अग्नि आलोक
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 *दार्शनिक रंग में व्यंग्य*

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शशिकांत गुप्ते

आज तो गजब हो गया। जब मैं सीतारामजी से मिलने गया तो उन्हे देखकर मुझे आश्चर्य हुआ।
आज सीतारामजी, पूर्ण रूप से दार्शनिक स्वरूप में दिखाई दिए।
अपने घर में ही पलंग पर धोती और कुर्ता पहनकर ऐसे विराजमान थे,जैसे कोई आधुनिक कथा वाचक,कथा का वाचन करते हुए विराजित होता है।
मैने सीतारामजी से इस परिवर्तन का कारण पूछा?
सीतारामजी ने मुझ से कहा जगत मिथ्या है। अपनी काया भी माया ही है। इतना कहने के बाद सीतारामजी ने मुझे रामचरित मानस का यह दोहा सुनाया।
काम,क्रोध,मद,लोभ,सब
नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि
भजहुँ भजहिं जेहि संत।

मैने सीतारामजी से कहा इस दोहे के माध्यम से विभीषण ने अपने भाई दानव राज रावण को अंहकार को त्यागने के लिए उपदेश दिया है।
सीतारामजी मेरी बात सुनकर मुस्कुराए,और अपनी वास्तविक मानसिकता में आकर कहने लगे, सच में “त्रेता युग” में कही उपदेशक बातें “कल युग” में सिर्फ पढ़ने,सुनने और एक दूसरे को “सुनाने” के लिए ही रह गई है।
सीतारामजी से मैने कहा आज क्या हो गया आपने यह स्वांग रच रखा है?
सीतारामजी ने कहा,आज मैने टीवी पर सन 1960 में प्रदर्शित फिल्म पतंग देखी।
इस फिल्म के गीत सुनकर मैं भावुक हो गया,कारण इस फिल्म में गीतकार राजेंद्र कृष्ण रचित गानों में यथार्थ का चित्रण है।
यह कहते हुए सीतारामजी ने मुझे इस गीत की कुछ पंक्तियां मुझे सुनाई।
तू आप है अपना चोर काहे रपट करें कोतवाली
वही बगीचा लूटा रे तूने,था तू जिसका माली
पेड़ लगाया पाप का माँगे बदले में नारंगी
लाख छिपाए रेशम से,काया तेरी नंगी

मैने कहा वाह वाह क्या बात है,एकदम प्रासंगिक पंक्तियां हैं।
सीतारामजी,मेरी बात अनसुनी कर पतंग फिल्म के अन्य एक गीत की पंक्तियां मुझे सुनाने लगे।
ये है दुनिया की रित बने किसी की ना मित
कोई चीज है प्रीत नहीं इसको पता
ये है झूठ की गुलाम झूठ सुबह, झूठ शाम
कभी भूल से ना करे ये किसी का भला

मैने सीतारामजी को प्रणाम किया और कहा कि,आप सच में, सच्चे साहित्यकार हैं। आपकी विधा भी व्यंग्य की ही है। व्यंग्य की विधा के प्रति आपकी प्रतिबद्धता को सलाम है।
सीतारामजी ने मुझे धन्यवाद दिया और कहा समझने वाले समझ गए जो ना समझे वो अनाड़ी है

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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