शोभा शुक्ला, बॉबी रमाकांत – सीएनएस
यदि टीबी उन्मूलन का सपना आगामी 28 महीने में साकार करना है तो यह आवश्यक है कि हर संभावित टीबी-रोगी को बिना-विलंब पक्की जाँच मिले, सही प्रभावकारी इलाज मिले, और देखभाल और सहयोग मिले जिससे कि वह सफलतापूर्वक अपना इलाज पूरा कर सके। ऐसा करने से संक्रमण के फैलाव पर भी विराम लगेगा। यदि टीबी से जूझ रहे लोगों को पक्की जाँच नहीं मिलेगी या पक्की इलाज के बाद सही इलाज नहीं मुहैया कराया जाएगा, तो न केवल वह अनावश्यक पीड़ा झेल रहे होंगे और उनकी असामयिक मृत होने का ख़तरा भी बढ़ेगा, बल्कि संक्रमण का फैलाव भी बढ़ता रहेगा।
विश्व के सभी देशों ने 2030 तक टीबी उन्मूलन का वायदा किया है। भारत के प्रधानमंत्री ने टीबी मुक्त भारत का सपना 2025 तक पूरा करने का वायदा किया है – सिर्फ़ 28 महीने शेष हैं पर टीबी दरों में गिरावट असंतोषजनक रही है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की वैश्विक टीबी रिपोर्ट 2022 के अनुसार, 2021 में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, 37% टीबी रोगियों को जाँच तक नहीं नसीब हुई।
सभी देशों की तुलना में सबसे अधिक टीबी रोगी भारत में हैं, जहां हर 3 में से 1 टीबी रोगी तक सरकारी टीबी सेवाएँ नहीं पहुँच सकीं।
हर संभावित टीबी-रोगी को मॉलिक्यूलर टेस्ट मिले
विश्व स्वास्थ्य संगठन के नवीनतम दिशानिर्देशों के अनुसार, हर संभावित टीबी रोगी को पक्की जाँच मिलनी चाहिए जिससे कि 1-2 घंटे में यह निश्चित पता चले कि व्यक्ति को टीबी है या नहीं, और दवा प्रतिरोधकता है कि नहीं। जाँच रिपोर्ट के अनुरूप इलाज हो।
विश्व स्वाथ्य संगठन के द्वारा प्रमाणित इन पक्की जाँच को मॉलिक्यूलर टेस्ट कहते हैं। इन मॉलिक्यूलर टेस्ट में से सिर्फ़ 1 टेस्ट (ट्रूनैट, जिसे गोवा-स्थित मॉलबायो ने बनाया है) ऐसा है जिसे “पॉइंट-ऑफ़-केयर” (जहां व्यक्ति की देखभाल हो रही हो वहीं पर जाँच उपलब्ध हो) और विकेंद्रित रूप से उपयोग किया का सकता है। भारत में निर्मित ट्रूनैट, एकमात्र पॉइंट-ऑफ़-केयर और विकेंद्रित मॉलिक्यूलर टेस्ट है जो विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा भी प्रमाणित है।
हिमाचल प्रदेश के बर्फीले क्षेत्र हों या लेह लद्दाख, अत्यंत बुनियादी ढाँचे, ख़राब मौसम और दुर्लभ क्षेत्र होने के बावजूद, टीबी और कोविड की पक्की जाँच करने में ट्रूनैट उपयोग हो रहा है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के अनुरूप तो हर संभावित टीबी-रोगी को मॉलिक्यूलर जाँच मिलनी चाहिए। 2021 में, विश्व के हर 3 में से 1 संभावित टीबी-रोगी को मॉलिक्यूलर जाँच मिल सकी। भारत में हर 5 में से 1 संभावित टीबी रोगी को मॉलिक्यूलर जाँच मिली।
बाक़ी संभावित टीबी-रोगियों को 140 साल से अधिक पुरानी जाँच, “स्प्यूटम माइक्रोस्कोपी” मिली, जो टीबी की बहुत पक्की जाँच नहीं है, और बच्चों, एचआईवी के साथ जीवित लोगों, और जिन्हें फेफड़े के अलावा शरीर के किसी अन्य भाग में टीबी है, इन लोगों में टीबी जाँचने के लिए माइक्रोस्कोपी, अधिक अप्रभावी जाँच हो जाती है।
हिमाचल प्रदेश में सबसे अधिक आबादी वाले ज़िले काँगड़ा के ज़िला टीबी अधिकारी, डॉ राजेश कुमार सूद, वर्तमान में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत काँगड़ा ज़िला कार्यक्रम अधिकारी के रूप में तैनात हैं, और अनेक वर्षों से टीबी, एचआईवी, ग़ैर संक्रामक रोग और ज़मीनी स्वास्थ्य सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर समर्पण भाव से कार्यरत रहे हैं।
डॉ आरके सूद ने कहा कि: “टीबी से अनेक लोग असामयिक मृत हुए हैं – हमें यह सीख लेनी होगी कि यदि उनकी समय से पक्की टीबी जाँच होती तो संभावना है कि उनके जीवन को बचाया जा सकता था। टीबी की जाँच में देरी, आज भी एक बड़ी चुनौती है। राष्ट्रीय टीबी सर्वे 2019-2021 के नतीजों में भी यही सामने आया है कि दो-तिहाई लोग जिन्हें टीबी के लक्षण हैं वह स्वास्थ्य सेवा का लाभ नहीं उठाते हैं। जिन कारणों से लोग स्वास्थ्य सेवा का लाभ लेने में असमर्थ हैं, उनको दूर करना ही होगा।”
हिमाचल प्रदेश, प्राकृतिक सौंदर्य और हिमालय के पर्वतीय पर्यटन के लिए लोकप्रिय है परंतु संक्रामक रोग के संदर्भ में, दूर दराज पहाड़ी इलाक़ों में रह रहे लोगों तक स्वास्थ्य सेवाएँ पहुँचाने में चुनौती अनेक गुना बढ़ जाती है।
यदि लोगों को टीबी जाँच केंद्र तक आने में कठिनाई आ रही हो, तो पॉइंट-ऑफ़-केयर और विकेंद्रित मॉलिक्यूलर जाँच उनके द्वारे तक क्यों नहीं पहुंच सकती है?
‘ऐक्टिव केस फाइंडिंग’ (सक्रियता से नये टीबी रोगी को चिन्हित करने के अभियान) के तहत, डॉआरके सूद और उनकी टीम ने यही किया है – अनेक तरीक़ों से, काँगड़ा के लोगों के दरवाज़े तक टीबी सेवाओं को पहुँचाया है।
घर-घर जा कर मौखिक रूप से टीबी के लक्षण वाले लोगों को जाँच करवाने के लिए प्रेरित किया।जिनको लक्षण थे परंतु टीबी जाँच केंद्र तक जाने में कठिनाई थी, आशा स्वास्थ्य कार्यकर्ता के ज़रिये उन लोगों की टीबी जाँच के लिए ‘सैंपल’ को उनके घर से मँगवा कर टीबी जाँच केंद्र तक भेजा।
डॉ आरके सूद ने बताया कि राष्ट्रीय डाक सेवा के ज़रिए सैंपल को टीबी जाँच केंद्र तक भेजा जाता है परंतु वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते 5-दिन तक लग जाते हैं। मानक के अनुसार टीबी सैंपल 72 घंटे में जाँच केंद्र में पहुँच जाने चाहिएँ। इस वजह से भी विलंब होता है।
टीबी की जाँच सबकी हो, सिर्फ़ लक्षण वालों की ही नहीं
मौखिक रूप से ‘टीबी लक्षण हैं कि नहीं’ पूछना पर्याप्त नहीं है क्योंकि अनेक लोगों को टीबी रोग होने के बावजूद लक्षण नहीं होते हैं।
यदि टीबी उन्मूलन करना है तो सभी की पक्की जाँच होनी चाहिए, चाहे लक्षण हों या नहीं।
जिस दर से नये लोग टीबी से संक्रमित हो रहे हैं, उससे तेज़ी से हमें नये टीबी रोगियों को पक्की जाँच, और फिर इलाज – जल्दी से जल्दी मुहैया करवाना है। यह कहना है प्रख्यात फेफड़े रोग विशेषज्ञ डॉ गाय मार्क्स का जो इंटरनेशनल यूनियन अगेंस्ट टीबी एंड लंग डिजीस के निदेशक हैं।
इंडिया टीबी रिपोर्ट 2023 के अनुसार, हिमाचल प्रदेश की कुल जन संख्या 76.4 लाख है और उसके 68.5 लाख लोगों से मौखिक रूप से – ‘टीबी लक्षण हैं कि नहीं’ – पूछ कर स्क्रीन किया है। इनमें से 0.7% को टीबी लक्षण थे और उनकी जाँच की गई – जिनमें से 0.4% को टीबी निकली।
जाँच तो मिली पर क्या WHO मानक अनुसार पक्की जाँच मिली (मॉलिक्यूलर टेस्ट)?
हिमाचल प्रदेश में सिर्फ़ एक-तिहाई को मॉलिक्यूलर टेस्ट वाली पक्की जाँच मिल सकी। सबसे अधिक मॉलिक्यूलर टेस्ट, मॉलबायओ के ट्रूनैट मशीन से हुए। सरकार की इंडिया टीबी रिपोर्ट के अनुसार, हिमाचल में 47 ट्रूनैट मशीन हैं। 2022 तक, भारत में 3615 ट्रूनैट मशीन थीं जिनसे 34.8 लाख लोगों को पक्की टीबी जाँच (मॉलिक्यूलर टेस्ट) मिली।
डॉ सूद ने कहा कि हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा ज़िले के हर ब्लॉक में एक मॉलिक्यूलर टेस्ट मशीन है। यदि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के अनुरूप 100% संभावित टीबी-रोगियों को मॉलिक्यूलर जाँच सेवा देनी है तो हमें यह क्षमता भी बढ़ानी होगी। जो ट्रूनैट मशीन कोविड-19 की जाँच के लिए काँगड़ा ज़िले को दी गई थी अब इसको टीबी जाँच के लिए उपयोग किया जा रहा है।
२०२२ में हिमाचल प्रदेश के जिन लोगों की टीबी जाँच हुईं उनमें से 2.4% को दवा प्रतिरोधक टीबी थी, और 95% को इलाज प्राप्त हुआ। हालाँकि बिडाक्विलिन दवा पर आधारित टीबी इलाज सभी दवा-प्रतिरोधक टीबी वाले रोगियों को मिलना चाहिए (क्योंकि वह बहुत प्रभावकारी इलाज है, अवधि भी कम है, और दवा विषाक्ता भी कम है), पर हिमाचल के 62% दवा प्रतिरोधक टीबी के रोगियों को यह इलाज प्राप्त हो सका और उनमें इलाज सफलता दर 82% रही। बाक़ी के दवा प्रतिरोधक टीबी के रोगियों को पुराना वाला इलाज मिला जिसकी अवधि लगभग २ साल की है, दवा विषाक्ता भी अत्यधिक है, इलाज सफलता दर बहुत कम है (५०% के आसपास), और अनेक इंजेक्शन भी लगते हैं।
बढ़ती उम्र के साथ टीबी का ख़तरा बढ़ता है
विश्व स्वास्थ्य संगठन की नवीनतम वैश्विक टीबी रिपोर्ट के अनुसार, 2021 में भारत के हर 5 में से 1 टीबी रोगी की उम्र 55 साल से अधिक थी। इन 55 साल से अधिक उम्र के टीबी रोगियों में से एक-तिहाई को सरकारी टीबी सेवाएँ नहीं मिल सकीं।
जो लोग 55 साल से अधिक उम्र के हैं उनको टीबी का ख़तरा दुगना है (उन लोगों की तुलना में जिनकी उम्र 55 साल से कम है)। इसीलिए डॉ आरके सूद और उनकी टीम का यह प्रयास रहता है कि 55 साल से अधिक उम्र के व्यक्ति जिसे संभावित टीबी हो सकती है, उसकी जाँच मॉलिक्यूलर टेस्ट से प्राथमिकता पर हो। डॉ सूद ने कहा कि “जो लोग ऐक्टिव-केस-फाइंडिंग के ज़रिये टीबी रोग के लिए चिन्हित होते हैं, उम्मेद से अधिकांश 55 साल से अधिक के होते हैं। अधिक उम्र के लोग अस्पताल आदि जाने के लिए अक्सर किसी पर आश्रित होते हैं – इस कारण भी अक्सर विलंब हो जाता है। इसीलिए हमारी नीति है कि उनकी जाँच संभव हो तो मॉलिक्यूलर टेस्ट से हो।”
टीबी से बचाव मुमकिन है
डॉ आरके सूद ने ज़ोर देते हुए कहा कि संक्रमण नियंत्रण पर्याप्त होना अत्यधिक ज़रूरी है – चाहे वह समुदाय स्तर पर हो, घर स्तर पर हो, या स्वास्थ्य केंद्र पर। डॉ सूद ने बताया कि “हम लोग स्वास्थ्य केंद्र के पंजीकरण बूथ पर आ रहे हर व्यक्ति को टीबी के लिये स्क्रीन करते हैं जिससे कि जो संभावित रोगी हो उसको लाल रंग का पंजीकरण कार्ड दे कर, बिना विलंब चिकित्सकीय प्रक्रिया में प्राथमिकता मिले, उसकी जल्दी जाँच हो, उचित इलाज मिले, और संक्रमण फैलाव भी कम हो।”
स्थानीय प्रशासन की मदद से हर टीबी रोगी को “काँगड़ा निक्षय किट” दी जाती है जो संक्रमण नियंत्रण के लिए महत्वपूर्ण है और बलगम के सुरक्षित निपटान के लिए अहम है। इसके उपयोग से घर और समुदाय में संक्रमण फैलाव का ख़तरा कम होता है।
हर नया टीबी रोगी, पूर्व में लेटेंट टीबी से संक्रमित हुआ होता है। और हर नया लेटेंट टीबी से संक्रमित रोगी इस बात की पुष्टि करता है कि संक्रमण नियंत्रण निष्फल था जिसके कारणवश एक टीबी रोगी से टीबी बैक्टीरिया एक असंक्रमित व्यक्ति तक फैला।
लेटेंट टीबी, यानि कि, व्यक्ति में टीबी बैकटीरिया तो है पर रोग नहीं उत्पन्न कर रहा है। इन लेटेंट टीबी से संक्रमित लोगों में से कुछ को टीबी रोग होने का ख़तरा रहता है। जिन लोगों को लेटेंट टीबी के साथ-साथ एचआईवी, मधुमेह, तम्बाकू धूम्रपान का नशा, या अन्य ख़तरा बढ़ाने वाले कारण भी होते हैं, उन लोगों में लेटेंट टीबी के टीबी रोग में परिवर्तित होने का ख़तरा बढ़ जाता है।
दुनिया की एक-चौथाई आबादी को लेटेंट टीबी है। पिछले 60 साल से अधिक समय से लेटेंट टीबी के सफ़ल उपचार हमें ज्ञात है पर यह सभी संक्रमित लोगों को मुहैया नहीं करवाया गया है। लेटेंट टीबी के सफल उपचार से व्यक्ति को टीबी रोग होने का ख़तरा नहीं रहता है।
डॉ सूद ने बताया कि “लगभग 1500 लोगों ने लेटेंट टीबी का उपचार नियमित ढंग से पूरा किया है जिससे कि उनको टीबी रोग होने का ख़तरा नगण्य रहे। लेटेंट टीबी उपचार की सफलता दर 95% रही।”
छाती का एक्सरे और टीबी जाँच संपूरक?
हिमाचल में कुल जिन लोगों को टीबी के लक्षणों के लिए स्क्रीन किया गया (मौखिक रूप से पूछ कर), उनमें से सिर्फ़ 5% का एक्सरे हो सका। राष्ट्रीय टीबी सर्वे (2019-2021) के अनुसार, जिन लोगों को टीबी रोग निकला था उनमें से आधों को टीबी का कोई लक्षण ही नहीं था, परंतु छाती के एक्सरे के कारण उनकी टीबी जाँच पुख़्ता हो सकी।
छाती के एक्सरे की ज़रूरत लेटेंट टीबी के लिये भी ज़रूरी होती है जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि व्यक्ति को टीबी-रोग नहीं है और सिर्फ़ लेटेंट टीबी ही है।
इसीलिए डॉ आरके सूद ने कहा कि पॉइंट-ऑफ़-केयर एक्सरे के साथ-साथ ऐसा एक्सरे जो आसानी से दूर दराज स्थानों तक जा सके, की सख़्त ज़रूरत है।
हिमाचल प्रदेश में टीबी मुक्त होने की दिशा में प्रगति तो हुई है पर आगामी 28 महीने में (2025 तक) टीबी मुक्त प्रदेश का सपना साकार करने के लिए अत्यंत सशक्त प्रयास करने होंगे – जिनमें यह कदम शामिल हैं: सर्वप्रथम तो यह सुनिश्चित करना होगा कि हर संभावित टीबी के रोगी की जाँच मॉलिक्यूलर टेस्ट से हो रही हो, यदि लोग टीबी जाँच केंद्र तक पहुँचने में असमर्थ हैं तो पॉइंट-ऑफ़-केयर विकेंद्रित मॉलिक्यूलर टेस्ट उन तक पहुँचे, और एक्सरे व्यवस्था हो। पक्की जाँच के उपरांत उनका इलाज नवीनतम प्रभावकारी दवाओं से हो, और इलाज के दौरान पूरा समर्थन और सहयोग मिले जिससे कि वह अपना इलाज सफलतापूर्वक पूरा कर सकें। लेटेंट टीबी से ग्रसित लोगों को, विशेषकर कि जिनको टीबी रोगी में परिवर्तित होने का ख़तरा अधिक है – उनको नवीनतम प्रभावकारी जाँच और इलाज मिले।
(शोभा शुक्ला और बॉबी रमाकांत, सीएनएस (सिटिज़न न्यूज़ सर्विस) के संपादकीय से जुड़े हैं, और एशिया पैसिफ़िक मीडिया एलाइंस फॉर हेल्थ एंड डेवलपमेंट के अध्यक्षीय मण्डल के सदस्य हैं।