ममता सोनी
“बाबूजी केला के दाम का बा?” रामदुलारे ने फलों के थोक विक्रेता पन्नालाल से पूछा।
” पचास रुपये दर्जन मिलेंगे।” पन्नालाल ने कहा।
“अरे भगवान ई सब तो बहुत महंगा बा। ग्राहक अयसीन महंगा केला ना खरीदीहे।” रामदुलारे ने कहा।
“पीछे से ही माल बहुत महंगा आ रहा है। कुछ भी बचत नहीं होती पर क्या करें रामदुलारे मजबूरी है। पापी पेट का सवाल है।” पन्नालाल ने कहा।
रामदुलारे ने अनमने ढंग से कुछ दर्जन केले खरीदकर रेहडी़ पर सजा लिए और बेचने के लिए चल दिया। कुछ समय बाद वह एक कॉलोनी की सड़कों पर आवाज़ लगा रहा था। दोपहर हो चली थी लेकिन अभी तक एक भी केला नहीं बिका था । उसकी आवाज बड़ी-बड़ी कोठियों के एयर कंडीशनरों में कहीं दबकर रह गई। गर्मी से बेहाल रामदुलारे एक घर की बड़ी दीवार की छाया में कुछ देर के लिए बैठ गया। उसने अपने अंगोंछे से पसीना पोंछा और बीड़ी सुलगा ली। थोड़ी देर आराम करने के बाद उसने बीड़ी पांव के नीचे मसल दी और दोबारा रेहडी़ लेकर चल दिया। तभी उसे किसी घर से एक महिला की आवाज सुनाई दी “अरे केले वाले केले क्या भाव दिए?” एक महिला ने बड़े से आलीशान घर से बाहर निकलते हुए रामदुलारे से पूछा। रामदुलारे को एक छोटी सी आशा की किरण दिखाई दी और वह ईश्वर से प्रार्थना करने लगा कि इस बार कम से कम बोहनी हो जाए।
” बीबी जी केला के दाम 60 रुपया में एक दर्जन बा।” कह कर राम दुलारे ने रेहडी़ उस घर के सामने रोक दी और केलों को उलट पलट करने लगा शायद वह गल चुके केलों को छुपाने का प्रयास कर रहा था।
” यह तो बहुत महंगे हैं भैया।” महिला ने कहा।
” बीबी जी मंडी से माल महंगा हो रहल बा। का करई। आवई दू पाँच रुपया कम दे देई।”
“नहीं भैया कौन सा डाक्टर ने बोला है अभी खाने को। जब सस्ते हो जाएंगे तब ले लेंगे।” कहकर महिला वापस घर की ओर मुड़ गयी। रामदुलारे उसको जाते हुए ऐसे देख रहा था जैसे कोई उसकी आस की पूंजी ले गया हो।
धीरे-धीरे शाम हो चली थी। लेकिन रामदुलारे की केलों की बिक्री होने को ही नहीं आ रही थी कुछ केलों का रंग काला पड़ने लगा था मानो उन्हें भी स्वयं के न बिकने की चिंता सता रही हो।
आखिर में थक हारकर राम दुलारे अपनी झुग्गी की ओर लौट आया। उसने केलों की रेहडी़ एक तरफ दीवार के सहारे लगा दी और बोरी का बना पर्दा हटाकर कमरे के भीतर प्रवेश कर गया।उसकी पत्नी विद्या जो एक टूटी-फूटी चारपाई पर सो रही थी उसके आने की आहट से जाग चुकी थी। बेटा विजय फर्श पर बोरी पर बैठकर स्कूल का गृह कार्य कर रहा था।
“आइल बाड़े का विजय के बाबूजी? आज कुछ केला बिकाइल कि न? बुखार से तपती विद्या ने पूछा।
” का बताई विद्या। महंगाई बहुत ज्यादा हो गईल बा। माल बहुत महंगा बा लेकिन ग्राहक सिर्फ पुरान दाम प खरीदल चाहतारे। “” रामदुलारे ने ठंडी सांस भरते हुए कहा।
“बाबूजी माँ के बहुत तेज बोखार बा। माँ के दवाई भी खत्म हो गईल बा।” विजय ने राम दुलारे को बताया।
“कवनो दिक्कत ना बेटा। काल्ह तोहरा माँ के दवाई लेके आईब।”रामदुलारे ने विजय को सांत्वना देते हुए कहा। लेकिन मन ही मन राम दुलारे को केले की बिक्री न होने की चिंता सता रही थी।उसने बाहर जाकर केलों को ऐसे देखा जैसे कोई डॉक्टर किसी बीमार व्यक्ति की जांच करता है।केले पहले से अधिक काले पड़ गए थे। अब तो राम दुलारे के मन में एक ही बात बार-बार आ रही थी कि उसने जिस भाव से खरीदे थे उसी भाव पर बिक जाएं।
अगले दिन भी उसने शहर के काफी हिस्सों में फेरी लगाई लेकिन कोई अधिक लाभ न हुआ। एक कॉलोनी के बाहर सड़क के किनारे शाम को सभी रेहडी़ वाले लाइन से खड़े हो जाते थे और उस रास्ते से गुजरने वाले लोग अक्सर उनसे सामान खरीद लिया करते। लेकिन इससे यातायात में काफी असुविधा होती थी और कई बार नगर निगम के कर्मचारी अथवा पुलिस वाले इन रेहडी़ वालों को खदेड़ने लगते लेकिन यह लोग दोबारा वही लौट आते। अनामिका भी ऑफिस से घर वापस जाते हुए यहां से घर के लिए सामान ले लिया करती थी। कोने में खड़े राम दुलारे को देखकर उसे न जाने क्यों उस पर दया सी आ गई। फटी हुई कमीज, टूटी चप्पल और रेहडी़ पर काले होते जा रहे केले देखकर उसको रामदुलारे की हालत का अंदाजा लग गया था।
” भैया केले कैसे दिए?” अनामिका ने राम दुलारे से पूछा
“50 रुपये दर्जन।” रामदुलारे ने धीमे से कहा हालांकि वह इस कीमत पर भी केले बिकने की आस छोड़ चुका था।
” ठीक है एक दर्जन दे दो लेकिन थोड़े से अच्छे केले देना। तुम निकाल कर रखो मैं आगे से कुछ सामान लेकर आती हूं।” कहकर अनामिका ने केले के दाम रामदुलारे को चुकाये परंतु गलती से उसने रामदुलारे को100 रुपये का नोट थमा दिया और आगे बढ़ गई।
100 का नोट देखते ही राम दुलारे की आंखों के सामने बीमार विद्या और विजय का चेहरा घूमने लगा। उसके मन में एक अंतर्द्वंद चलने लगा। क्या अनामिका 100 का नोट देकर भूल गई होगी या वह वापस लौटेगी। शायद बहुत दिनो बाद किसी ने उसको यह नोट दिया था। इससे पहले कि अनामिका आ जाए उसने तुरंत वह नोट अपनी पेंट की जेब में छुपा लिया। अंतरात्मा ने गरीबी के आगे घुटने टेक दिए थे । अचानक अनामिका को अपनी गलती का अहसास हुआ और वह वापस रामदुलारे की रेहडी़ के समीप आकर कहने लगी “अरे भैया मैने शायद गलती से तुम्हें सौ का नोट दे दिया है।”
“न बीबी जी तुम हमनी के खाली पचास रुपया के नोट देले बाड़ू। हमरा टोकरी में सौ का नोट नइखे। अगर रउरा चाहत बानी त एक बेर देख लीं।” रामदुलारे ने अनामिका से आंखें चुराते हुए कहा।
अनामिका समझ गई थी कि रामदुलारे झूठ बोल रहा है लेकिन उसने इस बात को अधिक तूल देना उचित न समझा।
” भैया मुझे अच्छे से याद है कि मैंने 100 का नोट दिया था लेकिन लगता है कि पैसे देखकर तुम्हारी नियत में खोट आ गया। मैं तुम्हारी तलाशी नहीं लेना चाहती लेकिन एक बात याद रखना बेइमानी का पैसा कभी फलता नहीं है।” कहकर अनामिका आगे बढ़ गई । रामदुलारे को आत्मग्लानी अनुभव हो रही थी परंतु इस समय विद्या की दवाई उसके लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण थी।
कुछ ही देर में वहां नगर निगम की गाड़ी आ गई और निगम के कर्मचारियों ने वहां रेहडी़ वालों को खदेड़ना आरंभ कर दिया। एक कर्मचारी रामदुलारे की रेहडी़ की ओर लपका और उस पर रखा सारा सामान पलट दिया।
सारे केले सड़क पर बिखर गए थे और गले हुए होने के कारण मिट्टी में सन गए रामदुलारे एकटक केलों की ओर देख रहा था और उसके कानों में अनामिका के शब्द गूंज रहे थे “एक बात याद रखना बेईमानी का पैसा कभी फलता नहीं है।”