देवदत्त पट्टनायक
कर्ण में नायक के सभी गुण होते हुए भी उसकी मां, उसके भाइयों, उसके गुरु, यहां तक कि भगवान ने भी उसे नायक नहीं बनने दिया। इसलिए उसके प्रति एक तरह की सहानुभूति का होना स्वाभाविक है। उसके जन्म की कहानी तो सभी जानते हैं- राजकुमारी कुंती ने एक जादुई मंत्र पाया था, जिसके प्रयोग से उसने सूर्यदेव का आवाहन किया और उनसे पुत्र प्राप्त किया। कुंती को डर था कि अविवाहित होने के कारण उसकी बदनामी होगी। इसलिए उसने इस पुत्र को, जो दिव्य कवच और दिव्य कुंडली पहनकर जन्मा था, टोकरी में रखकर नदी में छोड़ दिया। एक सारथी ने इस बच्चे को बचा लिया।
इस प्रकार कर्ण क्षत्रिय होने के बावजूद सूत-पुत्र बनकर बड़ा हुआ। बड़े होते कर्ण ने अपनी नियति को बदलने की ठान ली। वह जानता था कि वह योद्धा था। वह द्रोणाचार्य से मिला, लेकिन उन्होंने उसे यह कहकर ठुकरा दिया कि वह क्षत्रिय वर्ण का नहीं था। द्रोण की अस्वीकृति के बाद कर्ण परशुराम का शिष्य बना, जो क्षत्रियों के अलावा अन्य सभी को युद्ध-विद्या सिखाने के लिए तैयार थे। लेकिन कुछ ही दिनों में उन्हें पता चल गया कि कर्ण जन्म से क्षत्रिय था। धोखा दिए जाने से क्रोधित होकर उन्होंने कर्ण को शाप दिया, ‘युद्ध में निर्णायक क्षण पर तुम मुझसे सीखा ज्ञान भूल जाओगे।’ निराश होकर कर्ण घर लौटा।
आंध्र की एक लोककथा के अनुसार रास्ते में उसे एक लड़की रोती हुई दिखाई दी। उसका दूध का मटका फिसलकर दूध धरती पर गिर गया था। कर्ण ने मिट्टी को निचोड़कर दूध फिर से मटके में लौटा दिया। लड़की ख़ुशी-ख़ुशी घर लौटी, लेकिन धरती मां कर्ण से नाराज हो गई। उन्होंने सौगंध खाई कि एक दिन वे भी कर्ण को निचोड़कर उसकी मृत्यु का कारण बनेंगी। स्वयं धरती मां की नाराजगी के बाद तो कर्ण ने ठान लिया कि वह समाज में अपने गुणों के आधार पर ही अपनी जगह बनाएगा। उसने हस्तिनापुर में भीष्म द्वारा आयोजित धनुर्विद्या की प्रतियोगिता में भाग लिया। इसमें कर्ण विजयी रहा। पांडवों द्वारा नकारे जाने के बावजूद कौरवों ने उसे स्वीकारा। दुर्योधन ने उसे अंग देश का राजा घोषित किया। कर्ण दुर्योधन का सदा के लिए आभारी रहा। दुर्योधन और कर्ण सबसे अच्छे मित्र बन गए। कर्ण के राजा घोषित होने के बाद भी किसी ने उसे महत्व नहीं दिया। सभी के लिए वह सूत-पुत्र ही था।
यह तब स्पष्ट हुआ, जब सभी राजकुमार द्रौपदी के स्वयंवर में भाग लेने गए थे। कर्ण के धनुष उठाने से पहले ही द्रौपदी ने घोषणा कर दी कि कर्ण उसका पति बनने के अयोग्य है, क्योंकि वह निचली जाति का है। यह संभव है कि सबकी उपस्थिति में हुए अपने इस अपमान के कारण ही कर्ण ने द्रौपदी के वस्त्रहरण की घटना को नहीं रोका। दुर्योधन आश्वस्त था कि कर्ण हमेशा उसका साथ देगा, जिस कारण उसने ढीठता से पांडवों को उनके हिस्से की संपत्ति से वंचित कर दिया था। जब युद्ध की घोषणा हुई, तब कृष्ण ने कर्ण को पांडवों की ओर से लड़ने के लिए लुभाने का प्रयास किया, लेकिन कर्ण दुर्योधन के प्रति निष्ठावान रहा। तब कृष्ण के कहने पर कुंती ने कर्ण को उसके जन्म का सच बताया। सच जानकर कर्ण दंग रह गया, फिर भी उसने कौरवों का साथ छोड़ने से इनकार कर दिया। हालांकि उसने कुंती को यह वचन जरूर दिया कि वह अर्जुन को छोड़ अन्य किसी भी पांडव का वध नहीं करेगा। अंत में जब अर्जुन और कर्ण आमने-सामने आए, तब कृष्ण के कहने पर धरती मां ने कर्ण के रथ का पहिया जकड़ लिया। कर्ण ने जादुई मंत्र से पहिया छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन ठीक उसी समय परशुराम के शाप के कारण वह मंत्र भूल गया।
हताश होकर उसने अपना धनुष पटक दिया और रथ से कूदकर ख़ुद पहिया छुड़ाने लगा। तब कृष्ण ने अर्जुन को द्रौपदी वस्त्रहरण की याद दिलाते हुए कहा कि आज जिस तरह कर्ण असहाय है, उसी तरह तब द्रौपदी भी असहाय थी। कर्ण सहित कौरवों ने उसकी मदद नहीं की थी। कृष्ण ने अर्जुन से भी निर्मम बनकर कर्ण पर वार करने के लिए कहा। कर्ण की पीठ अर्जुन की ओर होने के कारण वह असहाय था। फिर भी अर्जुन ने बाण चलाकर कर्ण का वध किया। कृष्ण ने कर्ण का वध क्यों करवाया? विद्वान मानते हैं कि ऐसा करके भगवान ने कार्मिक संतुलन बनाए रखा। कृष्ण अपने पहले जन्म में राम थे। राम ने सूर्यदेव के पुत्र सुग्रीव का समर्थन किया था। जब सुग्रीव की अपने भाई और इंद्रदेव के पुत्र बाली से लड़ाई हुई, तब राम ने बाली की पीठ पर धनुष से वार करके उसका वध किया था। इसलिए जब भगवान ने कृष्ण के रूप में जन्म लिया, तब उनका इस स्थिति को उलटना ज़रूरी था। लिहाजा, अब कृष्ण ने इंद्रदेव के पुत्र अर्जुन का समर्थन किया और सूर्यदेव के पुत्र कर्ण का वध करवाया। इस तरह कर्म का लेखा-जोखा संतुलित रहा।