धीरे-धीरे कहता क्या है, शोर मचा
ये हाकिम ऊँचा सुनता है, शोर मचा
‘क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा’ की ओर से प्रस्तावित यह दस्तावेज ‘गहराता फ़ासीवादी अंधेरा और हमारा फ़र्ज़’ 2 अक्तूबर, 2023 को सामुदायिक भवन, आज़ाद नगर, सेक्टर 24, फ़रीदाबाद में होने वाले पहले सम्मलेन से पहले होने वाले सेमिनार के लिए प्रस्तावित दस्तावेज़ है, जो आपके समक्ष इसलिए प्रस्तुत किया जा रहा है कि आपकी बेबाग प्रतिक्रियाएं, सुझाव, बदलाव, प्रस्ताव आप ससमय देकर इसे और ज्यादा धारदार बना सके ताकि मौजूदा फासीवादी दौर में देश की मेहनतकश आवाम अपनी सटीक रणनीति और कार्यनीति को अपना सके.
प्रस्तुत दस्तावेज़ ‘गहराता फ़ासीवादी अंधेरा और हमारा फ़र्ज़’ के 3 अध्याय हैं. पहला अध्याय; देश की मौजूदा हालात पृष्ठ 1 से 9,
दूसरा अध्याय; पूंजीवाद का क्रांतिकारी संकट व इतिहास के सबक़ पृष्ठ 9 से 17 और तीसरा अध्याय; हमारा फ़र्ज़ पृष्ठ 17 से 24 है. अत: हम अपने पाठकों और देश की क्रांतिकारी ताकतों से आह्वान टरते हैं कि आप इस मौजूदा दस्तावेज को अपने संघर्ष के अनुभवों से और ज्यादा समृद्ध करने हेतु अपने महत्वपूर्ण सुझाव नीचे दिये गये संपर्क पर या कमेंट बॉक्स में दें – सम्पादक
पहला अध्याय
देश की मौजूदा हालात
‘फासीवाद सड़ता हुआ पूंजीवाद है.’ – लेनिन
मई 2014 से ‘मोदी-काल-1’ शुरू हुआ और उसके साथ ही शुरू हो गई थी एक बहस – ‘क्या वर्त्तमान पूंजीवादी-साम्राज्यवादी राज-सत्ता, फ़ासीवादी स्वरूप इख्तियार कर चुकी है ?’ ‘हां’ और ‘नहीं’ कहने वाले दोनों समूहों के पास, अपने मत को रेखांकित करने के काफ़ी उदहारण मौजूद थे. धीरे-धीरे, ‘नहीं’ कहने वालों के तर्क कम होते गए और कमजोर पड़ते गए. 2019 में शुरू हुए ‘मोदी काल-2’ के बाद ‘नहीं’ कहने वाले भी ये तर्क नहीं रख पा रहे, ‘देखो, कमजोर पड़ गए तो क्या, सारे जनवादी इदारे अपनी जगह मौजूद हैं, न्यायपालिका स्वतन्त्र है, सुप्रीम कोर्ट सरकार के कान उमेठती रहती है और मीडिया स्वतन्त्र है, हम अपनी बात तो रख पा रहे हैं ना !!’
ये तर्क, स्वयं ही हर दिन कमज़ोर पड़ते गए. आज तो ये कुतर्क अपनी टांगों पर खड़े ही नहीं हो पा रहे. चलने की कोशिश करते ही, लड़खड़ाकर गिर पड़ते हैं. आज, फ़ासीवाद ना स्वीकार करने वालों के पास बस एक ही तर्क बचा है; ‘फ़ासीवाद एक प्रति-क्रांतिकारी क़दम है, जिसे शासक पूंजीपति वर्ग, समाजवादी क्रांति के सर पर आ जाने से डर कर उठाता है. जबकि, आज, क्रांति की मनोगत शक्तियां, इतनी कमज़ोर और बिखरी हुई हैं कि दूर-दूर तक क्रांति की आहट सुनाई नहीं दे रही. पूंजीवाद को कोई ख़तरा ही नहीं, तो वह किससे और क्यों भयभीत होगा ?’
इस ‘कुतर्क’ से निबटने के लिए (सीख-सं.) 1915 में ‘द्वितीय इंटरनेशनल का पतन’ नाम से लिखी पंफलेट में मिली, लेनिन की उस सीख को उदधृत करना काफ़ी होगा, जिसमें वे सड़ते पूंजीवाद को दफ़नाने के लिए अवश्यमभावी समाजवादी क्रांति के लक्षणों को एक डॉक्टर की तरह समझाते हैं –
‘मार्क्सवादियों के लिए यह निर्विवाद है, कि क्रांतिकारी स्थिति के बिना क्रांति असंभव है; इसके साथ ही यह भी कि, हर क्रांतिकारी स्थिति क्रांति में परिणत नहीं होती. आम तौर पर कहें, तो क्रांतिकारी स्थिति के लक्षण क्या हैं ? यदि हमें निम्नलिखित तीन प्रमुख लक्षणों के संकेत नज़र आ रहे हैं, तो हम यह निष्कर्ष निकालने में निश्चित रूप से गलत नहीं होंगे:
(1) जब शासक वर्गों के लिए, बिना किसी बदलाव के, अपना शासन चलाना असंभव हो रहा हो; जब किसी न किसी रूप में “उच्च वर्गों” के बीच भी संकट मौजूद रहता है, तब शासक वर्ग में नीति का संकट होता है, जिससे दरार पैदा होती है, जिसके माध्यम से, उत्पीड़ित वर्गों का असंतोष और आक्रोश फूट पड़ता है. क्रांति क़ामयाब होने के लिए, ‘निम्न वर्ग नहीं चाहता’, मतलब उसके लिए, पुराने तरीके चलना संभव नहीं रहा, यह कहना पर्याप्त नहीं; यह भी ज़रूरी है कि ‘उच्च वर्ग’ भी पुराने तरीके से ना चल पा रहा हो;
(2) जब उत्पीड़ित वर्गों की पीड़ा और कंगाली, सामान्य से अधिक तीव्र हो गए हों;
(3) जब, उपरोक्त कारणों के परिणामस्वरूप, जनता की गतिविधियां इतनी तीव्र हो गई हों, कि जो लोग, ‘शांति के समय’ (क्रांति की परिस्थितियां परिपक्व होने से पहले के काल) में खुद को, बिना किसी शिकायत के लुटने की अनुमति देते हैं, वे भी, इस अशांत समय में, व्यवस्था के संकट से उत्पन्न परिस्थितियों में, उत्पीड़ितों की ओर खिंचे चले जा रहे हों. ‘कुछ ऐतिहासिक करना पड़ेगा’, ऐसी कार्यवाही की मांग ‘उच्च वर्गों’ की ओर से भी आ रही हो.’
ज़ाहिर है, ये समझने के लिए, विद्वान या प्रोफ़ेसर होने की ज़रूरत नहीं कि देश में, ये तीनों परिस्थितियां ना सिर्फ़ परिपक्व हैं, बल्कि अति-परिपक्व हैं. मुट्ठी भर लुटेरे कॉर्पोरेट सरमाएदारों को छोड़, जिनकी तादाद भी, लगातार, तेज़ी से घटती जा रही है, भले उनकी चर्बी बढ़ती जा रही है. सारा समाज, अपने हालात से उद्वेलित है. मौजूदा व्यवस्था, भले उसके प्रबंधक किसी भी पार्टी के क्यों ना हों, उनके जीवन में कोई राहत पहुँचाने में, ना सिर्फ असमर्थ है बल्कि उन्होंने उस दिशा में प्रयास करना, दिखावा करना भी बंद कर दिया है. मंहगाई, बेरोज़गारी के दो आधारभूत मुद्दों पर विचार करने के लिए, नीति आयोग की सरकारी बैठकें होनी भी बंद हो चुकी हैं.
यहाँ तक कि राज्यों या केंद्र के चुनाव आ जाने पर, लोगों को तात्कालिक तौर पर लुभाने के लिए भी, इन मुद्दों को नहीं छेड़ा जाता. बल्कि, बड़े स्तर पर भुखमरी ना फ़ैल जाए, या खाद्य दंगे ना भड़क उठें, भूखे-कंगाल-बेहाल लोग अनाज के गोदामों या डिपो पर ही धावा ना बोल दें, स्थिति नियंत्रण से बाहर ना हो जाए, इसलिए 80 करोड़ लोगों को मुफ़्त अनाज देने की नीति अपनाई जा रही है, जो इस तथ्य की स्वीकारोक्ति है कि ‘हम अब और कुछ करने लायक़ नहीं बचे’. इतनी पकी हुई क्रांतिकारी परिस्थितियां, भले, कुछ ‘क्रांतिकारियों’ को प्रभावित ना कर रही हों, उन्हें समाजवादी क्रांति की आहट ना सुनाई पड़ रही हो, लेकिन सत्ताधारी वर्ग किसी मुगालते में नहीं है. वह अच्छी तरह जानता है, कि समाजवादी क्रांति का अंजाम क्या होता है? मुफ्तखोर पूंजीपति लुटेरे, नवम्बर 1917 की बोल्शेविक क्रांति को भूलने की ग़लती नहीं कर सकते. आज भी, अगर, किसी को, देश में हर पल गहराता फ़ासीवादी अँधेरा नज़र नहीं आता, तो समस्या उसके दिमाग में है. उसे कभी नज़र नहीं आने वाला.
फ़ासीवाद का नाम आते ही, ज़हन में मुसोलिनी और हिटलर की तस्वीरें उभर आती हैं. साथ में प्रकट होता है; हिंसा और मौत का तांडव, एक भयानक ख़ूनी मंज़र, कोई भी तर्क़पूर्ण बात कहने-लिखने वालों के घरों पर, रात में हमले, जलती हुई जर्मन संसद, राइखस्टाग, लाखों की तादाद में कंसंट्रेशन कैम्पों में ठूंसे जा रहे, कंकाल जैसे नज़र आने वाले, उन मायूस इंसानों की क़तारें, जो संयोगवश यहूदी परिवारों में पैदा हुए और जिस ‘गुनाह’ के लिए उन्हें मरना ही होगा. क्या ऐसा मंज़र देखे बगैर, फ़ासीवाद की मौजूदगी स्वीकार ही ना किया जाए? ऐसा सोचना, यह मानना है कि पूंजीवादी सत्ता को अपना असली ख़ूनी, घिनौना चेहरा दिखाने के लिए ना सिर्फ आर्थिक वज़ह मौजूद हो, बल्कि वह रणनीति भी वही अपनाए, जो उसने 100 साल पहले अपनाई थी!! जिन लोगों को, कई सौ सालों का जमा-जमाया अपना लूट का राज़ बचाना है, श्रम के मनमाफ़िक शोषण को जो अपना जन्म-सिद्ध अधिकार मान बैठे हैं, उन्हें मूर्ख समझने वालों, को मूर्ख ही कहना पड़ेगा. छोटे से छोटा चोर भी, अगली वारदात में बदलाव लाता है, चोरों के इन सरदारों से ऐसी अपेक्षा क्यों कि वे, स्वयं ज़ोर-ज़ोर से चीखकर घोषणा करें, कि ये देखो उतरा हुआ ‘जनवादी मुखौटा’ और ये देखो, ‘फ़ासीवादी मुखौटा’, जिसे मैं पहन रहा हूँ!!
हर रोज़ गहराता फ़ासीवादी अँधेरा
मोदी सरकार की कौन सी फ़ासीवादी परियोजना है, जिसे बुर्जुआ जनवाद के इन तथाकथित खंबे रोक रहे हैं? फ़ासीवादी शासन तंत्र, चूँकि, किसी नियम क़ायदे से नहीं बल्कि डंडे से चलता है, इसलिए, इसे चाहिए होता है, समाज का ऐसा बहुसंख्यक तबक़ा, जो तर्क-विवेक से कोई वास्ता ना रखे, हर वक़्त मज़हबी ख़ुमारी से संचालित हो, जिन पर, अंध-राष्ट्रवाद का ऐसा नशा चढ़ा हो, कि जैसे ही उनके आक़ा सीटी बजाएं, वे, उनके बताए दुश्मन पर टूट पड़ें. परिणामों की चिंता या तर्क-विवेक, नियम-क़ायदे को बीच में लाने की समझदारी, अगर, उनमें रह गई, तो ये परियोजना विफ़ल हो जाएगी. यह बात, फासिस्ट गिरोह के प्रमुख, केन्द्रीय संचालक, वित्तीय पूंजी के अगुवा, अडानी-अंबानी भी जानते हैं, और प्रथम पंक्ति वाले उनके ताबेदार, जो भगवा वस्त्र धारण नहीं करते, जो संसद में बैठते हैं, वे भी, और उनके नीचे, कई पंक्तियों में तैनात भगवाधारी भी. फ़ासीवाद की इस कार्यपालिका को, यह सुनिश्चित ज़रूर करना होता है कि मार-काट मचाने वाली पैदल सेना को, ये रहस्य समझ ना आने पाए. हमारे देश में ये काम, हिंदुओं को बरगला कर ही संभव है, इसीलिए सनातनी हिंदुत्व के प्रतीकों का प्रदर्शन, राज्य द्वारा पूरी नंगई से किया जा रहा है. राम-मंदिर शिलान्यास वाला वह अविस्मरणीय दृश्य कौन भूल सकता है, जिसमें सारे प्राचीन सनातनी प्रतीकों, पूरी एक्सेसरीज से लैस, मोदी जी, हवन कुंड के सामने लेट गए थे. इस प्रक्रिया में भी एक विशेष बात है जिसे नोट किया जाना ज़रूरी है क्योंकि वह, ‘हमारे फ़र्ज़’ तय करते वक़्त काम आएगी. सनातनी पाखंड को, ‘मनु-स्मृति’ वाली शुद्धता के साथ किया जा रहा है. इसमें दलित अथवा आदिवासी को पास नहीं फटकने दिया जाता, भले वह राष्ट्रपति ही क्यों ना हों. विलासिता के प्रतीक, नए संसद परिसर के उद्घाटन में, राष्ट्रपति महोदया को बुलाया जाए, सारे देश ने बोला, लेकिन संघी ज़मात टस से मस नहीं हुई. राष्ट्रपति कोविंद को तो, क्रूर भेदभाव की ये ज़िल्लत, कई बार झेलनी पड़ी थी.
संविधान की प्रस्तावना में सुसज्जित, ‘सेकुलरिज्म’ शब्द, आज, मखौल और तिरस्कार का विषय बन गया है. उसके बाद आने वाले, ‘समाजवाद’ के तो चिथड़े ही उड़ चुके हैं. संविधान की बुनियाद दरक चुकी है. अब तो उसका सूपड़ा साफ़ करने की चर्चा का दौर है. संविधान के अनुरूप देश चले, यह ज़िम्मेदारी जिस सुप्रीम कोर्ट की है, उसे कोई चिंता नज़र नहीं आती. बुर्जुआ जनवाद के, ये तथाकथित खम्बे, जब थे ही दिखावे के, तो इन्हीं को, उसी जनवाद को कुचलने के मूसल में तब्दील करने में, भला क्या अड़चन आनी थी. इतना ही नहीं, रामजन्म भूमि मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला, फ़ासीवादी अँधेरा गहराने की ओर, एक बड़ी छलांग साबित हुआ. लोक-लुभावन, रसीली टिप्पणियों के बाद, सुप्रीम कोर्ट का फैसला, बिलकुल वही आया, जो ‘न्यास’ चाहती थी. ‘लोक-लुभावन’ टिप्पणियों से यह भ्रम भी बना रहा, कि ‘चिंता मत करो, सब संविधान’ के अनुरूप ही चल रहा है, हम हैं ना!!’ उसके बाद, सुप्रीम कोर्ट से, उसी तरह की कट्टर हिन्दुत्ववादी परियोजनाओं को तेज़ी से लागू करने की दिशा में, अदालती फ़ैसलों की श्रंखला ही चल निकली. 1993 में पास किए अपने ही क़ानून, जिसमें प्राचीन धार्मिक स्थलों को ना कुरेदने को कहा गया था, की तरफ़ आँखें मूंदकर, सुप्रीम कोर्ट ने, ज्ञानव्यापी मस्जिद का वैसा ही, एक और पिटारा खोल दिया. ज्ञान-व्यापी मस्जिद वाला फैसला; जिसके बारे में, एक फासिस्ट सेनापति का हुक्म है कि ‘मस्जिद’ शब्द का अगर इस्तेमाल हुआ, तो हिन्दुओं की भावनाएं भड़क जाएंगी, बहुत ही ख़तरनाक फैसला है, क्योंकि इसे उद्धृत कर, देश भर में ऐसे हज़ारों मामले उठाए जा सकते हैं. भले खाने को दाने ना हों, लेकिन मंदिरों-मस्जिदों की इस देश में कोई कमी नहीं. जब भी मज़हबी ख़ुमारी गहराने की ज़रूरत हो, किसी ना किसी मस्जिद को खोदकर देखा जाने लगेगा. मोदी सरकार, सुप्रीम कोर्ट से, भला क्यों शिकायत करे. दिखावे के लिए, नूरा कुश्ती ज़ारी रहती है.
न्यायपालिका के बाद, विधायिका का मुआयना करना बनता है. विधानसभाएं किस विधान से चल रही हैं, यह जानने के लिए, महाराष्ट्र और दिल्ली के उदहारण काफ़ी हैं. महाराष्ट्र का सार; शिंदे, फड़नविस और स्पीकर ने जो भी किया, ग़लत किया, असंवैधानिक किया, लेकिन सरकार शिंदे की ही रहेगी!! दिल्ली का मुख्यमंत्री, अपने बुर्जुआ आक़ाओं की सेवा में, एक विचित्र ही मॉडल प्रस्तुत कर रहा था!! सुप्रीम कोर्ट ने, दिल्ली के प्रशासन चलाने के संबंध में, चुनी हुई सरकार के पक्ष में एक फ़ैसला क्या सुनाया, यह चालाक इंजीनियर, उनकी ही गटर गंगा में रहकर, वित्तीय पूंजी के मगरमच्छों को ही मूर्ख बनाने की फ़िराक में था. 70 विधायकों में 67 उसकी जेब में हैं, इस अकड़ में, फ़ासीवाद की राजनीती ही भूल गया!! इतने सारे विधायक ख़रीदने में, पेश आने वाली कठिनाईयों के मद्दे नज़र, उसकी हवा पंक्चर करने के लिए, मोदी सरकार ने एक अलग विधि अपनाई. उसके ऐसे पर क़तरे गए, कि अब वह देश की बागडोर संभालने के ख़्वाब की जगह, एक स्कूल टीचर ही नहीं बना दिया गया बल्कि तिहाड़ जेल का वह बड़ा दरवाज़ा भी उसे हर रात नज़र आ रहा है!! सुप्रीम कोर्ट की इससे ज्यादा अवमानना नहीं हो सकती लेकिन यह वक़्त, अवमनानाओं को नज़रंदाज़ करने का है, सुप्रीम कोर्ट अच्छी तरह जानती है. ‘लोकतंत्र के मंदिर’ का हाल, सबसे बेहाल है. हर सेसन से पहले, जान-पूछकर, कुछ ऐसे मुद्दे ज़ेरे-बहस लाए जाते हैं, जिन पर सेसन के पूरे कार्यकाल में हल्ला मचता रहता है. आखरी दिन सारे बिल, दो घंटे में पास हो जाते हैं!! उदहारण; पहले से ही जंगल की निर्मम लूट से उत्पन्न तबाही झेल रहे देश में, ‘वन-संशोधन’ नाम का ऐसा बिल पास हो गया, जो मौजूदा जंगल के 28% भाग को तबाह कर डालेगा. कहीं कोई बहस हुई? किसी को पता चला? हिटलर इस काम को, इतनी चतुराई से करने में नाकाम रहा, इसलिए उसे जर्मनी की संसद फूंकनी पड़ी थी. आज के फासिस्ट उससे कहीं ‘स्मार्ट’ हैं!!
जनवाद के बाक़ी के दोनों खंबे, कार्यपालिका और मीडिया तो कब से, वित्तीय पूंजी और उनकी फ़ासिस्ट हुकूमत की सेवा में समर्पित होकर, गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं!! इन दोनों इदारों की, इस बात की तारीफ़ की जानी चाहिए, कि इन्होने अपने चरित्र के बारे में कोई भ्रम बनाया हुआ नहीं है, कोई धुंधलका नहीं. ये दोनों इदारे, असली मालिकों के हुक्म की तामील करने में, लज्जित होने का ढोंग नहीं करते. पुलिस, ईडी, सीबीआई, इनकम टैक्स, चुनाव आयोग आदि ने तो, विधायिका को ‘सीधा’ करने और फासिस्ट परियोजना के मुख्य चिंतन; ‘हिन्दू-मुस्लिम में बैर पैदा करने, पहले मुसलमानों को आतंकी, ज़ेहादी बताकर, उसकी ज़मीन तैयार करने, आग सुलगाने, फिर उसे धू-धू जलाने और फिर पीड़ितों को ही, गुनहगार साबित करने’ की ज़िम्मेदारी ही अपने ऊपर ले ली है. इस ख़ूनी खेल को जिसने भी बाधा पहुंचाई, उसे निशाने पर लेने में, उसकी बांह मरोड़कर रास्ते पर लाने में, इन इदारों ने कभी देर नहीं की. सरकार को कभी शिकायत का मौक़ा नहीं दिया. पिछले 9 साल में जितनी भी हिंसक घटनाएँ हुई हैं, जितने भी घृणा और नफ़रत फ़ैलाने के अभियान चले हैं, उन सबमें मुख्य गटर धारा वाला मीडिया, सबसे बड़ा दंगाई, सबसे शातिर आतंकी और सबसे घिनौना नफरतिया रहा है. रेलगाड़ी में, बे-वज़ह, बेक़सूर मुसाफ़िरों को, बेरहमी से क़त्ल कर डालने वाला, क्रूर हत्यारा, चेतन सिंह इसी मीडिया का प्रोडक्ट है. उसके ज़हर बुझे शब्दों पर गौर कीजिए, “इनके हैंडलर पाकिस्तान में हैं. ये उन्हीं के इशारे पर चलते हैं. इंडिया में रहना है तो श्रीराम कहना होगा. मोदी-योगी को वोट देना होगा”. ये ही है इस फासिस्ट मीडिया का सबसे प्रिय ज़हर, जिसे नफ़रत के ये भोंपू, 24 घंटे ज़ारी रखते हैं. ये घृणित ‘मुख्य धारा’ का मीडिया, ‘मानव बम’ तैयार कर रहा है. खोपड़ी में बारूद लिए, ये ‘मानव बम’ कहीं भी हो सकते हैं, कभी भी फट सकते हैं. देश में फ़ासीवाद के उत्थान और पतन का जब इतिहास लिखा जाएगा, और वह ज़रूर लिखा जाएगा; उसमें सबसे काला अध्याय, इसी गटर मीडिया का होगा. एंकरों के वेश में, चीख रही ये गोएबेल की औलादें, एक दिन ज़रूर लोगों के क्रोध के निशाने पर होंगी, जैसा हमने श्रीलंका में देखा था.
बुर्जुआ जनवाद के ही ये सारे संस्थान, जनवाद के लिए, बहुत घातक साबित हुए. वैसे भी, राजनीति शास्त्र का मूल पाठ है, कि राज-सत्ता के 4 प्रमुख अंग होते हैं, कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका और मीडिया. वर्ग-विभाजित समाज में, सत्ता, शासक वर्ग द्वारा शोषित वर्ग पर हुकूमत चलाने का औज़ार है. यह बात कार्ल मार्क्स से पहले के दार्शनिकों ने ही प्रतिपादित कर दिया था. सत्ता पर संकट आते ही, इनके अलग-अलग बंटे काम, एक हो जाते हैं: सत्ता को डूबने से बचाना. आज जैसा संकट तो पूंजीवाद ने कभी नहीं झेला, इसलिए कैसी अवमानना और कैसी शर्म!! कार्ल मार्क्स ने तो इस संकट से बाद की, अवश्यमभावी परिणति क्या होगी यह बताया था. पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजी और श्रम के बीच छिड़ी जंग का अंजाम, निश्चित रूप से, ‘सर्वहारा की तानाशाही’ प्रस्थापित होने में होता है. फ़ासीवाद का अंत उसके साथ ही होगा. व्यवस्था की सड़ांध जब चरम पर पहुँच चुकी हो, तो उसका कोई भी अंग स्वस्थ नहीं रह सकता.
यह सब हुआ कैसे ?
ये है मूल सवाल. पूंजीवाद-साम्राज्यवाद के फ़ासीवादी रूपांतरण में, तर्क़पूर्ण सोच, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और साहसी, दिलेर, रीढ़ सीधी कर चलने वाला युवा वर्ग, सबसे बड़ी बाधा बनते हैं. यही वज़ह है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने, जिसकी विघटनकारी विचारधारा, फ़ासीवाद का सैद्धांतिक आधार है, अपने फ़ासीवादी अजेंडे के अनुरूप ‘नई शिक्षा नीति” प्रस्तुत की. ‘प्राचीन गौरवशाली इतिहास’ के झूठे, ‘स्वर्णिम काल’ की दुहाई देते हुए, ये सुनिश्चित किया गया कि शिक्षित होने से, तर्क़पूर्ण सोच का कोई सम्बन्ध रहे. पाठ्यक्रमों से, विविधतापूर्ण, गंगा-जमुनी तहज़ीब प्रस्थापित करने वाले लेखकों, कवियों, साहित्यकारों को दूर कर, उनकी जगह ‘आस्था-आधारित’ गपोड़े परोसने वाले ‘राष्ट्रवादियों’ को ‘विद्वान-विचारक’ बताकर बैठाया गया. इतिहास को मन-मर्ज़ी तोड़ा-मरोड़ा गया. संसदीय विपक्ष, इसका विरोध किस मुंह से करता, शिक्षा विकृत करने की परियोजना तो कांग्रेस ने ही शुरू की थी. यूपीए के, 2004 – 2014 के, 10 साल के कार्यकाल में जो काम, धीमी गति से चलता रहा, वही काम और भी विकृत रूप में, 2014 के बाद टॉप गियर में चलने लगा. शिक्षा का बेड़ा पूरी तरह गर्क़ किया जा चुका है. उससे भी ज्यादा तक़लीफ़ यह जानकर होती है कि इसके विरुद्ध देश के छात्र-अध्यापक, कोई जन-आंदोलन नहीं खड़ा कर पाए. ‘शिक्षा के अधिकार का अखिल भारतीय मंच (All India Forum for Right To Education, AIFRTE)’ 21-22 जून 2009 में स्थापित हुआ, और देश भर के लगभग सभी छात्र संगठन इसमें शामिल हैं. इस अपार ऊर्जा से, ऐसे आंदोलन की अपेक्षा थी जिसके तेवर ‘किसान आंदोलन’ से भी तीखे होंगे, लेकिन सारे-के सारे समाज को अपने संघर्षों में समेट लेने की संभावनाओं वाला, ‘शिक्षा बचाओ आंदोलन’ उठ ही नहीं पाया. मोदी सरकार को फ़ासीवादी शिक्षा नीतियाँ लागू करने में कोई कठिनाई पेश नहीं आ रही. शिक्षा के विकृतीकरण की प्रक्रिया संपन्न हो चुकी है.
सड़ते हुए पूंजीवादी की सबसे तीखी बदबू, संस्कृति, नीति-नैतिकता के क्षेत्र में महसूस की जा सकती है. युवाओं को, मज़हबी नशे के साथ-साथ असली नशे में डुबोया जा चुका है. रोज़गार के लिए, दिल्ली की सत्ता से लड़ने वाले युवाओं को, कांवड़-यात्रा के लिए हरिद्वार की तरफ़ मोड़ा जा चुका है. हिन्दू त्यौहारों को, मुस्लिम समाज पर हमलों के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. वित्तीय पूंजी के अगवाओं द्वारा पोषित और प्रायोजित ‘भगवा मंडली’, फ़ासीवादी घटाटोप के लिए आवश्यक ब्लू प्रिंट तैयार कर रही है, जिसके कार्यान्वयन के लिए, लोगों के ज़हन में मौजूद मज़हबी कमज़ोरी को, कुरेद कुरेदकर उभाड़ा जा रहा है. युवाओं को अंध-हमलावर बनाने के लिए, नशाखोरी रोकने पर से नियंत्रण हटा लिया गया है. शराब के आलावा भी, नशे की सारी सामग्री बाज़ार में आसानी से उपलब्ध है. समाज इस हद तक नशेड़ी बनाया जा चुका है, कि कोविद महामारी के दौरान, विनाशकारी लॉक-डाउन में, शराब की दुकानें खुलवाने के लिए दंगे भड़क उठे थे. शराब पीने को, चरम तक ले जाने के लिए हरियाणा की, ‘उच्च संस्कारों’ वाली सरकार, दफ्तरों में काम करते वक़्त भी, शराब उपलब्ध कराने जा रही है. बाज़ार में सबसे चमचमाते शो-रूम शराब के ही हैं, जो हर वक़्त खुले रहते हैं. होम डिलीवरी भी शुरू हो चुकी है. सबसे ज्यादा भीड़, इन दुकानों पर ही नज़र आती है. फरीदाबाद-गुडगाँव में शराब के ठेके, इस साल पिछले साल के मुकाबले 50% ज्यादा में उठे. जीएसटी के बाद राज्यों की आय का प्रमुख ज़रिया, शराब की एक्साइज ड्यूटी ही है, लेकिन ये मसला मात्र कर वसूली का नहीं है.
जैसे मोदी गुजरात से लांच हुए थे, हिटलर को, जर्मनी के कॉर्पोरेट और कोकाकोला कंपनी ‘कोक’ ने, बावेरिया प्रान्त से लांच किया था. म्यूनिख और नयूरेम्बेर्ग में नाज़ियों की तबाही से, ये धन-पशु, हिटलर की फ़ासीवादी क्षमता आंक चुके थे, लेकिन उस ‘घोड़े’ को बर्लिन में प्रस्थापित किए बगैर सारी जर्मनी को पागल बनाना मुमकिन नहीं था. वहां तो, लेकिन, कम्युनिस्टों का बोल-बाला था. आंदोलन की किसी भी कॉल पर, लाखों मज़दूर, लाल झंडे लेकर निकल पड़ते थे. कौत्स्की की सैद्धांतिक गद्दारियों के बावजूद, जर्मन शासक वर्ग, जर्मनी और ख़ासतौर पर बर्लिन के मज़दूरों से खौफ खाता था. इन मज़दूरों को, समाजवादी क्रांति की लड़ाई से हटाकर, हिटलर की नाज़ी सेना के सिपाही बनाने की ज़िम्मेदारी, गोएबेल को सौंपी गई थी. वह बर्लिन आया और सबसे पहला काम उसने ये किया था, कि मज़दूरों की कैंटीन में, बियर लगभग मुफ्त में उपलब्ध कराई गई थी. ना सिर्फ़ गोएबेल अपने मिशन में क़ामयाब रहा, बल्कि जर्मन मज़दूरों को बियर की ऐसी लत लगी, कि 1 मई, मज़दूर दिवस की वहां छुट्टी होती है, लेकिन शायद ही कहीं, उस दिन मज़दूर, गंभीर चर्चा के लिए बैठते हों. हर जगह, यहाँ तक की मुख्य सड़क के बीचोंबीच भी, उस दिन मज़दूर बियर पार्टियाँ करते हैं. शाम को बेवड़ों की तरह ऐसे ही गाने गाते फिरते हैं, जैसे यहाँ कांवड़िए, डीजे की धुन पर नाच रहे होते हैं. आज भी बर्लिन में, बियर की केन, 1 यूरो की मिल जाती है, जबकि एक बार पेशाब करने के भी 1 यूरो लगते हैं!! ज्यादा से ज्यादा समाज को, ख़ासतौर पर युवाओं को नशेड़ी बनाना, गंदे पोर्न विडियो की भरमार करना, निश्चित रूप से फ़ासीवादी परियोजना का हिस्सा है. नशे का आदी, पत्नी को तो पीट सकता है, क्रांतिकारी जंग में शामिल नहीं हो सकता, यह क्रूर हकीक़त, अपना ‘साम्राज्य’ बचाने की आख़री लड़ाई लड़ रहे, वित्तीय पूंजी के भेड़िए जानते हैं. पूंजीवाद-साम्राज्यवाद के पास देने को, अब बस बचा ही ये है. उत्पादक शक्तियों को नशे की भट्टी में झोंककर, उन्हें ख़त्म करके ही, ये जिएगा, जितने दिन भी जिएगा.
पूंजीवाद के मुरीद, अर्थशास्त्री, चिंतक, विचारक, उसके सारे ताबेदार अच्छी तरह जानते हैं, कि श्रम की लूट के इस राज को हमेशा के लिए क़ायम रखने के लिए, उदारवादी बुर्जुआ जनवाद से बेहतर कुछ भी नहीं. उसके तहत, व्यवस्था को इस तरह गढ़ा और प्रस्तुत किया जाना संभव है कि लगे कि अब सारे भेदभाव, अन्याय मिट गए. देखो, कहाँ है शोषण? हर साल नए कारखाने लग रहे हैं, नए स्कूल खुल रहे हैं, हर साल नए, विशाल अस्पताल खुल रहे हैं. मज़दूरों की भी सरकार को चिंता है, याद कीजिए, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, पी बी गजेन्द्रगड़कर की अध्यक्षता में, 24 दिसंबर 1966 में गठित, पहला श्रम आयोग जिसकी एक प्रमुख सिफ़ारिश थी, कि किसी भी मज़दूर को, किसी भी परिस्थिति में, 6 महीने से ज्यादा अस्थाई नहीं रखा जा सकता. उसे उसी वक़्त स्थाई करना होगा, जिससे उसे, सभी श्रम अधिकारों का लाभ मिल सके. क्या कोई आज यकीन कर सकता है? हालाँकि, शोषण की प्रक्रिया तब भी वैसी ही थी. वर्ग विभाजित समाज में, अगर कोई व्यक्ति, संगठन, सरकार किसी भी दूसरे व्यक्ति का श्रम ख़रीद पा रहे हैं, तो श्रमिक के श्रम की चोरी होगी ही. लेकिन उस वक़्त पूंजीवादी विचारक, पूंजीपतियों द्वारा मज़दूरों के शोषण के विचार को, कम्युनिस्टों के दिमाग का फ़ितूर बताकर, मज़दूरों को आसानी से बहका, बरगला सकते थे. फ़ासीवाद में सत्ता का ख़ूनी चरित्र इतना स्पष्ट हो जाता है, कि हर व्यक्ति को, हर रोज़, ख़ुद-ब-ख़ुद नज़र आता है. क्या ये चमत्कार जैसा नहीं लगता, कि ‘देश के चंद कॉर्पोरेट, ही मेहनतक़श अवाम के दुश्मन हैं’ , इस सच्चाई को, देश के कोने-कोने में ले जाने श्रेय, उन किसानों को देना पड़ेगा, जो ख़ुद पूंजी के मालिक हैं, स्वयं मज़दूरों के श्रम का शोषण करते हैं, जो ख़ुद, बहुत बड़े नंबरदार-चौधरी बनने की हसरत पाले हुए थे? फ़ासीवाद की जगह, 1960 के दशक का पूंजीवाद आने का, अब, कोई चांस नहीं, यह बात उसके ताबेदार भी जानते हैं, फिर भी ये ‘ज़ोखिम’ उठा रहे हैं. वज़ह है, ‘मरता क्या ना करता’!! असली वज़ह जानने के लिए बस दो उदहारण काफ़ी हैं; बेरोज़गारी और मंहगाई.
बेरोज़गारी, पूंजीवाद को अपने साथ लेकर जाएगी
नया कीर्तिमान; RBI की जून 23 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में काम करने लायक़, अर्थात 15 साल से 65 साल के बीच, लोगों की तादाद, 84 करोड़ है, जो कुल आबादी का 61% है. इन 84 करोड़ में, काम पर लगे लोगों की तादाद, पहली बार 40% से कम, यानी 39% हो गई है. इस अनुपात को ‘श्रम भागीदारी दर’ (Labor Participation Rate, LPR) कहा जाता है. महिलाओं में ये प्रतिशत और भी ख़राब, 32.8% है. दोनों का औसत निकाला जाए तो 36% आता है. मतलब, बेरोज़गारों की सेना पहली बार, 50 करोड़ के आंकडे से ऊपर निकली है. विश्व श्रम भागीदारी दर 67% है. वायर में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, देश में कुल 26.3 करोड़ लोग खेती में लगे हुए हैं. इनमें, 14.4 करोड़ भूमिहीन खेत मज़दूर तथा ऐसे सीमांत किसान हैं, जो खेती पर कम, और मज़दूरी पर ज्यादा निर्भर हैं. 11.9 करोड़ किसानों में से भी, लघु और मध्यम किसानों की तादाद, इसका 80% है. खेती में कॉर्पोरेट राज़ लाने वाले क़ानून, बेशक किसानों ने 13 महीने चले अपने शानदार आंदोलन की बदौलत, और 750 शहादतों की क़ीमत चुकाकर वापस करा लिए, लेकिन सरकार इस मामले में भी पीछे नहीं हटी है, हट सकती भी नहीं. मोदी सरकार, कॉर्पोरेट की किस हद तक गुलाम है, उनके गुर्गों के इशारे पर, किस बेगैरती से नाती है, और किस तरह देश के सारे के सारे कृषि बाज़ार को ही अडानी, पतंजलि, महेंद्रा को देने का षडयंत्र रचा जा रहा था, ‘रिपोर्टर कलेक्टिव’ की शानदार रिपोर्ट से सारा देश जान ही चुका है. जिस हद तक मोदी सरकार, कॉर्पोरेट की खुली ताबेदार बन चुकी है, और उनके मुंशी होने जैसा आचरण कर रही है, वह कॉर्पोरेट को, विशाल कृषि बाज़ार हड़पने से रोक पाएगी भी नहीं. इतना आगे बढ़ने के बाद, पीछे हटने की गुंजाईश भी कहाँ बची है. पूंजीवादी रोड रोलर पीछे नहीं मुड़ता.
फ़ासीवादी राज़, किसी क़ायदे-क़ानून से नहीं चलता. ये तो छीना-झपटी से चलता है. इसलिए इसमें सरकार, हर रोज़ झूठ बोलती है. जो कहती है, वह करती नहीं, और जो करती है, वह कहती नहीं. किसानों के चंगुल से अपनी गर्दन बचाने के लिए, मोदी ने, एक क़ानून बनाकर, तीन कृषि क़ानून वापस ले लिए और किसानों के ट्रेक्टर उनके गांवों में लौट भी गए, लेकिन पर्चा लिखकर देने के बाद भी, शर्तों का पालन कहाँ किया है? लब्बो-लुआब ये है, कि खेती के कारपोरेटीकरण के बाद, इस व्यवसाय में लगे 26.3 करोड़ लोगों में से, 5% ही अपना भरण-पोषण खेती से कर पाएंगे. इसमें से, 24 करोड़ लोग ‘कार्य-मुक्त’ हो जाएँगे, इस हृदयविदारक हकीक़त को स्वीकार करने में, हम भले ना-नुकर करें, वित्तीय इज़ारेदार पूंजीपतियों के ‘सीईओ’ अच्छी तरह जानते हैं. रिज़र्व बैंक की उक्त रिपोर्ट के मुताबिक जो 36% लोग काम पर लगे हुए हैं, उनके ऊपर भी छंटनी की तलवार ना सिर्फ लटक रही है, बल्कि हर रोज़ सर के नज़दीक आती जा रही है. सरकार रोज़गार देने के वादे करना भी छोड़ चुकी है. हरियाणा का मुख्यमंत्री, कई बार अपने ऊपर लगा नियंत्रण खोकर असलियत बोल जाता है. वह कह ही चुका है, ‘सबको रोज़गार देने का हमने ठेका थोड़े ही लिया है. अपना-अपना कमाओ और खाओ, हम कहाँ रोक रहे हैं’!! असलियत यही है. फ़ासीवाद को लाया ही, उत्पादक शक्तियों को नष्ट करने के लिए जाता है, भले उसके लिए गैस चैम्बर की बजाए, कम तक़लीफ़देह तरीक़े क्यों ना अपनाए जाएँ. बेरोज़गारी, पूंजीवाद को अपने साथ लेकर ही जाएगी.
मोदी सरकार ने दिसंबर, 2022 में, संसद को बताया कि केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों में, कुल 9,79,327 पद ख़ाली हैं. इसी तरह से, सभी राज्य सरकारों के पदों को जोड़ा जाए, तो यह संख्या करोड़ों में पहुंचेगी. इससे बड़ा और क्या सबूत चाहिए, कि सरकार बेरोज़गारी का ज़िक्र भी नहीं चाहती. पूंजीवाद के फ़ासीवादी रूपांतरण की सबसे बड़ी वज़ह, रोज़गार ना दे पाना ही है. चुनाव से पहले नोकरियों के कुछ टेस्ट ज़रूर होते हैं, लेकिन भर्तियाँ कभी नहीं होतीं. स्व-रोज़गार में लगे करोड़ों लोग भूखों मरने की हालत में हैं. इस स्तर की बेरोज़गारी के रहते, सरकार, जनवादी तरीक़े से चल ही नहीं सकती और पूंजीवाद-साम्राज्यवाद का अब कोई विकास-विस्तार संभव नहीं. इसलिए रोज़गार मिलना संभव नहीं. फ़ासीवादी तांडव मचाने वालों को, इसीलिए पाला-पोसा जा रहा है.
मंहगाई नहीं, यह कॉर्पोरेट को लूट की छूट है
कॉर्पोरेट लूट की नंगई और सड़ांध, इस क़दर तीखी हो गई है, कि किसी को नज़र ना आए, मुमकिन नहीं. उदारवादियों को भी अब, ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ और ‘पवित्र कैपिटलिज्म’ में भेद करना मुश्किल हो गया है. कॉर्पोरेट लूट, चूँकि, डकैती में तब्दील हो चुकी है, जो अब मंहगाई के साथ एकाकार हो चुकी है. दोनों एक दूसरे में गुंथ चुके हैं. हिंडेनबर्ग कंपनी को, दुनिया भर में कई कंपनियों का दिवाला निकालने की ‘प्रतिष्ठा’ हांसिल है. ये शातिर कंपनी, अपने निशाने पर लेने से पहले, सालों तक अपने शिकार का अध्ययन करती है, उसकी कमजोरियों की लिस्ट बनाती है, जिससे उसके पूरी तरह, मटियामेट होने, ज़मिंदोस्त होने में कोई सुबाह ना रहे. अडानी और मोदी की जोड़ी ने, हिंडेनबर्ग को भी फेल कर दिया!! ‘विश्वगुरु’ होने का दावा इतना खोखला भी मत समझिए, भले ठगी में ही क्यों ना हो!! दुनियाभर के, साम्राज्यवादी ‘अर्थशास्त्रियों’ ने जिस ‘अडानी समूह’ की शोकांतिका लिख डाली थी, वह गौतम अडानी, फिर से वैसे ही दनदना रहा है!! गिरफ़्तारी तो छोडिए, गौतम अडानी या विनोद अडानी से पूछताछ तक नहीं हुई!! ‘शेल कंपनियां किसकी हैं? वे 20,000 करोड़ किसके थे’, कितनी ज़ोर से गूंजे थे, ये सवाल संसद में? जवाब मिला? अब राहुल गाँधी भी उन्हें नहीं उठा रहा. कांग्रेस तो इस खेल की पुरानी ख़िलाड़ी है. उसे अब प्रधानमंत्री की कुर्सी नज़र आने लगी है. वह जानती है कि इस मुद्दे पर उतना ही चीखा जाए, जिससे कॉर्पोरेट-विरोध का बस भ्रम बना रहे. हुक्म तो आख़िरकार, उन्हें भी, इन्हीं डकैतों का बजाना है. बाक़ी कठिनाई तो कुछ होनी ही नहीं है, क्योंकि ‘संघ परिवार’ तो पहले भी इंदिरा शासन-काल में कांग्रेस की ख़िदमत कर ही चुका है.
2014 लोकसभा चुनाव से पहले, गुजरात की मोदी सरकार ने, केंद्र सरकार के ‘आवश्यक वस्तु भंडारण’ क़ानून के तहत ज़ारी आदेश को नज़रंदाज़ कर, अडानी को, थोक में अरहर दाल मोज़ाम्बीक से आयात कर, भंडारण करने की छूट दी थी. अरहर दाल के दाम 65/ रु प्रति किलो से, सीधे 200/ प्रति किलो पर पहुँच गए. इस ‘डायनामिक’ क़दम से 2.5 लाख करोड़ रु, ग़रीब मेहनतकशों की ज़ेबों से निकलकर, अडानी की राक्षसी, कभी ना भरने वाली जेब में पहुँच गए. साथ ही, भाजपा के लिए, उस चुनाव में, पैसे की टेंसन भी दूर हो गई!! अरहर दाल के दाम वहीं अटक गए!! क्या कोई सोच सकता है कि जनवरी-फ़रवरी महीने में, जिस टमाटर को, ढुलाई के दाम भी वसूल ना होने की वज़ह से, किसान सड़कों पर फेंकने को मज़बूर थे, वह 200/ रु किलो बिकेगा? जब सरकार नीतियां बनाकर, सारे पूंजीपतियों को ‘खेलने’ की छूट देती है, और ज़रा सा भी फ़ाउल होने पर सीटी बजा देती है, तो इतनी अंधेरगर्दी मुमकिन नहीं. यह तब ही संभव है, जब नीतियाँ चंद कॉर्पोरेट बना रहे हों और उन्हें ‘लागू कराओ’, नोट के साथ अपनी प्रबंधक कमेटी को थमा रहे हों!! अब वही हाल प्याज का होने जा रहा है, क्योंकि बहुत बड़ा और जनवादी ढकोसले के अंदर होने वाला आख़री, निर्णायक चुनाव सामने है. बैंकिंग पूंजी और औद्योगिक पूंजी एकाकार हो जाती हैं, तो वित्तीय पूंजी का निर्माण होता है, लेकिन जब देसी पूंजी, सरकारी पूंजी और विदेशी संस्थागत पूंजी (FII), सब एकाकाकर हो जाती हैं, ‘क़ानूनी’ कंपनियां और शेल कंपनियां, एकाकार हो जाती हैं, तो दैत्याकार वित्तीय पूंजी वज़ूद में आती है, वह दुनिया का सारा खाद्यान्न ख़रीदकर जमा कर सकती है. उसके बाद, एक-एक दाना, एक-एक डॉलर में भी बिक सकता है. ‘सप्लाई चेन’ पर सम्पूर्ण नियंत्रण हो जाने के बाद, कभी भी, कितना भी पैसा बनाया जा सकता है, लेकिन इस प्रक्रिया की क़ामयाबी के लिए, ‘बुर्जुआ जनवाद’ के स्पीड ब्रेकर नहीं चाहिएं. क्यों, क्या, कैसे, कब पूछने वाले नहीं चाहिएं.
देश के एअरपोर्ट के रखरखाव के अधिकतर ठेके हथियाने और सांघी सीमेंट पर क़ब्ज़ा ज़माने के बाद, अडानी समूह साबित कर चुका है, कि कोई भी उद्योग अब उसकी ज़द से बाहर नहीं. हिंडेनबर्ग की रिपोर्ट लोग भूल चुके हैं. इस देश के लोगों में भूलने की अद्भुत क्षमता है. हिंडेनबर्ग को घाटा, शायद अडानी परियोजना में ही हुआ होगा!! मोदी सरकार को औज़ार के रूप में इस्तेमाल कर, सरकारी इदारे झपट लेने की भी एक सीमा है. समाज के व्यापक कंगालीकरण के बाद कारें, फ़्लैट आदि बिकने बंद हो जाते हैं, लेकिन अनाज, दाल, चावल, तेल, फल तो तब तक ख़रीदे जाएँगे, जब तक लोग मर नहीं जाते. फ़ासिस्टों के लाड़ले, चुनिंदा कॉर्पोरेट की नज़र अब, मूलभूत खाद्य पदार्थों पर है. वैसे भी, फ़ासीवाद, ‘औसत पूंजीपति वर्ग के हित’ वाले विचार का नकार है. फ़ासिस्ट मोदी सरकार को जमाखोरी और जमाखोरों से बहुत मुहब्बत है. मंहगाई कम करना उसे गंवारा नहीं. सभी को मालूम है कि 3 कुप्रसिद्ध कृषि क़ानूनों में, एक तो जमाखोरी को क़ानूनी बनाने के लिए ही था. किसानों ने उन्हें पारित होकर भी अपारित करवा दिया, लेकिन वे फ़ासीवादी फ़ितरत को पहचानने में चूक गए. राज, अगर, क़ायदे क़ानून से चल रहा हो, हुकूमत अगर अपने कहे पर अमल कर रही हो, तो वह फ़ासीवादी राज नहीं हो सकता. तीनों कृषि क़ानून, वापस लेने का क़ानून बनने के बाद भी, सरकार ने अपने एजेंडे को बिलकुल नहीं बदला है.
मोदी सरकार को अगर मंहगाई कम करने की थोड़ी भी इच्छा होती, तो डीज़ल, पेट्रोल आधे दामों पर बिक रहे होते. रूस-युक्रेन युद्ध, के परिणामस्वरूप रूस ने, अपना तेल बहुत सस्ते में बेचा. उस सस्ते तेल का, दुनिया का सबसे बड़ा ख़रीदार इंडिया रहा. हर रोज़, 163 मिलियन बेरल रुसी क्रूड आयल, इंडिया ने ख़रीदा, लेकिन इसका 46% भाग, मुकेश अंबानी की कंपनी रिलायंस पेट्रोलियम और एक रुसी कंपनी रोज़नेफ्ट तथा एक ‘अज्ञात’ भारतीय धन-पशु की, वाडीनार, गुजरात स्थित कंपनी, ‘नायारा’ को खरीदने दिया. वायर की रिपोर्ट के अनुसार रूस ने, इस तेल की ख़रीद पर, प्रति बेरल, 15-20 $ की छूट दी. इसका मतलब हुआ, कि प्रति बेरल छूट का औसत $17.5 भी लिया जाए, तो तेल की ख़रीद पर, हर रोज़, 285.25 करोड़ डॉलर, अर्थात 23,670 करोड़ रुपये छूट मिली. इसका 46%, मतलब अम्बानी और नायारा कंपनी के मालिक, रुसी और अज्ञात गुजराती ठगों ने, हर रोज़, 10,888 करोड़ रुपये, तथा सरकारी कंपनियों ने 54% मतलब, 12,782 करोड़ रुपये, तो रुसी क्रूड आयल के आयत से कमाए. फिर इस तेल का शुद्धिकरण कर, यूरोप को निर्यात किया. युद्ध के दरम्यान, इंडिया से यूरोप को होने वाले, हवाई जहाज़ के तेल और डीज़ल का निर्यात 570% बढ़ गया, मतलब 5.7 गुना हो गया. यूरोप को हुए निर्यात से भी आयात जितना पैसा, रिलायंस पेट्रोलियम और नायारा ने कमाया. एक और दिलचस्प तथ्य ये भी है, कि रुसी तेल की हुई लूट में, इंडिया के बाद चीन का नंबर रहा. रुसी कंपनी रोज़नेफ्ट द्वारा की गई लूट में रुसी ठग, पुतिन का हिस्सा होगा और नायारा के ‘अज्ञात’ मालिक की कमाई में किसका हिस्सा होगा, सब जानते हैं!! युद्ध, साम्राज्यवादी कॉर्पोरेट लुटेरों की, इतनी तगड़ी कमाई का ज़रिया होते हैं. इन्हें, भला कैसे रोका जा सकता है!! अब लूट के लिए, उपनिवेशों पर क़ब्ज़ा करने के युद्धों की दरकार नहीं रही. युद्ध, अब ‘सप्लाई चैन’ पर क़ब्ज़े के लिए गढ़े जाते हैं. हेरा-फेरी और सेटिंग ज़माने में, अंबानी-अडानी से पिछड़ रहे, छोटे लुटेरों की तरफ़ से, कुछ दिन तक अख़बारों में ये ज़रूर आया कि सस्ते रुसी तेल के आयात-निर्यात से कुछ कंपनियां, ‘छप्पर-फाड़ मुनाफ़ा’ (windfall profit) कूट रही हैं, इन पर टैक्स लगाओ. मोदी सरकार की ओर से जवाब भी आया, ‘हाँ, देखेंगे..करेंगे..’ लेकिन गटर गंगा जिस दिशा में बह रही थी, उसी दिशा में बहती रही!! अगर समूचे पूंजीवादी वर्ग के औसत हित वाला फ़ॉर्मूला काम कर रहा होता, तो इस लूट के टेंडर खुलते. वह ज़माना बहुत पीछे छूट गया. फ़ासीवाद ऐसी ‘छोटी-मोटी’ बक़-बक़ की परवाह नहीं करता!! फ़ासीवाद को, बस एक ऐसे नेता की ज़रूरत होती है, जो धाराप्रवाह झूठ बोलने में ना शर्माए. एक बात को चीख कर कहने के बाद, उसके विपरीत बात को भी उतना ही चीख कर कह सके.
झूठ, फ़रेब, षडयंत्रों के सहारे घिसटता, पूंजीवाद का अधमरा शरीर, फासीवाद में, लुटेरे शासक वर्ग को, लूट की एक और छूट देता है, वह है मज़दूरों को निचोड़ने की छूट. ‘कोई नियम क़ायदा लागू नहीं’ में, श्रम क़ानून भी आ जाते हैं. देश में आज कोई मज़दूर क़ानून लागू नहीं है. काम के घंटों की कोई बंदिश, न्यूनतम वेतन की कोई शर्त, पीएफ, ईएसआईसी की कटौती जमा करने का कोई बंधन, सरमाएदारों पर लागू नहीं है. देश के कॉर्पोरेट, इसलिए भी मोदी सरकार के मुरीद हैं कि उन्हें, ‘व्यवसाय की ऐसी सुगमता’ हांसिल है, जैसी उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी. सब ‘राष्ट्र-हित’ में हो रहा है, इसलिए कंगाली के महासागर में डूबते, मेहनतकशों से ये ही अपेक्षित है कि वे बस, ‘विश्व गुरु’ की भाव-भंगिमा पर ध्यान दें, उनके ‘मन की बात’ सुनें और कोई सवाल ना करें. ‘राष्ट्र-हित’ में भूखे रहें और बिना कराहे, मर जाएँ.
ताज़ा फ़ासीवादी प्रयोग
‘सुधि-जन’ भले, अनंत काल तक इस बहस में मुब्तिला रहें कि ‘मौजूदा शासन-तंत्र को फ़ासीवादी कहा जाए या नहीं’, शासन-तंत्र ने मणिपुर में एक प्रयोग भी कर लिया है, कि हर रोज़ गहराता फ़ासीवादी अँधेरा जब घुप्प अंधेरे में बदल जाएगा, फ़ासीवादी फोड़ा जब पककर फूटेगा और खूनी मवाद बहेगा, तो वे मैनेज कर सकते हैं या नहीं. मणिपुर के मुख्यमंत्री को उसके पद से बरखास्त ना करना, ये सिद्ध करता है कि मणिपुर में जो तांडव मचा, वह एक फ़ासीवादी प्रयोग है. मणिपुर में जो तांडव, 3 मई से शुरू हुआ, और जो अभी भी ज़ारी है, वैसा देश के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ. आरएसएस ने कई साल पहले से ही, यूँ तो, समूचे उत्तर-पूर्व को अपने निशाने पर लिया हुआ था, लेकिन ‘मणिपुर परियोजना’ पर विशेष रूप से काम शुरू कर दिया था, क्योंकि वहां बहुसंख्यक मैतेई समुदाय, अपने को हिन्दू कहना स्वीकार कर चुका था, हालाँकि, ऐसा, कुछ अतिवादी मैतेई कट्टर संगठित फ़ासिस्ट टोलियों को, औज़ार के रूप में इस्तेमाल करने के बाद ही हो पाया था. कुकी समुदाय के प्रति घृणा, इतने सघन रूप में, इतनी तीव्रता के साथ, समूचे शासन-तंत्र, पुलिस में एक दम ऊपर तक पहुँच सकती है, यह पहली बार देखने को मिला. जब ज़मीन पर बारूद बिछ गया, तब एक विडियो चलाया गया, जिसमें मैतेई समाज की महिलाओं पर ज़ुल्म होता दिखाया गया था. आग ऐसी भड़की, कि वह कुख्यात नज़ारा देखना पड़ा, जिसमें तीन महिलाओं को सैकड़ों की भीड़ नंगा कर परेड करा रही है, उनके नग्न शरीर को नोच रही है, और बाद में उनसे सामूहिक बलात्कार किया गया. ये महिलाएं, उन दरिंदों को, पुलिस ने सौंपी थीं और दरिंदों का ब्रेनवाश इस हद तक हो चुका था कि उनमें एक पीड़ित महिला के भाई का दोस्त भी शामिल था. भाई और पिता का क़त्ल किया जा चुका था.
आग भड़कने के बाद, उसे कुकी बनाम मुस्लिम किया जाना था. ये काम, प्रमुख सरकारी न्यूज़ एजेंसी, एएनआई ने किया. उसने एक विडियो ज़ारी कर बताया कि दंगाईयों में प्रमुख भूमिका, अब्दुल हलीम निभा रहा था. बाद में पता चला कि उस व्यक्ति का नाम, अब्दुल हलीम नहीं बल्कि दीपक है. उसके बाद एएनआई ने उस विडियो को हटा लिया. कोई जाँच नहीं. 3 मई से लगातार ज़ारी नस्ली हिंसा में अब तक कुल 6523 एफआईआर दर्ज़ हुई हैं, पुलिस थानों से कुल 4,572 अत्याधुनिक हथियार और 6,00,000 गोलियां लूटी जा चुकी हैं. राज्य का मुख्यमंत्री अपने घर से बाहर नहीं निकल पा रहा, ख़ुद हिंसा क्या, नरसंहार का अपराधी है लेकिन बाक़ायदा अपने पद पर बना हुआ है. घृणा की तीव्रता का ये आलम है कि अस्पतालों के शव-गृहों में सैकड़ों लाशें, तीन महीने से अंतिम संस्कार का इंतज़ार कर रही हैं. बंदों के मर जाने के बाद भी, उनसे घृणा कम नहीं हो रही. केंद्र सरकार, सुप्रीम कोर्ट में मामला पहुँचने के बाद भी, अपराधियों को बचाती रही, इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने अलग जाँच टीम बनाई है.
उत्तराखंड में बमौला क़स्बे में, मुस्लिम घरों और दुकानों पर बिलकुल वैसे ही क्रॉस लगाए गए, जैसे जर्मनी में नाज़ी, हमला करने से पहले, यहूदियों के ठिकानों पर लगाते थे. ‘हिन्दू धर्म ख़तरे में है’, पर्याप्त तादाद में हिन्दू समाज को ये नशा नहीं चढ़ पाया, और काफ़ी लोग फासिस्ट गिरोह के ख़ूनी पैंतरों को जानकर, विरोध में उतर पड़े, इसलिए उस परियोजना को वापस लेना पड़ा.
बरेली में एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी, फ़ासिस्टों की भाषा में, ‘ग़लत आदमी, ग़लत समय पर, ग़लत जगह फंस गया और खेल ख़राब कर दिया’. उस ‘ग़लती’ के लिए, उस पुलिस अधिकारी को रातों-रात तबादला झेलना पड़ा और अगले दिन वह, उस फासिस्ट टोली के ख़िलाफ़ रिपोर्ट दर्ज़ कराने वाला था, लेकिन नहीं करा पाया. लोगों को लगा, एक और हेमंत करकरे देखने को मिलेगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़, बरेली की वह परियोजना भी बड़ी थी, जिसमें कुछ कांवड़ियों को बलि के बक़रे बनाकर, बहुत बड़े स्तर पर दंगे कराए जाने थे.
मेवात इलाक़े में नूंह ज़िले में रहने वाला मेव समुदाय, गिना तो मुस्लिमों में ही जाता है, लेकिन रीत-रिवाज़ में हिन्दुओं में जाटों और मीणाओं के नज़दीक हैं. हरियाणा की एक कहावत भी है; जाटों का क्या हिन्दू और मेवों का क्या मुसलमान!! मेव समुदाय, पहली जंग-ए-आज़ादी में, अपनी बे-मिसाल बहादुरी और 20% हिन्दू समाज के प्रति भाई-चारे के लिए जाना जाता है. हरियाणा की फासिस्ट सरकार, कई साल से यहाँ दंगे भड़काने की नाकाम कोशिश कर रही थी लेकिन 31 जुलाई को, भड़कावे को उस स्तर पर ले जाया गया कि अल्पसंख्यक मेव समुदाय के पास कोई विकल्प ही ना रहा और हिंसा भड़क गई.
इस घृणित फ़ासिस्ट हिंसा की तीव्रता, हर बार पहले से तीव्र होती जा रही है, क्योंकि अल्पसंख्यक मुस्लिम समाज, बेहद संयम और परिपक्वता का परिचय दे रहा है और भगवा फासिस्ट टोलियों की मंसा समझकर, उसे नाकाम करता जा रहा है, लेकिन नूंह में इस बार जो हुआ, वह सरकार का ये इरादा रेखांकित करता है कि अल्पसंख्यक समुदाय की, ‘बचाव-नीति’ को कारगर नहीं होने देना है. फ़ासिस्टों के नूंह आक्रमण से, फ़ासीवादी परियोजना का एक ख़ास पैटर्न उजागर होता है. पहले, फ़ासीवादी हिंसा भड़काने के संभावित ठिकानों के रूप में, मुस्लिम बहुल क्षेत्रों को चिन्हित करो. उसके बाद, उस पूरे क्षेत्र को ही अपराधी, देशद्रोही, पाकिस्तानी एजेंट बताने का अभियान छेड़ दो. हिटलर के प्रचार मंत्री, गोएबेल की तर्ज़ पर झूठ फ़ैलाने, बार-बार दोहराने का एक महाभियान छेड़ दो. चौबीस घंटे चलने वाले, मुख्य गटर धारा के टुकड़खोर, फ़ासिस्ट, दरबारी मीडिया के गले का पट्टा खोल दो. देखते ही देखते, वह सच को झूठ और झूठ को सोलह आने सच साबित कर देगा. मोनू मानेसर/ बिट्टू बजरंगी के रूप में, फिर कुछ शोहदे पाले जाते हैं. उन्हें पाला-पोसा जाता है. पैसा दंगाईयों के पास अकूत है. हथियार, तलवारों, त्रिशूलों के ढेर लग जाते हैं. ज़ोर से छींक देने पर, ‘कम्युनिटी स्टैण्डर्ड भंग हो गए’ कहकर, ब्लॉक कर डालने वाले फेसबुक, व्हाट्सएप को, ज़हरीले, भड़काऊ विडियो चलाने में कोई दिक्कत नहीं.
हिंसा की आग ठंडी होने से पहले ही, ‘सरकारी बुलडोज़र सेना’ मोर्चा संभाल लेती है. पीड़ितों की दुकानें, घर, टपरियां तबाह कर दी जाती हैं, जिसके सदमे से, आर्थिक रूप से टूट चुके लोग, कभी उबर नहीं पाते. दूसरी तरफ़ दंगाई टोले के ‘सीनियर सिटिज़न’, हत्यारों-बलात्कारियों-ठगों को बचाने के लिए, पंचायतें आयोजित करने में लग जाते हैं. वकील टोली अदालतों में हमलावर हो जाती है. मंत्रियों के बयान, पहले परोक्ष रूप से हत्यारों का समर्थन करते नज़र पड़ते थे, लेकिन अब बिलकुल प्रत्यक्ष और स्पष्ट रूप से हत्यारों को बचाने, उन्हें उत्साहित करने वाले होते हैं. इसके बाद भी, अगर, किसी जज ने, अपने करियर को दांव पर लगाकर, सज़ा सुनाने का साहस दिखाया, तो हत्यारे कुछ दिन परोल पर रहते हैं, और बाद में छुड़ा लिए जाते हैं. फिर, वे मंत्री पदों से नवाज़े जाते हैं. इस पूरी परियोजना के हर पड़ाव पर पुलिस, प्रशासन और भाजपा का राज्य तथा केंद्र का शीर्ष नेतृत्त्व, फ़ासिस्टों का सहभागी रहकर, परियोजना को क़ामयाब बनाने में जुट जाता है.
नूंह ने एक और बहुत महत्वपूर्ण हकीक़त उजागर की है जिसका उल्लेख इसलिए ज़रूरी है कि उससे ‘हमारा फ़र्ज़’ तय करने में मदद मिलेगी. यह पहली बार हुआ है कि आक्रमणकारी फ़ासिस्टों को, अपनी ज़िन्दगी-मौत से रूबरू होना पड़ा. फिर से, नूंह के मेवाती समाज की परिपक्वता को सलूट करना पड़ेगा कि उन्होंने संयम से काम लिया. उतना ही आक्रोश और फासिस्टों की चुनौती स्वीकारने की तैयारी दर्शाई, जितनी ज़रूरी थी. फासिस्टों का एक पालतू शोहदा, जो ‘दामाद’ के रुतबे में मेवात में दाखिल हुआ, उसे भी उन्होंने मारा नहीं, बस मिमियाने-रोने को मज़बूर किया. मौत का खौफ ज़रूर उसकी आँखों में उतर आया. फ़ासिस्ट टोले के पहले निशाने पर मुसलमान हैं, लेकिन मार्क्सवाद-लेनिनवाद का हर विद्यार्थी जानता है कि ये ख़ूनी खेल, अपनी लूट के राज को बचाने के अंतिम उपाय के रूप में, वित्तीय सरमाएदार भेड़ियों द्वारा आयोजित एवं प्रायोजित है, इसलिए एक-एक कर व्यवस्था का हर पीड़ित तबक़ा, खासतौर पर मज़दूर कार्यकर्ता निश्चित रूप से इसके निशाने पर आने वाले हैं. नूंह का एक बहुत अहम सकारात्मक पहलू ये है कि जैसे ही नूंह के मुस्लिम समाज ने मुक़ाबला करने की मंसा ज़ाहिर की, समाज के अनेक समूह, उनके साथ हो गए और उनकी तादाद हर रोज़ बढ़ रही है. सारा दलित समुदाय, किसान, जाट, गूजर, अहीर-यादव ख़ुलेआम पीड़ित मेव समाज के साथ खड़े हो गए और सारी फ़िज़ा को ही बदल डाला. फासिस्ट सबसे ज्यादा आतंकित इस बदलाव से हो रहे हैं. यही है सही लाइन जिसको अंतिम भाग में फिर से फ़ोकस में लेंगे.
देश के फ़ासीवादीकरण की एक और विशिष्टता रेखांकित किए बगैर, देश में फ़ासीवाद का परिदृश्य पूरा नहीं होगा और इसे समग्र रूप से समझे बगैर, इसे दफ़न करने की सही रणनीति नहीं बन पाएगी. दक्षिण भारत में, जहाँ ब्राह्मणवाद-विरोधी, सनातन-विरोधी, मनुस्मृति-विरोधी सामाजिक आंदोलन मज़बूत रहे हैं, यह फासीवादी परियोजना अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो पा रही. यह तथ्य भी कम महत्वपूर्ण नहीं है. भगवा टोले ने, कर्णाटक में बहुत महानता की, लेकिन गाय-बेल्ट जैसी क़ामयाबी, उसे नहीं मिली. चुनाव में भी और सामाजिक ध्रुवीकरण में भी, इन्हें मुंह की खानी पड़ी. मोदी ने, जितना ज्यादा ज़ोर से ‘बजरंगबली..’ बोला, उतने ही कम वोट मिलते गए, लोग उतना ही ज्यादा मखौल बनाते गए. यहाँ तक कि उससे, सुस्त और निर्जीव पड़ी कांग्रेस को नया टॉनिक मिल गया. केरल में भी संघ, कुछ हांसिल नहीं कर पाई है.
क्या इसे हिन्दू-फ़ासीवाद कहा जाए ?
यह निर्विवाद है कि हमारे देश के इज़ारेदार वित्तीय सरमाएदार भेड़ियों ने, जान-लेवा पूंजीवादी संकट से पार पाने के लिए, फ़ासीवादी परियोजना लागू करने की ज़िम्मेदारी, मोदी-शाह-भागवत के नेतृत्त्व में, हिन्दू कट्टरपंथी ताक़तों को सौंपी है. इस परियोजना को क़ामयाब बनाने में, वे काफ़ी निवेश कर चुके हैं. फ़ासीवाद, चूंकि, समाज के बहुसंख्यक समाज को, अर्द्ध-विक्षिप्त बनाने का उपक्रम है, यह सामाजिक आंदोलन के सिवा लागू नहीं हो सकता, बेशक, उसका चरित्र प्रति-क्रांतिकारी, प्रतिक्रियावादी होगा. आरएसएस, की ज़हरीली जड़ें, समाज में काफ़ी गहराई तक और दूर-दूर तक फैली हैं, इसलिए हमारे देश में, वे ही, यह कुकृत्य करने में सक्षम हैं. उनके तो घोषित आदर्श भी मुसोलिनी हैं. ‘क्या इस फ़ासीवाद को हिन्दू फ़ासीवाद कहना ठीक रणनीति होगी’, इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए हमें, दुनिया के देशों के हालात को समझना होगा.
फ़ासीवाद का कुख्यात नाज़ायज़ बाप है, इटली का बेनिटो मुसोलिनी. रुसी समाजवादी क्रांति के फलस्वरूप उठी, मार्क्सवाद-लेनिनवाद की प्रचंड लहर से भयभीत, मुसोलिनी ने 1919 में, इटली के प्रमुख औद्योगिक केंद्र, मिलान में, ‘ब्लैक शर्ट्स’ नाम के लुम्पेन सर्वहारा को, राष्ट्रवाद का नशा चढ़ाकर और उन्हें सीधा पैसे का लालच देकर, मारक दस्तों को तैयार किया था. इटली में, कैथोलिक चर्च ने ऐसा दिखावा किया, जैसे वह फासिस्टों के विरोध में है, लेकिन वह दिखावा था और फासिस्टों के प्रति लोगों के संभावित क्रोध से धर्म को बचाने का प्रपंच था. इटली में, फासिस्टों की हर बैठक, कैथोलिक चर्च की प्रेयर के साथ शुरू होती थी. ‘ब्लैक शर्ट्स’, कम्युनिस्टों और सोशलिस्टों पर हमले करने के लिए, सेना द्वारा प्रशिक्षण और हथियार पाते थे. बाद में, वहां भी यहूदियों को निशाने पर लिया गया. मुसोलिनी सीधा कहता था, कम्युनिस्टों से निबटने के लिए, इटली को डिक्टेटर चाहिए और मैं वह भूमिका अदा कर सकता हूँ. सारी परियोजना कॉर्पोरेट द्वारा प्रायोजित थी.
हिटलर को, नास्तिक तो नहीं कह सकते, लेकिन वह धार्मिक बिलकुल भी नहीं था. जर्मनी में ही फ़ासीवाद का सबसे भयानक, क्रूरतम, सबसे हिंसक और विध्वंशक रूप सामने आया. जर्मनी में कम्युनिस्ट आंदोलन, दुनिया में सबसे मज़बूत था. वरिष्ठ जर्मन वामपंथी, आज भी यह बात गर्व से बताते हैं, कि आज भी कम्युनिस्टों की तादाद, जर्मनी में ही सबसे ज्यादा है. कौत्सकी की वर्ग-समन्वयवादी और साम्राज्यवाद में बिना तीखे वर्ग-संघर्ष के ही, समाजवाद प्रस्थापित हो जाएगा, जैसी सैद्धांतिक गद्दारियों के परिणामस्वरूप, वहां समाजवादी क्रांति, कई बार होते-होते रह गई. विश्व-मंदी के भयानक दौर में, आकंठ संकट में फंसा, जर्मन पूंजीवाद-साम्राज्यवाद, कम्युनिस्ट क्रांति से सबसे ज्यादा भयभीत था. हिटलर को भी वहां, ख़ुद को ‘राष्ट्रीय समाजवादी’ घोषित करना पड़ा था. जर्मनी में फ़ासीवाद क़ायम करने के लिए, हिटलर ने एक निराली ही थ्योरी गढ़ी. जर्मन आर्य नस्ल, ‘मालिक नस्ल (Master Race’ है, और दुनिया की बाक़ी नस्लें ‘हरामी नस्लें (Bastard Races)’ हैं. हरामी नस्लों का धर्म है कि वे श्रेष्ठ आर्य, मालिक नस्ल की सेवा करते-करते मर जाएं. जर्मन आर्य, दुनिया पर राज़ करने के लिए ही पैदा हुए हैं. फ्रेडेरिक नीत्ज़े तथा कुछ फ़्रांसिसी दार्शनिक भी मानते थे, कि शासक वर्ग तो श्रेष्ठ नस्ल वाला होता ही है. प्रथम विश्व युद्ध के बाद की अन्यायकारक और अपमानजनक ‘वर्सैल्स संधि’ से बुरी तरह आहत और अपमानित जर्मन लोगों में, ये नशा काम कर गया.
जापान में, हिदोकी तोज़ो की, तोहोकाई पार्टी ने भी जर्मनी की तरह ‘राष्ट्रीय समाजवाद’ और अंधराष्ट्रवाद का सहारा लिया. जर्मनी पश्चिम का शासक होगा और जापान पूरब में एसिया पर राज़ करेगा, इस पिनक में जर्मनी और इटली के साथ धुरी बनाई. यहूदियों से ज्यादा ज़ुल्म, दुनिया में किसी कौम ने नहीं झेले, लेकिन फ़ासीवाद के सबसे बड़े शिकार यहूदियों का देश इजराइल ख़ुद, आज, फ़ासिस्ट शासकों में सबसे आगे है. वह दुनिया का पहला देश है, जहाँ विधायिका ने, सुप्रीम कोर्ट के हाथ, कानूनन बांध दिए हैं. इजराइल में यहूदियों के अलावा कोई नहीं है, मतलब कोई अल्पसंख्यक धर्म नहीं है लेकिन लोगों को बांटकर आपस में लड़ाए बगैर, आँखों में ख़ूनी नशा चढ़ाए बगैर, फ़ासीवादी विनाश संभव नहीं, इसलिए वहां, इसरायली शासक ठग, यहूदियों को ही, इन तीन श्रेणियों में बांटकर लड़ाने में लगे हुए हैं; लेबर ज़िओनिज़्म, संशोधनवादी ज़िओनिज़्म तथा धार्मिक ज़िओनिज़्म. खाड़ी के मुस्लिम राष्ट्रों में तो, बुर्जुआ जनवाद, हमारे देश जैसा भी, लागू नहीं हुआ. वहां तो बस नरम या कड़क तानाशाही ही रही. जनवादी आवरण है ही नहीं, तो उसे फाड़ने में कैसी दिक्क़त.
फ़ासीवाद सड़ता हुआ पूंजीवाद है, लेकिन कितना भी क्यों ना सड़ जाए, सत्ता में बैठा है, इसलिए ख़ुद-ब-ख़ुद नहीं मरेगा. देश की परिस्थितियों के अनुरूप, उसका राजनीतिक कार्यक्रम तय होता है, फिर भी कार्यान्वयन के तरीक़ों के अनुसार फ़ासीवाद को, ‘आर्यन फ़ासीवाद’, ‘कैथोलिक फासीवाद’, ‘अंधराष्ट्रवादी फासीवाद’, ‘धार्मिक ज़िओनिस्त’ और ‘इस्लामी फ़ासीवाद’ कहना सही रणनीति नहीं होगी. ठीक उसी तरह देसी वैरायटी को ‘हिन्दू फासीवाद’ कहना ठीक नहीं. यदि हम ऐसा करते हैं, तो जन-मानस के क्रोध के निशाने के पहले नंबर पर, ‘पूंजीवाद-साम्राज्यवाद’ नहीं रहेगा, जो कि शोषित-पीड़ित वर्ग का एक नंबर का शत्रु है. कट्टरवादी हिंदुत्व भी उसे लागू करने का औज़ार ही है. औज़ार को भी तोड़ा जाना चाहिए, लेकिन जो हाथ उस औज़ार का इस्तेमाल कर रहा है, उस पर से नज़र, पल भर को भी हटनी नहीं चाहिए. हिन्दू फ़ासीवाद कहने से, दूसरा नुकसान इससे यह होगा कि इससे धर्मों की कट्टरता की तीव्रता का तुलनात्मक अध्ययन शुरू हो जाएगा, और यह बहस कभी भी, किसी अंजाम तक नहीं पहुंचेगी.
उदाहरणार्थ, ईरान में भी चुनाव होते हैं. 18 जून 2021 को, ईरान के राष्ट्रपति और उनकी सहायक कमेटियों, ईरानी शूरा (संसद) के चुनाव हुए. उस चुनाव के लिए, ईरान के सबसे बड़े मुल्ला, अयातुल्लाह खेमेनी ने तय किया, कि उम्मीदवार की उम्र 40 से 75 वर्ष के बीच होनी चाहिए, इस्लामी सत्ता के बारे में उनकी वफ़ादारी बेदाग होनी चाहिए, मतलब, चुनाव लड़ने के इच्छुक उम्मीदवार ने, ईरानी सरकार के विरुद्ध, कभी भी, किसी आंदोलन में भाग नहीं लिया हुआ होना चाहिए. कुल 27,000 प्रत्याशी, एक झटके में, अपात्र हो गए!! ऐसी धार्मिक तुलना के बीच, जिसे हम ‘हिन्दू फासीवाद’ कहकर, छेड़ चुके हैं, मोदी सरकार द्वारा, जनवादी इदारों को कुचलने की बात पर चर्चा, कैसे ले जा पाएँगे? शोषित-पीड़ित वर्ग में ख़ुद, तथा साथ ही उनसे हमदर्दी रखने वालों, तथा कट्टरवादी भगवा फ़ासिस्ट ब्रिगेड से सख्त नफ़रत करने वालों में भी, काफ़ी बड़ी तादाद में, लोग हिन्दुत्ववादी हैं, हिन्दू धर्म को श्रद्धा से मानते हैं. ये बहुत बड़ा और निर्णायक समूह, हम से दूर और फ़ासिस्ट टोले के नज़दीक जाने की आशंका बनी रहेगी. जब हम कहते हैं कि लुटेरे कॉर्पोरेट, हिन्दुओं के एक हिस्से को मज़हबी नशे में टुन्न कर, उन्हें अपना हित साधने में औज़ार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं, तब उन्हें कोई दिक्क़त नहीं होती. एक किसान नेता ने यह बात, बहुत दिलचस्प अंदाज़ में प्रस्तुत की है; नागपुरिया हिन्दू और भारतीय हिन्दू. हमारी लड़ाई, नागपुरिया हिन्दुओं से है. हम, सारे हिन्दुओं को अपने टोले के नज़दीक लेने का अवसर, अपने शत्रुओं को क्यों प्रदान करें? फ़ासीवाद को ‘हिन्दू फासीवाद’ कहना एक ग़लत रणनीति है. माशरे में, मज़हब की जड़ें बहुत गहरी हैं. पीड़ित मुस्लिम समुदाय में भी, एक बहुत कट्टरवादी तबक़ा मौजूद है. जब हम, फ़ासीवाद-विरोधी प्रचार के लिए, हिन्दू फासीवाद विरोधी बैनर, पर्चे लेकर जाते हैं, तो मुस्लिम समाज का ये कट्टरवादी मज़हबी तबक़ा, डिबेट को इस्लामी धर्म की तथाकथित श्रेष्ठता की ओर खींच कर ले जाता है, और सारे बहस-मुबाहिसे की दिशा ही बदल जाती है.
दूसरा अध्याय
पूंजीवाद का क्रांतिकारी संकट और इतिहास के सबक़
बीसवीं शताब्दी के, पहले, फ़ासीवाद पर जिन लोगों ने विशिष्ट अध्ययन किया है, जिन्होंने फ़ासीवादी लपटों को महसूस किया है, फ़ासीवाद-विरोधी क्रांतिकारी तहरीक़ का जो हिस्सा बने हैं, जिनसे सीख लेकर, हम अपना सही रास्ता ढूंढ सकते हैं, उनमें एक बहुत अहम नाम है; रजनी पाम दत्त (1896 -1974). वे एक प्रतिष्ठित पत्रकार तथा ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन’ के प्रमुख मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धान्तकार थे, जिन्होंने इटली, जर्मनी तथा यूरोप में, 1930 के दशक में उठ रही, प्रचंड फ़ासीवादी उभाड़ का विस्तृत अध्ययन किया. ‘फासीवाद और सामाजिक क्रांति’ नाम से, रजनी पाम दत्त की ऐतिहासिक पुस्तक 1934 में प्रकाशित हुई. ये वह वक़्त था जब, इटली और जर्मनी में, फ़ासीवादी तूफ़ान चरम पर था. नज़दीक आते, दूसरे विश्व युद्ध और दुनिया के पहले और उस वक़्त अकेले, समाजवादी राष्ट्र, सोवियत संघ को विश्व साम्राज्यवादी भेड़ियों से बचाने के उद्देश्य से, जेओर्जी दिमित्रोव के नेतृत्व में, कोमिन्टर्न, फ़ासीवाद-विरोधी, वृहद साझा मोर्चा बनाने के प्रयास कर रहा था. ‘कम्युनिस्ट इंटरनेशनल’ नाम की पत्रिका के जुलाई 1935 अंक में, कोमिन्टर्न की केन्द्रीय कमेटी के वरिष्ठ सदस्य, डी लेओव ने, रजनी पाम दत्त की पुस्तक, ‘फ़ासीवाद और सामाजिक क्रांति’ पुस्तक में वर्णित दो बिन्दुओं पर सवाल उठाए थे. वे चाहते थे कि उन पर, कम्युनिस्ट आंदोलन में चर्चा हो. डी लेओव द्वारा उठाए गए प्रश्नों का उत्तर देते हुए, जिन बिन्दुओं को रजनी पाम दत्त ने उठाया, उनसे आज हम बहुत महत्वपूर्ण सीख हांसिल कर सकते हैं. ‘क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा’ का मानना है कि इस बहस को कम्युनिस्ट आंदोलन ने उतनी तवज्जो नहीं दी, जितनी की वह हक़दार थी. कोमिन्टर्न की ओर से, डी लेओव, तथा रजनी पाम दत्त के बीच हुई डिबेट में, ‘समाजवादी क्रांति की अपरिहार्यता’, लगातार बढ़ती, ‘पूंजीवादी-साम्राज्यवादी सड़न’ तथा मानव विकास का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का सिद्धांत, ये तीन, अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न चर्चा में आए. इस ऐतिहासिक बहस को आगे बढ़ाने की मंसा से, रजनी पाम दत्त के उत्तर को पूरे का पूरा, विश्लेषण में लिया जा रहा है. उसे छोटे-छोटे भागों में बांटकर, बोल्ड अक्षरों में लिखा गया है, जिन्हें हमने आज परिस्थितियों से जांचने-परखने की कोशिश की है. हम दोहरा रहे हैं कि हम इस सैद्धांतिक बहस को आज कम्युनिस्ट आंदोलन में चर्चा के लिए लाना चाहते हैं.
सबसे पहले, रजनी पाम दत्त द्वारा फ़ासीवाद की वह लोकप्रिय व्याख्या, जिसे उदधृत किए बगैर, फ़ासीवाद पर कोई चर्चा पूरी नहीं होती. देश का, आम जन-मानस, फ़ासीवाद को जिस रूप में देखता है, वह है, गले में भगवा पट्टे डाले, हथियार लहराते, परिणामों से बे-परवाह, ‘जय श्रीराम’ के नारे को, युद्ध के जयकारे (War Cry) की तरह इस्तेमाल करते हुए, ग़रीब, असहाय, घबराए हुए, अल्पसंख्यकों को देखते ही, उनपर बेरहमी से टूट पड़ने वाला गिरोह. राजनीतिक रूप से अशिक्षित लोगों को लगेगा कि इन उन्मादियों का अनियंत्रित क्रोध स्वत:स्फूर्त है, उनके हिन्दू धर्म को ख़तरे में लाने वालों और उनकी पवित्र गाय को काट डालने वालों को देखकर, उनकी आँखों में खून उतर आया है. उन्हें लगेगा, असल समस्या ये ही है. रजनी पाम दत्त ने अपने अध्ययन से बताया कि ऐसा नहीं है. ऐसा समझना, एक भयंकर भूल होगी. “चीखते-चिल्लाते उन्मादियों, गुंडों, शैतानों और स्वेच्छाचारियों की यह फ़ौज, जो फ़ासीवाद के ऊपरी आवरण का निर्माण करती है, उसके पीछे वित्तीय पूंजी के अगुवा बैठे हैं, जो बहुत शांत भाव, साफ़ सोच और बुद्धिमानी के साथ, इस फौज का संचालन करते हैं और इनका ख़र्च उठाते हैं. फासीवाद के शोर-शराबे और मनगढ़ंत विचारधारा की जगह, उसके पीछे काम करने वाली, यही व्यवस्था हमारी चिंता का विषय है. और, इसकी विचारधारा को लेकर जो भारी-भरकम बातें कही जा रही हैं, उनका महत्त्व, पहली बात, यानी घनघोर संकट की स्थितियों में कमज़ोर होते पूंजीवाद को टिकाए रहने की असली कार्यप्रणाली में ही है.”
‘फ़ासीवाद और पूंजीवादी सड़न का सवाल’ (रजनी पाम दत्त, 20 जुलाई 1935)
डी लेओव ने, इन दो बिन्दुओं पर सवाल उठाए थे; पहला; पूंजीवादी सड़न, लेनिन द्वारा साम्राज्यवाद को सड़ता हुआ पूंजीवाद बताया जाना और पूंजीवादी संकट के असाध्य बन जाने पर, उत्पादक शक्तियों के विध्वंश के लिए, प्रति-क्रांति के औज़ार के रूप में फासीवाद के उद्भव का प्रश्न, दूसरा; पूंजीवाद- फ़ासीवाद पर, साम्यवाद की जीत की अपरिहार्यता का प्रश्न तथा इसकी सही समझदारी, क्योंकि यह स्वत:स्फूर्त होने वाली, यांत्रिक घटना नहीं है, बल्कि मानव-प्रयास पर निर्भर है.
रजनी पाम दत्त का उत्तर: ‘फ़ासीवाद और सामाजिक क्रांति’ का आधार, लेनिन की 1916 में प्रस्तुत, ‘साम्राज्यवाद; पूंजीवाद की सर्वोच्च अवस्था’ की प्रख्यात थीसिस ही है. लेनिन के तर्कों को, मौजूदा काल-खंड तक विकसित करने की कोशिश की गई है. मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं, की फ़ासीवाद, पूंजीवादी सड़न का सर्वोच्च बिन्दू है. पूंजीवादी सड़न की प्रक्रिया जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, पूंजीवाद की मौजूदा (जनवादी) संरचना, और उत्पादक शक्तियों के बीच संघर्ष उतना ही तीव्र होता जाता है. इसी तीव्रता ने, जिसके फलस्वरूप, 1917 में शुरू हुए समाजवादी क्रांति के युग में, जब दुनिया के पटल से, पूंजीवाद के समाप्त होने की संभावनाएं नज़र आने लगी थीं, प्रथम विश्व-युद्ध को जन्म दिया था. पूंजीवाद के ताबेदारों को अपनी निश्चित मौत, सामने खड़ी नज़र आने लगी थी. इसी पूंजीवादी हताशा ने, अपनी निश्चित मौत से बचने के लिए, आख़री डेस्पेरेट दांव के रूप में फ़ासीवाद को अपनाया. ‘मरता क्या ना करता!’ पूंजीवादी संरचना और उत्पादक शक्तियों के बीच संघर्ष की लगातार बढ़ती जा रही तीव्रता से निबटने के लिए, पूंजीवाद ने नंगी तानाशाही द्वारा उत्पादक शक्तियों पर ही ख़ूनी हमला बोल दिया.
फ़ासीवाद; लंगड़े-लूले, अधमरे पूंजीवाद को किसी तरह जिंदा रखने के, आख़री हताश, ख़ूनी और षडयंत्रकारी प्रयास का कार्यक्रम था जिसमें मज़दूरों के सभी संगठनों को कुचलकर, वर्ग-संघर्ष का गला घोटकर; राज्य द्वारा, योजनाबद्ध तरह से, अनेक हथकंडे अपनाकर, व्यापारी योजनाओं, सब्सिडी, करों में रियायत आदि द्वारा पूंजीवादी वर्ग के आपसी अंतर्द्वंद्व को नियंत्रित करना; शासन की अनेक बुर्जुआ पार्टियों की जगह, जोड़-तोड़ द्वारा शासन की इकलौती पार्टी को शासन करने देना; अंतर्राष्ट्रीय समझौतों और बहुदेशीय संगठनों के माध्यम से युद्ध और दुनिया पर कब्जे के लिए अंतर्राष्ट्रीय अंतर्विरोधों को नियंत्रित करना था.
आजकल हम बिलकुल यही होता देख रहे हैं. नए लेबर कोड, मज़दूर संगठनों को कुचलने के प्रयास नहीं तो और क्या हैं? पूंजीपतियों का आतंरिक द्वंद्व सतह पर कहीं नज़र नहीं आ रहा. सब के सब, मोदी का जयकारा लगाते नज़र आते हैं. कॉर्पोरेट द्वारा एक ही पार्टी को पाला-पोषा जा रहा है. 90% चंदा भाजपा को ही जाता है. भाजपा, विपक्ष-विहीन ‘जनवाद’ का नारा लगाती ही रहती है. अनेक राज्यों में विपक्ष की सरकारों को गिराकर, विधायक ख़रीदी के लिए पैसा कॉर्पोरेट ने ही मुहैय्या कराया, भले वह, सीधे ना आकर, ‘पी एम केयर फण्ड’ के चेनल से आया. अंतर्राष्ट्रीय संगठन/ समझौते हर रोज़ हो रहे हैं. रूस-युक्रेन युद्ध को, मिलजुलकर, नियंत्रित तरीक़े से चलाया जा रहा है. अंतर्राष्ट्रीय अंतर्विरोध, नियंत्रण से बाहर जाते, नज़र आते ही, दोनों विरोधी कैंप; अमेरिका के नेतृत्त्व में नाटो तथा रूस, चीन, ईरान आदि, सचेत रूप से, उन्हें बिस्फोटक होने से रोकने में क़ामयाब हो रहे हैं. साम्राज्यवाद ने, 1917 बोल्शेविक क्रांति से बहुत गहरी सीख ली है. वे जानते हैं कि दो विरोधी साम्राज्यवादी गुटों में बंटते ही, दोनों की मौत निश्चित है. साम्राज्यवादी अंतर्विरोधों को नियंत्रित रखने में अभी तक उन्हें क़ामयाबी मिल रही है.
कॉमरेड डी लेयोव की समालोचना के मुख्य बिन्दू इस तरह हैं. 1) लड़खड़ाते पूंजीवाद और उत्पादक शक्तियों के बीच तीखे होते जा रहे संघर्ष से निबटने के उपाय के तौर पर, पूंजीवाद द्वारा फ़ासीवाद का सहारा लेने की ये व्याख्या, क्या एक सही तरीका है? 2) विकास के द्वंद्वात्मक भौतिकवादी सिद्धांत के बावजूद, फ़ासीवाद अधिक समय तक जीवित रहने में क़ामयाब हो पाता है, तो ना सिर्फ़ सांस्कृतिक रूप से, बल्कि उत्पादन के साधनों, उत्पादन, तकनीकी विकास के मामले में भी, क्या सामाजिक विकास का उलटा चक्र शुरू हो जाएगा? सोवियत संघ के चहुमुखी विकास के विरुद्ध, दुनियाभर में पूंजीवादी पतन के लक्षण हमें, अभी से नज़र आ रहे हैं. 3) परिणामस्वरूप, विकास की दोनों धाराओं; पूंजीवादी पतन और समाजवादी विकास; ये दोनों पर्याय आज प्रत्यक्ष नज़र आ रहे हैं. सवाल ये है की फासीवाद के इस विचार को, इन दो विकल्पों के रूप में रखना क्या ठीक है? इस वस्तु स्थिति को, पूंजीवाद पर साम्यवाद की अंतिम निर्णायक जीत की अपरिहार्यता के सिद्धांत के आलोक में, कैसे समझा जाए ?
इतिहास सीधी-सरल रेखा में नहीं चलता. 1934 -35 में, जिस वक़्त ये बहस चल रही थी, दुनियाभर से पूंजीवाद के खात्मे की संभावनाएं प्रबल होती जा रही थीं. कोई यह सोच भी नहीं सकता था, कि उसके 89 वर्ष बाद भी, पूंजीवाद घिसट रहा होगा और समाजवाद के रूप में, सोवियत संघ में प्रस्थापित मज़दूरों की वह हसीन दुनिया भी, पूरी तरह उजड़ चुकी होगी. सर्वहारा के ख़्वाब टूटकर बिखर चुके होंगे. उस वक़्त हमारे मार्क्सवादी नेता, कम्युनिस्ट योद्धा, इस विचार पर ही सवाल उठा रहे हैं, कि रजनी पाम दत्त ऐसा सोच भी कैसे सकते हैं, कि पूंजीवाद-साम्राज्यवाद द्वारा, ख़ूनी फ़ासीवादी रूप अख्तियार कर लेने पर भी, वर्ग-संघर्ष को नियंत्रित किया जा सकता है? हैरान होकर, डी लेओव पूछ रहे हैं कि पूंजीवादी विकल्प का तो तसव्वुर भी नहीं किया जा सकता. वे हैरान ही नहीं बल्कि झुंझलाकर पूछ रहे हैं, क्या रजनी पाम दत्त को साम्यवाद की अंतिम विजय के, द्वंद्वात्मक भौतिकवादी सिद्धांत पर विश्वास नहीं? हैरान हैं, कि रजनी पाम दत्त ऐसा सोच भी कैसे सकते हैं?
इन सवालों का उत्तर देने के लिए, तर्क को क्रमबद्ध रूप से लेना होगा. इस वक़्त, दोनों प्रकार के देश, वे जिनमें फ़ासीवादी तानाशाही अपने नग्न रूप में प्रस्थापित हो चुकी है, और उन देशों, जैसे इंग्लैंड, जहाँ रूजवेल्ट की नीतियाँ लागू हैं, समान रूप से पतन के शिकार हैं, भले, अर्थ-व्यवस्था की किसी विशेष शाखा में, किसी विशेष समय में, उत्पादक शक्तियों का विकास होता ही क्यों ना नज़र आए. फ़ासीवाद, चूंकि, किन्हीं विशिष्ट परिस्थितियों में पैदा हुआ, इजारेदार पूंजीवाद का ही एक स्वरूप है और इजारेदार पूंजीवाद, उत्पादक शक्तियों के विकास में पड़ी बेड़ियाँ ही है, यह लगातार सड़ते पूंजीवाद के अतिरिक्त कुछ नहीं.
“पूंजी का इज़ारेदार स्वरूप, उत्तरोत्तर रूप में, पूंजीवाद को विघटित कर, नष्ट कर, उसे लगातार सड़ाता जाता है..इज़ारेदार पूंजी, उत्पादक शक्तियों के विकास को अवरुद्ध करने की प्रवृत्ति, सघन करती जाती है.” कम्युनिस्ट इंटरनेशनल
“हर प्रकार की इज़ारेदारी की तरह, पूंजीवादी इज़ारेदारी भी, निश्चित रूप से, ठहराव और सड़न पैदा करती है.” लेनिन
“(प्रथम विश्व) युद्ध के बाद के सालों में, तकनीकी पतन में वृद्धि, पूंजीवादी उत्पादन की वृद्धि में आए ठहराव की वज़ह से ही हुई है.” मेंडेलसन, न्यू मटेरियल टू लेनिन’स इम्पेरिअलिस्म में, जिन्हें डी लेओव ने उद्धृत किया है.
ये सब बातें सही हैं. इनमें मतभेद की गुंजाईश ही नहीं.
रजनी पाम दत्त, डी लेओव के तीखे सवालों का जवाब देने के लिए, कम्युनिस्ट इंटरनेशनल, लेनिन और मेंडेलसन के उद्धरणों का सहारा लेते हैं, क्योंकि उन पर यह आक्षेप भी लग रहा है, कि वे विकास के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत पर प्रश्न चिन्ह लगा रहे हैं. जबकि उनका तर्क है कि उन्होंने, लेनिन की साम्राज्यवाद की उसी थीसिस को आगे विकसित किया है, जिसे डी लेओव उद्धृत कर रहे हैं. इस प्रक्रिया में रजनी पाम दत्त ने, बहुत दिलचस्प तर्क प्रस्तुत किया है. पहला, उन देशों में भी जहाँ नंगा फ़ासीवाद स्थापित नहीं हुआ है, जैसे इंगलैंड, सभी जगह, कमोबेश एक जैसी नीतियाँ ही लागू हो रही हैं. आज हम बिलकुल यही होता देख रहे हैं. दूसरा, सतत सड़ते पूंजीवाद में भी, अर्थ व्यवस्था की किसी ना किसी शाखा में, कभी कोई विकास नज़र आ सकता है, लेकिन उससे यह निष्कर्ष ग़लत नहीं हो जाता कि पूंजीवाद सड़ रहा है. तीसरा, इज़ारेदारी, सड़न की प्रक्रिया को निश्चित रूप से, लगातार बढ़ाती जाती है.
दूसरे, क्या ये कहना सही है कि इज़ारेदार पूंजीवाद की सबसे आधुनिक नीतियाँ, जो फ़ासीवाद की नीतियों में बहुत ही स्पष्टता और बहुत अच्छे तरह से अभिव्यक्त हो रही हैं (फिर से इसे, ऊपर की तरह, अधिक विस्तृत स्वरूप में लिया गया है), तकनीकी प्रगति ओर उत्पादक शक्तियों के विकास को अवरुद्ध कर, उसे पूरी तरह रोककर, सड़न पैदा करने वाली, प्रवृत्तियों की बढ़ती तीव्रता को, परिलक्षित नहीं कर रही हैं?
आधुनिक विश्व पूंजीवाद के लक्षणों के आलोक में, यह निष्कर्ष, निश्चित रूप से सही है; कि इस या उस शाखा में, या विशेष परिस्थितियों वाले छुटपुट चरणों में, विकास का कोई भी विशेष उदाहरण; आधुनिक पूंजीवाद के प्रमुख चरित्र के इस सामान्य नियम को नहीं झुठला सकता, कि पूंजीवाद का मौजूदा दौर, लगातार होती जा रही गिरावट और सड़न की बढ़ती प्रवृत्तियों को दर्शाने वाला है, न कि नई प्रगति, विस्तार और तेज़ी से विकास दर्शाने वाला, जैसा कि ‘सामाजिक-लोकतांत्रिक सिद्धांत’ मानने वाले, दिखाने की कोशिश करते हैं. विशेष चरणों और परिस्थितियों में, भले दोनों प्रवृत्तियां नज़र पड़ सकती हैं, लेकिन सड़न की प्रवृत्ति, पतन की प्रवृत्ति, पहले की तुलना में, निरंतर प्रभुत्वकारी होती जाती है, और वृद्धि अथवा विकास की प्रवृत्ति, पहले की तुलना में उत्तरोत्तर कमजोर होती जाती है। (“पूंजी का इज़ारेदारी स्वरूप रूप, पूंजीवाद के उत्तरोत्तर पतन, क्षय और सड़न की ओर ही अग्रसर होता जाता है” – (कम्युनिस्ट इंटरनेशनल कार्यक्रम). फासीवाद, वास्तव में इस प्रक्रिया की, एक तीव्रतम और गहन अभिव्यक्ति है, जो इस सड़न को और तीखा और तीव्र व असहनीय बनाने का काम करता है.
हम आज बिलकुल वही होता देख रहे हैं. व्यवस्था में लगातार गहराती सड़न को, किसी ना किसी क्षेत्र में ‘विकास’ या सकल घरेलू उत्पाद में हुई छुट-पुट वृद्धि, जो कि आंकड़ों की बाज़ीगरी से पैदा की गई होती है, से ढंकने का प्रयास किया जाता है. सत्ता के भाड़े के ‘अर्थशास्त्री’, अर्थव्यवस्था में ‘हरी कोपलें’ दिखाई देने का भ्रम पैदा करते रहते हैं, लेकिन व्यवस्था की गहराती सड़न, ज्यादा दिन तक छुपी नहीं रहती, स्वत: उजागर हो रही है.
इस प्रक्रिया के चरित्र और महत्व को और अधिक स्पष्ट रूप से देखने के लिए, बीस साल पहले लेनिन द्वारा बताई गई “सड़न” के तत्वों की तुलना, विश्व युद्ध से पहले के साम्राज्यवाद में मौजूद सड़न के स्तर से तुलना कर सकते हैं. लेनिन ने इस सड़न के इन लक्षणों का एक विशेष प्रमाण के रूप में उल्लेख किया:
- राज्य का स्वरूप, परजीवी, किराएदारी वाला तथा “किराए पर पलने वाला” होते जाना
- तकनीकी प्रगति का धीमा होते जाने की शुरुआत, जैसा कि आविष्कारों का गला घोंटने के लिए, उन्हें इज़ारेदार ट्रस्टों द्वारा खरीद लिया जाना.
आज, लेनिन की साम्राज्यवाद की थीसिस के, बीस वर्षों बाद, हम, साम्राज्यवाद को सघन बनाने वाली, इन विशिष्टताओं को और अधिक स्पस्ट रूप से देखने, समझने की स्थिति में हैं:
- उत्पादक शक्तियों का बड़े पैमाने पर राज्य-प्रायोजित विनाश और उत्पादन पर प्रतिबंध;
- सैन्य क्षेत्र को छोड़कर, बाक़ी सभी क्षेत्रों में, तकनीकी विकास और आविष्कारों पर रोक तथा मौजूदा अविष्कारों का भी प्रयोग ना करने की बढ़ती प्रवृत्ति, यहां तक कि सरकारी विभागों, वैज्ञानिक, व्यावसायिक और आर्थिक क्षेत्रों में, नए आविष्कारों के प्रति व्यापक खुन्नस और वैचारिक शत्रुता बढ़ती जा रही है;
- विज्ञान-विरोधी और संस्कृति-विरोधी अभियानों में तेज़ी, शिक्षा में कटौती, क़िताबों को फूंक डालना- यह सब भी उत्पादक शक्तियों के विनाश का ही एक स्वरूप है;
- लगातार बढ़ती जा रही, घनघोर होती जा रही, अभूतपूर्व सामूहिक बेरोजगारी – यह भी उत्पादक शक्तियों का विनाश ही है;
- लगातार युद्ध की तैयारी और उससे जुड़े दूसरे गैर-उत्पादक क्षेत्रों में उत्पादक शक्तियों के प्रयोग को निरंतर बढ़ाते जाना.
वर्तमान पूंजीवाद की ये सभी घटनाएं, जो फासीवाद में अपनी सबसे तीव्र अभिव्यक्ति प्राप्त करती हैं, सड़न की निरंतर बढ़ती प्रक्रिया को रेखांकित करती हैं.
रजनी पाम दत्त ने, डी लेओव के माध्यम से, कोमिन्टर्न द्वारा उठाए गए सवालों का जवाब देते हुए, एक बहुत ही दिलचस्प विश्लेषण प्रस्तुत किया है. लेनिन द्वारा साम्राज्यवाद को पूंजीवादी विकास का अंतिम चरण और समाजवादी क्रांति की पूर्व-संध्या बताया था, जिसमें पूंजीवादी विकास रुक जाता है और वह सड़ने लगता है. रजनी पाम दत्त ने बताया, कि साम्राज्यवाद पर लेनिन की थीसिस के 20 साल बाद, जब उन्होंने ‘फ़ासीवाद और सामाजिक क्रांति’ लिखी (1934) , सड़न और गहन हो चुकी थी. उसके भी 90 साल बाद, आज, यह सड़न, तीखी असह्य सड़ांध में बदल चुकी है. उत्पादन बढ़ाने की ज़रुरत ही नहीं, क्योंकि पहले उत्पादित माल से ही गोदाम भरे पड़े हैं. उत्पादक शक्तियों के विनाश की योजनाओं को अमल में लाया जा रहा है. सैन्य साजो-सामान का उत्पादन और आयात बड़े स्तर पर हो रहा है. विज्ञान और प्रोद्योगिकी विकास ठप्प है. सभी उद्योगों में निजी क्षेत्रों में भी, उत्पादन बढ़ाने के लिए, शोध एवं विकास (R&D) का बहुत अहम विभाग हुआ करते थे. उन्हें बंद कर, मार्केटिंग विभाग में बदल दिया गया है, क्योंकि जो माल है, उसे बेचना ही समस्या है. यहाँ तक कि ‘कौंसिल ऑफ़ साइंटिफिक एंड औद्योगिक रिसर्च (CSIR)’ नाम का, बहुत महत्वपूर्ण सरकारी विभाग, आज ठप्प पड़ा है. कोई सोच भी नहीं सकता, कि वैज्ञानिक शोध के लिए, हर साल दी जाने वाले प्रतिष्ठित ‘शांति स्वरूप भटनागर पुरष्कार’ दो साल से दिए ही नहीं गए हैं. विश्वविद्यालय में शोध कार्य के लिए दी जाने वाली स्कालरशिप बंद हो चुकी हैं. संस्कृति की जगह ‘सनातन संस्कृति’ ने ले ली है, जिसे, फ़ासीवादी परियोजना के कार्यान्वयन के औज़ार में, तब्दील किया जा चुका है. बेरोज़गारी का ऊपर ज़िक्र किया ही जा चुका है. काम पर लगे लोगों का अनुपात इतिहास में पहली बार 39% हुआ है. खेती की बर्बादी और नोकारियों का खात्मा, बेरोज़गारी को अकल्पनीय रूप से बढ़ा देने वाला है. युद्ध के बादलों को छंटने नहीं दिया जाता, बल्कि सभी सीमाओं को विवादग्रस्त बनाए रखने में ही सत्ता की दिलचस्पी रहती है, जिससे कभी भी युद्ध की आग को भड़काया जा सके. भारत-चीन सीमा विवाद इसका उदहारण है, जो है भी और नहीं भी है. भारत और चीन दोनों की दिलचस्पी, उसे, ऐसे ही रहने देने में है, जाने कब जंग की ज़रूरत पड़ जाए!!
वर्त्तमान पूंजीवादी सड़न के, बढ़ते सबूतों की इस तस्वीर के विरुद्ध, जिसकी अभिवयक्ति फासीवाद में हो रही है, और जो लगातार तीव्र होती जा रही है; कॉमरेड डी लुएव का, दुनिया भर के परिदृश्य को सामने, यह विरोधी तर्क रखना, कि इटली में फ़ासीवाद 13 साल से है, फिर भी इटली की अर्थव्यवस्था तबाह नहीं हुई, सही तर्क नहीं है, बल्कि यह उसी प्रकार का तर्क है, जैसा कुछ लकीर के फ़कीर, सोशल डेमोक्रेट कहते हैं कि 1920 के दशक की मंदी में भी अमेरिकी अर्थव्यवस्था की समृद्धि ने, पूंजीवाद के गंभीर संकट के सिद्धांत को झुठला दिया है, या ये कहना कि हिटलर के तीन साल के शासन में बेरोज़गारी कम हुई है, इसलिए उसने कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के इस कथन को झुठला दिया है कि हिटलर, जर्मन अर्थ-व्यवस्था को निश्चित विनाश की ओर ले जा रहा है.
कॉमरेड डी लेव, जिस बात को साबित करने के लिए, इटली का उदाहरण दे रहें हैं, उस पर तो कोई विवाद है ही नहीं – कि फासीवाद, बड़ी पूंजी के हितों का प्रतिनिधित्व करता है, न कि बड़ी पूंजी के खिलाफ, निम्न बुर्जुआ पूंजी के विद्रोह का. ‘फ़ासीवाद, बड़ी पूंजी के खिलाफ है’, ये तो, निम्न बुर्जुआ को लुभाने का एक दुष्प्रचार है, जिसका असलियत से कोई वास्ता नहीं. यह तो एकदम बुनियादी बात है, जिसका ज़िक्र, मेरी पुस्तक में कई बार हुआ है, जहां, ‘फ़ासीवाद बड़ी पूंजी के ख़िलाफ़ और छोटी पूंजी के हित में है’, इस कथन का उपहास करते हुए, इसे बचकानी बात कहा गया है. इसी तरह तो वित्तीय पूंजीपति, आम जन-मानस की आँखों में धूल झोंकते हैं. यह बात, हकीक़त से एकदम उलट है. हालाँकि, कॉमरेड डी लियोव, इस ‘बचकाने प्रचार’ को उजागर करने की अपनी चिंता में, मेरी पुस्तक में उठाए गए, ऐसे मुद्दों तक पहुँचने में विफल रहे, जो कि अधिक गंभीर और जटिल मुद्दे हैं. उदाहरणार्थ, लगातार बढ़ती जा रही पूंजीवादी सड़न के इस दौर में, बड़ी पूंजी के हित वाली नीतियों की दिशा क्या है? उसी तरह, लगातार बढ़ती जा रहीं, संभावित उत्पादक शक्तियां, इजारेदार पूंजी द्वारा लगाए जा रहे प्रतिबंधों से कैसे निबटेंगी? (सोवियत संघ के अलावा के देशों में, सबसे उन्नत उत्पादन बढ़ाने वाली मशीनरी का आर्थिक रूप से उपयोग करने की नाकामी पर तकनीकी पत्रिका, ‘ऑटोमोबाइल इंजीनियर’ से उद्धृत), कैसे इज़ारेदारी वाले क्षेत्रों को निरंतर बढ़ाने के लिए, तीव्र होते संघर्ष के परिणामस्वरूप, व्यवसाय और व्यापर में, कौन सी शर्तें और पाबंदियां लगाई जा रही हैं, जिससे पूंजीवादी व्यवस्था की सड़न और अधिक तीखी हो जाने वाली है? इस प्रक्रिया के कीटाणु, अभी तक तो बस कीटाणु ही हैं, हालाँकि इन बहुत महत्वपूर्ण कीटाणुओं को ऊपर उद्धृत ऑटोमोबाइल वाले उदहारण में देखा जा सकता है. ऐसी विकराल, सुनियोजित पाबंदियां, जिन्हें अब तक इतिहास में सोचा भी नहीं जा सकता था, जैसे, फासिस्ट जर्मनी में, कई उद्योगों, जैसे सिगरेट बनाना, कांच पिघलाना में मशीनों के इस्तेमाल पर पाबंदी, फिलाडेल्फिया में मशीनों की जगह हाथ से काम करने को बढ़ावा दिया जाना, अमेरिका में खेती पर निर्भरता बढ़ाने की कोशिश करना, इंग्लैंड में औद्योगिक मज़दूरों को, हथकरघों पर काम करने के प्रशिक्षण आयोजित करना तथा शहरी मज़दूरों को वापस छोटी-छोटी खेती में खपाने के प्रयास करना. ये सब तथ्य, मौजूदा व्यवस्था में बढ़ती जा रही सड़न के प्रमाण हैं, जो कि साम्राज्यवाद की दैनंदिन की नीतियों में आज बिलकुल स्पष्ट नज़र आ रहे हैं. ये सब टटपुन्जिया वर्ग के उस ‘बचकाने प्रोपगंडे’ से नहीं लिए गए हैं, जिन्हें कॉमरेड डी लेओव अकेले ही समस्या के रूप में देख रहे हैं.
निश्चय ही, विश्व पूँजीवादी विकास की समग्र प्रक्रिया के भीतर, इसके लक्षणों का सही विश्लेषण, कई कठिनाइयाँ खड़ी करता है, जिनसे वर्तमान लेखक पूरी तरह परिचित है. यदि पूंजीवादी पतन की प्रक्रिया, एक सरल सीधी रेखा होती, तो इसकी आंतरिक गति को समझने के लिए, मार्क्सवादी विज्ञान की कोई आवश्यकता ही ना होती. हर पर्यवेक्षक को तजुर्बे से स्वत: स्पष्ट हो जाती. लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि कॉमरेड डी लुएव, साम्राज्यवाद के सबसे हालिया विकास में, बहुत ही दिलचस्प, इन नई समस्याओं को नजरअंदाज कर रहे हैं, जिसके लिए और विश्लेषण की आवश्यकता है, और डी लुएव, केवल फासीवाद के क्षुद्र बुर्जुआ “बचकाने प्रचार” को उजागर करने के स्तर तक ही सीमित रहे, एक ऐसा सवाल, जो पहले से ही स्पष्ट है और जिस पर आगे चर्चा की आवश्यकता ही नहीं. लेनिन ने, सड़न की प्रवृत्तियों को इज़ारेदार पूंजीवाद की मुख्य, निर्णायक, खास विशिष्टता के रूप में नोट किया था, और यह शर्त भी जोड़ी थी कि पूंजीवादी सड़न की यह प्रवृत्ति, इस तथ्य के बावजूद है, की ‘उत्पादन की किन्ही विशिष्ट शाखाओं’,‘ बुर्जुआजी के कुछ विशिष्ट तबक़ों’ और कुछ ‘विशिष्ट देशों’ में तीव्र विकास की संभावनाएं बनी रहती हैं. कॉमरेड डी लुएव, सड़न की सामान्य प्रक्रिया के बावजूद ‘तेजी से विकास की संभावनाओं’ के प्रावधान को सबसे आगे रखते तो हैं, लेकिन मुख्य परिभाषा पर बराबर ज़ोर देने में और लेनिन द्वारा सड़न की प्रवृत्ति को, इज़ारेदार पूंजीवाद की “विशिष्ट विशेषताओं” के रूप में रेखांकित करने के महत्व पर, समुचित विचार करने में विफ़ल रहते हैं. आज, यदि, हम साम्राज्यवाद के बारे में, लेनिन के विश्लेषण को, बीस साल गुजर जाने के बाद, उसकी आंतरिक गति पर आधारित कर, आगे बढ़ाना चाहते हैं, तो हमें सबसे पहले यह देखने की जरूरत है कि लेनिन ने जिस प्रवृत्ति को आधारभूत माना था, वह, बढ़कर, आज कौन से चरण में पहुँच गई है; और साम्राज्यवाद की वह विशिष्टता है – इसकी सड़न की प्रवृत्ति.
रजनी पाम दत्त – डी लुएव (कोमिन्टर्न) डिबेट के इस भाग में कई बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए गए हैं जिन्हें, अपने देश की वर्त्तमान ठोस परिस्थितियों के मद्देनज़र परखने की ज़रूरत है.
- पूंजीवादी सड़न का मतलब, अर्थव्यवस्था का सम्पूर्ण विनाश होना नहीं होता. विशाल वीरान मैदान में भी, कहीं कोई हरी पत्ती नज़र आ जाए, तो इसे, व्यवस्था के ना सड़ने के प्रमाण के रूप में नहीं लिया जा सकता.
- फ़ासीवाद बड़ी पूंजी (इजारेदाराना पूंजी) का प्रतिनिधित्व करता है. हालाँकि, सत्ता उसे बड़ी पूंजी के विरुद्ध, छोटी पूंजी के आंदोलन की तरह प्रस्तुत करती है, क्योंकि बड़े पैमाने पर तबाह होती जा रही छोटी पूंजी के आक्रोश को, फासीवादीकरण परियोजना में औजार की तरह इस्तेमाल करना होता है.
- लोगों की आंख में धूल झोंकना, उन्हें बरगलाना, नशे में गाफ़िल रखना ही फ़ासीवाद के ताबेदारों का प्रमुख काम होता है, जिसमें धर्म और अंधराष्ट्रवाद बहुत काम आते हैं. मज़हबी बेहूदगी दिनोंदिन बढ़ती जा रही है.
- क्या उत्पादन का इजारेदारीकरण बढ़ाने के लिए, नियम-क़ायदे बनाए जा रहे हैं, और उसके परिणामस्वरूप बढ़ते सर्वहाराकरण से तीव्र होते, वर्ग-संघर्ष से निबटने के लिए, सत्ता द्वारा कौन से दमनकारी उपाय किए जा रहे हैं? यह जानना भी फ़ासीवाद के बारे में हमारे मूल्यांकन के लिए ज़रूरी है. ‘नोकरी मांगने वाले नहीं, देने वाले बनो; नोकरी क्यों अपने धंधे करो, जबकि सरकार जानती है कि इनका कोई भविष्य नहीं, कौशल विकास कार्यक्रम, पकौड़े तलने के उपदेश’, उसी दिशा में उठाए जा रहे क़दम हैं. साथ ही उत्पीडित वर्ग को, संगठित होने, प्रतिरोध करने से रोकने के लिए, कठोर दमनकारी क़ानून बनाने की प्रक्रिया बहुत तेज़ी से निरंतर ज़ारी है.
- साम्राज्यवाद में पूंजीवाद, हर रोज़ अधिकाधिक रूप से सड़ता जाता है. यह प्रक्रिया लेनिन की साम्राज्यवाद की प्रख्यात थीसिस के 107 साल बाद चरम पर पहुँच चुकी है, लेकिन सतत ज़ारी है जो ख़ुद-ब-ख़ुद रुकने वाली नहीं है. साम्राज्यवाद को समूल उखाड़ फेंकने तक ज़ारी रहेगी, सघन होती जाएगी.
अब हम तीसरे प्रश्न पर आते हैं, जो पहले वाले दोनों प्रश्नों से पैदा होता है. यदि सड़न की बढ़ती प्रवृत्तियों के इन लक्षणों को, जो फासीवाद में सबसे बिकट रूप में उजागर होते हैं, पूंजीवाद में आज परखा जाए, तो क्या सैद्धांतिक विश्लेषण के लिए, ना की कोई भविष्यवाणी करने के लिए, सड़न की प्रवृत्तियों के इस तर्क को, काल्पनिक रूप से और आगे ले जाते हुए, यह समझा जा सकता है कि यदि ये सड़न इसी तरह बढ़ती रहे, तो ये कहाँ पहुँच सकती है? बशर्ते कि विकास का द्वंद्वात्मक सिद्धांत और संघर्ष, इस गणना को असंभव ना बना दे.
हमारे आंदोलन और प्रचार के लिए, और समाजवादी क्रांति की तत्काल आवश्यकता के प्रति जागरूकता जगाने के लिए, ये सबसे महत्वपूर्ण है, कि सड़न की इन बढ़ती प्रवृत्तियों को आज ठीक से समझा जाए, लेकिन एक शर्त पर. शर्त यह है कि ठोस परिस्थितियों का वास्तविक द्वंद्वात्मक सम्बन्ध भी, साथ-साथ दर्शाया जाए. विकास के इस क्रम में उत्पन्न होने वाले, विरोधाभासों में वास्तविक क्रांतिकारी शक्तियों के संघर्षों को भी दिखाया जाए, जो पूंजीवादी पतन को अनिश्चित काल तक बढ़ने को नहीं, बल्कि उसके वास्तविक अंतिम परिणाम, समाजवादी क्रांति की जीत को अपरिहार्य बनाती हैं.
क्या इस शर्त का उल्लेख मेरी पुस्तक में है? हाँ. सड़न की बढ़ती प्रवृत्ति की तीव्रता के प्रत्येक सैद्धान्तिक विश्लेषण में, सड़न कितनी तीखी हो चुकी है, आगे कहाँ पहुँचने वाली है, यह बताया गया है. हालाँकि यह बात दिमाग में रहनी आवश्यक है, कि सड़न के इस हद तक बढ़ जाने का यह विश्लेषण, काल्पनिक मात्र है, क्योंकि वास्तविक द्वंद्वात्मक प्रक्रिया का अवश्यमभावी परिणाम, निश्चित रूप से दूसरा ही होगा. मेरी पुस्तक के दसवें अध्याय, ‘फासीवाद का सार- सामाजिक सड़न का निर्माण’, इस विश्लेषण से संबंधित मुख्य अध्याय है. इस विश्लेषण से कोई गैरसमझ ना बन जाए, इसलिए बार-बार यह चेतावनी दी गई है, कि यह मात्र एक काल्पनिक विश्लेषण है. बार-बार दी गई चेतावनी के इन वाक्यों को, कॉमरेड डी लियोव ने नजरअंदाज कर दिया.
सड़न की यह प्रवृत्ति बढ़कर कहाँ पहुँच सकती है? विकास के द्वंद्वात्मक भौतिकवादी सिद्धांत के अनुसार, बढ़ती पूंजीवादी सड़न, सर्वहारा वर्ग और पूंजीपति वर्ग के बीच के संघर्ष को तीव्र करती जाएगी, जिसका अवश्यम्भावी परिणाम, पूंजीवाद के सम्पूर्ण विनाश और सर्वहारा की तानाशाही की स्थापना में होगा. इसीलिए लेनिन ने साम्राज्यवाद को, पूंजीवाद के विकास की चरम अवस्था और समाजवादी क्रांति की पूर्व-संध्या कहा है. लेनिन के वक़्त या उनके बाद रजनी पाम दत्त और डी लेओव -कोमिन्टर्न के बीच जब ये बहस चल रही थी, कोई यह सोच भी नहीं सकता था कि 1923 तक भी ‘साम्राज्यवाद की पूर्व-संध्या’ खिंच सकती है. रजनी पाम दत्त द्वारा, सैद्धांतिक रूप से ऐसा प्रतिपादित करने पर भी, डी लेओव आपत्ति कर रहे थे, कि आप ऐसा सोच भी कैसे सकते हैं? क्या आप द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत को नहीं मानते? इसीलिए रजनी पाम दत्त को बार-बार कहना पड़ा कि यह विवेचना काल्पनिक है, पूंजीवादी सड़न की निरंतर बढ़ती प्रक्रिया को समझने के लिए है!! लेकिन, देखिए, इतिहास कितना क्रूर होता है, आज वह ही हकीक़त है. लेनिन का ही एक कथन, यहाँ कितना मौजूं है, “सिद्धांत, मेरे दोस्त, भूरा होता है जबकि जीवन का शास्वत वृक्ष, हरा होता है.” सबसे बड़ा सवाल: तो क्या, विकास के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का सिद्धांत, ग़लत सिद्ध हो गया?
इसी अध्याय में, टटपुंजिया बुर्जुआ समाजवादी, स्कॉट नियरिंग द्वारा, पूंजीवादी समाज के पतन के गर्त में गिर जाने और विखंडित हो जाने की, एक काल्पनिक तस्वीर का चित्र उकेरा गया है. हालाँकि पुस्तक में अन्यत्र, उनके सिद्धांतों की आलोचना भी की गई है. इस तस्वीर के बारे में, यह स्पष्ट कर दिया गया है कि यह, अद्वन्द्वात्मक है, और ऐसा होना मुमकिन नहीं; लेकिन फिर भी, इस परिकल्पना को एक महत्वपूर्ण उत्प्रेरक के रूप में, यह समझने के लिए इस्तेमाल किया गया है, कि अगर साम्राज्यवादी पतन इसी तरह ज़ारी रहे, इसका कोई विरोध ना हो, तो इस सड़न की इन्तेहा क्या होगी, समाजवादी क्रांति के एक मात्र “विकल्प” का स्वरूप क्या होगा (‘एकमात्र विकल्प’ के इस मुद्दे के इस प्रश्न पर हम जल्द ही लौटेंगे). टटपुंजिया बुर्जुआ समाजवादी, स्कॉट नियरिंग, के इस काल्पनिक और मूलरूप से ग़लत काल्पनिक उदहारण को, हमारे द्वारा तर्क के लिए भी, इस्तेमाल करना, कॉमरेड डी लुएव को मंज़ूर नहीं. इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए, प्रस्तुत है, लेनिन द्वारा अपनी साम्राज्यवादी थीसिस के अध्याय VIII में, “सोशल लिबरल” हॉब्सन द्वारा, वैसे ही, मूल रूप से गलत और काल्पनिक चित्र का उपयोग, जिसके सिद्धांतों की उनकी पुस्तक में, अन्यत्र आलोचना भी की गई है. हॉब्सन, बहुत ग्राफिक शब्दों में, पश्चिमी यूरोप की, साम्राज्यवाद के पतन की, एक काल्पनिक भविष्य की तस्वीर खींचते हैं, जो रिवेरा के फैशन की तरह, पूरी तरह से परजीवी बन गया है, जहां केवल अमीर किरायाजीवी, उनके पेशेवर अनुचर और व्यापारी, निजी नौकर और हल्के उद्योग और परिवहन के मज़दूर मौजूद हैं, जबकि सभी भारी उद्योग और खाद्य उत्पादन को, उपनिवेशों में स्थानांतरित कर दिया गया है; प्रमुख उद्योग श्रंखला ही गायब हो गई हैं; बने-बनाए, मुख्य खाद्य पदार्थ और उत्पाद, एशिया और अफ्रीका से, वसूली के रूप में आते हैं. यह तस्वीर, निश्चित रूप से, सैद्धांतिक तौर पर गलत है, और परजीविता की प्रवृत्ति के महत्व को दिखाने के लिए, काल्पनिक स्वरूप में सैद्धांतिक विश्लेषण के लिए ही उपयोग की गई है. यदि साम्राज्यवाद के पतन की अधोगति को, इसके तार्किक चरम तक गिरने दिया जाए, तो क्या होगा. इस चित्र पर लेनिन की क्या टिप्पणी है, जिसे उन्होंने विस्तार से उद्धृत किया है? क्या वे, समाजवाद की अनिवार्यता पर जोर देते हुए, सोशल लिबरल हॉब्सन की इस काल्पनिक “भविष्य की तस्वीर” में अंतर्निहित मूल रूप से गलत धारणाओं की निंदा करते हैं, इसकी असम्भाव्यता की उदघोषणा करते हैं, आदि? नहीं, इसके विपरीत, वह बहुत सरलता से कहते हैं: ‘हॉब्सन बिल्कुल सही हैं. यदि साम्राज्यवादी ताक़तों को, प्रतिरोध की ताक़तों का सामना नहीं करना पड़ा, तो वे वही करेंगे, जो होब्सन ने बताया है’,
साम्राज्यवादी सड़न इसी तरह, बहुत लंबे समय तक भी तीव्र होती रह सकती है, इस बात को काल्पनिक रूप से समझने के लिए, रजनी पाम दत्त द्वारा, एक सोशल डेमोक्रेट स्कोट नेअरिंग द्वारा खींचे गए चित्र का इस्तेमाल करना भी, डी लुएव को मंज़ूर नहीं था. जिसके बचाव में, रजनी पाम दत्त को लेनिन द्वारा साम्राज्यवाद की थीसिस के 8 वें अध्याय में, होब्सन का उदहारण देने का वाक़या याद कराना पड़ा. विडम्बना की तीव्रता का आलम देखिए कि होब्सन द्वारा पश्चिमी यूरोप में, साम्राज्यवादी पतन की वह काल्पनिक इन्तेहा, आज की कड़वी, लेकिन क्रूर हकीक़त है. जबकि लेनिन को यह स्वीकार करने में कोई दिक्क़त नहीं हुई थी, कि पतित साम्राज्यवाद को अगर किन्हीं कारणवश, सर्वहारा प्रतिरोध का सामना ना करना पड़े, तो ये संभव है कि बिलकुल वही होगा जैसा कि होब्सन ने अपने काल्पनिक चित्र में बताया है. सवाल उठता है कि विकास के द्वंद्वात्मक भौतिकवादी सिद्धांत के अनुसार, साम्राज्यवाद के अवश्यमभावी पतन और सर्वहारा की अवश्यमभावी जीत और सर्वहारा की तानाशाही की प्रस्थापना के सिद्धांत को कहीं, द्वंद्वात्मक रूप में ना लेकर, यांत्रिक तरीक़े से तो नहीं ले लिया गया? क्रांति की पूर्व-संध्या और समाजवादी क्रांति की अपरिहार्यता पर अतिरिक्त ज़ोर देकर, कहीं क्रांति की तैयारी के प्रयासों में शिथिलता तो नहीं आ गई? इन विचारों को ‘गाइड टू एक्शन’ की तरह लेकर, अधिकतम प्रयास करने की बजाए, हम, इसे यांत्रिक रूप में लेकर, अकर्मण्यता, जड़ता, शिथिलता, ज़िम्मेदारी से पीछे हटने के शिकार तो नहीं हो गए? ‘जब क्रांति होना अवश्यम्भावी ही है, अटल है, तो फिर क्या चिंता करना’, कहीं इस रोग ने तो, हमें यहाँ नहीं पहुंचा दिया, जहां आज हम पड़े हुए हैं?
अंत में, “अनिवार्यता” के प्रश्न पर आते हैं. साम्यवाद की जीत अपरिहार्य है, यह निर्विवाद है. लेकिन, यदि आज मानव जाति के सामने आए, इस मुद्दे को इस तरह कैसे प्रस्तुत किया जाए, मानो कि यह दो “विकल्पों” का प्रश्न है, समाज के सामने चुनने के लिए दो ही विकल्प हैं, ‘ये या वो’. ., या तो पतन के गर्त में जाने वाली पूंजीवादी लाइन, या प्रगति की ओर जाने वाली समाजवादी लाइन, या तो उत्पादक शक्तियों का और भी गला घोंट देना या उन्हें पूरी तरह आज़ाद कर दिया जाना, या तो पूंजीवाद के साथ निश्चित विनाश की ओर, या समाजवाद के साथ निश्चित विकास की ओर, आदि, आदि?
यह औपचारिक तर्कशास्त्री के लिए दुविधा की, माथा फोड़ने जैसी स्थिति है, लेकिन द्वंद्ववादी को, इसे समझने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए.
‘अपरिहार्यता’ की क्रांतिकारी मार्क्सवादी समझदारी का सार तत्व है, कि इसका, उस यांत्रिक भाग्यवाद से कोई लेना-देना नहीं है, जिसका, हमारे विरोधी, गलत तरीके से हम पर आरोप लगाते हैं. क्रांतिकारी मार्क्सवाद की अनिवार्यता को, तत्कालीन सामाजिक परिवेश में, सचेत रूप से उन परिस्थितियों को प्रभावित करते हुए, परिस्थितियों में मौजूद विकल्पों में सही विकल्प को समझदारी के साथ चुनते हुए, हांसिल करना पड़ता है. ‘मनुष्य अपना इतिहास स्वयं बनाता है, लेकिन सही विकल्प चुने बगैर नहीं’
मानव विकास का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का सिद्धांत, एक वैज्ञानिक विचार है. ये सत्य है, भले कोई, इसे मानने से इंकार करता रहे. इसी तरह पूंजीवाद, मानव विकास की अंतिम मंज़िल नहीं हो सकता. ये तो विकास के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है, जिसे हटाए बगैर, आगे नहीं बढ़ा जा सकता. यह क्रांति से ही होगा, इसीलिए क्रांति अवश्यम्भावी है. साथ ही यह अनिवार्यता, दो विपरीत वर्गों के संघर्षों के, अंतिम परिणामों में फलीभूत होगी. इस सोच में, द्वंद्वात्मकता की जगह यांत्रिकता आ जाए, तो प्रयासों में शिथिलता आएगी ही, जिसका लाभ दुश्मन वर्ग को मिलना तय है. क्रांति उस पके हुए फल की तरह नहीं है, जो कोई कुछ भी ना करे, फिर भी टूटकर गिरने ही वाला है. यह रोग, जिसे हमारे क्रांतिकारी मार्क्सवादी पूर्वज, आज से 90 पहले समझकर, उसके निराकरण के लिए डिबेट कर रहे हैं; आज बहुत विकराल रूप में कम्युनिस्ट आंदोलन में मौजूद है. फ़ासीवादी अंधेरा गहराने में इसका काफ़ी बड़ा योगदान है. फ़ासीवाद विरोधी क्रांतिकारी मार्क्सवादी-लेनिनवादी धारा की एक प्रमुख योद्धा क्लारा जेटकिन का यह कथन कि ‘फ़ासीवाद, सर्वहारा वर्ग को, रुसी क्रांति को आगे बढ़ाने में उनकी नाकामी की सज़ा है’, इसी सच्चाई की ताईद करता है.
हम, अपरिहार्य परिणाम की भविष्यवाणी, वैज्ञानिक रूप से करने में सक्षम हैं, क्योंकि हम चिंतन को नियंत्रित करने वाली सामाजिक परिस्थितियों और उन सामाजिक परिस्थितियों के विकास-क्रम का विश्लेषण कर पाते हैं. हम जान सकते हैं कि अंतर्विरोध किस दिशा में बढ़ेंगे, और इसके परिणामस्वरूप, शोषित बहुसंख्यक, उच्च से उच्चतर क्रांतिकारी चेतना, और इच्छाशक्ति पैदा करने वाली शक्तियों के संचय का विश्लेषण करते हुए, सभी बाधाओं को दूर करते हुए, अपनी शक्ति बढ़ाते हुए, अंतिम जीत हांसिल कर पाएँगे. हम वैज्ञानिक पद्धति से, निश्चित रूप से यह निर्धारित करने में सक्षम हैं कि हर विफलता, हर गलत रास्ते का चयन, केवल अस्थायी ही होगा, क्योंकि चुना गया कोई भी ग़लत रास्ता, किसी भी तरह से क्रांतिकारी चेतना, और इच्छाशक्ति पैदा करने वाले, मूलभूत विरोधाभासों को हल नहीं कर सकता. ये विरोधाभास नए सिरे से तीव्र होकर, तब तक तीव्र संघर्ष की ओर ले जाते रहेंगे, जब तक अंतिम जीत प्राप्त नहीं हो जाती. यह प्रक्रिया अपरिहार्य है. (लेकिन कठिनाई यह है, कॉमरेड डी लेव पूछते हैं, कि, यदि पूंजीवादी सड़न की प्रक्रिया के तार्किक, द्वंद्वात्मक नहीं- निष्कर्ष पर, अंतिम रूप से काम करने का मतलब, उत्पादक शक्तियों का बढ़ता विनाश होगा, तो फिर इसका मतलब सर्वहारा की विजय और साम्यवाद की जीत का सिद्धांत विफल होगा? सिद्धांततः उत्तर वही है जो अति-साम्राज्यवाद के सिद्धांत के संबंध में है; काल्पनिक रूप से, तार्किक रूप से, पूंजीवादी पतन की रेखा का अत्यधिक विस्तार, इस निष्कर्ष पर पहुंचेगा; लेकिन वास्तव में इस प्रक्रिया से पैदा होकर, बढ़ते विरोधाभास, ऐसे किसी भी चरण तक पहुंचने से पहले ही विश्व क्रांति की जीत की ओर ले जाएंगे).
लेकिन इस अपरिहार्य प्रक्रिया में भाग लेने वालों की मानवीय चेतना, किसी पूर्व निर्धारित तंत्र में, स्वचालित कॉग की तरह नहीं है. यह सक्रिय मानव प्राणियों की चेतना है, जो असहनीय शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ विद्रोह करते हैं, सोच-समझकर और जुनून-ओ-ज़ज्बे के साथ एक विकल्प चुनते हैं, एक नई दुनिया बनाने के लिए हर यत्न करते हैं, हिम्मत और हौसले के साथ, अपनी तीव्र इच्छा के कारण लड़ाई में, अपना जीवन न्यौछावर करने को तत्पर रहते हैं. इसकी बदौलत ही वे, अपनी जीत सुनिश्चित कर पाते हैं. यह संघर्षशील क्रांतिकारी चेतना, किसी भी तरह से, किसी अपरिहार्य परिणाम का इंतज़ार करती नहीं बैठती, बल्कि अपनी सबसे सचेत कार्यवाहियों और रण-कौशल द्वारा, एक विकल्प की जीत और दूसरे विकल्प की हार सुनिश्चित करती है. प्रत्येक क्रांतिकारी योद्धा, अपनी पूरी क्षमता के साथ, लड़ाई के हर चरण में ऐसे लड़ता है, मानो, क्रांति का सारा दारोमदार, उसकी लड़ाई से ही निर्धारित होना है. और मौजूदा वक़्त के मुद्दों को, आज जनता के सामने प्रस्तुत करते समय, हम, उन्हें सितारों की नैसर्गिक गति की तरह शांत चिंतन करते हुए, जो अवश्यमभावी है, वह घटकर रहेगा, इस तरह प्रस्तुत नहीं करते, बल्कि ये बहुत बड़ा युद्ध है, और समूची मानवता का पूरा भविष्य दांव पर लगा हुआ है, ऐसा समझाते हुए, लड़ाई के सभी महत्वपूर्ण मुद्दों को फोकस में रखते हुए, अंतिम विजय पाने के लिए, अत्यधिक दृढ़ संकल्प, साहस, बलिदान और अजेय इच्छाशक्ति की आवश्यकता होगी, यह समझाते हैं.
जब हम क्रांति को अपरिहार्य कहते हैं, तो इसका मतलब होता है कि पूंजी और श्रम के द्वंद्व का निराकरण, एक वर्ग के समाप्त हुए बगैर, हो ही नहीं सकता. उनके बीच, बीच-बचाव; तात्कालिक युद्ध-विराम जैसा होता है. इस संघर्ष का निश्चित परिणाम, सर्वहारा वर्ग की निर्णायक जीत और सर्वहारा वर्ग की तानाशाही की स्थापना में ही होना है. यह कथन, इस सच्चाई पर आधारित है, कि सर्वहारा वर्ग लगातार बढ़ता जाता है, संगठित-अनुशासित होता जाता है, उसके पास जो भी बचा है, उसे खोता जाता है. दूसरी तरफ़ पूंजीपति वर्ग लगातार सिकुड़ता जाता है, बिखरता जाता है, क्षीण होता जाता है. ये उत्पादन सम्बन्ध, विकास के पावों में बेड़ियाँ बन जाते हैं जिन्हें तोड़कर कारवां आगे बढ़ जाता है. लेकिन, विशाल-विकराल सर्वहारा वर्ग तक यह समझदारी अगर पहुँच ही ना पाई हो, तब क्या होगा? हमारे देश में सर्वहारा वर्ग का अगुवा दस्ता होने का दावा करने वाले, अगर सर्वहारा वर्ग के एक नगण्य हिस्से तक ही, यह समझदारी पहुंचा पाए हों, तो क्या होगा? मज़दूर फिर भी लड़ेगा, लेकिन अँधेरे में लट्ठ चलाने वाले पहलवान की तरह. उसमें भी वह परास्त होगा, जिससे मायूसी और गहरी और विस्तारित होगी. यहाँ तक कि वह ख़ुद, अपने वर्ग के विरुद्ध चल रहे हिंसक हमले, फ़ासीवाद का औज़ार भी बन जाएगा. क्या आज हम यह होता नहीं देख रहे? डी लेओव, इस सोच से ही चिढ़ रहे हैं, और कह रहे हैं कि इसका मतलब तो साम्राज्यवादी सड़न बढ़ती जाएगी और उत्पादक शक्तियां लगातार नष्ट होती जाएंगी, तो फिर क्रांति की अपरिहार्यता का क्या होगा? ऐतिहासिक विडम्बना; कि जिस बात को कल्पना करने, सोचने के लिए भी, वे तैयार नहीं थे, वह आज, उसके 90 साल बाद, वही हकीक़त, हमें चिढ़ा रही है. सोवियत संघ के रूप में मेहनतकशों वह ख़्वाब भी बिखर गया. वहां ख़ुद अब, पूंजीवाद-साम्राज्यवाद तबाही मचा रहा है, और धरती पर कहीं भी समाजवादी राज्य नहीं बचा. संघर्षशील क्रांतिकारी चेतना, क्रांति की अपरिहार्यता को साकार करने की आवश्यक शर्त है. क्रांति की अपरिहार्यता के बारे में यांत्रिक सोच ने, क्रांतिकारी शक्तियों की सचेत भागीदारी के प्रश्न को पीछे धकेल दिया, जिसके परिणामस्वरूप पूंजीवादी सड़न ज़ारी है और जिसे इसी तरह बनाए रखने के लिए, फ़ासीवादी दैत्य और खूंख्वार होकर, हमें चिढ़ा रहा है. कहीं कम्युनिस्ट आंदोलन ने, क्रांति की अपरिहार्यता को द्वंद्वात्मक रूप से ना लेकर, यांत्रिक रूप से लिया, ठोस परिस्थितियां, इस ओर इशारा कर रही हैं.
यह है, ‘अपरिहार्यता’ की क्रांतिकारी मार्क्सवादी समझ का सार, और यही, बोल्शेविज्म और मेन्शेविज्म के बीच, एक विभाजक केंद्रीय मुद्दों में से एक है. यही है, वास्तव में, निष्क्रिय मेन्शेविक सामाजिक-लोकतांत्रिक दृष्टिकोण, जिसने ऐतिहासिक प्रक्रिया को, एक स्वचालित यांत्रिक अनिवार्यता के रूप में देखा, जो मानव इच्छा और कार्रवाई से स्वतंत्र है, मानो, विकल्पों का मानवीय सचेत चयन भी, स्वयं, एक स्वत: संपन्न होने वाला ऐतिहासिक कारक है. यह सोच, इतिहास की दिशा सुनिश्चित करने की कार्रवाई में, जनता की विशाल रचनात्मक शक्ति को संगठित नहीं कर पाएगी. यह सोच, जो लेनिन की ऐतिहासिक घोषणा, “विलंब का अर्थ है मृत्यु” का उपहास करती नज़र पड़ती है, और इस तरह, अनिवार्य रूप से मार्क्सवाद की एक दार्शनिक विकृति द्वारा, निष्क्रियता और नपुंसकता की ओर ले जाती है. यह सोच खतरनाक है और इससे, सक्रिय रूप से लड़ने की जरूरत है. क्रांतिकारी चेतना और इच्छाशक्ति को जगाने और वर्ग शत्रु की जीत को रोकने के लिए, लड़ने और जीतने के दृढ़ संकल्प को जागृत करने के लिए, विकल्पों को, ज़रूरत से ज्यादा, तीव्रता से प्रस्तुत करने की वैकल्पिक त्रुटि, तुलनात्मक रूप से कम खतरनाक है, बशर्ते कि साम्यवाद की अपरिहार्य अंतिम जीत की सैद्धांतिक समझदारी को सही ढंग से ग्रहण कर लिया गया हो.
ख़ुद को बोल्शेविक और सामने वाले को मेन्शेविक बताना, हमारा पसंदीदा खेल है. इतिहास, लेकिन, यह सिद्ध कर चुका है, कि क्रांतिकारी शक्तियों ने, जीतने के लिए आवश्यक क्रांतिकारी चेतना और ऊर्जा प्रदर्शित नहीं की. शत्रु को जीत से रोकने में क़ामयाबी हांसिल नहीं की. क्रांति अपरिहार्य है, अटल है, होकर रहेगी, इस विचार को द्वंद्वात्मक तरीक़े से नहीं लिया. मतलब अपरिहार्यता को, मानव-प्रयत्न से अलग कर डाला. यही है, निष्क्रिय मेन्शेविक सामाजिक-लोकतंत्रीय दृष्टिकोण. इतिहास हमें, मेन्शेविक होने के लिए चिढ़ा रहा है.
क्रांतिकारी संकट ही क्रांतियां पैदा करते हैं, यह बात सही है. लेकिन क्रांतिकारी संकट ही फ़ासीवादी अँधेरा भी लाते हैं, जब क्रांतिकारी शक्तियां, अपनी ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी पूरा करने लायक़ नहीं होतीं. क्रांतिकारी संकट को समझने और समझाने में भी, हमारी सोच के यांत्रिक हो जाने का ख़तरा बना रहता है. क्रांतियां, क्रांतिकारी शक्तियों के, सचेत, असीम क़ुर्बानियों और शत्रु को ना जीतने देने की ज़िद वाले संघर्षों के बगैर, क़ामयाब नहीं होतीं. इस समझदारी के मामले में भी, कम्युनिस्ट आंदोलन में कमी रही है. जहाँ समाजवादी क्रांतियां संपन्न हुईं, पूंजीवाद परास्त हुआ, वहां प्रति-क्रांतियां क़ामयाब होने में और फ़ासीवाद आने में, और जहाँ क्रांतियाँ होनी थीं, वहां भी पूंजीवाद-साम्राज्यवाद के सबसे ख़ूनी स्वरूप, फ़ासीवाद की प्रस्थापना में; क्रांतिकारी संकट और क्रांति की अपरिहार्यता के बारे में, द्वंद्वात्मक दृष्टिकोण की जगह, यांत्रिक दृष्टिकोण प्रभावी होना, सबसे प्रमुख भी नहीं तो प्रमुख कारणों में से एक, ज़रूर रहा है. इस बिन्दू पर आगे समुचित चर्चा-मीमांसा, डिबेट, विवेचना हो, इसी उद्देश्य से इस मुद्दे को, अधिक तवज्जो दी गई है. इसी की विनम्र अपील, हम, देश के कम्युनिस्ट आंदोलन से कर रहे हैं. क्रांतिकारी संकट के बारे में, लेनिन द्वारा 1920 में, कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की दूसरी कांग्रेस में बोलते हुए दी गई, उनकी इस सीख के साथ, हम इस अध्याय का समापन कर रहे हैं:
साथियों, अब हम ‘क्रांतिकारी संकट’ के सवाल पर आते हैं, जो हमारी क्रांतिकारी गतिविधि का आधार है. यहां हमें दो प्रकार की विख्यात ग़लतियों से दो-चार होना पड़ता है. एक ओर बुर्जुआ अर्थशास्त्री हैं, जो हर संकट को, हमेशा, अपनी लच्छेदार भाषा में, महज ‘अशांति’ ही बताते हैं. दूसरी ओर, क्रांतिकारी हैं, जो ये साबित करने की कोशिश करते हैं कि संकट असाध्य है और व्यवस्था, इससे बचकर निकल ही नहीं सकती. ये बिलकुल ग़लत धारणाएँ हैं. एकदम असाध्य, आशाहीन परिस्थिति कभी नहीं होती. पूंजीपति एक खूंख्वार डाकू की तरह, इस तरह बर्ताव कर रहा है, जैसे उसका दिमाग ख़राब हो गया हो. वह एक के बाद दूसरी मूर्खता किए जा रहा है, और इस तरह, अपनी क़ब्र के नज़दीक पहुंचता जा रहा है. इस सबके बावजूद, ये साबित नहीं किया जा सकता कि उसके पास अपनी मौत से बचने का कोई रास्ता ही नहीं बचा. बल्कि ऐसा कहना, अनावश्यक पांडित्य झाड़ना, और भाषा की बाजीगरी करना ही कहा जाएगा. इन परिस्थितियों का वास्तविक तजुर्बा हमें बताता है, कि बुर्जुआ वर्ग के पास, छोटी-छोटी रेवड़ियों के माध्यम से, शोषित-पीड़ित वर्ग के एक हिस्से को गुमराह कर लुभाने, और दूसरे हिस्से के विद्रोह को कुचलने, दमन करने के साधनों की कमी कभी नहीं रहती. दुनिया भर में पूंजीवाद, आज अभूतपूर्व संकट में फंसा हुआ है. हमें, लेकिन, अपनी क्रांतिकारी पार्टियों के कार्यकलापों द्वारा ये सिद्ध करना पड़ेगा कि हम पूरी तरह जागरुक हैं, और अपने संगठनों की ताक़त, शोषित जनता से अटूट जुड़ाव, फ़ौलादी दृढ़ संकल्प और रणनीतिक समझदारी द्वारा, हम इस क्रांतिकारी संकट को, क़ामयाब क्रांति में बदलने में सक्षम हैं.
तीसरा अध्याय
हमारा फ़र्ज़
जब फ़ासिस्ट मज़बूत हो रहे थे — बेर्टोल्ट ब्रेष्ट
जर्मनी में
जब फासिस्ट मजबूत हो रहे थे
और यहां तक कि
मजदूर भी
बड़ी तादाद में
उनके साथ जा रहे थे
हमने सोचा
हमारे संघर्ष का तरीका गलत था
और हमारी पूरी बर्लिन में
लाल बर्लिन में
नाजी इतराते फिरते थे
चार-पांच की टुकड़ी में
हमारे साथियों की हत्या करते हुए
पर मृतकों में उनके लोग भी थे
और हमारे भी
इसलिए हमने कहा
पार्टी में साथियों से कहा
वे हमारे लोगों की जब हत्या कर रहे हैं
क्या हम इंतजार करते रहेंगे
हमारे साथ मिल कर संघर्ष करो
इस फासिस्ट विरोधी मोर्चे में
हमें यही जवाब मिला
हम तो आपके साथ मिल कर लड़ते
पर हमारे नेता कहते हैं
इनके आतंक का जवाब लाल आतंक नहीं है
हर दिन
हमने कहा
हमारे अखबार हमें सावधान करते हैं
आतंकवाद की व्यक्तिगत कार्रवाइयों से
पर साथ-साथ यह भी कहते हैं
मोर्चा बना कर ही
हम जीत सकते हैं
कामरेड, अपने दिमाग में यह बैठा लो
यह छोटा दुश्मन
जिसे साल दर साल
काम में लाया गया है
संघर्ष से तुम्हें बिलकुल अलग कर देने में
जल्दी ही उदरस्थ कर लेगा नाजियों को
फैक्टरियों और खैरातों की लाइन में
हमने देखा है मजदूरों को
जो लड़ने के लिए तैयार हैं
बर्लिन के पूर्वी जिले में
सोशल डेमोक्रेट जो अपने को लाल मोरचा कहते हैं
जो फासिस्ट विरोधी आंदोलन का बैज लगाते हैं
लड़ने के लिए तैयार रहते हैं
और चायखाने की रातें बदले में गुंजार रहती हैं
और तब कोई नाजी गलियों में चलने की हिम्मत
नहीं कर सकता
क्योंकि गलियां हमारी हैं
भले ही घर उनके हों
1. फ़ासीवाद की पैदल सेना के निर्माण की प्रक्रिया को समझना और समझाना
फ़ासीवाद, क्रांति-विरोधी, प्रतिक्रिया वादी सामाजिक आंदोलन है; इसका जवाब है, ‘क्रांतिकारी आन्दोलन’. टटपूंजिया वर्ग का हर व्यक्ति, हर वक़्त ‘बड़ा आदमी’ बनने के ख़्वाब में जीता है, और वह लगातार नीचे खिसकता जाता है, सर्वहारा वर्ग की विशाल सेना में भर्ती होता रहता है. उसके सपने टूटकर बिखरते रहते हैं. हाड़-खिसाऊ मेहनत करते हुए, वह काम की भट्टी में, ख़ुद को झोक देता है, ‘बड़ा आदमी’ बनने के लिए, वह ख़ुद अपने और अपने परिवार की ज़िन्दगी, सुख-सुकून की परवाह नहीं करता, दिन-रात काम करता है, और वक़्त से पहले मौत के आगोश में समा जाता है. यह है पूंजीवाद का जलवा!! पूंजीवादी संकट के वक़्त यह प्रक्रिया बहुत तीव्र हो जाती है. टटपूंजिया वर्ग की इस हताशा-कुंठा-गुस्से को इस्तेमाल कर, उन्हें अंध-राष्ट्रवाद के नशे में टुन्न कर, पूंजी के सबसे बड़े लुटेरे, अपने लूट के डूबते साम्राज्य को बचाने के लिए, सारे नियम-क़ायदों को दूर फेंक, पहले एक आभासी शत्रु पर टूट पड़ने को उकसाते हैं, और फिर उसी नंगी हिंसा, खूंख्वार तानाशाही, झूठ और षडयंत्रों द्वारा, क्रांतिकारी शक्तियों, उत्पादक शक्तियों को, समाप्त करने की ख़ूनी योजना को अमल में लाते हैं. बुर्जुआ शासन की इसी वीभत्स, बर्बर, ख़ूनी तानाशाही को फ़ासीवाद कहते है. यह रोग, सबसे पहले प्रथम विश्व युद्ध के दरम्यान इटली में नज़र आया था. उसके बाद से, पूंजी के राज़ को बचाने की ज़िम्मेदारी निभा रहे, जर्मनी, स्पेन, जापान समेत दुनिया भर के, पूंजी के पालतू जमूरे, इस औज़ार को इस्तेमाल करते आए हैं. आज, पूंजी नाम का रोगी, ऐसा बीमार है जिस पर कोई उपचार असर नहीं कर रहा. लेकिन कितना भी गंभीर रोगी हो, ख़ुशी में झूमकर मौत को गले नहीं लगाता, इसलिए क़ब्र में जाने से बचने के लिए, धरती पकड़ रहा है. आज दुनिया भर के जिन देशों में फ़ासीवादी फोड़ा सबसे ज्यादा पक चुका है, उनमें हमारा देश शामिल है. इसीलिए, इसे इसकी सही ऐतिहासिक जगह पहुँचाने की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी, इस देश के क्रांतिकारी वर्ग पर आयद हो चुकी है.
किसी भी संघर्ष में, संघर्ष के सभी आयामों, विरोधियों और उनके साथियों तथा दोस्तों और उनके साथियों को, अगर ठीक से पहचानने में चूक हुई, तो वह मंहगी पड़ेगी, क्योंकि फ़ासीवाद से लड़ाई, बहुत गंभीर कार्यवाही है. धूल में लट्ठ चलाने से, अपने ही सर फूटने वाले हैं. फ़ासीवाद-विरोधी लड़ाई में, शत्रु न 1 है, पूंजीवाद; आज के वक़्त में, उसका सबसे प्रभुत्वकारी हिस्सा, वित्तीय कॉर्पोरेट शार्क, जो आज, ख़ुद अपनी बिरादरी तक को हड़प जाने को बेचैन हैं. इसी शत्रु न 1, अडानी-अंबानी एंड कंपनी ने, मोदी सरकार को सत्ता सौंपी है. मुख्य धारा का सारा मीडिया, इन्होने ही ख़रीदकर, मोदी सरकार की सेवा में झोंक दिया है. ये ही हैं, जो ‘नागपुरिया’ हिन्दुओं के रूप में फ़ासिस्टों के मारक दस्ते को पाल-पोस रहे हैं, मारक क्षमता बढ़ाने के लिए, उन्हें सभी संसाधनों और अकूत पैसे से लैस कर रहे हैं. टटपूंजिया वर्ग के फ़ासीवादीकरण की प्रक्रिया का एक ताज़ा उदहारण प्रस्तुत है. फासिस्ट टोला, फ़रीदाबाद डबुवा सब्जी मंडी में, दिन-भर धूल, धुंवे और धूप में खट रहे, राजकुमार को तलाशता है, जो सर्वहारा और अर्द्ध-सर्वहारा बस्ती, पर्वतिया कॉलोनी में रहता है, जिसके ‘बड़ा आदमी बनने’, बड़ी-बड़ी गाड़ियों में घूमने, सिक्यूरिटी कमांडो से घिरे रहने के सपने साकार नहीं हो रहे. उसे समझाया जाता है कि अगर वह अपने सब्जी के ठेले को त्यागकर, भगुवा वस्त्र धारण कर ले, सनातन धर्म की सेवा में लग जाए, तो मेवा ही मेवा है. वह अपनी रोज़ी-रोटी के उस ज़रिए को ठोकर मारकर, विजयी महसूस करता है, क्योंकि उससे उसे, सूखी रोटी और ज़िल्लत के सिवा कुछ नहीं मिला. डबुवा मंडी का राजकुमार, तुरंत भगवाधारी बिट्टू बजरंगी बन जाता है, और ऐसा ज़हर उगलता है, जैसा उसके आक़ाओं ने भी ना उगला हो. पलक झपकते, त्रिशूल, तलवारों, कट्टों, बंदूकों के ढेर लग जाते हैं. सांय-सांय करने वाली एसयूवी की लाइन लग जाती है, पुलिस वाले सलाम करने लगते हैं, पेट्रोल पंप पर कब सारी गाड़ियाँ ‘टैंक फुल’ हो गईं, पता भी नहीं चलता. बिट्टू बजरंगी फिर, बजरंगियत की स्क्रिप्ट से आगे बढ़ने, ख़ुद आक़ा बन जाने की हसरत को नियंत्रित नहीं कर पाता. 31 जुलाई वाले उसके ‘ससुराल आ रहे हैं, लोकेशन देते रहेंगे’ वाले विडियो पर गौर कीजिए. उसके आलावा वाले भी सारे भगवा लंपट, उसी की तरह या तो ठेले-खोमचे लगाने वाले, या बेरोज़गार छात्र या फिर छोटे किसानों के वे बच्चे हैं, जो आर्थिक रूप से मज़दूर बन चुके, लेकिन ज़हनियत से अभी तक चौधरी ही बने हुए हैं. देहात के, छोटे किसानों के ऐसे दिशाहीन युवक ही, अपराध की दुनिया के सरगना हैं. सारे गैंगस्टर इसी श्रेणी के युवा हैं. अपराधी गैंगस्टर बनना जोखिम भरा काम है, जबकि भगवा फ़ासिस्ट टोले का ‘भगवा गैंगस्टर’ बनने में ज़ोखिम कुछ भी नहीं, जबकि काम बिलकुल वही है. मंत्री बनने की संभावनाएं, अलग से मौजूद रहती हैं. यही है फ़ासीवादियों की पैदल सेना के निर्माण की प्रक्रिया.
पहला शत्रु, वित्तीय कॉर्पोरेट है जो सारे सामाजिक-आर्थिक रोगों की जननी है, जिसे उखाड़ फेंके बगैर, अब, समाज का कोई रोग, चाहें जाति का हो या धर्म का; बेरोज़गारी का हो या मंहगाई का, मणिपुर का हो या नूंह का, कट नहीं सकता. दूसरे नंबर पर है, उनके द्वारा चुनी हुई सरकार, जिसका काम, आज, कॉर्पोरेट के लिए नीतियां बनाना नहीं, बल्कि कॉर्पोरेट द्वारा बनाई गई नीतियों को, अपने द्वारा बनाई गई नीतियां घोषित कर, उनका कार्यान्वयन करना है. ‘नागपुरिया’ हिन्दुओं के भगवा फासिस्ट टोले का नंबर, उसके बाद आता है, भले पहले उन्हीं से क्यों ना लड़ना पड़े, क्योंकि वे फ़ासीवाद नाम की इस विनाशकारी परियोजना को लागू करने का औज़ार बन चुके हैं. अगर हमने इसे ‘हिन्दू फ़ासीवाद’ घोषित कर चढ़ाई शुरू की, तो कॉर्पोरेट मालिकान और उनकी मैनेजमेंट कमेटी ख़ुश हो जाएगी. पहले नंबर वाला शत्रु, पहले नंबर पर ही रहना चाहिए, तब ही हम, उस स्थिति में भी नहीं भटकेंगे, जब मौजूदा ‘मैनेजमेंट कमेटी’ की कलई पूरी तरह खुलने के बाद, कॉर्पोरेट मालिकान, दूसरी मैनेजमेंट कमेटी को, इस परियोजना को लागू करने की ज़िम्मेदारी सौंपेंगे. जैसी की संभावनाएं नज़र आने लगी हैं, क्योंकि एक नया घोड़ा सजता दिखाई देने लगा है.
दो सवाल उभरते हैं; पहला- इस हकीक़त को ख़ुद समझना. दूसरा- जो कठिन है, लेकिन जिसके बगैर कुछ नहीं होने वाला, हम कहीं नहीं पहुँचने वाले; दूसरों को समझाना. दूसरा काम, पहले से ज्यादा ज़रूरी है, जिसके बिना पहला काम, किसी काम का नहीं और जिसे करने में हम नाकाम रहे हैं. फ़ासीवाद विरोधी जंग की प्रख्यात योद्धा, क्लारा जेटकिन ने, 20 जून, 1923 को मास्को में हुए कोमिन्टर्न के तीसरे प्लेनम में, ‘फ़ासीवाद के प्रमुख संघर्ष’ दस्तावेज़ में बताया था, “हम फ़ासीवाद से केवल तब ही लड़ सकते हैं जब हम ये जान लें कि ये समाज के ऐसे बहुत बड़े हिस्से को, जो अपने अस्तित्व के लिए मौजूद सामाजिक सुरक्षा को खो चुका है, और उसके साथ ही सामाजिक व्यवस्था में जिसका भरोसा डिग चुका है, भड़काता है और बहाकर ले जाता है. फ़ासीवाद की जड़ें, असलियत में, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था और बुर्जुआ राज्य के विघटन में मौजूद होती हैं….ये सिर्फ सर्वहारा की भयानक कंगाली में ही नज़र नहीं आता, बल्कि मध्य वर्ग, उच्च मध्य वर्ग के बहुत बड़े हिस्से के सर्वहाराकरण, छोटे किसानों की भयावह बदहाली और साथ ही ‘बुद्धिजीवियों’ में व्याप्त तनाव और निराशा से भी ज़ाहिर होता है…हर एक सर्वहारा को समझना होगा कि वह पूंजीवाद का, या जो भी तुर्रमखां सत्ता हो, उसका उजरती गुलाम, हवा और पूंजीवाद की आंधी में उड़ जाने वाला, तिनका मात्र नहीं है. सर्वहारा को ख़ुद को क्रांतिकारी वर्ग का एक ऐसा अंग महसूस करना और समझना चाहिए, जो धनी वर्ग के पुराने राज्य को, एक नए सोवियत राज्य में गढ़ डालेगा. जब हम हर मज़दूर में ऐसी क्रांतिकारी वर्ग चेतना जगा देंगे, और वर्ग प्रतिबद्धता की ऐसी चिंगारी प्रज्वलित कर देंगे, तब ही हम फ़ासीवाद को लड़ाई के मैदान में पूरी तरह उखाड़ फेंकने के लिए असली तैयारी कर पाएंगे.”
2. ‘फ़ासीवाद विरोधी क्रांतिकारी मोर्चे’ के निर्माण के लिए पूरी शिद्दत से प्रयत्न करना
‘देश में कोई सही क्रांतिकारी पार्टी मौजूद नहीं है’, इस अप्रिय सच्चाई को, वे कम्युनिस्ट नेता भी स्वीकार करते हैं, जो अपने संगठन को क्रांतिकारी पार्टी मानते हैं. देशव्यापी ‘फ़ासीवाद विरोधी क्रांतिकारी मोर्चा’ ना बन पाना, भी उसी मूल कमज़ोरी से जुड़ा हुआ है. देश स्तर पर, सही कम्युनिस्ट पार्टी होने से, बिखरी हुई क्रांतिकारी शक्तियों को, उस न्युक्लिअस के इर्द-गिर्द इकठ्ठा होकर, फ़ासीवाद विरोधी क्रांतिकारी मोर्चे में तब्दील हो जाने में आसानी होती. आज, ऐसा कोई नाभिकीय केंद्र बिन्दू नहीं है. इस तक़लीफ़देह हक़ीक़त से भी, लेकिन, यह साबित नहीं होता, कि ‘फ़ासीवाद विरोधी क्रांतिकारी मोर्चा’ अस्तित्व में नहीं आएगा, और उसके बाद सही क्रांतिकारी पार्टी का उद्भव नहीं होगा. ना इससे यह साबित होता है कि उस दिशा में प्रयत्न नहीं होने चाहिएं. बल्कि इससे साबित होता है कि और अधिक ज़ोर से प्रयास होने चाहिएं. इस दिशा में हो रहे प्रयासों की निरंतरता और गंभीरता दोनों में, उल्लेखनीय तेज़ी भी दिखने लगी है. ये प्रयास ज़रूर क़ामयाब होंगे, पक्का यकीन है. दमन का प्रतिकार ना हो, संभव नहीं. हमारे जन-संगठन, ‘क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा’ की घोषित पोजीशन है, कि हम यह बोझ उठाने में असमर्थ हैं. इसके बावजूद, इन गंभीर एवं अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दों पर अपनी समझदारी, राय रखना और निर्माण की प्रक्रिया में अपनी हिस्सेदारी करना, हमारी ज़िम्मेदारी है.
2 अगस्त 1935 को, कोमिन्टर्न की सातवीं कांग्रेस में, अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट नेता, जेओर्जी दिमित्रोव ने, ‘फ़ासीवादी हमला तथा फ़ासीवाद के विरुद्ध, मेहनतक़श अवाम के संघर्ष के बारे में, कम्युनिस्ट इंटरनेशनल का कर्तव्य’2 विषय पर अपनी थीसिस प्रस्तुत की थी. चूँकि इसके बाद, कम्युनिस्ट इंटरनेशनल का कोई मार्ग दर्शन नहीं मिल पाया, इसलिए इसी के आलोक में, हमें आज का अपना रास्ता तलाशना होगा. इस थीसिस के कुछ महत्वपूर्ण बिन्दू संक्षेप में इस तरह हैं.
“फ़ासीवाद, वित्तीय पूंजी के सबसे तीव्र साम्राज्यवादी तत्वों की, सबसे अराजक, सबसे नंगी, आतंकवादी तानाशाही है. इसका मक़सद, हर देश में, क्रांतिकारी शक्तियों और समाजवादी सोवियत संघ को तबाह करना है. ये लक्षण, अलग-अलग देशों में अलग-अलग तरीक़े से दिखाई पड़ेंगे. इसे, शरुआत में रोकने में कोताही करना, सर्वनाश को न्यौता देना है. फासीवादी सत्ता, ईमानदार सरकार की दुहाई देकर आती है और सबसे भयानक भ्रष्ट और ज़हरीले तत्वों को खुलकर शिकार करने की छूट देती है. फ़ासीवाद, सत्ताधारी वर्ग के अंतर्द्वंद्वों को छुपाने, दबाने के प्रयास करता है, लेकिन इसका अंतिम परिणाम, उन अंतर्द्वंद्वों के और भड़कने में होता है. इसीलिए फ़ासीवाद, खूंख्वार और भयानक तो है, लेकिन यह सत्ता अस्थिर होती है. सरकार द्वारा पूंजीपतियों के विरोध की लफ्फाज़ी, और असलियत में उनकी बेशर्म ताबेदारी से, उसका असली चरित्र उजागर हो जाता है, और यह सत्ता, लोगों की तीखी घृणा की शिकार होती है.
फ़ासीवाद को आने से कैसे रोकें, और अगर फ़ासीवादी सत्ता स्थापित हो चुकी है तो उसे कैसे उखाड़ फेंकें? उत्तर: पहला काम जो किया जाना चाहिए, जिससे शरुआत होनी चाहिए, वह है, एक संयुक्त मोर्चा बनाना. हर कारखाने, हर जिले, हर क्षेत्र, हर देश में, पूरे विश्व में, श्रमिकों की तहरीक़ की एकता स्थापित करना. राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सर्वहारा वर्ग की कार्रवाई की एकता, वह शक्तिशाली हथियार है, जो श्रमिक वर्ग को न केवल फासीवाद से सफल रक्षा के लिए बल्कि उसके खिलाफ, वर्ग शत्रु के खिलाफ जवाबी हमले को क़ामयाब करने के लिए ज़रूरी है. साझा मोर्चा बनने से, इसमें संगठित मज़दूरों के संघर्षों के साथ, फ़ासीवाद-विरोधी कैथोलिक, अराजकतावादी और असंगठित मज़दूरों के संघर्ष भी शामिल हो जाते हैं, क्योंकि ये भी तो फ़ासीवाद के निशाने पर आते हैं, भले अस्थाई रूप से ही क्यों ना हों. संयुक्त मोर्चा बनने से, किसान और शहरी टटपूंजिया वर्ग और बुद्धिजीवी भी इससे जुड़ पाते हैं. ढुलमुल-यकीन तबक़े को भी, इससे जुड़ने का साहस मिलता है. पूंजीवाद को उखाड़ फेंककर, सर्वहारा की तानाशाही स्थापित करने के लिए, मेहनतक़श वर्ग के बहुमत की एकता स्थापित होने से पहले, फ़ासीवाद के विरुद्ध, सारे मेहनतक़श अवाम की एकता भी आवश्यक है, भले वे किसी भी संगठन अथवा पार्टी के क्यों ना हों. संयुक्त मोर्चा गठित करने के सम्बन्ध में, कम्युनिस्ट इंटरनेशनल, एक शर्त के आलावा, किसी शर्त को लाज़िमी नहीं मानता और वह है कि, ये एकता फ़ासीवाद के विरुद्ध हो, पूंजी के हमले के विरुद्ध हो, युद्ध के विरुद्ध हो और वर्ग-शत्रु के विरुद्ध हो.
कम्युनिस्टों से साझा मोर्चा बनाने में, उदारवादी – जनवादी समूह, कई आपत्तियां रखता है, जिनमें कोई दम नहीं, और उन्हें यह सब समझाया जाना चाहिए, लेकिन साझा मोर्चा बनना ज़रूर चाहिए. कम्युनिस्टों का अपना प्रोपगंडा ज़ारी रखना चाहिए. संयुक्त मोर्चे के साथ ही, ‘सर्वहारा एकता मंच’ बनाकर सर्वहारा और किसानों के क्रांतिकारी वर्ग ने, अपने अंतिम लक्ष्य को पाने के लिए, उस दिशा में ठोस कार्यवाहियों के लिए, तैयारियां ज़ारी रखनी चाहिएं.”
मार्क्सवादी लेनिनवादी शक्तियों के सम्मुख, उस वक़्त, दो तथ्य सर्वोपरी महत्व के थे; विश्व युद्ध सामने खड़ा नज़र आ रहा था. उसके विरुद्ध अधिक से अधिक ताक़तों को इकठ्ठा करना और दुनिया में उस वक़्त अकेले समाजवादी देश, सोवियत संघ को नष्ट होने से बचाना.
भले दिमित्रोव के सुझाए रास्ते के अनुरूप, हूबहू ना सही, लेकिन देश में ‘संयुक्त मोर्चा’ तो आकार लेता दिख रहा है- ‘संयुक्त किसान मोर्चा’, जिसमें मज़दूर संगठन शामिल होते जा रहे हैं. 24 अगस्त को, दिल्ली तालकटोरा स्टेडियम में, ‘अखिल भारतीय मज़दूर किसान संयुक्त सम्मलेन’ इस दिशा में महत्वपूर्ण पड़ाव है. भले ये बिलकुल परिष्कृत रूप में ना शुरू हुआ हो. सामाजिक विज्ञान इसी तरह काम करता है. भारतीय मज़दूर संघ के आलावा, देश के सभी मज़दूर संगठनों को, इसका हिस्सा बनना चाहिए. ऐसा औपचारिक निमंत्रण ज़ारी होना चाहिए. इन किसान नेताओं का, पहला प्रोफाइल जो भी रहा हो, आज की ठोस परिस्थितियां, इन्हें सही लाइन पर लाती जा रही हैं. ‘मेहनतक़श अवाम के असली शत्रु, चंद कॉर्पोरेट मगरमच्छ, अडानी-अम्बानी हैं’, देश स्तर पर यह समझदारी फ़ैलाने का श्रेय, क्रांतिकारी मज़दूर संगठनों को नहीं, बल्कि संयुक्त किसान मोर्चे द्वारा चलाए गए, ऐतिहासिक आंदोलन को ही जाएगा. हाल की, नूंह मेवात की सुनियोजित फ़ासीवादी हिंसा के बाद, एसकेएम की स्पष्ट, सटीक और धमाकेदार भूमिका ने तो, लट्ठ ही गाड़ दिया. ‘हमारे रहते कोई किसी मेवाती को हाथ लगाकर दिखाए’, किसान नेता, सुरेश कोथ के इस वाक्य से, ना सिर्फ़ पीड़ित मेव समुदाय के चेहरे खिल उठे बल्कि फ़ासिस्ट टोले के हलक सूख गए. पासा पलटने की शुरुआत किसानों की ललकार से ही हुई.
फ़रीदाबाद के जिस शोहदे को इतने दिन पाला, फ़रीदाबाद को आग में झोंक देने वाली, जिसकी हर कारस्तानी को पूरी बेशर्मी से बचाया, किसानों और उनके बाद ‘36 बिरादरी’ के बयानों के बाद, पुलिस, उसी को घसीटती हुई ले गई. उसके आक़ाओं को, पूरी बेशर्मी के साथ, उसे त्यागने को मज़बूर होना पड़ा. किसान और मज़दूर मिलकर, राज्यों तथा केंद्र सरकार द्वारा पाली जा रही पूरी गुंडा-वाहिनी का यही हाल कर सकते हैं. फ़ासिस्टों का मुख्य हथियार ही अगर फेल हो गया, तो उनके पास रह ही क्या जाएगा!! महिला उत्पीड़न के मामले में भी, संयुक्त किसान मोर्चे की भूमिका शानदार रही है, भले एक-दो नेताओं के बर्ताव शक़ के दायरे में हैं. एक और बहुत सकारात्मक तथ्य, संयुक्त किसान मोर्चे में अब नज़र आने लगा है. किसान नेताओं ने, सचेत प्रयासों द्वारा इसका विस्तार, दक्षिण भारत और उत्तर-पूर्वी भारत तक कर लिया है. बस एक परीक्षा, संयुक्त किसान मोर्चे ने और पास कर के दिखानी है. इन किसानों का रुख, दलित समुदाय के बारे में, जाति-प्रश्न पर घटिया, दकियानूसी और दमन का रहा है. उस रोग को भी अगर ये लोग काबू करने में क़ामयाब हो गए, तो ‘संयुक्त किसान-मज़दूर मोर्चा’ का रूपांतरण ‘फ़ासीवाद विरोधी संयुक्त मोर्चा’ होने में कोई क़सर नहीं रहेगी.
फासीवाद विरोधी संयुक्त मोर्चे के आलावा, ‘क्रांतिकारी सर्वहारा मोर्चा’ या ‘क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा’, ना बन पाने का कारण भी वही है, देश स्तर पर किसी क्रांतिकारी पार्टी का ना होना, जिसके इर्द-गिर्द छिटके हुए क्रांतिकारी तत्व जुड़ सकें. ठोस वस्तु-स्थिति के आधार पर कहा जाए, तो क्रांतिकारी पार्टी गठन के गंभीर प्रयास भी होते नज़र नहीं आ रहे. एकता-वार्ताएं, चार क़दम चलकर ठहर जाती हैं. लेकिन एकता-वार्ताएं चल रही हैं, इस सकारात्मक पहलू से संतोष करना होगा. एकता वार्ताओं का उनकी मंज़िल तक ना पहुँच पाने का कारण, वही लग रहा है, जो सुधा भारद्वाज ने एक इंटरव्यू में बताया था. ‘कई संगठन एकता वार्ताएं कर रहे हैं लेकिन सोच वही है, आप हमारी पार्टी में शामिल हो जाओ (क्योंकि एक मात्र हम ही ‘बोल्शेविक’ हैं!).’ संगठनिक तौर पर कई संगठनों का एकाकार हो जाना मुश्किल है. पहले, फ़ासीवाद विरोधी क्रांतिकारी कार्यक्रम के आधार पर साझा मंच से शुरुआत होनी चाहिए. किसानों-मज़दूरों वाले साझा मोर्चा से भी, एक कोर क्रांतिकारी मोर्चा निकल सकता है, जिसकी परिणति क्रांतिकारी पार्टी के उद्भव में हो, ये भी मुमकिन है. एक बात निश्चित है, सही प्रक्रिया, सही दिशा में शुरू होते ही, गति पकड़ लेने वाली है, क्योंकि ज़मीन पूरी तरह तैयार है. जैसे किसान मोर्चे के मामले में हुआ कि जिन दो नेताओं ने ग़द्दारी की, उनके साथ, उनके संगठन का भी कोई व्यक्ति नहीं गया. बस बॉर्डर पर उनके तम्बू से, संगठन के कार्यकर्ताओं ने उन नेताओं की तस्वीरें खुरच डालीं थीं. सही ‘क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा’ बनते ही, हमारे जैसे, छोटे-छोटे संगठनों के पास, उसे ज्वाइन करने के सिवा पर्याय ही नहीं रहेगा. एक पहल और करनी होगी. भले मज़दूर अपनी बिकट आर्थिक परिस्थितियों के चलते ज्यादा वक़्त नहीं दे सकते लेकिन किसान महापंचायतों की तर्ज़ पर, मज़दूर पंचायतें, मज़दूर-किसान-महापंचायतें आयोजित होनी चाहिएं. ये पंचायतें ही ‘सोविएट’ की भूमिका निभाएंगी.
3. नूंह के सबक़ नहीं भूलना
मेवात, पहली जंग-ए-आज़ादी में भी इतिहास रच चुका है. मई, 1857 के दूसरे सप्ताह में, छिड़ी आज़ादी की जंग, आग की तरह हर तरफ फ़ैल गई थी, लेकिन जून अंत तक यह स्पष्ट हो गया था, कि अँगरेज़ उस विद्रोह को कुचलने में क़ामयाब हो गए हैं. उसके बाद तो बागी आत्म-समर्पण करते गए. अँगरेज़ फ़ौज, बल्लभगढ़ के नाहरसिंह किले को, सबसे बाद सितम्बर में जीत पाई थी. मेवात के गाँव-गाँव में, लेकिन, नवम्बर 1857 अंत तक भीषण जंग ज़ारी रही. मेवों ने, देश में सबसे ज्यादा बलिदान दिए. गुडगाँव ही नहीं, दिल्ली में भी मेवों की धाक थी. अँगरेज़ सबसे ज्यादा, उन्हीं से डरते थे. गुडगाँव के, तत्कालीन डीसी विलियम फ्रेज़र ने, अपनी डायरी में लिखा था, ‘पहली बार मुझे लगा है, कि हम पराए देश में हैं. मैं और बाक़ी ब्रिटिशर, कभी भी मारे जा सकते हैं’. नूंह में 80% मुस्लिम हैं. कितने गांवों में तो, दो या तीन घर हिन्दुओं के हैं. कभी भी, कहीं से दमन-उत्पीड़न की ख़बर नहीं आई. कितनी ही स्कूल टीचर महिला हैं, जो मेवात के बाहर से हैं, कभी कोई छेड़छाड़ की शिकायत नहीं. फासिस्ट टोले द्वारा इजाद, नफ़रत फ़ैलाने के एक औज़ार, ‘लव ज़ेहाद’ की हकीक़त यह है, कि नूंह ज़िले में, उन मेव लड़कियों की तादाद जिन्होंने हिन्दू लड़कों से शादी की है, उन हिन्दू लड़कियों से कहीं ज्यादा है जिन्होंने मुस्लिम लड़कों से शादी की है. 1947 के बाद से, मेवात में कभी भी, कहीं भी दंगा नहीं हुआ. मेवाती, बाबर और राणा सांगा के बीच युद्ध में, बाबर की सेना के खिलाफ़, राणा सांगा की फौज के साथ लड़े थे. बेगैरत बजरंगी, मेवात को मिनी पाकिस्तान बताते हैं.
1918 में नीति आयोग ने, देश के सभी 766 ज़िलों की रेटिंग की थी. सबसे ग़रीब 100 ज़िले चुने गए थे, जिन्हें ‘100 एस्पायरिंग डिस्ट्रिक्स’ बोला गया था. नूंह, पूरे देश का सबसे ग़रीब ज़िला घोषित हुआ था, जबकि हरियाणा के कुल 22 ज़िलों में, बाक़ी 21 ज़िले, सबसे विकसित जिलों में गिने जाते हैं. इस क़दर भेदभाव किया गया, इस मुस्लिम बहुल ज़िले के साथ. कहीं कोई उद्योग नहीं. कोई नहीं कह सकता, कि नूंह ज़िला बनने से पहले, मेवात का यह इलाक़ा, देश में पूंजीवाद के सबसे चमचमाते, भारत के शंघाई, गुड़गांव का हिस्सा था. हर तरफ़ पहाड़ ही पहाड़ हैं. खेती यहाँ ना के बराबर है. पशुपालन से ये ग़रीब मेव, अपना पेट भरते थे, वह व्यवसाय, इस फ़ासिस्ट ब्रिगेड ने चौपट कर डाला.
फ़ासिस्टों के मौजूदा भगवा टोले ने, कई मेवातियों की लिंचिंग की है. ज़ूनैद और नासिर की क़ब्र की मिटटी सूखी भी नहीं थी, कि उनका हत्यारा ऐलान के साथ वहां आने के विडियो ज़ारी कर रहा था. दूसरा पेटू, लम्पट ठग, मेवात को अपनी ससुराल बता रहा था. बाहर कोई मारे, तो बंदा अपने घर आ जाता है. कोई जब घर पर ही चढ़ाई बोल रहा हो, तो कहाँ जाए?? इस बार भी, अगर मेवाती मुक़ाबला ना करते, तो ये गुंडा गिरोह उनके घरों में घुस जाता. 31 जुलाई को मेवातियों ने बहुत ठन्डे दिमाग से योजना बनाई, और पूरे फासिस्ट गिरोह को घेर लिया था. ससुराल घूमने की अकड़ में पहुंचे, कई ‘बारातियों’ ने अपने कच्छे गीले कर लिए थे. एयरलिफ्ट करने की मिन्नतें कर रहे थे.
पिछले 9 साल से अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय, चुपचाप सह रहा है, अद्भुत धीरज का परिचय दे रहा है. लेकिन यह, सही रणनीति साबित नहीं हुई. नूंह में, फ़ासिस्टों को, उन्हीं की मुद्रा में भुगतान किया गया, तो वे कांप उठे. उसके बाद, संयुक्त किसान मोर्चा, समस्त दलित समाज, जाट, गुजर, अहीर और उसके बाद पूरी ’36 बिरादरी’ ने, ऐलानिया उनका साथ दिया. बजरंगियों-विहिपियों का पासा उल्टा पड़ गया. शर्मिंदगी से बचने के लिए सरकार को न्याय-व्यवस्था की याद आई. हुकूमत का इशारा मिलते ही, नूंह के तावडू की पुलिस ‘ससुरालिये बजरंगी’ को घसीटते हुए जेल ले गई. यही है, फ़ासीवाद से लड़ने की सही रणनीति. फासिस्टों को शर्म, लिहाज़, दया, इंसानियत वगैरह से कुछ लेना-देना नहीं होता. वे मुक़ाबले की भाषा ही समझते हैं. हर जागरुक इंसान को पूरी शिद्दत और हिम्मत के साथ फ़ासिस्टों के निशाने पर आए, पीड़ितों के साथ खुलकर खड़ा होकर दिखाना पड़ेगा. बक़ौल एक शायर,
धीरे-धीरे कहता क्या है, शोर मचा
ये हाकिम ऊँचा सुनता है, शोर मचा
4. घृणित मनु-स्मृति के विचार को पलट डालना
हमारे देश की विशिष्टता के अनुरूप, हिन्दू बहुसंख्यक हैं. इसीलिए यहां, फ़ासीवादी परियोजना, बहुसंख्यक हिन्दुओं को बरगलाकर, उन्हें मूर्ख बनाकर ही लागू की जा सकती है. जिस हिन्दू राष्ट्र की स्थापना की बात कर, ऐसे मासूम लोगों को बरगलाया जा रहा है, उनके दिमाग में मज़हबी ज़हालत और कपोल-कल्पित प्राचीन ‘सनातनी स्वर्ण काल’, को ठूंसा जा रहा है, उन्हें अगर मालूम पड़ जाए, कि वह ‘हिन्दू राष्ट्र’ कैसा होगा, तो वे ख़ुद, नफ़रत के इन व्यापारियों के पीछे लट्ठ लेकर पड़ जाएँगे. उस सपनों के हिन्दू राष्ट्र का संविधान होगा, ‘मनु स्मृति’. वही घृणित मनु-स्मृति, जो महिलाओं और दलितों को बराबरी की बात तो छोडिए, उन्हें इंसान का दर्ज़ा देने को तैयार नहीं. बानगी देखिए:
“एक लड़की हमेशा अपने पिता के संरक्षण में रहनी चाहिए, शादी के बाद पति उसका संरक्षक होना चाहिए, पति की मौत के बाद, उसे अपने बच्चों की दया पर निर्भर रहना चाहिए, किसी भी स्थिति में एक महिला आज़ाद नहीं हो सकती. पुरुषों को सदैव स्त्रियों को अपने वश में रखना चाहिए…पुरुष को पाते ही वे भोग के लिए प्रस्तुत हो जाती हैं”, मनुस्मृति के पांचवें अध्याय के 148वें श्लोक में, यह ज्ञान परोसा गया है!! यह, बेवज़ह नहीं है, कि भाजपा-संघ और उनकी सारी शाखाएँ, हमेशा बलात्कारियों, लम्पटों, गुंडों के बचाव में खड़ी होती हैं. यही होगा, उस तथाकथित ‘भावी हिन्दू राष्ट्र’ में. ठीक इसी तरह, दलित समुदाय के बारे में, मनुस्मृति कहती है, “भगवान ने शूद्रों के लिए, एक ही कर्तव्य निर्धारित किया है कि वे अन्य वर्गों के लिए निर्विकार रूप से सेवा करें. शूद्र अगर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य को गाली देता है, तो उसकी जीभ काट लेनी चाहिए, क्योंकि नीच जाति का होने के कारण, वह, इसी सजा का अधिकारी है. शूद्र द्वारा उच्च वर्ण के लोगों को उपदेश देने पर, राजा को उसके मुंह में गरम तेल डाल देना चाहिए. दुनिया के विकास के लिए, उसने (निर्माता ने) अपने मुंह, बाहों, जांघों और पैरों से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को उत्पन्न किया”. वर्णाश्रम धर्म में दलितों को कोई स्थान नहीं मिलता; वे ‘बहिष्कृत’ हैं.
चुनावी गणित, इन कट्टर हिन्दुत्ववादियों को, इनके दिल की असली बात, बयान नहीं करने देता, इसलिए ये लोग अपने इन घृणित विचारों को छुपाए फिरते हैं. इनकी असलियत नंगी करना, हर उस व्यक्ति की ज़िम्मेदारी है, जो फ़ासीवादी घटाटोप से मुक्ति चाहता है. ऐसा चाहना और उसके लिए कोई क़सर ना छोड़ना, हर जिंदा इंसान की ज़िम्मेदारी है. वर्ना आने वाली नस्लें हमें कसूरवार ठहराएंगी, जैसे, जर्मनी में, आज नाज़ी शब्द ज़ुबान पर लाना, उनका घृणित स्वास्तिक निशान बनाना और हिटलर का नाम लेना भी ग़ैर-क़ानूनी है, ऐसे लोगों को जेल में डाल दिया जाता है. फासिस्ट गिरोह की हकीक़त उजागर करने में हम नाकाम रहे, वर्ना एक भी महिला और दलित समुदाय का एक भी व्यक्ति उनके साथ ना होता. समाज के सबसे मेहनतक़श और सबसे बड़े तबक़े को, अछूत बनाकर, उन्हें ना सिर्फ उत्पादन के भौतिक साधनों, ज़मीनों से पूरी तरह महरूम किया गया, बल्कि उनके साथ पशुवत व्यवहार, मनु-स्मृति के इन्हीं उपासकों ने किया और दूसरों को भी, यह अक्षम्य जघन्य अपराध करने को लगाया. असली सेक्युलर और जनवाद की बातें करने वालों की ही नाकामी है, कि फासिस्टों ने दलित समुदाय के भी काफ़ी बड़े हिस्से को अपनी पैदा सेना में भर्ती किया हुआ है.
5. जाति उन्मूलन को फ़ासीवाद विरोधी राजनीतिक कार्यक्रम का हिस्सा बनाना
जाति का कोढ़ हमारे समाज की सबसे क्रूर हकीक़त है. समाज के इतने विशाल हिस्से को, जाने कितने वक़्त से, सिर्फ़ इसलिए अवर्णनीय दमन-उत्पीडन-ज़ुल्म झेलने पड़े, क्योंकि वे एक विशेष जाति में पैदा हुए. उनके इस ‘जुर्म’ की कोई माफ़ी नहीं है. सज़ा की कोई अवधि भी नहीं है. जीवन पर्यंत ही नहीं, मरने के बाद भी, उनके मृत शरीरों के साथ भी, कोई नरमी नहीं बरती गई. उस ज़ुल्म से उन्हें माफ़ी नहीं दी गई, जिसमें उनका कोई हाथ नहीं था. हर दिन, हर पल उन्हें अहसास दिलाया गया, कि वे बराबरी की उम्मीद ना पालें. हमारे इतिहास के इस घिनौने अध्याय को जानकर और उसके बारे में सोचकर, किसी भी संवेदनशील व्यक्ति की क्रोध और ग्लानी से चीख निकल जाती है. सनातन धर्म के सड़े ब्राह्मणवाद की ही सौगात है ये. मौजूदा जाति उत्पीड़न की, भले पहले से तुलना ना की जा सकती हो, लेकिन आज भी, इससे इंकार करना, अप्रिय हक़ीक़त से आंख मूंदना ही कहलाएगा. इस रोग का एक और पहलू, क़ाबिल-ए-गौर है कि जाति-उत्पीड़न का शिकार तबक़ा, समाज का सबसे क्रांतिकारी तबक़ा है. सर्वहारा वर्ग में भी, और अधिक सर्वहारा, क्योंकि उन्हें सर्वहारा का भी सामाजिक भेदभाव, कलेजा चीरने वाले कटाक्ष, गालियां, ज़िल्लत झेलने पड़ते हैं.
कोई हैरानी की बात नहीं कि पूंजीवाद ने, समाज में फैले हर क़िस्म के कोढ़ को बढ़ाया है और आज और भी तेज़ी से बढ़ा रहा है. लेकिन क्रांतिकारी शक्तियों ने भी जाति-उन्मूलन के कार्यक्रमों को उतनी तवज्जो नहीं दी, जितनी दी जानी चाहिए थी. यही कारण है कि समाज का सबसे क्रांतिकारी तबक़ा, कम्युनिस्ट आंदोलन की ओर उतना आकृष्ट नहीं हुआ, जितना होना चाहिए था. आंदोलन की इस कमज़ोरी को दूर किया जाना ज़रूरी है. दलित समाज, फ़ासिस्ट शक्तियों के निशाने पर, सबसे आगे रहता है, अतिरिक्त दमन झेलता है. इसलिए उसके पास, फ़ासीवाद विरोधी क्रांतिकारी तहरीक़ का हिस्सा बन जाने की अतिरिक्त वज़ह मौजूद हैं.
6. तालीम-ओ-तहज़ीब बचाना
अगर आप सोचते हैं कि फासीवादीकरण परियोजना में सबसे बड़ी भूमिका, ‘हिन्दू महापंचायतें’ गठित कर ज़हर उगलने वाले, हिन्दू युवाओं को मुस्लिमों के विरुद्ध हथियार उठा लेने का आह्वान कर भड़काने वाले, गला फाड़ने वाले, यति नरसिन्हानंद जैसों ने निभाई है, तो आपका आकलन ठीक नहीं है. फ़ासीवादी ज़हरीली बेल के लिए उर्वरा, उपजाऊ ज़मीन तैयार करने, देश भर में उसे रोपने और फलने-फूलने में सबसे अहम भूमिका निभाई है, दीनानाथ बत्रा और विनय सहस्रबुद्धे जैसे ‘शिक्षाविदों’ ने. यह विनाशकारी परियोजना, हमारी शिक्षा-संस्कृति और गंगा-जमुनी तहज़ीब की जड़ें खोदे बगैर, पूरी हो ही नहीं सकती थी. भले आजकल चहक रहे, राहुल गाँधी की मुरीद मंडली को, कितनी भी बदज़याका क्यों ना लगे, इसकी शुरुआत भी, 1986 में, उनके पिताश्री राजीव गाँधी के शासन काल में आई, शिक्षा-नीति से ही हुई. हर तथ्य, ये सच्चाई रेखांकित करता चलता है, कि फ़ासीवाद, किसी सरकार की नहीं, बल्कि सत्ता की ज़रूरत से लागू होता है. हाँ, उसे लागू करने के लिए, सरकारों में मौजूद नंगई की तीव्रता में ज़रूर फ़र्क होता है. 2014 से लागू हो रहे नंगे फ़ासीवाद में, आरएसएस के ‘विचारक’, अपने काम पर पूरी ताक़त के साथ लगे हुए हैं, और उन्होंने इस देश की तालीम-ओ-तहज़ीब का बेड़ा गर्क़ करके रख दिया है, उस की जड़ें खोद कर रख दी हैं. संघ अच्छी तरह जानता है, कि शिक्षा को विकृत किए बगैर, हिन्दू-राष्ट्र की परियोजना को तो लोग नहीं ही झेल पाएंगे, ‘मनु-स्मृति’ लफ्ज़ मुंह से निकाला, तो लोग मारने को दौड़ेंगे. इसीलिए, हमेशा हाशिए पर रही, यह भगवा मंडली और उनके सफ़ेद ताबेदार, जब जेपी की मदद से, 1977 में पहली बार सत्ता में आए थे, तब भी मंत्रालयों में उनकी पसंद, शिक्षा एवं संस्कृति तथा सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ही थे.
‘आल इंडिया फोरम फॉर राईट टू एजुकेशन (AIFRTE)’, बहुत सही समय पर, जून 2009 में गठित हुई, और देश के बहुत ही प्रतिष्ठित और सम्मानित शिक्षाविद, उसके प्रशासनिक मंडलों में हैं, 80 से भी ज्यादा छात्र-मज़दूर-शिक्षक संगठन इस मंच से जुड़े हुए हैं. शिक्षा-संस्कृति पर हुए हर हमले की दखल, शिक्षा का यह प्रतिष्ठित मंच लेता आया है, लेकिन यह तथ्य भी स्वीकारना होगा, कि समूचे समाज से सम्बद्ध शिक्षा के मसले पर, सर्वाधिक ऊर्जा वाले छात्र समूह की सामूहिक, संगठित शक्ति के आधार पर, जितनी ज़बरदस्त ‘शिक्षा-संस्कृत बचाओ’ तहरीक़ देशभर में उठने की अपेक्षा थी, वह नहीं उठ पाई. शिक्षा को विकृत करने, इतिहास को तथ्यों के आधार पर पढ़ने-समझने की बजाए, आस्था-आधारित, वाहयत गपोड़ों को ही इतिहास के रूप में प्रस्तुत कर, पाठ्यक्रमों में बुनियादी बदलाव कर, माशरे की सोच-समझ को ही विषाक्त-विकृत कर डालने की संघी परियोजना में, कोई भी रूकावट हम नहीं डाल पाए. गाँधी शांति प्रतिष्ठान में हुई, इस मंच की सभा में बोलते हुए, दिल्ली विश्वविद्यालय के, समाज से प्रतिबद्धता रखने वाले, एक प्रोफेसर के इस कथन से, इस कमज़ोरी की वज़ह भी समझी जा सकती है: “हम प्रोफ़ेसर लोग, यहाँ मीटिंग में, नई शिक्षा नीति के विरुद्ध भाषण देने के बाद, अपने-अपने विभागों में जाकर, नई शिक्षा नीति के अनुसार पाठ्यक्रम तैयार करने में लग जाने वाले हैं”!! मतलब, उन प्रोफेसरों को ही शिक्षा नीति का विरोध करना है, और उन्हें ही उस नीति को लागू करना है. यह विडम्बनापूर्ण हकीक़त, शिक्षा-नीति के उनके विरोध की, उनकी धार को कुंद करती है. उनके कथनों से उठने वाले संभावित रोष को कमज़ोर करती है. इसे दूर करने के लिए, ‘शिक्षा-संस्कृति बचाओ’ आंदोलन को चलाने की समितियों में, क्रांतिकारी मज़दूर -किसान संगठनों-ट्रेड यूनियनों के प्रतिनिधियों/ कार्यकर्ताओं, ‘संयुक्त किसान-मज़दूर मोर्चे’ को भी शामिल किया जाना चाहिए. इस आत्मालोचना का एक ही मक़सद है; देश में शिक्षा का सत्यानाश करने की हिमाक़त के ख़िलाफ़, प्रचंड जन-आंदोलन खड़ा हो, जिससे फ़ासीवाद के वैचारिक आधार पर ही हमला किया जा सके.
7. झूठ-पाखंड का भंडा फोड़ करना
फ़ासीवादी ख़ूनी महल, झूठ और पाखंड की बुनियाद पर तामीर होता है. इसीलिए अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के नेता जेओर्जी दिमित्रोव ने, फ़ासीवाद को, ‘भयानक लेकिन अस्थिर’ (Ferocious but unstable) शासन कहा है. हर रोज़, 24 घंटे, झूठ की फैक्ट्री, अपनी पूरी क्षमता पर चल रही होती है. कुछ भी, अंड-बंड-शंड बोलो, लेकिन, हाथ लहराकर बोलो, चीख-चीखकर बोलो!! फ़ासिस्ट टोले को झूठ क्यों बोलना पड़ता है? देश के लगभग 120 करोड़ लोगों को ये समझाना है कि 19.7 करोड़ मुसलमानों की वज़ह से हिन्दू धर्म ख़तरे में है!! ‘सारे मुस्लिम आतंकी हैं’ जबकि देश की ख़ुफ़िया जानकारियाँ बेचने वाले पकड़े जाते हैं, तो उनके नाम, नाम्बी नारायण और प्रदीप कुरुलकर निकलते हैं!! मुस्लिम, मंदिरों को अपवित्र करते हैं, ये कहकर आग लगानी होती है, लेकिन वहां गोमांस फेंकने वाले पकडे जाते हैं, तो वे हिन्दू निकलते हैं!! मोदी सरकार हिन्दुओं की पालनहार है, ये पढाना है, लेकिन मंहगाई, बेरोज़गारी ऐसी विकराल कभी नहीं हुई और उससे हिन्दुओं को भी कोई राहत नहीं. किसी भी फ़ासिस्ट फ़तवे को ज़रा सा कुरेदिये, अंदर वही पदार्थ भरा होगा – झूठ, पाखंड- बकवास- बेहूदगी- बोड़मपंथ.
भगवे फासिस्ट टोले के झूठ पाखंड का भंडाफोड़ कर रहा हर बंदा, फ़ासीवाद-विरोधी योद्धा है. हर जिंदा इंसान को, हर रोज़, रात को, सोने से पहले, ख़ुद से सवाल करना चाहिए, उसने आज दरबारी मीडिया और देश में झूठ-पाखंड के सबसे बड़े कारखाने, ‘भाजपा आई टी सेल’ द्वारा फैलाए जा रहे, कितने झूठों का भंडा-फोड़ किया? कितने भक्तों की खोपड़ी में भरा गोबर बाहर निकाला? अपना ज़मीर बेच चुके, कितने बेगैरत टीवी एंकरों, पार्टी प्रवक्ताओं को नंगा किया? समाज को टुकड़े-टुकड़े कर डालने वाले, ‘असली टुकड़े-टुकड़े गैंग’ के कितने ज़हर-भरे तीरों को नाकाम किया ?
8. ‘बोल के लब आज़ाद हैं तेरे, बोल जुबां अब तक तेरी है’
सड़ चुके, दरबारी गोदी मीडिया को लानतें भेजते वक़्त, हमें उन मीडिया कर्मियों के साहस को सलाम करना नहीं भूलना चाहिए, जो गिरफ्तारियों के डर बीच, सामने नज़र आ रहीं हथकड़ियों को नज़रंदाज़ कर, सच लिखने और झूठ के गुब्बारों को पंक्चर करने से बाज़ नहीं आ रहे. बहुत लोग साहस दिखा रहे हैं, डरने से मना कर रहे हैं, और इनकी तादाद, दिनोंदिन बढ़ती जा रही है. अभी सब कुछ बर्बाद नहीं हुआ है. सोशल मीडिया के कितने ही यू ट्यूबर, लालच को ठोकर मार रहे हैं. बिकने से इंकार कर रहे हैं. दर्शक भी उन्हें अपने प्यार और सम्मान से नवाज़ रहे हैं. लोगों ने, गोदी मीडिया देखना बंद कर दिया है. एकल यू ट्यूब चेनलों को करोड़ों लोग देख रहे हैं. इनकी तादाद, हालाँकि, विशालकाय सरकारी भोंपुओं के मुक़ाबले बहुत कम है, लेकिन फिर भी यह, इस घोर जन-विरोधी, मज़दूर-विरोधी, किसान-विरोधी निज़ाम की नींद हराम कर रही है. इसी तरह, जाने कितने साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक पत्र-पत्रिकाएं, बहुत ही सुंदर, निर्भीक राजनीतिक विश्लेषण प्रस्तुत कर रहे हैं. दरबारी स्टूडियो के बाहर, सड़क पर, राजनीतिक चर्चा-डिबेट अधिकाधिक जीवंत, सटीक और अर्थपूर्ण हो रहे हैं. सबसे बड़ी चुनौती है, समाज के ‘संवेदनशून्य, स्वार्थी और कायर तटस्थ सेगमेंट’ को जगाना, क्योंकि ये लोग सोए हुए नहीं हैं, सोने का ढोंग कर पड़े हुए हैं. निजी बातचीत कीजिए तो पता लगेगा, उन्हें सत्ता की हर ज़ुल्म-ओ-ज़्यादती का पता है लेकिन चाहते यही हैं, कि सब दूसरे ही करें. फ़ासीवाद की आंच जैसे-जैसे तेज़ होगी, तटस्थ रहना भी मुश्किल होता जाएगा. तटस्थ रहना मुश्किल करने के सचेत प्रयास भी किए जाने की ज़रूरत है.
9. चुनाव की सही रणनीति तैयार करना
फ़ासीवाद, पूंजीवादी सत्ता का ही सबसे कुरूप, ख़ूनी चेहरा है, यह निर्विवाद है. इसे चुनाव से नहीं पलटा जा सकता. वैसे भी फ़ासिस्ट बहुत दिन तक, चुनाव की ‘झंझट’ बरदाश्त नहीं करते. 2024 में देश में आख़री चुनाव होंगे, ये चर्चा बेमानी नहीं है. कोई भी बुर्जुआ पार्टी, फ़ासीवाद की जड़, अर्थात सड़ते हुए पूंजीवाद पर निर्णायक प्रहार नहीं कर सकती, वही तो इनकी ‘लाइफ लाइन’ है. इन तथ्यों के बावजूद, इन बुर्जुआ पार्टियों की कोई भूमिका ही नहीं बची, या भाजपा का चुनाव हारना, कोई अर्थ ही नहीं रखता, ये निष्कर्ष भी ठीक नहीं. देश के बिलकुल ताज़ा हालात, फ़ासीवाद के जनक, वित्तीय कॉर्पोरेट की सबसे पसंदीदा पार्टी, भाजपा-संघ के विपरीत जाते नज़र आ रहे हैं. फासिस्टों का यह टोला इस क़दर नंगा हो चुका, कि आम जन-मानस की घृणा, इनके प्रति दिनोंदिन तीखी होती जा रही है. ये कहना कि आगामी लोकसभा चुनावों में भाजपा की हार, भले वह कांग्रेस के ही हाथों क्यों ना हो, मायने नहीं रखती, ठीक नहीं. 2024 में, फिर एक बार भाजपा की जीत के परिदृश्य को सामने रखते ही, कांग्रेस की जीत वाला विकल्प आकर्षक लगने लगता है. क्रांतिकारी शक्तियों की हैसियत चुनाव जीतने की नहीं है, और अब इस बात का कोई महत्त्व भी नहीं रहा. ऐसे में, आगामी चुनावों में, कांग्रेस या किसी क्षेत्रीय बुर्जुआ पार्टी से कोई समझौता किए बगैर, प्रस्तावित फ़ासीवाद विरोधी क्रांतिकारी मोर्चे को, ‘भाजपा हराओ’, ‘भाजपा को एक भी वोट नहीं’ अभियान चलाना चाहिए. यह अभियान कांग्रेस अथवा किसी दूसरी क्षेत्रीय पार्टी के साथ नहीं, बल्कि ‘फ़ासीवाद विरोधी संयुक्त मोर्चे’ के बैनर और पम्फलेट के साथ चलाना चाहिए. वे क्यों भाजपा को हराना चाहते हैं, यह स्पष्ट करना चाहिए. चुनाव में भाजपा के हारने से, फ़ासीवाद का शिकंजा कुछ दिन ज़रूर ढीला पड़ेगा, और चूँकि चुनाव में हम कांग्रेस या क्षेत्रीय पार्टी के साथ नहीं थे, इसलिए कांग्रेस द्वारा वही, भाजपाई रास्ता पकड़ने पर, उसे निशाने पर लेकर, निर्णायक संघर्ष छेड़ने में भी कोई दिक्क़त नहीं होगी. सबसे महत्वपूर्ण बात, शोषित-पीड़ित, बेरोज़गारी, मंहगाई के पहाड़ तले पिसता जन-मानस भी यह समझ पाएगा, कि चुनाव में भी हम लोग निष्क्रिय तमाशबीन नहीं थे. जो लोग दूर खड़े रहकर, ज्ञान बांटते हैं, उन्हें कोई पसंद नहीं करता. चुनाव में भी फासीवाद विरोधी क्रांतिकारी मोर्चे सक्रिय भूमिका निभानी होगी.
10. असंगठित मज़दूरों को संघर्ष में उतारने के लिए, मज़दूर बस्तियों पर फ़ोकस करना
मज़दूरों की विशाल सेना का, एक बहुत सूक्ष्म हिस्सा, 6% ही संगठित क्षेत्र में है, और वह भी सिकुड़ता जा रहा है. ‘लेबर अरीस्टोक्रेसी’ की बीमारी भी इन्हीं में है. सर्वहारा का 94% लड़ाकू हिस्सा असंगठित है. वह हर रोज़ लड़ता है, हारता है लेकिन फिर लड़ता है. उसके सिवा उसके पास पर्याय नहीं. काम की जगह भी लड़ता है, और फिर रहने की जगह भी लड़ता है. कोई अधिकार नहीं, समूचा तंत्र उसका जानी दुश्मन है, फिर भी लड़ता है. इन लड़ाइयों ने, उसे लोहे-लाट का बना दिया है. यही है, क्रांति की अजेय सेना, मानव-मुक्ति की सेना. झुग्गी बस्तियों में घूम लीजिए, पता चल जाएगा, पूंजीवाद कैसा विकास लाया है. फ़रीदाबाद की 24 लाख की आबादी का 65% प्रतिशत, यहाँ की 60 मज़दूर बस्तियों में रहता है, और ये सभी विशाल, अनंत बस्तियां सरकारी फाइलों में अवैध हैं. सभी को तोड़ा जाना है. दिल्ली की भी लगभग 200 झुग्गी बस्तियों पर बुलडोज़र चलने हैं. अभी चुनाव नज़दीक आता जा रहा है, इसलिए बुलडोज़र गराज में हैं. चुनाव होते ही, गरजने, दनदनाने लगेंगे.
इन बस्तियों के निवासियों, देश के असली निर्माताओं के पास ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’ या ‘ऐतिहासिक भौतिकवाद’ सीखने का वक़्त नहीं. हर सुबह, इन्हें मानव श्रम की मंडियों, लेबर चौकों पर खड़ा होना होता है. इनमें राजनीति चेतना जागृत कर, वर्ग चेतना से लैस करने के लिए, इनकी दैनंदिन की, अक्षरसः जीवन-मरण की समस्याओं के समाधान के संघर्षों में शामिल होना होगा. समस्याओं की वहां कमी नहीं. उनकी समस्याओं को कुछ हद तक भी हल करने की औक़ात पूंजीवाद में नहीं बची. देश के सबसे कमेरे, 80% मज़दूर किन हालातों में रहने को मज़बूर थे, हमारी आने वाली नस्लें पूंजीवाद वाले अध्याय में पढ़ा करेंगी, तो विश्वास नहीं कर पाएंगी. फासिस्ट गिरोह भी इन बस्तियों को निशाने पर लिए हुए है, कृपया नोट किया जाए.
नूंह की दर्दनाक हिंसा के बाद, फ़िज़ा में, फ़ासीवाद विरोधी संघर्ष की, बहुत खूबसूरत सुगंध पसरने लगी है. कैसी भी शातिर तिकड़म, इंसान को हमेशा के लिए गुलाम नहीं बना सकती. जन-शक्ति से ताक़तवर कुछ भी नहीं. दरिया की लहरों को क़ैद नहीं किया जा सकता. विकास की नैसर्गिक धारा को रोका जाएगा, तो सैलाब उठना लाज़िमी है.
मिखाइल इवानोविच कोनदेंको (1906-1944), सोवियत लाल सेना में मेजर थे. उनकी गिनती सोवियत लाल सेना के सबसे बेहतरीन खिलाडियों में होती थी. 1938 में सोवियत संघ में हुई, लाल सेना की, अखिल सोवियत खेल-कूद प्रतियोगिता में उन्हें, मज़दूर-किसान रेड आर्मी का चैंपियन बनने का गौरव हांसिल हुआ था. नाजियों के विरुद्ध, सोवियत संघ के 1942 में सेवस्तीपोल में हुए, भीषण युद्ध में उन्होंने, सोवियत लाल सेना की, 109 वीं राइफल बटालियन का नेतृत्व किया था. बहुत सारे रुसी सैनिकों की तरह उन्हें भी, नाज़ी सैनिकों द्वारा बन्दी बना लिया गया था. सोवियत संघ के अंदर, नाज़ियों के क़ब्ज़े में आ चुके सोवियत संघ में, कई कैम्पों में यातनाएं देने के बाद, नाज़ियों ने, उन्हें म्यूनिख के पास, श्वेनस्ट्रासे ऑफिसर बंदी गृह में रखा था.
मिखाइल कोनदेंको, अक्षरश: मौत के जबड़े में थे. उन्हें कभी भी मारा जा सकता था. ऐसी हालत में भी, सोवियत संघ को बचाने के लिए, फ़ासीवाद विरोधी जंग में शामिल रहने के अपने फ़र्ज़ को, वे नहीं भूले. उन्होंने अपनी उसी काल-कोठरी से, नाज़ी विरोधी गोपनीय संगठन ‘बिरादराना युद्ध-बन्दी संघ’ (BSW) बनाने में अहम भूमिका निभाई. ये संगठन, नाजियों के हथियार उत्पादन कारखानों में, जहाँ ले जाकर, कैदियों से दास-मज़दूर की तरह काम कराया जाता था, तोड़-फोड़ की कार्यवाहियों को अंजाम देता था. इस संगठन का उद्देश्य था, सभी युद्ध बंदियों को संगठित करना, भले वे किसी भी देश के रहने वाले क्यों ना हों. साथ ही, जर्मनी में जो लोग, नाजियों का विरोध कर रहे हैं, उनसे संपर्क बनाया, जिससे आखिर में मित्र देशों की सेनाओं की मदद हो सके.
इस भूमिगत बीएमडब्लू संगठन से, कई सौ युद्ध बंदी जुड़ गए थे. इतना ही नहीं इस ग्रुप ने, विएना, बर्लिन और हैम्बर्ग के युद्ध बंदियों से भी संपर्क स्थापित कर लिया था और उन्होंने ‘नाज़ी-विरोधी जर्मन जन-मोर्चा’ से भी संपर्क व ताल-मेल प्रस्थापित कर लिया था. तब ही, नाज़ी ख़ूनी पुलिस गेस्टापो को इसकी भनक लग गई. मिखाइल कोनदेंको को, बे-इन्तेहा मारा गया और म्यूनिख के पास, सबसे कुख्यात ‘डखाओ कंसंट्रेशन कैंप (मतलब मानव बूचड़खाना)’ भेज दिया गया, जहां BSW संगठन के 91 सदस्यों के साथ, उन्हें 4 सितम्बर 1944 को फांसी पर लटका दिया गया. आज भी, म्यूनिख के प्रसिद्द, ‘लिबरेशन चौक’ पर जिन 12 सबसे वीर, नाज़ी विरोधी योद्धाओं की तस्वीरें, उनके संक्षिप्त परिचय के साथ लगी हैं, उनमें मिखाइल इवानोविच कोनदेंको भी शामिल हैं. ये गौरव हांसिल करने वाले, वे अकेले ग़ैर-जर्मन हैं.
ऐसे थे, लेनिन और स्टालिन की महान लाल सेना के दिलेर सिपाही, जिन्होंने विनाशकारी नाज़ी युद्ध मशीनरी को नेस्तोनाबूद किया था. ख़ूनी नाज़ी सेना को, सोवियत संघ से बर्लिन तक दौड़ाया था. स्वयंघोषित, ‘श्रेष्ठ मास्टर नस्ल’ वाला, वह पागल हिटलर, सारी जर्मनी को तबाह कर, चूहे की तरह बिल में छुप गया था. सोवियत सेना के जांबाजों के बूटों की धमक सुनाई पड़ते ही, कायर की तरह, उसने ख़ुद को गोली मार ली थी. मुसोलिनी की तो लाश को ही, उल्टा लटकाकर रखा गया था जिससे लोग उसके मुंह पर थूक सकें. हिटलर-मुसोलिनी के मौजूदा वारिस, चाहें तो इतिहास से सबक़ ले सकते हैं. मार्क्सवाद-लेनिनवाद के महान शिक्षकों के बताए रास्ते चलने वाले मज़दूर, अपनी ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी को आज भी ज़रूर निभाएँगे. पूंजीवाद, मानव विकास यात्रा का आख़री पड़ाव नहीं हो सकता. फ़ासीवाद का मौजूदा संस्करण, उसकी अंतिम निर्णायक मौत का ऐलान है. पूंजीवाद की क़ब्र ख़ुद रही है.
- क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा,
1917, आज़ाद नगर, सेक्टर 24, फ़रीदाबाद-121005 की ओर से, महासचिव कॉमरेड सत्यवीर सिंह ने ज़ारी किया. बेबाग प्रतिक्रियाएं आमंत्रित हैं.
फ़रीदाबाद, दिनांक 27 अगस्त 2023
सत्यवीर सिंह 8383841789,
नरेश 9868483444,
kmm.faridabad@gmail.com