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ब्राह्मणवाद में सुधार की कोई गुंजाइश नहीं है-रामस्वरूप वर्मा

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प्रो. रविकांत

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन के बेटे और प्रदेश सरकार में युवा कल्याण एवं खेल मंत्री उदयनिधि स्टालिन के एक बयान पर उत्तर भारत में अभी तक राजनीति जारी है। गत 2 सितंबर, 2023 को उदयनिधि स्टालिन ने एक सम्मेलन में सनातन धर्म पर विचार व्यक्त करते हुए कहा था कि “सनातन धर्म सामाजिक अन्याय पर आधारित है। यह डेंगू और मलेरिया की तरह है। इसका विरोध करना काफी नहीं है, बल्कि इसे समाज से पूरी तरह से समाप्त कर देना चाहिए।”

दक्षिणपंथी सत्ता समर्थक ‘ईश्वर और धर्म की हिफाजत’ करने के लिए तुरंत एक्शन में आ गए। भाजपा सरकार के तमाम प्रवक्ता और मंत्री मिलकर उदयनिधि को सबक सिखाने के लिए बेताब हैं। एक साधु ने तो उदयनिधि का सिर कलम करने वाले को दस करोड़ का इनाम देने का ऐलान कर दिया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विपक्ष पर हमलावर हैं। उनका आरोप है कि विपक्षी गठबंधन सनातन को खत्म करना चाहता है। 

हालांकि दक्षिण भारत और खासकर तमिलनाडु में इस बयान को कोई विशेष महत्व नहीं दिया गया। दरअसल, पेरियार की धरती पर ब्राह्मणवाद पहले ही निस्तेज हो चुका है। तमिलनाडु में उदयनिधि के वक्तव्य को सनातन धर्म की वर्णवादी असमानतापूर्ण और अन्याय पर आधारित व्यवस्था की एक सामान्य आलोचना के रूप में ही लिया गया। लेकिन चूंकि उत्तर भारत में ब्राह्मणवाद अपनी पूरी आक्रामकता के साथ मौजूद है। साथ ही, यह भी सच है कि भाजपा के मंदिर आंदोलन और सत्ता स्थापित होने के बाद ब्राह्मणवाद नए तेवर के साथ उभरा है। 

हालांकि पेरियार और आंबेडकर के संघर्ष और विचारधारा से प्रेरित सांस्कृतिक आंदोलन उत्तर भारत में 1950 के दशक में शुरू हो गया था। महामना रामस्वरूप वर्मा इस आंदोलन के अगुवा थे। हिंदुत्ववादी सत्ता के बुलडोजर काल में क्रांतिकारी रामस्वरूप वर्मा का स्मरण करना जरूरी है। यह साल उनका जन्म शताब्दी वर्ष है। उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात के गौरीकरण गांव में 22 अगस्त, 1923 को एक किसान परिवार में जन्मे रामस्वरूप वर्मा, पिता वंशगोपाल और मां सखिया की सबसे छोटे और चौथे संतान थे। उन्होंने 1949 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एमए किया। इसके बाद उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से एलएलबी की डिग्री प्राप्त की।

आचार्य नरेंद्रदेव और राममनोहर लोहिया के करीबी रहे रामस्वरूप वर्मा के शुरुआती जीवन पर समाजवादी विचारों का प्रभाव पड़ा। समाजवादी आंदोलन और राजनीति से जुड़कर वे विधानसभा पहुंचे। पहली बार महज 34 साल की उम्र में, रामस्वरूप वर्मा 1957 में सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर भोगनीपुर विधानसभा से विधायक चुने गए। इसके बाद 1967 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से, 1969 में निर्दलीय, 1980, 1989 में शोषित समाज दल से विधानसभा पहुंचे। 1967 में चौधरी चरण सिंह की उत्तर प्रदेश सरकार में वे वित्त मंत्री बने। अपनी बुद्धिमत्ता और अनुभव के आधार पर उन्होंने यूपी में पहली बार 20 करोड़ रुपए के मुनाफे का बजट पेश किया। यह सब उन्होंने कैसे किया? इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा था कि किसान सबसे बड़ा अर्थशास्त्री होता है। समाजवादी मूल्यों और जन-सामान्य की चेतना से उपजी राजनीति जीवन पर्यंत्र उनकी पहचान बनी रही।

महामना रामस्वरूप वर्मा (22 अगस्त, 1923 – 19 अगस्त, 1998)

रामस्वरूप वर्मा जितने बड़े राजनीतिक थे, उतने ही महान समाज सुधारक भी थे। इस लिहाज से वे पेरियार और आंबेडकर की फेहरिस्त में शामिल हैं। उन्हें उत्तर भारत का आंबेडकर भी कहा जाता है।

रामस्वरूप वर्मा पर डॉ. आंबेडकर के विचारों का बहुत प्रभाव था। आंबेडकर के तीसरे गुरु जोतीराव फुले के सत्य शोधक समाज (1873) की तरह उन्होंने हिंदू धर्म की सांस्कृतिक गुलामी से मुक्ति के लिए 1 जून, 1968 को अर्जक संघ की स्थापना की। जैसा कि अर्जक संघ के नाम से ही स्पष्ट है कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था के बरक्स इसमें श्रमशील समाज के सम्मान और महत्ता पर जोर दिया गया था। 

दरअसल, ब्राह्मणवाद वर्णवाद पर जीवित है। वर्णवाद असमानता और शोषण पर आधारित है। इस व्यवस्था ने परिश्रम करने वाले को निम्न और निर्बल बना दिया। जबकि व्यवस्था पर काबिज नकारा वर्ग बुद्धिमान और श्रेष्ठ घोषित कर दिया गया। अर्जक संघ ने ब्राह्मणवादी कर्मकांड को खारिज करते हुए एक मानववादी संस्कृति का विकास किया।

अर्जक संघ के विस्तार में ललई सिंह यादव, महाराज सिंह भारती और जगदेव प्रसाद ने महती भूमिका अदा की‌। रामस्वरूप वर्मा ने बिहार के लेनिन कहे जाने वाले बाबू जगदेव प्रसाद के साथ मिलकर बहुजनवादी राजनीति की शुरुआत की। रामस्वरूप वर्मा ने अपने समाज दल और बाबू जगदेव प्रसाद की शोषित पार्टी को मिलाकर 7 अगस्त, 1972 को शोषित समाज दल की स्थापना की। 

रामस्वरूप वर्मा वैज्ञानिक चेतना से संपन्न समाज सुधारक और राजनेता ही नहीं, बल्कि एक क्रांतिकारी लेखक भी थे। रूढ़िवाद, पाखंड, वर्णवाद और पितृसत्ता के खिलाफ उन्होंने सामाजिक परिवर्तन को धार देने वाली दर्जनों किताबों की रचना की। इनमें ‘ब्राह्मण महिमा क्यों और कैसे?’, ‘मनुस्मृति राष्ट्र का कलंक’, ‘क्रांति क्यों और कैसे?’ ‘अछूतों की समस्या और समाधान’, ‘निरादर कैसे मिटे?’, ‘महामना डॉ. बी.आर. आंबेडकर : साहित्य की जब्ती और बहाली’, ‘आत्मा, पुनर्जन्म मिथ्या : मानव समता क्या, क्यों और कैसे?’ आदि शामिल हैं। एक अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथ ‘मानववादी प्रश्नोत्तरी’ के प्राक्कथन में उन्होंने लिखा, “प्रश्नोत्तर के द्वारा ब्राह्मणवाद में जकड़े लोगों के दिमाग का धुंध हटेगा और उन्हें मानववाद का प्रशस्त मार्ग स्पष्ट दिखेगा, ऐसी आशा इस मानववादी प्रश्नोत्तरी से करना अनुचित न होगा। जीवन के चारों क्षेत्रों – सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक – में व्याप्त ब्राह्मणवाद को त्यागकर, यदि भारत के निराश्रित दरिद्र लोगों ने मानववाद का रास्ता अपनाया, तो निश्चय ही उन्हें निरादर व दरिद्रता से छुटकारा मिलेगा, और मैं इस परिश्रम को सार्थक समझूंगा।”

आंबेडकर की तरह रामस्वरूप वर्मा के लेखन में धर्मशास्त्र और जातिवाद की तीखी आलोचना निहित है। वे जोर देकर कहते हैं कि ब्राह्मणवाद में सुधार की कोई गुंजाइश नहीं है। इसीलिए इसे समूल नष्ट किया जाना चाहिए। उन्होंने लिखा कि “अगर पोटेशियम सायनाइड का टुकड़ा दूध के एक कैन में गिरा दिया जाय और फिर बाहर निकाल लिया जाए तब भी दूध जहर ही होगा। इसलिए ब्राह्मणवादी मूल्य सुधार के लिए उपयुक्त नहीं है। ब्राह्मणवाद में सुधार नहीं किया जा सकता। इसे निर्वासित किया जाना चाहिए।” वह कहते थे कि सामाजिक परिवर्तन के लिए जागरूकता जरूरी है। सामाजिक परिवर्तन के बिना राजनीतिक परिवर्तन स्थाई नहीं हो सकता। उन्होंने लिखा कि “सामाजिक जागरूकता सामाजिक परिवर्तन को ला सकती है और सामाजिक परिवर्तन राजनीतिक परिवर्तन को संचालित करता है। इसलिए सामाजिक परिवर्तन के बिना राजनीतिक परिवर्तन होता है तो वह दीर्घकालिक नहीं होगा।”

भारतीय समाज में धर्म के नाम पर सदियों से दलितों, पिछड़ों और स्त्रियों का शोषण जारी है। भगवान और भाग्य का भय दिखाकर सदियों से इस देश के बहुसंख्यक तबके को लूटा और कूटा जा रहा है। मंदिर-मठ पुरोहितवादी धंधे के अड्डे बने हुए हैं। शिक्षा से वंचित और पाखंड, अंधविश्वास के दलदल में धंसे दलित और शूद्र सदियों से सांस्कृतिक गुलामी का बोझा ढोने के लिए मजबूर हैं। इसीलिए रामस्वरूप वर्मा जमीन को मंदिर मजार के लिए आवंटित करने के खिलाफ थे। वे मानते थे कि जनता की जमीन पर स्कूल कॉलेज खोले जाएं। इसके लिए उन्होंने विधानसभा में एक गैर सरकारी विधेयक भी पेश किया। उन्होंने मौजूद सभी धार्मिक स्थलों को सरकार के अधीन करने पर भी जोर दिया। विधानसभा में उन्होंने कहा कि “जितने पूजा स्थल हैं, उनको सरकार अपने नियंत्रण में ले और हर पूजा स्थल पर जो चढ़ावा चढ़ेगा, वह सरकार को मिलेगा। पुजारी रखने के बाद जो बचता है वह धर्महित कार्यों में खर्च किया जाए।” 

हिंदू या सनातन धर्म का ब्राह्मणवाद सदियों से विद्यमान है। धर्मग्रंथ इस सामाजिक- सांस्कृतिक व्यवस्था को ईश्वरीय घोषित करते हैं। रामस्वरूप वर्मा जानते थे कि ईश्वरीय सत्ता छद्म धर्मग्रंथों के कारण ही टिका है और इन्हें मिटाना जरूरी है। जिस तरह डॉ. आंबेडकर ने 1927 में सार्वजनिक तौर पर मनुस्मृति का दहन किया था, उसी तरह रामस्वरूप वर्मा ने 1975 में तुलसीदास कृत रामचरितमानस की होली जलाई थी। पिछले एक साल से पुनः रामचरितमानस की शूद्र और स्त्रियों को अपमानित करने वाली चौपाइयों का विरोध हो रहा है। लेकिन हिंदुत्ववादी सत्ता इस विरोध को कुचलने पर आमादा है। 

जीवन भर पाखंडवाद, वर्णवाद और धर्मसत्ता से जूझते रहे रामस्वरूप वर्मा ने दलित पिछड़े समाज को एक रास्ता दिखाया था। उन्होंने अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया। वे समता, न्याय और वैज्ञानिक चेतना पर आधारित समाज का निर्माण करना चाहते थे। 19 अगस्त, 1998 को लखनऊ में उनका निधन हो गया। लेकिन वे अपने विचारों में आज भी जीवित हैं। धार्मिक आतंक और वर्तमान फासिस्ट सत्ता में उनके चिंतन और चेतना दोनों की बहुत आवश्यकता है।

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