति, समझदारी और सौहार्द से भरी आवाज़ों के आगे बैठा पाये तो जीत की असली शुरुआत होगी। इस आवाज़ और इसके तेवर पर जाँनिसार मीडिया के कारण यह काम अत्यंत कठिन है। मीडिया की राजदीप (क) शैली यही है कि अगर मोदी या सरकार पर वार करना ही पड़े तो आड़ लेकर करो या पहले दूसरे पलड़े में ख़ूब सी तारीफ़ रख दो।

       साहसी, निर्भीक, हिम्मती, निडर चैनलों पर भी बाज़ वक्त यही लीक पिटती दिखती है। इसलिए आप पाते हैं कि काँग्रेस या विपक्ष की आड़ ली जाती है फिर इल्तिजा के अंदाज़ में शिकवा कर दिया जाता है… सलाह देने जैसा सलीक़ा अपनाया जाता है। सम्पादकीय लिखने में भी यही फ़ैशन आम है। आज की अघोषित इमरजेंसी की दबे स्वर में भी आलोचना  करने के पहले पिटी पिटाई इंदिरा गाँधी की मरम्मत होनी ही होती है। सभी विद्वानों के पास पसंदीदा गड़े मुर्दे होते हैं जिन्हें वे काफ़ी करामात और कारीगरी से खोलते और समझाते चलते हैं।

उपयुक्त संदर्भ ज़रूरी होते हैं पर जब  वे आड़ बनते हैं या विचलन लाते और अगर- मगर पैदा करते हैं तो कोफ़्त होती है। अटलजी के लफ्फ़ाज भाषणों पर मीडिया लहलोट था वैसे ही मोदीजी के सनसनीबाज़ भाषणों पर है। पर  आलोचना के पहले अनेक वक्ता रस्मी तौर पर प्रायः ‘उनकी’ भाषण पटुता का बखान और लोकप्रियता में कोई कमी नहीं जैसे बयानों से शुरुआत करते हैं. अपनी ही आलोचना को अस्थिर और पनीला करते हुए।

      मोदी जी की खाट खड़ी करने के लिए धुरंधर लोग भी अटलजी को ले ले आते हैं, जबकि वे तो मोदी के सबसे बड़े तारणहार थे। यह स्वयंसेवक अटल बिहारी के साथ सरासर अन्याय है। उन्होंने 2002 के दंगों के बाद ख़ुद राजधर्म का पालन नहीं किया तो मोदी जी से क्या कराते, बल्कि उन्होंने उस उक्ति को ही अर्थहीन कर दिया। वाया आडवाणी अटलजी और मोदी जी की निरंतरता को अलक्षित नहीं करना चाहिए। रहगुज़र वही है, अटल -आडवाणी का कारपेट भी रेड  था जिस पर भारी मलबा गिरा हुआ था।

        मोदीजी का कारपेट ज़्यादा सुर्ख़ रेड है पर उनकी सफल यात्रा मलबे के मुक़ाम से ही रंग लायी। संगीन फ़र्क़ यह हुआ कि मोदी अमृतकाल में राज ही धर्म हो गया और चुहल के अर्थ में चुटकुला जुमला हो गया। 

       इस प्रस्ताव का जो होना हो, वह हो, असल बात है, अविश्वास ! देश का आम नागरिक आज अविश्वास में आपादमस्तक डूबा है। वह देश, समाज, धर्म, संविधान, संसद, लोकतंत्र, सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग से लेकर बाज़ार तक सबके प्रति अविश्वास से भरा हुआ है। यह यक़ीन कर पाना उसके लिए कठिन है कि जो वह देख रहा, सुन और समझ रहा है , वह ही सच है! माहौल में भरी घृणा से वह हतप्रभ है।

       एक सामाजिक- आर्थिक-राजनीतिक और संवैधानिक -लोकतांत्रिक चक्रव्यूह रच दिया गया है, जिससे घिरा हुआ वह ख़ुद  को कल्पनातीत स्थितियों में पा रहा है। सत्ता को इतना कपटी-क्रूर  कभी नहीं देखा, न ऐसा निर्द्वन्द्व, बेपरवाह और अहमन्य। विपक्ष को अभी-अभी तक निर्जीव, निरासक्त और निष्क्रिय देखना सदमे जैसा सालता रहा है।      

       राजनीतिक प्रतिहिंसा, दुरभिसंधियों से आमजन हैरान है। निगहबान संस्थाओं का कर्मठ से वाचाल हो रहना, दो टूक से टूक- टूक हो टूटना  गहरी परेशानी का सबब है। चुनावों का संदिग्ध होना, मीडिया का मर मिटने के लिए हर क्षण तैयार रहना, हार-जीत का फ़र्क़ ख़त्म होना, ख़ुशहाली के वादों-दावों का जुमला हो जाना , यह सब उसके भोले विश्वास के साथ धोखाधड़ी से कम क्या है ! अनर्गल प्रलाप, कोहराम, कालोहल माहौल में इस कदर भरा है या भर दिया गया है कि सही चीज़ देखनी,समझनी मुहाल है। 

हैरत है कि रहजन रहबर कब और कैसे हुआ , सब काला कैसे सब सफ़ेद हो गया। नागरिकों का ग़ायब होना और रह जाना सिर्फ़ हिन्दू-मुसलमान -ईसाई का विकट अविश्वसनीय है। 

     बेहद कल्पनाओं से भी बहुत परे विशद धनराशियों से वह चकराया हुआ है, चाहे वे राशियाँ घोटाले की हों या क़र्ज़माफियों की, ख़रीद-फरोख़्त की हों या शान-शौक़त, प्रसाधन की. मुद्रा की महान महिमा, लालच की अपरम्पार दुनिया, गाय, गोबर, बुलडोजर से वह भौंचक है। बाज़ार में वह विस्फारित आँखें लिये खड़ा है, बाज़ार जो ऐशो-आराम के सामानों से भरे हुए हैं पर उसे दो जून का खाना, कपड़ा-लत्ता मयस्सर नहीं।

      कभी प्याज, तो कभी टमाटर उसकी औकात से कई गुने रुपये दूर हो जाते है। अपने अधिकारों का पत्ता साफ़ होने से वह चकित है। उसकी समझ से परे है यह कि प्रतिकार, हिम्मत, क्रोध विरोध को क्या हुआ! अपनी लाचारी, बेबसी पर, चारों तरफ़ व्याप्त चुप्पी-सन्नाटे पर वह अविश्वास ग्रस्त है। अपना होना विश्वसनीय है  पर उस होने को चरितार्थ, सार्थक करना अविश्वसनीय होता जा रहा है। जो  घोर अप्रत्याशित हुआ करता था आज वह सामान्य प्रत्याशित है। सचाई, ईमानदारी, परम्परा, प्रक्रिया, मर्यादा, लोकलाज, शोभनीयता सब गुमशुदा हैं।

मोदीजी के राज की यह अर्जित उपलब्धि है पर इनके लिए कोई और भी कलप नहीं रहा है।अधम होती जाती राजनीति, दूभर होते जाते जीवन पर किसी को शर्म न आना भरोसे का क्षत-विक्षत हो जाना है। शर्म- शर्म का शोरशराबा है पर वह ससुरी शर्म गयी कहाँ कोई नहीं जानता। यह विश्वास की शर्म बची हुई है बहुत बड़ा धोखा है और उसके सबसे बड़े प्रतीक को पहचानना मुश्किल नहीं। 

       मणिपुर इस अविश्वास की सबसे ह्रदयविदारक मिसाल है और वहाँ दो स्त्रियों के साथ वहशीपन से ज़्यादा अविश्वसनीय और क्या होगा ! इस महादेश में हर जगह यह सब होना और उसका ‘कड़ी कार्रवाई’ के सख़्त लहज़ों के बाद होते रहना और फिर ‘मणिपुर’ हो जाना संस्कार- संस्कृति- सांस्कृतिकता पर हमारे भरोसे की धज्जियाँ उड़ जाना है। माहौल में विचार से बड़ा व्याभिचार कब और कैसे हुआ… यह कैसे हुआ कि सद्भाव, सम्मान, संवेदना फ़ालतू शब्द हो गए? कैसे हुआ कि लोग गाते हुए चिल्लाने लगे।

      गाली संवाद का आभूषण कैसे बनती जा रही है? इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इनक्यूसिव अलाएंस (इंडिया) को कैसे आतंकवाद से जोड़ा जा सकता है ? क्या इंडिया शब्द विशेषण से दूषण बन चुका है , कि उससे जुड़कर चीज़ों के अर्थ पतित हो जाते हैं। इंडिया ही भारत और भारत की यह देश है। यहाँ की विविधता भरी आबादी के हर शख़्स का नाता ‘मदर इंडिया’ से है और वे सारे के सारे ‘सन ऑफ़ इंडिया’ हैं।

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