अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

बिलकीस बानो मामला :….11 दोषी पैरोल, फ़र्लो और अस्थायी जमानत पर 1,000 से अधिक दिनों के लिए जेल से बाहर रहे थे

Share

तुषार कोहली

15 सितम्बर को सुप्रीम कोर्ट की एक खंडपीठ ने 2002 के गुजरात नरसंहार के दौरान बिलकीस बानो के साथ किए गए सामूहिक बलात्कार और उसके परिवार के 11 सदस्यों की हत्या के दोषी में से एक की दलीलें सुनी।

न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां की खंडपीठ 11 दोषियों की सजा माफ करने के गुजरात सरकार के अगस्त 2022 के फैसले के खिलाफ याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है।

दोषियों में से एक, रमेश चंदना की ओर से पेश वरिष्ठ वकील सिद्धार्थ लूथरा ने अदालत को बताया कि उनके मुवक्किल की सजा में दी गई छूट, राज्य के सुधारात्मक दृष्टिकोण के अनुरूप थी।

लूथरा ने तर्क दिया कि चूंकि उनके मुवक्किल को मौत की नहीं बल्कि उम्रकैद की सजा दी गई थी, इसलिए अदालत ने सोच-समझकर दोषी व्यक्ति में सुधार की गुंजाइश को खुला रखा  था।

उन्होंने जोर देकर कहा कि इस मामले में केवल दो “वास्तविक मुद्दों” पर विचार किया जाना बाकी है: “क्या छूट नीति का सही ढंग से इस्तेमाल किया गया था, और क्या उस नीति के ज़रिए से दिया गया निर्णय न्यायिक समीक्षा के लिए उचित है।”

क्या सभी दोषी समान हैं?

31 अगस्त को पिछली सुनवाई में लूथरा ने बेंच को बताया था कि दोषी ठहराने वाली अदालत, यानि मुंबई की सत्र अदालत द्वारा लगाया गया जुर्माना अदा कर दिया गया है। उक्त जुर्माना 2008 में लगाया गया था।

इस पर कुछ याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि, भुगतान तब किया गया जब जुर्माने का भुगतान न करने के कारण छूट ‘अवैध’ मानी जाती क्योंकि दोषियों को तब भुगतान डिफ़ॉल्ट के तहत सजा काटनी थी।

दिनांक 31 अगस्त को हुई सुनवाई में बेंच ने इस स्तर पर जुर्माना भरने की जरूरत पर सवाल उठाया था। 

आज, लूथरा ने तर्क दिया कि जुर्माने के डिफ़ॉल्ट पर कारावास शब्द के पारंपरिक अर्थ में ‘सजा’ नहीं है। उन्होंने कहा, “यह एक जुर्माना है जो जुर्माना न चुकाने पर व्यक्ति पर लगाया जाता है।”

न्यायमूर्ति नागरत्ना ने याचिकाकर्ताओं की इस दलील पर आपत्ति जताई कि रिहाई से पहले राज्य सरकार ने जुर्माना न चुकाने के पहलू पर विचार नहीं किया था।

लेकिन लूथरा ने तर्क दिया कि किसी दोषी की सजा माफ करने का निर्णय लेने में राज्य सरकार के समक्ष जुर्माने का भुगतान न करने पर विचार नहीं किया जाना चाहिए।

“जुर्माना न चुकाने की सजा माफी का विषय नहीं है और ऐसा हो भी नहीं सकता क्योंकि यह एक अलग मामला है। इसलिए, इसका छूट आदेश की योग्यता या वैधता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। 

“भुगतान न करना छूट आदेश के लिए घातक नहीं है क्योंकि जो माफ़ किया जा रहा है वह मूल सजा या मूल सजा में कमी है।”

न्यायमूर्ति भुइयां ने पिछली सुनवाई में पूछे गए सवाल को दोहराते हुए पूछा कि क्या दोषियों द्वारा किए गए अपराधों प्रति उनमें कोई पश्चाताप दिखा है या महसूस् किया है, और फिर लूथरा से पूछा कि, “क्या यह (जुर्माना न चुकाना) दोषी के आचरण के दायरे में नहीं आता है।”?”

1992 की गुजरात छूट नीति के तहत दोषियों की सजा माफी के आवेदन पर निर्णय लेते समय राज्य सरकार ने सजा के बाद से उनके आचरण की जांच की थी। यह स्पष्ट नहीं है कि इस जांच के दौरान जुर्माना न भरने पर विचार किया गया था या नहीं।

इसके बाद लूथरा ने यह तर्क देना चाहा कि उनके मुवक्किल के पास जुर्माना भरने की वित्तीय क्षमता नहीं थी। 

लूथरा ने कहा कि, “[पंद्रह] साल की हिरासत। क्या भुगतान करने की क्षमता होनी चाहिए… मायलॉर्डशीप मुझे आपको वास्तविकता बतानी होगी। मुद्दा यह है: (जेल में जीवन) पूरी तरह से कटा हुआ जीवन होता है। आप [घर से] दूर हैं। आप एक मजदूर बनकर रह जाते हैं। आपके पास [आय का] कोई स्रोत नहीं होता है”।

न्यायमूर्ति नागरत्ना ने तीखी टिप्पणी करते हुए कहा कि, “लेकिन इस केस में, उन्हें कई दिनों तक एक साथ बाहर आने का सौभाग्य मिला। कई दिन और कई बार!” 

कैद की अवधि के दौरान, 11 दोषी पैरोल, फ़र्लो और अस्थायी जमानत पर 1,000 से अधिक दिनों के लिए जेल से बाहर रहे थे।

लूथरा, न्यायमूर्ति नागरत्ना से सहमत हुए, लेकिन उन्होंने कहा कि दोषी केवल कोविड महामारी के दौरान ही बाहर आए थे।

लूथरा ने पीठ को आश्वस्त करते हुए कहा कि रिकॉर्ड मेरे पास है, “मैं उसे पेश करूँगा।” 

न्यायमूर्ति नागरत्ना ने फिर से कहा कि, “लेकिन कुछ दोषी ऐसे भी हैं जिन्हें दूसरों के मुक़ाबले, विशेषाधिकार हासिल हैं, नहीं?”

लूथरा ने अपनी स्थिति को स्पष्ट करने की कोशिश करते हुए कहा, “मैं जो बात स्पष्ट करना चाहता हूं, वह यह है कि हर दोषी “समान नहीं है,” न्यायमूर्ति नागरत्ना ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा। जिससे अदालत में थोड़ी देर के लिए हंसी फूट पड़ी।

लूथरा ने स्थिति को बदलने का प्रयास करते हुए कहा कि, “यॉर लेडीशिप ने मेरे मुंह से शब्द छीन लिए हैं।”

लूथरा ने बहस समाप्त करते हुए कहा कि, “हर दोषी एक जैसा नहीं होता और हर दोषी को सुधार और उदार नजरिए से देखा जाना चाहिए।”

खंडपीठ ने मामले की अगली सुनवाई 20 सितंबर की तय की है।

लेखक द लीफ़लेट में स्टाफ़ राइटर हैं, जिन्हें (काम के बाद) पत्रिकाएँ पढ़ना और डॉक्यूमेंट्री देखना पसंद है। उनसे tushar.kohli@theleaflet.in पर संपर्क किया जा सकता है।

सौजन्य: द लीफ़लेट 

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें