अग्नि आलोक
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*तुम्हारी देह मेरा घर*

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       ~ रश्मिप्रभा सिंह

एक अकेली कुर्सी में
तुम्हारी जाँघों पर
कोमलता से थमी
रहती हूँ मैं
जैसे मकड़ी के जाले पर
ओस की बूँदे
थमी रहती हैं.

उज़बक नामों की पंखुड़ियाँ हैं
जो अंजुली भर-भर कर तुम मुझपर
लाड़ में न्योछावर करते हो

जिस भाषा में तुम मेरे लिए गीत लिखते हो
उसका लहजा आँसू धुले गालों जितना कोमल है

तुम्हारी बाँहों की सिरहनी तक मैं
नर्म नींद की तलाश में पहुचती हूँ
उनींदी बरौनियाँ तुम्हारे दिल के
ठीक ऊपर दस्तक देती है
तुम्हारे ह्रदय की साँकल बजा कर मैं
मीलों तक चले घायल सैनिक की तरह
वहीं ढेर हो जाती हूँ

तुम्हारे सवालों के जवाब
मेरे थके होठों तक कभी नही पहुँच पाते
तुम जो हिदायते देते हो उन्हें मैं
मीठे सपनों के अधबुने दृश्यों में दोहराती हूँ

नींद की रातों में तुम्हारे सीने में
छुपा रहता है मेरा आधा चेहरा
मैं जानती हूँ एक दिन जब मैं जागूँगी
खाट की रस्सी से नंगी पीठ पर बने निशानों की तरह
मेरे चेहरे पर तुम्हारे दिल में छिपे सब दुःख छपे मिलेंगे

हजारों साल बाद एक दिन जब पुरातत्ववेत्ता
तुम्हारी पसलियाँ ख़ुदाई से निकालेंगे
तब वहाँ चारो तरफ मेरी उँगलियों से बुना संगीत गूँजेगा

एक दिन मुझसे शिकायत की थी तुमने
तुम मुझे पत्थर की दिवार क्यों कहती हो?
सुनो कि अक्सर मुझे लगता है
मैं गर्वीली शेरनी हूं तुम पत्थर की वह गुफा
जिसमे मेरे सपनों के भित्तिचित्र अंकित है

तुम्हारी देह मेरा वह घर है
जहाँ मैं झांझ-पानी से
बचने के लिए शरण लेती हूं

मेरी नींद का भरोसा हो तुम
मैं तुम्हारी रगों में बहते खून की सुगबुगाहट हूँ
जब मैं यह लिख रही हूँ तब मैं जानती हूँ
कि घोंसले भी चिड़ियों के लौट आने की प्रतीक्षा करते हैं

चाँदनी में स्थिर सोता तालाब हो तुम
तुम्हारी देह मेरी अनियंत्रित साँसों की कारीगरी से बने
सिहरनों के वलय-वस्त्र धारण करती है

अनखुली कलियों की नाज़ुक चुभन का
शोर है तुम्हारी उँगलियाँ
जिनकी नोक से मेरी त्वचा पर तुम
सुगंधों के झालरदार गोदने उकेरते हो

पांत में सटकर लगे असंख्य बारहसिंगे
तुम्हारी पलकों के कोरों पर झुककर
अपनी प्यास बुझाते हैं

अँधेरे झुरमुट की तरफ सावधान होकर
भागते खरगोश की तरह
रौशनी, तुम्हारी काली आँखों तक भागकर जाती है
वह भी जानती है कि तुम घर हो उसका
तुम्हारे भीतर समा कर वह खुद को बचा लेगी
बिलकुल मेरी ही तरह

नसों में चाबुक की तेज़ी से लपकता है रक्त
कामना के मारीच देह पर
मुक्ति की आस लिए चौकड़ी भरते हैं
मेरी हथेलियों पर उगे ग्रहों का जाल
तुम्हारी देह की नखरीले कांपों का भविष्य रचता है

मुझे पत्थर होने की शिक्षा मिली थी
तुम्हें प्यार करने के लिए मुझे हवा होना पड़ा
मैंने जाना जुड़े रहना सही तरीक़ा है
लेकिन समस्या से नही समाधान से

तुम्हें बता सकूँ कि कितनी निर्दोष है तुम्हारी आँखें
इसलिए मैंने उन छतों को देखा जिनमें गुम्बद नही थे

तुम हो तो तुम्हारे होने के कई अनुवाद हैं
तुम हो तो दुःख हैं
तुम हो तो सुख हैं
तुम हो जो मेरे अंदर कविता बनकर उगते हो
तुम हो जो मेरे भीतर अवसाद की धुंधलाती शाम बनकर डूबते हो
तुम ही हो जिसकी बाहों की गर्माहट से
मेरी दुनिया की सबसे गुनगुनी सुबहें उपजती हैं

तुम्हारा प्यार मेरे जीवन का सबसे मासूम स्वार्थ है
तुम्हारे होने का मतलब मुंडेर पर टिकी
भूरी गौरय्या का जोड़ा है
जो फुरसत में एक दूसरे का सिर खुजाते हैं

सुनो, मेरे पास बैठ जाओ और मुस्कराओ
यकीन मानो सिर्फ ऐसे ही मैं
दुनिया की सबसे सुन्दर कविता लिख सकती हूँ

मुस्कराओ कि अब भी बाकी है सर्दियों की कई रातें
जो कतई मेरा नुकसान करने की कुव्वत रखती हैं।

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