अग्नि आलोक
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*चंद्रयान महज पैसे की बर्बादी है?*

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.        ~ प्रखर अरोड़ा 

बल्ब को लगातार गर्म करते रहें, तो एक वक़्त ऐसा आयेगा, जब बल्ब अल्ट्रा-वायलट रौशनी फेंकने लगेगा, अर्थात ऊर्जा खर्च होगी लेकिन दृश्य प्रकाश हासिल नहीं होगा।

     18वीं शताब्दी के अंत में इस समस्या पर काम करते हुए मैक्स प्लांक सिर्फ यह जानना चाहते थे किस तापमान पर बल्ब द्वारा अधिकतम दृश्य प्रकाश हासिल किया जा सकता है, और इस खोज के दौरान उन्हें ज्ञात हुआ कि प्रकाश ऊर्जा के पैकेट्स यानी क्वांटा में बंटा हुआ होता है।

     इस तरह एक लाइट बल्ब की समस्या सुलझाते हुए मैक्स प्लांक ने उस क्वांटम विज्ञान की नींव रख दी जो आज हमारे आधुनिक विश्व में 99% अविष्कारों के लिए सीधा उत्तरदायी है।

इसी तरह अणुओं की मैग्नेटिक रेसोनेंस की खोज करते आइजक रबी ने कहाँ सोचा था कि उनके सिद्धांत का प्रयोग कर आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में सर्वाधिक उपयोगी चीजों में से एक यानी MRI मशीन का निर्माण कर दिया जायेगा।

     सुदूर अन्तरिक्ष में ब्लैकहोल्स को एक्स-रे स्पेक्ट्रम में देखने की कोशिश कर रहे वैज्ञानिक को भी कहाँ गुमान था कि एक दिन उसकी खोज दुनिया भर के रेलवे स्टेशन, एअरपोर्ट, बस अड्डे इत्यादि में पाए जाने वाले और सुरक्षा की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण “एक्स-रे स्कैनर” को जन्म दे देगी।

     मैं आपको हजारों उदाहरण दे सकता हूँ जो विज्ञान की दुनिया के इस चलन को साबित करते हैं कि – एक तकनीक जन्म लेते समय बेशक गैरजरूरी लगे, पर समय के साथ वह तकनीक 100 अविष्कारों को जन्म दे कर मानवता की समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करती है।

       अपोलो अभियान से पूर्व विश्व के सभी हवाई-जहाज वायर, केबल, पुल्ली और राड्स पर आधारित मेकेनिकल सिस्टम से उडाये जाते थे। अपोलो 11 में नासा ने पहली बार डिजिटल तकनीक पर आधारित Fly By Wire सिस्टम को स्पेसशिप के कंट्रोल्स से जोड़ा और कुछ ही वर्षों में यह तकनीक विश्व के सभी विमानों में अपना ली गयी जिससे एक नयी इंडस्ट्री का जन्म भी हुआ और विमान उड़ाना सुगम और सुरक्षित भी हुआ। यह सिर्फ एक उदाहरण है।

 पिछली शताब्दी के साठवें दशक में अपोलो अभियानों ने नासा को सिर्फ स्पेस रेस ही नहीं जितवाई, बल्कि तब से लेकर अब तक अमेरिका में  Breathing apparatuses, Fabric structures, Communications, Protective coatings, Food packaging, Cold-Weather Wearables, Solar Power, Foil Blankets, Scratch-Resistant Glasses, Cordless Power Tools, Water purification आदि 2000 से ज्यादा क्षेत्रों में ऐसी खोजें हुईं, जिनकी तकनीक के तार मूल रूप से अपोलो अभियानों से जुड़े हुए थे। इन सभी खोजों की लिस्ट नासा की वेबसाइट पर देखी जा सकती है।

.      आज पौने चार लाख किमी दूर मौजूद चाँद पर खनिज और पानी की खोज कर रहे भारतीय चंद्रयान से Artificial Intelligence, Remote sensing, Remote navigation, Remote mining, Digital Controlled Driving, Heat shielding इत्यादि जैसे अनेक क्षेत्र में अभूतपूर्व तकनीकी प्रगति के द्वार नहीं खुलेंगे? नयी इंडस्ट्रीज जन्म नहीं लेंगी? रोजगार नहीं बनेंगे? बिल्कुल बनेंगे, पर इसे देखने के लिए दूरदृष्टि चाहिए, छुद्रदृष्टि नहीं.

एक दूसरा झूठ आजकल धड़ल्ले से यह बोला जा रहा है कि अमेरिका और यूरोपीय देश चाँद पर मिशन भेज कर ठन्डे पड़ चुके हैं, तो हम क्यूँ चाँद पर स्पेसमिशन भेजने की फिजूलखर्ची कर रहे हैं? यह सरासर झूठ है। अब चूँकि विध्नसंतोषी लोग अमेरिका में भी कम नहीं, महंगा देश होने के कारण अमेरिका में एक स्पेस मिशन की कीमत अरबों डालर आती है।

     इसलिए सफल अपोलो अभियानों के बाद रुदालियो के दबाब में नासा के बजट पर अंकुश लगाया गया। चूँकि सीमित पैसा था, इसलिए नासा ने भी उसका सदुपयोग करते हुए विगत दशकों में सौरमंडल के दूसरे ग्रहों की ओर मिशन भेजने पर ज्यादा ध्यान लगाया, पर इस बीच चाँद कोई भूल नहीं गया। 

.       पता नहीं ये इन बुद्धिजीवियों को खुद नहीं पता या वे आपको बताना नहीं चाहते कि वर्तमान में विश्व के 27 देशों के साथ नासा 2025 तक चाँद पर परमानेंट ह्यूमन स्टेशन बनाने के महत्वकांक्षी अभियान में जुटा है। इस अभियान के महत्त्व का अंदाजा आप इसी तरह लगा सकते हैं कि इस अभियान पर अमेरिका के टोटल आठ लाख करोड़ रूपए खर्च होंगे।

नासा अथवा विश्व के अन्य देश मूर्ख हैं क्या जो इतना धन पानी की तरह बहा रहे हैं। आखिर पूरा विश्व चाँद में इतनी रूचि क्यूँ ले रहा है?

     आज इसरो का सबसे शक्तिशाली राकेट ‘LMV 3” लूनर ट्रान्सफर ऑर्बिट में 4000 किलो वजन पहुँचाने की क्षमता रखता है, पर मैं आपको बता दूँ कि उड़ान भरते समय इस राकेट का वजन 640000 किलो होता है। अर्थात, राकेट का 99% द्रव्यमान ईंधन के रूप में सिर्फ और सिर्फ राकेट को पृथ्वी से बाहर निकालने में खर्च हो जाता है।

      यह समस्या विश्व के हर राकेट की है, जिस कारण एक स्पेस मिशन को भेजने में ईंधन, पैसे, संसाधन की भयंकर बर्बादी होती है। सौरमंडल की हदों को नापना है, तो समाधान सिर्फ एक ही है कि – हम चाँद पर स्पेस स्टेशन बना कर वहीँ से स्पेस मिशंस को अंजाम दें।

      बेहद कम गुरुत्व और हवा की अनुपस्थिति के कारण चाँद से भेजे गये स्पेस मिशन की कीमत पृथ्वी की तुलना में नगण्य होगी।

यही वो स्वप्न है जिसे साकार करने के लिए दुनिया भर की स्पेस एजेंसीज पैसा पानी की तरह बहा रही हैं क्यूंकि हर कोई जानता है कि सुख, समृद्धि और दुनिया पर राज करने का रास्ता अन्तरिक्ष से होकर गुजरता है।

      स्पेस में पायी जाने वाली उल्काओं में इतने दुर्लभ पदार्थ हैं कि एक उल्का का दोहन ही किसी को भी अमेरिका से लाखों गुना ज्यादा अमीर बना दे।

       आज हम विश्व के पहले राष्ट्र हैं जो यह पता लगाने वाला है कि चाँद पर स्टेशन बनाने हेतु आवश्यक खनिज और पानी वहां है या नहीं। जिस जमीन पर स्टेशन बनाना है, वहां की भू-स्थिरता और सोलर रेडिएशन सुरक्षा मानकों पर ठीक है या नहीं।

      इस सबका खर्चा सिर्फ 600 करोड़ है, जो हमारे देश के कुल खर्च का 0.01% भी नहीं। मैं यह भी बता दूँ कि इसरो ने इतना धन खर्च किया है तो विगत कुछ वर्षों में दूसरे देशों की सेटेलाइट्स को लांच कर के दो हजार करोड़ का मुनाफ़ा भी देश को कमा कर दिया है।

      इसके बावजूद कोई दुर्बुद्धि चंद्रयान के बजट को फिजूलखर्च बता कर इस धन को गरीबों को कम्बल बांटने के लिए खर्च करने की जरुरत बताये तो उसकी बुद्धि को 4 पाँव नमन ही किया जा सकता है।

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कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि आज से हजारों वर्ष पूर्व जब मानव ने प्रथम बार गुफाओं से निकल कर अज्ञात की खोज पर निकलने का बीड़ा उठाया होगा, तो कोई तो होगा, जो कहता होगा कि – बाहर क्या रखा है? यही गुफा में इतनी समस्या है, खाने को रोटी नहीं है, बाहर जा के क्या हासिल होगा?

    अगर मनुष्य उस आवाज को अनसुना कर, अपने जीवन को दांव पर लगा कर, नदियां, पहाड़, जलपर्वत लांघने का साहस न किया होता, तो शायद आज भी हम गुफाओं की ही खाक छान रहे होते।

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