अग्नि आलोक
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रीढ़ टूट चुकी है भारतीय अर्थव्यवस्था की

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अर्जुन प्रसाद सिंह

’भारत की ’आजादी’ के 75 वर्ष पूरा होने पर राजग की नरेन्द्र मोदी सरकार इस अवसर को ‘अमृत काल’ के रूप में मना रही है. वैदिक ज्योतिष में ’अमृत काल’ का मतलब शुभमुहूर्त होता है. इस अवसर पर नरेन्द्र मोदी सरकार ने ‘भारत के विकास’ के लिए अगले 25 साल का एक ’रोड मैप तैयार किया है.

15 अगस्त, 2022 को लाल किला से भाषण देते हुए नरेन्द्र मोदी ने कहा कि भारत के विकास के लिए अगला 25 साल (यानी 2023 से 2047) काफी महत्वपूर्ण है. साथ ही, उन्होंने इसी भाषण में अपनी सरकार के ’पंच प्रण’ की भी घोषणा की जिसमें – (क) विकसित भारत, (ख) गुलामी से मुक्ति, (ग) विरासत पर गर्व, (घ) नागरिकों के कर्त्तव्य एवं (च) एकता व एकजुटता शामिल हैं.

नरेन्द्र मोदी सरकार ने 2023-24 के बजट को ‘अमृत काल’ को राह दिखाने वाली प्राथमिकता का बजट और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इसे ‘अमृत काल’ का पहला बजट बताया. इस सरकार ने 2027 तक भारत को विश्व की तीसरी अर्थव्यवस्था बनाने और 2047 तक एक ’विकसित अर्थव्यवस्था’ में तब्दील करने का लक्ष्य तय किया. इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए इसमें सालाना 8-9 प्रतिशत की विकास दर को बनाये रखना जरूरी माना है.

लेकिन नरेन्द्र मोदी सरकार के ’आर्थिक विकास’ एवं ’विकसित भारत’ का असली निहितार्थ क्या है, यह पिछले 9 सालों के शासन में भारत की जनता के सामने काफी हद तक स्पष्ट हो गया है. अमृत काल के पहले बजट के प्रावधानों का विश्लेषण करें तो इस सरकार की असली मंशा स्पष्ट हो जाती है.

अमृत काल का ‘पहला बजट’

बजट 2023-24 के बारे में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि यह बजट ’वंचितों को वरीयता देता है, यह आज के आकांक्षी समाज गांव, गरीब, किसान, मध्यम वर्ग, सभी के सपनों को पूरा करेगा.’ गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि यह बजट ‘अमृत काल’ की मजबूत आधारशिला रखने वाला है… यह केन्द्र सरकार की सशक्त बुनियादी ढांचे और मजबूत अर्थव्यवस्था वाले नये भारत बनाने की दूरदर्शिता को दर्शाता है.’

जबकि सच्चाई यह है कि इस बजट में पुलिस, सेना एवं कारपोरेट घरानों एवं बड़े पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए अधिसंरचना के निर्माण जैसे मदों में आवंटन को बढ़ाया गया है और कृषि एवं ग्रामीण विकास सम्बंधी क्षेत्रों और कई कल्याणकारी योजनाओं के मदों में आवंटन में कटौतियां की गई हैं.

इस बजट में किसानों की आय को दोगुना करने, न्यूनतम समर्थन मूल्य के सम्बंध में कानूनी गारंटी करने एवं किसानों के कर्जों को रद्द करने की कोई बात नहीं की गई है. लेकिन इस बजट में पूंजीपतियों के उपक्रमों के लिए आवंटन बढ़ाया गया है और ऋण लेने की सुविधा को आसान बना दिया गया है. कुल मिलाकर ‘अमृत काल’ का पहला बजट कॉरपोरेटपक्षीय एवं जन विरोधी है. इसी तरह 25 साल का पूरा अमृतकाल ही कॉरपोरेट घरानों एवं बड़े पूँजीपतियों का हितैषी होगा.

भारत सरकार आजादी के 75 साल का जश्न मना रही है और इसके लिए यह करोड़ों रूपये खर्च कर भारत के चौतरफा विकास का जोर-शोर से प्रचार कर रही है. जबकि तथ्य यह है कि पिछले 75 सालों में देश के पूँजीपतियों का विकास हुआ है और आम मेहनतक़श जनता (खासकर किसानों एवं मजदूरों) की माली हालत अपेक्षाकृत बिगड़ी है. गरीबी, तंगहाली एवं कर्ज जाल में फंसकर लाखों किसानों-मजदूरों को आत्महत्या तक करने को बाध्य होना पड़ा है.

विगत 75 सालों में हुए आर्थिक विकास की असली तस्वीर

आईये, हम विगत 75 सालों में हुए आर्थिक विकास की असली तस्वीर पर नजर डालें.

1. अर्थव्यवस्था की गिरती विकास दर

जब नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में 2014 में राजग की केन्द्र सरकार सत्तासीन हुई थी तो उस समय सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की विकास दर 7-8 प्रतिशत के बीच थी, लेकिन यह आगे घटना शुरू हुई और 2019-20 में गिरकर 3.87 प्रतिशत तक पहुंच गयी. 2020-21 में कोविड लॉकडाउन के चलते जीडीपी की विकास दर -5.83 प्रतिशत तक नकारात्मक हो गई और इस वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल-जून 2021) में तो अर्थव्यवस्था के आकार में 24.4 प्रतिशत का सिकुड़न हुआ था.

इसके बाद सरकारी आंकड़ों में जीडीपी विकास दर को बढ़ना दिखाया गया है- 2021-22 में 9.05 प्रतिशत और 2022-23 में 7 प्रतिशत. अगर हम इस विकास दर को वार्षिक महंगाई दर से समायोजित करें तो वास्तव में विकास दर 1 प्रतिशत से भी कम हो जायेगी. भारतीय अर्थव्यवस्था के संकुचन एवं विकास दर में गिरावट को देखते हुए विश्व बैंक ने भारत के विकासशील देश से दर्जा घटा कर उसे लोअर मिडल इनकम श्रेणी में डाल दिया है.

आईएमएफ ने अनुमान लगाया है कि 2025 तक भारत बांग्लादेश से भी गरीब देश बन जायेगा. विश्व बैंक का भी आकलन है कि शीघ्र भारत घाना व जामिया जैसे गरीब देश बन जायेगा. लेकिन इसके बावजूद नरेन्द्र मोदी की फेकू सरकार 2023-24 एवं 2024-25 में जीडीपी की विकास दर क्रमशः 7.50 प्रतिशत एवं 7.70 प्रतिशत रहने का अनुमान लगा रही है. इतना ही नहीं, भारत को 2027 तक विश्व की तीसरी अर्थव्यवस्था बनाने की भारत सरकार दावा कर रही है.

2. गरीबी-अमीरी की बढ़ती खाई

ध्यान देने की बात है कि जीडीपी की विकास दर को देश और जनता के वार्षिक विकास के रूप में समझना एक भारी भूल होगी, क्योंकि इस विकास दर में अम्बानी, अडानी जैसे कॉरपोरेट घरानों की सम्पतियों के विकास का बड़ा हिस्सा शामिल होता है.

वैश्विक असमानता रिपोर्ट 2022 में कहा गया है कि भारत एक गरीब एवं अत्यन्त असमानता वाला देश है, जहां अभिजात वर्ग प्रभावी है. वहां मात्र 10 प्रतिशत लोगों के पास राष्ट्रीय आय का 57 प्रतिशत और 1 प्रतिशत लोगों के पास राष्ट्रीय आय का 22 प्रतिशत है. भारत के सबसे गरीब 50 प्रतिशत लोगों के पास मात्र 13 प्रतिशत सम्पत्ति है. यहां मध्य वर्ग भी सापेक्षिक रूप से गरीब है और इसकी आय राष्ट्रीय आय का 29 प्रतिशत है.

औसत रूप से एक भारतीय की वार्षिक आय 2,04,000 रूपये है जबकि सबसे गरीब 50 प्रतिशत भारतीय मात्र 53,610 रुपये की वार्षिक आय में गुजारा करते हैं. हाल के बहुआयामी गरीबी सूचकांक के अनुसार भारत के 4 व्यक्ति में से एक बहुयामी गरीब है. बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआई) संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) द्वारा ऑक्सफोर्ड गरीबी एवं मानव विकास पहल के सहयोग से हर साल प्रकाशित किया जाता है.

एमपीआई के अनुसार अभी भारत में 23 करोड़ से अधिक लोग गरीबी में रह रहे हैं, जबकि देश के अमीरों की सम्पत्ति एवं संख्या तेजी से बढ रही है. 2020 में देश में कुल 102 अरबपति थे, जिनकी संख्या 2021 में एवं 2022 में क्रमशः बढ़कर 142 एवं 215 हो गई. हाल में ‘हुरून’ द्वारा जारी सूची के अनुसार पिछले 40 सालों में भारतीय अरबपतियों की कुल सम्पत्ति में 70,000 करोड़ डॉलर की वृद्धि हुई हैं. जबकि दूसरी ओर देश में गरीबी बढ़ी है एवं करीब 85 प्रतिशत भारतीय परिवारों की वास्तविक आय में गिरावट आई है.

वैश्विक भूखमरी सूचकांक, 2022 के मुताबिक भारत का स्थान 121 देशों में 107वां है, जो 2020 में 94वां और 2021 में 101वां था. इस मामले में भारत अपने पड़ोसी देशों, जैसे नेपाल, बांग्लादेश एवं पाकिस्तान से पिछड़ गया है. इसी तरह विश्व खुशियाली सूचकांक 2022 के मुताबिक भारत का स्थान 146 देशों में 135 वां था, जो नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान, म्यांमार एवं श्रीलंका से भी पीछे था।श. इसमें 2023 में थोड़ा सुधार हुआ है और भारत इस मामले में 132 देशों की सूची में 126 वां स्थान पर आ गया है. यह नरेन्द्र मोदी के ‘सबका साथ-सबका विकास-सबका विश्वास’ के बहुप्रचारित नारे की हकीकत है.

3. बढ़ती महंगाई की मार

मेहनतकश जनता की एक तो वास्तविक आय घटी है और दूसरे मंहगाई की मार ने उनकी कमर तोड़ दी है. खासकर, मोदी सरकार ने पेट्रोल, डीजल एवं रसोई गैस पर एक्साइज ड्यूटी को काफी बढ़ाया है. 2014 में पेट्रोल एवं डीजल पर प्रति लीटर एक्साइज ड्यूटी क्रमशः 9.48 रुपये एवं 3.56 रुपये थी, जिसे जुलाई 2021 तक बढाकर 32.9 रुपये एवं 31.80 रूपये कर दिया गया.

नतीजतन, देश में पेट्रोल 125 रूपये एवं डीजल 400 रूपये प्रति लीटर तक बिकने लगे. रसोई गैस के एक सिलिण्डर का दाम 2014 में 410 रुपये था, जो 2023 में बढ़कर 1,100 रूपये से अधिक हो गया. हाल में, 2024 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर रसोई गैस के दाम में प्रति सिलिण्डर 200 रुपये की कमी की गई है, जो नाकाफी है.

एक आंकड़े के मुताबिक पिछले दो सालों (2020-21 एवं 2021-22) में भारत सरकार ने पेट्रोलियम पदार्थों पर कर बढ़ाकर 8,16,126 करोड रूपये की अतिरिक्त कमाई की है. इसी दौरान तेल कम्पनियों को भी 72,532 करोड़ रूपये का अतिरिक्त लाभ हुआ है. इस तरह मात्र दो सालों में जनता की कुल 8,88,658 करोड़ रूपये की गाढ़ी कमाई लूट ली गई है.

हाल में खाद्य सामग्रियों पर भी जीएसटी लगाया गया है और आटा, दाल एवं सब्जियों के दामों में काफी बढ़ोतरी हुई है. हाल में देश के विभिन्न भागों में टमाटर के भाव 250 रूपये प्रति किलो तक हो गये और आडाणी के गोदामों में हजारों टन टमाटर भरे पड़े दिखाई दिये. नरेन्द्र मोदी के शासन काल में महंगाई दर में भी लगातार वृद्धि हुई है.

फरवरी 2022 में थोक मंहगाई दर 13.11 प्रतिशत एवं खुदरा महंगाई दर 6.09 प्रतिशत थी, जो मार्च 2022 में बढ़कर क्रमशः 14.55 प्रतिशत एवं 6.95 प्रतिशत हो गई. फिर अप्रैल 2022 में खुदरा महंगाई दर बढ़कर 7.79 प्रतिशत हो गई, जो पिछले 8 माह का उच्चतम स्तर था और थोक महंगाई दर 15.08 प्रतिशत हो गई.

अभी हाल में जुलाई 2023 की खुदरा मंहगाई दर प्रकाशित हुई है जिसे 7.44 प्रतिशत बताया गया है. रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया ने उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के 4.85 से 7.60 प्रतिशत की सीमा में रहने का अनुमान लगाया है, लेकिन ज्यादातर आर्थिक विश्लेषकों का अनुमान है कि 2023-24 में सीपीआई आरबीआई की सीमा को पार कर जायेगी.

4. बेरोजगारी की बढ़ती रफ्तार

हमारे देश में आजादी’ के बाद जो पूंजीवादी विकास मॉडल अपनाने गये, उसके तहत सभी कार्यसक्षम लोगों को रोजगार नहीं दिया जा सकता है इसलिए बेरोजगारी इस विकास मॉडल की शुरू से ही सह-उत्पाद रही है. नरेन्द्र मोदी ने 2014 के अपने चुनावी भाषण में कहा था कि अगर उनकी सरकार केन्द्र की सत्ता में आई तो प्रति साल 2 करोड़ लोगों के लिए नये रोजगार की व्यवस्था की जायेगी. लेकिन तथ्य यह है कि इनके कार्यकाल में लगातार रोजगार कम होते रहे हैं.

सेन्टर फॉर मानिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के अनुसार देश में आज करीब 80 करोड़ लोग कार्य सक्षम हैं, लेकिन उनमें से केवल 50 प्रतिशत लोगों (यानी 40 करोड़) को काम मिला हुआ है. विश्वसनीय आंकड़ों के मुताबिक 40 करोड़ से अधिक लोग बेरोजगार हैं. हमारे देश में बेरोजगारी पर के हालिया आंकड़े इस प्रकार हैं –

तालिका- 1

साल                                            बेरोजगारी (%)

जनवरी 2022                                 8.2 प्रतिशत
अप्रैल 2022                                  7.6 प्रतिशत
जुलाई-सितम्बर 2022                      7.2 प्रतिशत
अक्टूबर-दिसम्बर 2022                    7.2 प्रतिशत
जनवरी-मार्च 2023                          6.8 प्रतिशत
अप्रैल 2023                                  8.11 प्रतिशत
(अप्रैल 2023 में शहरी बेरोजगारी        9.81 प्रतिशत़)
जुलाई 2023                                 9.1 प्रतिशत

ये सभी आंकडे सीएमआईई द्वारा उपलब्ध कराये गये हैं.

देश के नौजवानों को बरगलाने के लिए केन्द्र सरकार रोजगार सृजन के नकली आंकड़े पेश कर रही है. प्रधानमंत्री ने जून 2023 में घोषणा भी की है कि अगले डेढ़ साल में 10 लाख लोगों को रोजगार मुहैय्या कराया जाएगा. इसके लिए दर्जनों रोजगार मेले लगाकर नियुक्ति पत्र बांटने का सिलसिला जारी है.

हाल में केन्द्र सरकार ने देश के नौजवानों को मात्र 4 साल के लिए सेना की नौकरी देकर ‘अग्निवीर’ बनाने की कोशिश की है. रोजगार की इस योजना के खिलाफ छात्रों-नौजवानों ने देश व्यापी जुझारू आन्दोलन किया है और वे अभी भी करीब 150 युवा संगठनों का एक अखिल भारतीय मोर्चा बनाकर संघर्ष कर रहे हैं. वे रोजगार की गारंटी के लिए एक कानून बनाने और रोजगार को मौलिक अधिकार में शामिल करने की मांग को जोर-शोर से उठा रहे हैं.

हमारे देश में सबसे ज्यादा रोजगार कृषि एवं सम्बद्ध छात्रों द्वारा मुहैय्या कराया जाता है. लेकिन पिछले कुछ दशकों से कृषि क्षेत्र में रोजगार लगातार घट रहा है –

तालिका – 2

साल                  रोजगार का प्रतिशत

1980               70
1999-2000     60
2011-2012     49
2022-2023     40

केन्द्र सरकार ने ग्रामीण मजदूरों को रोजगार मुहैय्या कराने के लिए महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) शुरू की थी. लेकिन पिछले कुछ सालों से इस योजना के बजटीय आवंटन में कटौती की जा रही है. पिछले 4 सालों के बजटीय आवंटन पर गौर करें –

तालिका -3

साल                 बजटीय आवंटन (करोड़ रूपये में)

2020-21         1,14,170
2021-22            98, 000
2022-23            73,000
2023-24            60,000

पिछले 4 सालों में मनरेगा के बजट में 51,120 करोड़ रूपये की कटौती की गई है. जबकि आर्थिक विशेषज्ञों ने अनुमान लगाया था कि 2022 में ही मनरेगा के तहत सक्रिय कार्डधारकों को निर्धारित 100 दिनों का काम देने के लिए 2,64,000 करोड़ रूपये के बजटीय आवंटन की जरूरत थी. ज्ञात हो कि मनेरगा मजदूरों का यूनियन 200 दिनों तक काम की गारंटी करने और मजदूरी को प्रतिदिन 200 रूपये से बढ़ाकर कम से कम 500 रुपये तय करने की मांग कर रहे हैं.

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि देश के विभिन्न विभागों में करीब 60 लाख पद खाली हैं, जिनमें से 30 लाख पद केन्द्रीय विभागों में खाली हैं. केन्द्र या राज्य सरकारें इन खाली पदों को भरने की कोशिश करने के बजाय केन्द्रीय श्रम कानूनों में बड़े पैमाने पर संशोधन कर नियोक्ताओं की छंटनी करने की खुली छूट दे रखी है.

5. विनिवेशीकरण एवं निजीकरण की बढ़ती रफ्तार

हमारे देश में विनिवेशीकरण एवं निजीकरण की प्रक्रिया कांग्रेसी शासन काल से ही चल रही है. खासकर, नरसिम्हा राव की सरकार द्वारा 1991 में नई आर्थिक नीति लागू करने के बाद इस प्रक्रिया में तेजी आई. 2014 में नरेन्द्र मोदी नीत सरकार के केन्द्र में सत्तासीन होने के बाद तो सभी सार्वजनिक सम्पदाओं एवं उद्यमों को निजी हाथों में औने-पौने दाम में बेच देने की विशेष कोशिश शुरू हो गई.

कभी नरेन्द्र मोदी ने कहा था- ’सौगन्ध मुझे इस देश की मिट्टी का, मैं देश नहीं बिकने दूंगा.’ लेकिन तथ्य है कि उनकी सरकार धड़ल्ले से देश के सार्वजानिक उद्यमों एवं सम्पतियों को निजी हाथों में बेच रही है. इस सरकार में 2018-19 से लेकर 2022-23 तक सार्वजनिक उद्यमों के कुल 6 लाख 80 हजार करोड़ रुपये के शेयरों को बेचने का लक्ष्य निर्धारित किया. मोदी सरकार के तहत विनिवेश के सालाना लक्ष्य एवं प्राप्तियों को इस प्रकार पेश किया जा सकता है.

तालिका- 4

साल                      विनिवेेश का लक्ष्य     विनिवेश प्राप्ति

(करोड़ रुपये में)      (करोड़ रुपये में)

2017-18              72,500               1,00,000 से ज्यादा
2018-19               80,000                 94,700
2019-20               65 000                 50,000
2020-21            2,10,000                 17,957.7
2021-22               78.000                 13.561
2022-23                93,000                31.106
2023-24                51,000                (उपलब्ध नहीं)

इस साल सरकार ने जिन कम्पनियों के शेयरों के विनिवेश का निर्णय लिया है, उनमें आईडीबीआई बैंक, शिपिंग कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया, कन्टेनर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड, एनएमडीसी स्टील लिमिटेड, बीईएमएल, एचआईएल, लाइफ केयर आदि शामिल हैं.

ज्ञात हो कि राजनीतिक विरोध, कर्मचारियों एवं श्रमिकों के विरोध, शेयरों के मूल्यांकन की समस्या, खरीदारों का अभाव, और विनियामक एवं कानूनी चुनौतियों के चलते हाल के 5 वर्षों में मोदी सरकार अपने विनिवेश लक्ष्यों को प्राप्त करने में सफल नहीं रही है. लेकिन इसके बावजूद मोदी सरकार 100 प्रतिशत की सरकारी स्वामित्ववाली एलआईसी के 5 से 10 प्रतिशत शेयरों को बेचकर 1 लाख करोड़ रूपये जुटाने की योजना पर काम कर रही है. इसमें 2021-22 के बजट में 100 सार्वजनिक कम्पनियों के शेयरों को बेचकर 1.75 लाख करोड़ रूपये जुटाने का लक्ष्य भी निर्धारित किया था.

अगस्त 2021 में मोदी सरकार के वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने एक ‘राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाईन’ की घोषणा की है, जिसके तहत 2022 से 2025 के बीच 4 सालों में सरकारी परिसम्पत्तियों को निजी हाथों में बेचकर कुल 6 लाख करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य निर्धारित किया है. इस घोषणा के तहत जिन सार्वजनिक सम्पत्तियों को बेचा जाता है उनमें सड़कें, रेलवे, हवाई मार्ग, बिजली ट्रांसमिशन एवं गैस पाईप लाइनें शामिल हैं. इस तरह ’देश नहीं बिकने दूंगा’ की सौगंध खाकर नरेन्द्र मोदी देश की सार्वजनिक सम्पत्तियों को बेच रहे हैं. विडम्बना यह है कि फिर भी वह अपने को सबसे बड़ा देशभक्त घोषित करते हैं.

6. बढता कालाधन एवं भ्रष्टाचार

नरेन्द्र मोदी ने कभी कहा था ’न खाऊंगा, न किसी को खाने दूंगा.’ लेकिन इनके 9 सालों के शासन काल में एक से बढ़कर एक भ्रष्टाचार के कारनामे हुए हैं. हम सभी जानते हैं कि मोदी के शासन काल में करीब ढाई दर्जन से अधिक उद्योगपति भारत के बैंकों से 10 लाख करोड़ रूपये से अधिक का कर्ज लेकर विदेशों में फरार हो चुके हैं.

ज्ञात हो कि नीरव मोदी, ललित मोदी एवं विजय माल्या को भारत लाने के लिए मोदी सरकार अब तक 450 करोड़ रुपये खर्च कर चुकी है. मेहुल चौकसी को तो एक विशेष जेट विमान किराये पर लेकर डोमिनको भेजा गया, जो खाली बापस लौट आया. अब तो मोदी सरकार ने इन बड़े बैंक लुटेरों को भारत वापस लाने का प्रयास भी छोड़ दिया है. सच्चाई तो यह है कि इनमें से कई बैंकिंग लुटेरों को देश से बाहर भगाने में मोदी सरकार ने भी मदद की है.

हाल में ’कैग’ ने मोदी शासन काल के 5 बड़े घोटालों का पर्दाफाश भी किया है, जिनमें द्वारका एक्सप्रेस वे घोटाला, भारतमाला परियोजना घोटाला, आयुष्मान योजना घोटाला, एनएचएआई टॉल घोटाला एवं अयोध्या विकास परियोजना घोटाला शामिल हैं. हाल ही में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने दावा किया कि 500 रूपये के 88,03205 करोड़ रूपये के मूल्य के नोट रहस्यमय ढंग से देश की अर्थव्यवस्था से गायब हैं.

आरटीआई के जरिये पता चला है कि नासिक के एक प्रेस द्वारा नए डिज़ाइन के साथ 500 रुपये के 375.450 मिलियन नोट छापे गए थे, जबकि अप्रैल 2015 और दिसम्बर 2016 के बीच केन्द्रीय बैंक को केबल 345.000 मिलियन प्रिंटेड नोट ही प्राप्त हुए हैं. हालांकि, बाद में आरबीआई ने कहा कि नोटों के गायब होने की रिपोर्ट सूचना के अधिकार अधिनियम 2005 के तहत प्रिंटिंग प्रेसों से एकत्र की गई जानकारी की गलत व्याख्या पर आधारित है.

नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में स्विज बैंक में जमा कुल कालाधन में भी वृद्धि हुई है. 2014 में इस बैंक में भारतीय लोगों का कुल 7,000 करोड़ रुपये का कालाधन जमा था, जो 2022 में बढ़कर 21,000 करोड़ रूपये हो गया है, यानी 8 सालों में तीन गुना वृद्धि हुई है.

7. बैंकिंग धोखाधड़ी में बढ़ोतरी

किसी भी देश की आर्थिक स्थिति को दुरूस्त रखने में बैंकों की बड़ी भूमिका होती है. खासकर, साम्राज्यवाद के युग में बैंकिंग पूंजी औद्योगिक पूंजी के साथ मिलकर वित्तीय पूंजी का निर्माण होता है. लेनिन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘साम्राज्यवादः पूंजीवाद की चरम अवस्था’ में लिखा है कि साम्राज्यवाद की आर्थिक अन्तर्वस्तु एकाधिकारिक पूंजीवाद है, जो बैंकों से उत्पन्न हुआ है. बैंक आज विनम्र मध्यस्थ उद्यमों से विकसित होकर वित्तीय पूंजी के एकाधिकार बन गये हैं.

इस एकाधिकार की विलक्षण अभिव्यक्ति एक ऐसे वित्तीय अल्पतन्त्र के रूप में होती हैं, जो बिना किसी अपवाद के वर्तमान बुर्जुआ समाज की सभी आर्थिक एवं राजनीतिक संस्थाओं के ऊपर अधीनता के सम्बंधों का एक सघन जाल फेंकता है. हमारे देश में वित्तीय पूंजी का जाल देश की सभी आर्थिक-राजनैतिक संस्थाओं के ऊपर फैल गया है.

यही कारण है कि कांग्रेस नीत और इसके बाद भाजपा नीत सरकारों की देखरेख में एकाधिकारी पूंजीपतियों का तेजी से विकास हो रहा है. खासकर, मोदी सरकार में भारतीय बैंकों को देश के बड़े पूंजीपतियों का चारागाह बना दिया है. नतीजतन यूपीए 2 एवं मोदी के शासनकाल में बैंकिंग घोटाला एवं धोखाधड़ी के मामलों में काफी वृद्धि हुई है.

तालिका- 5

यूपीए-2 के शासन काल में बैंकिंग ’धोखाधड़ी

साल                     धोखाधड़ी की रकम (करोड़ रूपये में)

2009-10                    1,002
2010-11                    2,117
2011-12                    3,248
2012-13                    6,251
2013-14                    6,494

5 सालों में कुल 19,112 करोड़ रुपये

तालिका – 6

नरेन्द्र मोदी के शासन काल में बैंकिंग धोखाधड़ी

साल                       धोखाधड़ी की रकम (करोड़ रूपये में)

2014-15                    14,601
2015-16                    15,873
2016-17                    17,629
2017-18                    20,040

4 सालों में कुल 68,149 करोड़ रुपये

तालिका -7

नरेन्द्र मोदी के शासन काल में बैंकिंग धोखाधड़ी पर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के आंकडे़

साल                         धोखाधड़ी के आंकड़े (करोड़ रुपये)

2016-17                       23,933
2017-18                       41,169
2018-19                       71,500
2019-20                       1.85 ट्रिलियन रुपये
2020-21                       1.38 ट्रिलियन रुपये

नरेन्द्र मोदी के शासन काल में पूजीपतियों को अन्धाधुंध बैंक ऋण बांटने के चलते एक ओर बैंकों का एनपीए बढ़ा है और दूसरी ओर एनपीए को बट्टे खाते में डालने की राशि में भी काफी वृद्धि हुई है. ज्ञात हो कि बैंकों के बैलेंश सीट को बेहतर दिखाने के लिए एनपीए की राशि को बट्टे खाते में डाला जाता है, यानी राइट ऑफ किया जाता है. एनपीए की रकम को राइट ऑफ में सार्वजनिक बैंकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. मोदी शासन काल में हाल के वर्षों में राइट ऑफ किये गये ऋण की रकम को तालिका 8 में देखें –

तालिका- 8

साल                    राइट ऑफ की गई रकम (करोड़ रूपये में)

2017-18                           1,61,328
2018-19                           2,36,265
2019-20                           2,34,170
2020-21                           2,02,781
2021-22                           1,57,096
2022-23                           2,09,000

रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) के अनुसार 2012-13 से 2022-23 तक देश के वाणिज्यिक बैंकों ने कुल 15,31,453 करोड़ रूपये के कर्जों को बट्टे खाते में डाल दिया है. पिछले तीन सालों में कुल 5,86,891 करोड़ रुपये के कर्जों को बट्टे खाते में डाले गए हैं.

सरकार तर्क देती है कि राइट ऑफ का मतलब ऋण माफी नहीं होता है, राइट ऑफ किये गए कर्जों की वसूली जारी रहती है. लेकिन पिछले तीन साल में जो कर्जे राइट ऑफ हुए हैं, उनमें से केवल 18.6 प्रतिशत की ही रिकवरी हो पाई है. बाकी 81.4 प्रतिशत रकम की वसूली मुश्किल है.

केन्द्र सरकार अपने चहेते पूंजीपतियों को सार्वजनिक बैंकों से भारी मात्रा में कर्जा दिलाती है, ऋण चुकता नहीं करने की चाहत रखने वालों (खासकर गुजरात के करीब दो दर्जन पूजीपतियों को) विदेश भाग जाने का मौका देती है और उनके कर्जों को बैंकों द्वारा राइट ऑफ भी करवा देती है. इस तरह का वित्तीय पक्षपोषण ‘याराना पूंजीवाद’ (क्रोनी कैप्टिलिज्म) का जीता-जागता उदाहरण है. नरेन्द्र मोदी की सरकार यह सब इसलिए करती है, ताकि उसकी पार्टी भाजपा को इन पूंजीपतियों द्वारा ज्यादा से ज्यादा चंदा मिल सके. देखें तालिका – 9

तालिका – 9

विभिन्न पार्टियों को पूंजीपतियों द्वारा दिया गया चंदा (सभी रकम करोड़ रुपये में)

पार्टियां            साल                  साल             अंतर

2020-21         2021-22

भाजपा             4,990              6,046         ₹1056
कांग्रेस              691.11           805.68        ₹ 114
सीपीएम           654.79           735.77         ₹ 80.98
बीएसपी           732.79           690.71         ₹ – 42
तृणमूल कांग्रेस   182                458              ₹ 276
एनसीपी            30.93            74.53           ₹ 43.6
सीपीआई           14                 15.7             ₹ 1.7
एनपीपी             1.7                1.8               ₹ 0.8

ये आंकड़े दर्शाते हैं कि देश के पूंजीपति सबसे अधिका चंदा अपनी याराना पार्टी भाजपा को देती है.

ऐसा नहीं है कि पूंजीपतियों के पास के कर्जों को चुकाने की क्षमता नहीं है, बल्कि उनमें से कई विलफुल डिफाल्टर (स्वेच्छाचारी गबनकर्त्ता) हैं, जो जान बूझ कर बैंकों के कर्जों की अदायगी नहीं करते हैं. आरबीआई ने ऐसे 50 स्वेच्छाचारी गबनकर्त्ताओं की लिस्ट कर्ज की रकम के साथ 31 मार्च, 2022 को जारी किया है. इस सूची में 26 बड़े गबनकर्त्ता ऐसे हैं, जिनपर 1,000 करोड़ रुपये एवं इससे अधिक का बकाया है, जो कुल मिलाकर 60,425.01 करोड़ रूपये का होता है.

पुणे के रहने वाले एक आरटीआई कार्यकर्त्ता विवेक वेलंकर द्वारा प्राप्त सूचना से यह पता चलता है कि 312 बड़े स्वेच्छाचारी गबनकर्त्ता हैं, जिनपर कुल मिलाकर 1,41,583.50 करोड़ रुपये का बकाया है. आरबीआई ने कुल मिलाकर 2,278 स्वेच्छाचारी गबनकर्त्ताओं की सूची नाम एवं रकम के साथ जारी की है और पूंजीपतियों की हितैषी नरेंद्र मोदी सरकार उनपर कोई ठोस कार्रवाई नहीं कर रही है.

ऊपर के विवरण से अच्छी तरह स्पष्ट है कि नरेंद्र मोदी सरकार बैंकों में जमा आम जनता की राशि को पूंजीपतियों के लिए बिना किसी रोक-टोक सुपूर्द कर रही है और जब बैंकों की आरक्षित राशि कम होती है तो उसे वह ’पूंजीकरण’ के जरिये उसे पूरा करती है.

8. सरकार पर बढ़ते कर्जों का बोझ

नरेन्द्र मोदी सरकार एक ओर दावा कर रही है कि उसका जीएसटी कलेक्शन एवं अन्य अप्रत्यक्ष करों से प्राप्तियां बढ़ रही हैं और आरबीआई ने भी उनकी सरकार को डिविडेंड भुगतान के रूप में 2021-22 में 30,307 करोड़ रूपये एवं 2022-23 में 89,416 करोड़ रूप्ये मुहैय्या कराया है, इसके बावजूद इस सरकार पर कर्जों का बोझ लगातार बढ़ रहा है.

आंकड़े बताते हैं कि 1947 से लेकर 2014 तक देश पर कुल कर्जा (घरेलू एवं विदेशी) करीब 53 लाख करोड़ रुपये था, जो मार्च 2022 में बढ़कर करीब 153 लाख करोड़ रूपये हो गया. एक दूसरा आँकडा दर्शाता है कि 2014-15 में देश पर 55 लाख करोड़ रुपये का कर्ज था, जो 2023 में बढ़कर 155 लाख करोड़ रूपये हो गया.

दोनों आंकड़े बताते हैं कि नरेन्द्र मोदी के शासन काल में 100 लाख करोड़ रुपये का कर्जा लिया गया है. नरेन्द्र मोदी के शासन काल में विदेशी कर्जो का बोझ भी काफी बढ़ा है. 2017 में कुल 471 बिलियन डॉलर का विदेशी कर्ज था, जो मार्च 2023 तक बढ़कर 624.7 बिलियन डॉलर हो गया. विदेशी कर्जों की बढ़ती रफ्तार के लिए देखें तालिका – 10

तालिका – 10

साल             भारत पर विदेशी कर्ज (बिलियन डॉलर में)

2017                    471
2018                    539
2019                    549
2020                    558
2021                    570
मार्च 2023 तक        624.7

स्रोत – आरबीआई के आंकडे़

दिसम्बर 2014 तक जीडीपी और विदेशी कर्जों का अनुपात 18.9 प्रतिशत था, जो अगस्त 2023 में बढ़कर 84 प्रतिशत हो गया है.

ज्ञात हो कि भारत के सालाना बजट का करीब 20 प्रतिशत हिस्सा ब्याज की अदायगी पर खर्च किया जाता है. इसके बावजूद मोदी सरकार मूर्तियां एवं राम मन्दिर बनाने पर अरबों रुपये खर्च करती है. अभी हाल में इसने जी-20 की बैठक की मेजबानी पर 4,100 करोड़ रूपये खर्च किये हैं. 2023 की जी 20 के बैठक की मेजबानी पर भारत जैसे कर्जदार देश द्वारा इतनी बड़ी रकम खर्च किया जाना वित्तीय अय्यासी के सिवाय कुछ नहीं है. जबकि अन्य देश इसी जी-20 के बैठक की मेजबानी में काफी कम रकम खर्च करती है.

तालिका – 11

जी-20 के मेजबानी के दौरान विभिन्न देशों के खर्च की रकम –

साल        देश            कुल खर्च (करोड़ रुपये में)

2023    भारत            4100
2022    इंडोनेशिया        364
2019    जापान           2660
2018    अर्जेंटीना           931
2017    जर्मनी              642

9. घटते विदेशी मुद्रा भंडार

नरेन्द्र मोदी सरकार दावा करती रही है कि हमारे देश में विदेशी मुद्रा का अकूत भंडार है, इसलिए हमें विदेश व्यापार एवं कर्ज अदायगी में कोई दिक्कत नहीं होगी. लेकिन हालिया आंकडे देखने से पता चलता है कि भारत का विदेशी मुद्रा भंडार लगातार घटता जा रहा है.

तालिका 12

माह/ साल                      विदेशी मुद्रा भंडार (अरब डॉलर में)

सितम्बर 2021                     633.6
मार्च 2022                          607.31
अगस्त 2023                       594.858
मार्च 2024 का अनुमान           580.0

तालिका – 12 से जाहिर होता है कि सितम्बर 2021 से मार्च 2024 तक भारतीय विदेशी मुद्रा भंडार में 53.6 अरब डॉलर की कमी होने जा रही है लेकिन इसके बावजूद अपना दिखावा करने के लिए मोदी सरकार कर्ज पर कर्ज लिये जा रही है.

निष्कर्ष

उपर्युक्त विवरणों एवं अंकड़ों से अच्छी तरह स्पष्ट है कि भारतीय अर्थव्यवस्था का रीढ़ टूट चुकी है. पूरी पूंजीवादी दुनिया आज गंभीर आर्थिक-राजनैतिक संकट से गुजर रहा है. पड़ोसी देश श्रीलंका दीवालिया हो चुका है और पाकिस्तान का भी आर्थिक-राजनीतिक संकट काफी गहरा हो गया है. नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत भी उसी दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है. ऐसी स्थिति में भारत की अर्थव्यवस्था की हालत को दुरुस्त करना संभव नहीं है. इस पूंजीवादी व्यवस्था को ठीक करने का कोई भी प्रयास कारगर एवं जन हितैषी नहीं होगा. इसलिए देश के तमाम जनपक्षीय एवं क्रान्तिकारी ताकतों का दायित्व बनता है कि वे मोर्चाबद्ध होकर व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई को तेज करें.

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