नदीम
मानसून का शिद्दत से इंतजार होता है। बहुत पहले से लोग उसकी आमद की आहट सुनने बेकरार दिखते हैं। कब तक आएगा, पहले यह खबर तलाशते रहते हैं और फिर कहां तक पहुंचा इसकी फिक्र में लोग लग जाते हैं लेकिन उसकी पहली बारिश ही उन्हें ऐसा रुला देती है कि वह ख्वाहिशमंद हो जाते हैं कि अब बारिश न हो। ऐसा नहीं कि लोगों को बारिश अच्छी नहीं लगती। बारिश का तो अपना एक अलग आनंद है, भारतीय फिल्मों में तो सबसे ज्यादा रोमांटिक गाने बारिश में फिल्माए जाते रहे हैं लेकिन यहां दिक्कत बारिश की है ही नहीं बल्िक यहां बारिश होते ही सड़के धसने लग जाती है, नालों से लेकर घरों तक में पानी उफान मारने लग जाता है, और इन सबके जरिए सड़कों पर जो चौतरफा जाम की स्थिति बनती है, उसकी वजह से लोगों का बारिश से तौबा करना स्वाभाविक से हो जाता है। यह बारिश तब और भी डरावनी लगने लग जाती है जब कभी सड़क धसने से, कभी पानी में बिजली का करंट उतर आने से मौत की खबरें आना शुरू हो जाती हैं।
सवाल उठता है कि ऐसी स्थिति बनती क्यों है? ऐसा तो है नहीं कि बारिश कोई पहली दफा आने वाली चीज है? जिसको लेकर कोई अंदाजा नहीं लगाया जा सका, जैसे कोराना था। उसमें तो यह तर्क न्यायोचित लगता था कि ऐसी बीमारी को तो पहले कभी नाम ही नहीं सुना गया था, उसकी भयावहता का भी कुछ अंदाजा नहीं था, ऐसे में पहले से उसके रोकथाम के कोई इंतजाम नहीं किए जा सके लेकिन मानसून के तो तयशुदा महीने हैं। उसे उन्हीं महीनों में आना है। ऐसा भी नहीं कि मानसून ने हाल फिलहाल के वर्षों में आना शुरू किया हो, उसे समझा नहीं जा पा रहा है। मानसून के जब आने का वक्त तय है तो उसकी आमद पर जिन मुश्किलों से दो-चार होना पड़ता है, उनसे निपटने का अब तक कोई स्थाई हल क्यों नहीं तलाशे जा पाए हैं? मानसून की पहली बारिश में ही शहरों में जो त्राहि-त्राहि होती है, उसके मूल में है ड्रेनेज सिस्टम। ऐसा नहीं है कि जो सरकारी मशीनरी है, उसे इतनी बुनियादी बात नहीं मालूम है, मालूम सब है लेकिन नियत दुरुस्त नहीं है। मानसून आने से पहले से ही नालों की साफ-सफाई का माहौल बनने लगता है। नालों की साफ-सफाई का हर साल अच्छा खासा बजट तय होता है। खर्च भी होता है, भले ही कागजों पर होता हो। अगर बजट बज गया तो फिर क्या फायदा? और अब तो मीडिया में स्पेस पाने को या यूं कहें सत्ता शीर्ष की नजरों में अपने नम्बर बढ़वाने को कुछ नए तौर-तरीके आजमाने की बात भी अधिकारी करने लग जाते हैं, जैसे इस साल ही नगर विकास विभाग के एक अफसर का बयान पढ़ने को मिला था- ‘अब ड्रोन कैमरे से शहरों में नाले-नालियों की सफाई का सर्वे कराएगी। नगरीय निकायों को 25 जून तक नाले-नाली के सर्वे का वीडियो व फोटो स्थानीय निकाय निदेशालय को भेजना होगा।’ लेकिन हुआ क्या?
मानसून की पहली बारिश में ही दूसरे शहरों की बात तो दरकिनार राजधानी लखनऊ पानी उतराता दिख रहा है। ऐसा लग रहा है कि बारिश के मद्देनजर सरकारी मशीनरी ने कोई इंतजाम ही नहीं किए। सड़कों की बात दूर तमाम मोहल्ले ऐसे हैं, जहां बारिश होते ही घरों में पानी अपनी जगह बनाता दिख जाता है। ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हो रहा है। पिछली बारिश में भी ऐसा ही हुआ था, अगर पुराने अखबारों की फाइल पलटे तो उससे पहले साल भी ऐसा होता दिखा था। उससे भी पहले साल भी और उससे पहले साल भी। हर साल एक और कॉमन बात देखने को मिल जाएगी, वह है अधिकारियों का दावा- ‘ इस बार से मिले सबक से, अगले साल मानसून से पहले ऐसे मजबूत इंतजाम किए जाएंगे, ऐसी स्थिति न उत्पन्न होने पाए।’ लेकिन ऐसी नौबत कभी नहीं आई। सरकारी मशीनरी के इंतजाम बारिश में दिखे ही नहीं, िदखते तो तभी जब किए गए होते। सरकारी मशीनरी के लिए तसल्ली का सबब यह रहता है कि कभी उसकी जिम्मेदारी तय ही नहीं होती। कभी उससे यह पूछा ही नहीं गया कि नालों की सफाई पर अगर सारा बजट खर्च हो गया तो नाले साफ किए नहीं हुए? अगर साफ किए गए थे तो फिर जल निकासी क्यों नहीं हुई? लेकिन नाले वह जरिया बन गए हैं, जिनके उफान के जरिए नोटों की गड्डियां अफसरों की तिजाेरियों तक पहुंचती हैं और फिर वह नालों को साफ करना चाहेंगे? वह तो हर साल नालों में उफान ही देखना चाहेंगे। बात सिर्फ नालों की नहीं, एक-एक बारिश में नई सड़कें धंसी जा रही हैं, सड़के भी पहली बार नहीं धस रही हैं, यह ट्रेंड बनता दिख रहा है। इनको बनाने में कहां चूक हो रही है? शायद सबसे बड़ी चूक यही है कि सरकारी मशीनरी की नीयत में खोट आ चुका है। उसकी नीयत बदलना जरूरी हो गया है।