शशिकांत गुप्ते
इन दिनों हिंसा की खबरों को पढ, सुन और देख कर दिल दहल जाता है। निर्भीक होना तो मानव के आत्म विश्वास का सबूत है।
बेखौफ होकर अपराध को अंजाम देना,विक्षिप्त मानसिकता का द्योतक है।
सवाल तो यह है कि,हिंसा की पराकाष्ठा अर्थात किसी को भी जान से खत्म करने के लिए कोई इतना निर्दयी कैसे हो जाता है?
एक और हम विश्व गुरु बनने के लिए सपने संजो रहे हैं। दूसरी ओर हम अपने ही देश में अपनी भारतीय संस्कृति,और अपने आदर्शो को कलंकित करते जा रहे हैं।
दोषी कौन? इन दिनों इस प्रश्न पर बहुत ही हास्यास्पद बहस की जाती है? अपने जेहन में झांकने के बजाए हम इतिहास को कोसने लगते हैं। दूसरों की गलतियां गिना कर स्वयं की जवाबदारी से मुंह मोड़ने का गैर जम्मीदाराना आचरण करते हैं।
एक ओर भ्रष्टाचार को मिटाने की बात करते हैं,दूसरी ओर भ्रष्टाचार के आरोपियों के साथ गल बहियां करने में जरा भी संकोच नही करते हैं।
मानव में हिंसक प्रवृत्ति जागृत होने का कारण क्या हो सकता है? जघन्य अपराध के लिए प्रवृत्त करने के लिए प्रषय देने का काम कौन सी मानसिकता करती है?
क्या अपने देश की फिल्मों में हिंसा की पराकाष्ठा दर्शाना अप्रत्यक्ष रूप से हिंसा को प्रोत्साहित करना नहीं है?
इतना ही लिखा हुआ मेरे व्यंग्यकार मित्र सीतारामजी ने पढ़ा और मुझे सलाह दी कि, इतना सब लिखने की आवश्यकता नहीं है।
आप तो सन 1961 में प्रदर्शित फिल्म अमर रहे ये प्यार में प्रसिद्ध कवि,और गीतकार स्व.प्रदीप रचित इस गीत की पंक्तियां लिख दो।
आज के इंसान को ये क्या हो गया
इसका पुराना प्यार कहां पर खो गया
अपना देश था वो देश भाई, लाखों बार मुसीबत आई
इंसानों ने जान गवाई,पर बहनों की लाज बचाई
हमने अपने वतन को देखा,आदमी के पतन को देखा
आज तो बहनों पर भी हमला होता है,दूर किसी कोने मजहब रोता है
आज बही जो खून की धारा,दोषी उसका समाज है सारा
सीतारामजी ने कहा उक्त पंक्तियों में सब कुछ बयां हो गया है।
मैने कहा मुझे इस मुद्दे पर मेरे मित्र शायर नरेद्र शर्मा के इस शेर का स्मरण हुआ।
लोगों ने उकसाया था पथराव के लिए
लेकिन मेरे ज़मीर को पत्थर नहीं मिला
ज़मीर का जागना बहुत जरूरी है।
शशिकांत गुप्ते इंदौर