शशिकांत गुप्ते
परिवर्तन संसार का नियम है। इस सूक्ति का स्मरण करते हुए, मै सोच रहा था,परिवर्तन को कैसे परिभाषित किया जा सकता है?
इस जिज्ञासा को मैने,मेरे मित्र सीतारामजी के समक्ष प्रकट किया।
सीतारामजी ने मेरी जिज्ञासा को अपनी व्यंग्यात्मक शैली में शांत किया।
सीतारामजी ने मुझे सन 1961 में प्रदर्शित फिल्म जंगली में गीतकार शैलेंद्र रचित गीत की पंक्तियां सुनाई।
जा-जा-जा मेरे बचपन, कहीं जा के छूप नादाँ
इसीतरह सीतारामजी ने मुझे सन 1962 में प्रदर्शित फिल्म बीस साल बाद में गीतकार शकील बदायुनी रचित गीत की पंक्तियां सुनाई।
सपने सुहाने लड़कपन के
मेरे नैनो में डोले बहार बन के
जब दूर पपीहा बोले दिल खाये मेरा हिचकोले
मै लॉज में मर मर जाऊं जब फूल पे भवरा डोले
इन पंक्तियों को सुनने के बाद सीतारामजी ने बहुत ही तैश में आकर निम्न पंक्तियां सुनाई।
मै सोलह बरस की हो गई
मेरी अंतर्वस्त्र छोटी हो गई
इसके बाद यह भी सुनो,
अंतर्वस्त्र के पीछे क्या है?
और सुनो परिवर्तन, एक गीतकार
ने तो जिगर में ही इतनी तेज आग लगा दी की धूम्रपान करने वालों के लिए बीड़ी भी सुलग जाती है।
मै ने सीतारामजी ने कहा शांत शांत हो जाओ,मैने तो सहज ही पूछ लिया था।
सीतारामजी ने,मेरी बात को अनसुना कर, तमतमाते हुए कहा एक ओर संस्कृति का ह्रास हो रहा है।
दूसरी ओर देश में अस्सी करोड़ लोग मुफ्त राशन लेने के लिए अभिशप्त हैं,और इस अभिषाप रूपी रेवड़ी का गौरव किया जा रहा है।
लाड़ली शब्द का दुरुपयोग कर रेवड़ी के रूप में जनता के पैसों को जनता को बांट कर अपने स्वार्थपूर्ति का खेल खेला जा रहा है। जैसे तेरा तुझको अर्पण क्या लागे हमारा
गांधीजी के शरीर की हत्या करने के बाद,उनके तीन बंदरों के उपदेश को विपरित अर्थ के साथ प्रस्तुत करने की साज़िश रची जा रही है।
बुरा करों,बुरा बोलो और बुरा सुनो।
मर्जी हो उतना खाओ और डकार भी मत लो।
जांच नहीं होगी यह गारंटी है,जब सैयां ही कोतवाल है तो डर काहे का।
यदि विपक्ष होकर देश की अर्थनीति को करोड़ों का चुना भी लगाया हो तो भी,हमसे गलबहियां कर लो अदृश्य तरीके से पाक साफ हो जाओगे।
मै ने सीतारामजी से पुनः शांत रहने की विनती की।
मैने उनसे कहा क्रोध मत करों।
सीतारामजी ने कहा, मैं क्रोध नहीं कर रहा हूं। मै सिर्फ अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को प्रकट कर रहा हूं।
आज सामंती मानसिकता हावी होने से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी अप्रत्यक्ष अंकुश लगाया जा रहा है।
सीतारामजी ने कहा मैं व्यंग्यकार होने के पहले साहित्यकार हूं।
साहित्यकार होने के नाते मेरा दायित्व है कि,सच्चाई को आमजन के समक्ष प्रस्तुत करूं।
साहित्य समाज का दर्पण है,इस सूक्ति को चरितार्थ करने का भी दायित्व साहित्यकार का ही है।
शायर कृष्ण बिहारी नूर फरमाते हैं।
आइना ये तो बताता है मैं क्या हूँ लेकिन
आइना इस पे है ख़ामोश कि क्या है मुझ में
यह कहने के पहले कृष्ण बिहारी नूर यह कहते हैं।
चाहे सोने के फ़्रेम में जड़ दो
आइना झूट बोलता ही नहीं
शशिकांत गुप्ते इंदौर