अग्नि आलोक
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*सियासत : जुर्म पर सत्ता की ख़ामोशी का रिवाज़*

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         पुष्पा गुप्ता

   शासक वर्ग और उसके समर्थक राष्ट्रवाद, जातिवाद और धर्म की आड़ में अपने छुपे हुए एजेंडे को आगे बढाते हैं। वे राष्ट्र के संसाधनों पर एकक्षत्र आधिपत्य चाहते हैं। प्रायः पूंजीवाद प्रजातिवादी-राष्ट्रवाद की आड़ में अपने हितों को आगे बढ़ाता ही है।

     नव लोकतांत्रिक समाज में वे जनता को अपने प्रति जवाबदेह बनाना चाहते हैं न कि खुद को जनता के प्रति। 

    जब राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिदृश्य मेंअशुभकारी सुविधावादी चुप्पियाँ या फिर सुविधाजनक मुखरता तैर रही हो, तब सही बात कहना बहुत आसान नहीं होता है। खतरे हर पल सामने होते हैं। ये ऐसे सहयात्री होते हैं जो आपको मंजिल की ड्योढ़ी पर न पहुंचने देने के लिए कसम खाए रहते हैं। आपको जातिद्रोही, समाजद्रोही, धर्मद्रोही और राष्ट्रद्रोही कब साबित कर दिया जाय आप खुद नहीं जान पाएंगे।

      शासक वर्ग जनता की सीमाओं को समझ उनका फायदा उठाते हैं। वे उनको असली मुद्दों से भटकाते हैं। वे चार किलो राशन और प्रतिद्वंद्वी वर्ग के कल्पित भय को दिखाकर जनता को उनकी न्यूनतम आवश्यकताओं से भी दूर कर देते हैं। वे आज्ञापालक समाज की निर्मित चाहते हैं, न कि विमर्शवादी समाज। इसीलिए वे स्वतंत्र प्रेस के सिद्धांत के पक्षधर नहीं। वे मन की बात के जरिये एकालाप चाहते हैं। वे खुले प्रेस का सामना नहीं करना चाहते और चाहेंगे भी क्यों?

      इस प्रवृत्ति के लोग अपने दुष्कृत्यों को अतीत की घटनाओं से जस्टीफाई करने की कोशिश करते हैं। दुराचार को मेरे-तेरे में डिफाइन करेंगे। इस तरह की घटनाएं तो पहले भी हुईं हैं, का हवाला दिया जाएगा।

     ये सारे बचाव अपने शासन को निष्पाप सिद्ध करने के लिए होते हैं। अपने निर्बाध शासन के अधिकार को चुनौती उन्हें क्योंकर स्वीकार होगी।

 नैतिक-अनैतिक मान्यताएं भी नहीं उन्हें रोक सकती। निर्बाध शासन में जो बाधा बनेगा वह जमीदोज किया जाएगा। 

  पूंजी के अति संकेंद्रण के चलते वे लोककल्याण के कामों को रोक देते हैं या फिर उन पर न्यूनतम व्यय करते हैं। लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा के नाम पर उन्हें सेवानिवृत्त कर्मचारियों को पेंशन देना तक स्वीकार नहीं। ऐसे में वरिष्ठ नागरिकों पर पैसा खर्च करना अपव्यय की कोटि में आ जाता है।

      घोर पूंजीवादी प्रवृत्ति समाज को व्यक्तियों के समूह के रूप में देखती है। यहां व्यक्ति की हैसियत एक भौतिक संसाधन या मानव संपदा से ज्यादा नहीं रहती है। ऐसे में वरिष्ठ नागरिक जो किसी भी तरह की सेवा दे सकने में असमर्थ होते हैं, पूंजीवादी मानसिकता के लिए भारस्वरूप ही होते हैं।

 वे उन पर क्यों पैसा खर्च करें?? यहां मानवीय दृष्टि न रहेगी। यह घोर अर्थवाद लोककल्याण का विरोधी है।

       वे स्थायी नौकरियों को कब संविदा में बदल दें, कोई ठिकाना नहीं। सम्प्रदाय/जाति की गोलबंदी में फंसा आम आदमी उनके द्वारा किये जा रहे शोषण को न समझ, अपने त्याग की वांछनीयता के रूप में देखता है। वह इसे अपना त्याग समझ गर्वित होता है। हमारी भावनाओं का कितना व्यापार होगा यह उनकी सामर्थ्य पर निर्भर हैं। उनका व्यापार कौशल हमारी अंधता की मात्रा पर निर्भर है।

      हम खुद उनके सहाय हो जाते हैं। हम उनके उद्देश्यपूर्ति के हवन की समिधा बन जाते हैं। हम उनके गढ़े गए नैरेटिव के पैरोकार बन जाते हैं।

       अग्निवीर योजना के फायदे बताने वाले भी इसी श्रेणी में आते हैं। राष्ट्रवाद के इसी संकीर्ण सोच ने हमारी लोकतांत्रिक चेतना का खात्मा कर दिया है। हमें उतनी ही जानकारी दी जाएगी जो उनके हित में है। इसमें जनहित या राष्ट्रहित खोजना व्यर्थ है। महंगी शिक्षा और प्रकाशकों के हिसाब से पाठ्यक्रम का तय होना अभिभावकों के शोषण का कारगर जरिया है।

       प्राइवेट और सरकारी स्कूलों में एक समान पाठ्यक्रम का अभाव शोषकों को अवसर उपलब्ध कराते हैं।

 एक स्वस्थ लोकतंत्र में “सूचना का अधिकार” लोकतंत्र के जिंदा होने का सबूत है। लेकिन जब इस तरह की असामाजिक शक्तियां सत्ता पर काबिज होंगी तो वे सबसे पहले आपके इस अधिकार को ही नियंत्रित करेंगी। वे आपके के साथ कुछ भी साझा नहीं करेंगी।

शुरुआती दौर में अगर आप सवाल करेंगे तो उधर से शायद ही जवाब आए।

     अपने अपराधों पर सत्तापक्ष की घोर चुप्पियाँ अगर परम्परा बन जाएं तो समझिए कि वह आपराधिक घटना की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए प्रयत्नशील नहीं, अपितु घटना को जाहिर होने से रोकने के लिए तानाबाना बुनने की कोशिश में है।

     ऐसे में सजग पत्रकारों और साहित्यकारों की भूमिका बढ़ जाती है। स्वतंत्रता के समय अंग्रेजों के शोषण करने के तरीकों और उनके श्रेष्ठताबोध को तोड़ने में साहित्यकारों और राजनीतिज्ञों की अहम भूमिका रही थी। लोकतांत्रिक और न्यायपूर्ण समाज की निर्मित के लिए प्रेमचंद, रेणु और निराला सहित तमाम साहित्यकारों ने अपनी बेहतर भूमिका अदा की। सामाजिक और आर्थिक शोषण के आधारों पर कसकर चोट की।

      परिस्थितियां फिर लौटकर आती हैं, इसलिए हमें जागरूक रहना है और लोगों को जागरूक करना होगा। ऐसा सामाजिक और राष्ट्रीय दायित्व समझकर करना होगा। खतरे तो रहते ही हैं इस तरह की भूमिका में, लेकिन फिर वही प्रेमचंद की वो बात याद आ जाती है कि “क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे”। प्रेमचंद की इस उक्ति की सार्वकालिक समीचीनता सिद्ध करती है कि ईमान के प्रति प्रतिबद्धता कितनी जरूरी है। प्रेमचंद ईमान के पहरुए थे।

        वे सच और समाज हित को कितना महत्त्व देते थे, उनके लेखन में सहज झलकता है। कष्ट सहे, खतरे भी उठाए पर  उन्होंने अपने लेखकीय मूल्यों से कभी समझौता न किया।

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