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*भारत-कनाडा बिगाड़ : सावधान रहिए, आगे खाई है!*

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*(आलेख : राजेंद्र शर्मा)*

अक्सर कहा जाता है कि किसी देश की विदेश नीति, उसकी घरेलू नीति का ही विस्तार होती है। लेकिन, हरेक सामान्यीकरण की तरह, इस सूत्र में भी एक हद तक ही सचाई है। भारत और कनाडा के रिश्तों में ताजा बिगाड़ के सिलसिले में इस सचाई को याद रखना और भी जरूरी है। आखिरकार, कहा-सुनी के ताजा चक्र में कनाडा और भारत, एक-दूसरे पर विदेशी नीति के कदमों से, घरेलू राजनीतिक हित साधने के ही तो आरोप लगा रहे हैं। अगर भारत सरकार, कनाडा की ट्रूडो सरकार पर, अपने राजनीतिक लाभ के लिए, कनाडा को आधार बनाकर खासतौर पर भारत में आतंकवाद को बढ़ावा देने में लगे, खालिस्तान समर्थकों के प्रति नरमी बरतने से लेकर उन्हें संरक्षण देने तक के आरोप लगा रही है, तो दोनों देशों के रिश्तों में मौजूदा बिगाड़ आया ही ट्रूडो के अपने देश की संसद में खड़े होकर यह आरोप लगाने के बाद कि कनाडा निवासी, किंतु भारत में आतंकवाद के लिए वांछित, खालिस्तान समर्थक नेता निज्जर की हत्या में, भारतीय एजेंसियों का हाथ लगता है।

विदेश नीति के कदमों से सीधे-सीधे घरेलू राजनीतिक स्वार्थ साधे जाने के आरोपों के बाद, मामला सिर्फ कहा-सुनी तक सीमित नहीं रह सकता था और नहीं रहा है। ट्रूडो के संसद में उक्त आरोप लगाने के बाद ही, कनाडा ने सुरक्षा मामलों से जुड़े भारत के एक शीर्ष राजनयिक अधिकारी को निष्कासित भी कर दिया तथा बात और भी बिगाड़ते हुए, उसका नाम मीडिया में लीक भी कर दिया। जवाब में भारत ने भी, आरोपों को सिरे से खारिज करने के साथ ही, कनाडा के एक राजनयिक को इसी प्रकार निष्कासित कर दिया। दोनों ओर से एक-दूसरे देश के लिए प्रतिकूल ट्रेवल एडवाइजरी जारी किए जाने के एक चक्र के बाद, अंतत: भारत ने कनाडा के लिए वीजा सेवाओं पर भी रोक लगा दी। उसके ऊपर से कनाडा पर कूटनीतिक सुविधाओं के दुरुपयोग का आरोप लगाते हुए, उसे भारत में अपने मिशन को सिकोड़ने के लिए भी कह दिया गया।

दुर्भाग्य से, भारत के इस ‘मुंह तोड़’ जवाब के बाद भी, कनाडा के पांव पीछे खींचने और तनाव में कमी के, कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं। उल्टे इस बीच कनाडा ने निज्जर मामले में अपने आरोपों पर यह कहकर जोर और बढ़ा दिया है कि उसके पास भारतीय कूटनीतिज्ञों के संवादों के रूप में खुफिया जानकारियां हैं, जो संदेहों को पुख्ता करती हैं। इस दौरान उसने यह कहकर कि ये साक्ष्य उसे फाइव आईज़ नाम  की पांच पश्चिमी देशों की साझा खुफिया व्यवस्था में शामिल एक अन्य देश के जरिए हासिल हुए हैं, इस मामले में अमरीका समेत अन्य पश्चिमी ताकतों को भी खींच लिया है। फाइव आईज़ में अमरीका तथा कनाडा के अलावा यूके, आस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैंड भी शामिल हैं। अमरीका समेत इन पश्चिमी ताकतों ने भी इन खुफिया जानकारियों को आम तौर पर स्वीकार ही किया है और कनाडा के आरोपों को गंभीर बताते हुए, भारत से जांच में सहयोग करने का ही आग्रह किया है। अब तक यह भी साफ हो चुका है कि ट्रूडो जिन खुफिया जानकारियों की दुहाई दे रहे हैं, वास्तव में फाइव आईज़ के हिस्से के तौर पर खुद अमरीका द्वारा ही मुहैया करायी गयी थीं।

जाहिर है कि यहां आकर यह विवाद, महज भारत-कनाडा नहीं रह गया है, बल्कि कहीं बड़ा रूप ले चुका है। विवाद के सार्वजनिक होने के बाद से, यह जानकारी भी सामने आ चुकी है कि ट्रूडो के संसद में बयान देने से पहले से कनाडा, भारत के साथ यह मामला उठा रहा था। जी-20 के दौरान, विशेष रूप से मोदी-ट्रूडो की उप-वार्ताओं में न सिर्फ यह मुद्दा उठा था, बल्कि उस पर तीखे मतभेद भी सामने आए थे। इतना ही नहीं, उसी दौरान अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने भी इस मामले में हस्तक्षेप किया था और भारत तथा कनाडा के बीच बात बिगड़ने से बचाने की कोशिश की थी। बहरहाल, इस विवाद के सामने आने के बाद से पश्चिमी ताकतों का आम तौर पर जो रुख देखने को मिल रहा है, उससे इतना तो साफ ही है कि भारत उनसे, बीच-बचाव कराने से ज्यादा मदद या समर्थन की उम्मीद नहीं कर सकता है।

इसे देखते हुए, कनाडा के खिलाफ खालिस्तानी आतंकवाद के प्रति नरमी से लेकर, उसका राजनीतिक फायदा उठाने तक के भारत के आरोप, मुंहतोड़ जवाब के लिए सरकार के घरेलू समर्थकों से तालियां भले बजवा लें, पर कनाडा को अलग-थलग करने और भारत के लिए समर्थन जुटाने के लिए, खास मददगार नहीं हैं। उल्टे ऐसा लगता है कि इस मामले में भारत की एक कमजोरी पश्चिम के हाथ लग गयी है, जिसका वह भारत को और दबाकर अपने खेमे में बांधे रखने के लिए इस्तेमाल करने में संकोच नहीं करेगा। कहने की जरूरत नहीं है कि मोदी राज में भारत में जिस तरह वास्तविक कानून का राज कमजोर हुआ है और एन्काउंटर से लेकर बुलडोजर तक के ‘न्याय’ को बढ़ावा दिया जा रहा है, उसने शेष दुनिया की नजरों में ‘‘यह भारत की नीति नहीं है’’ के हमारे खंडनों की साख को बहुत घटा दिया है। इस्राइल की मोसाद जैसी एजेंसियों की इसी तरह की कार्रवाईयों को वर्तमान भारतीय शासन किस तरह अनुकरणीय उदाहरण की तरह देखता है, जाहिर है कि यह भी बाकी दुनिया से छुपा हुआ नहीं है। लेकिन, यह किसी को नहीं भूलना चाहिए कि इस्राइल, पश्चिमी ताकतों के समर्थन के बल पर ही, दूसरे देशों की धरती पर इस तरह की कार्रवाईयां जारी रख सका है। और सब कुछ के बावजूद भारत, पश्चिमी ताकतों के वैसे अकुंठ समर्थन की उम्मीद नहीं कर सकता है, जैसा समर्थन जाहिर है कि पश्चिम के अपने ही घरेलू राजनीतिक नीतिगत कारणों से, इस्राइल को सहज उपलब्ध है।

इन हालात में भारत को सरकार के घरेलू समर्थकों को संतुष्ट करने के लिए ‘जैसे को तैसा’ जवाब देने के लालच में फंसने के बजाए, बारीक तथा धीरज की मांग करने वाले, कूटनीतिक तरीकों से ही रिश्तों की इस उलझी हुई गांठ को खोलने की कोशिश करनी चाहिए। कनाडा के लिए वीजा सेवाएं बंद करने जैसे कदम, ऐसी ही जवाबी प्रतिक्रिया के साथ, टकराव को और बढ़ाने के अलावा, कनाडा में रह रही भारतीय मूल के लोगों की खासी आबादी के लिए और विशेष रूप से कनाडा पढ़ने जाने वाले छात्रों की विशाल संख्या के लिए, परेशानी ही बढ़ाने का काम करेंगे। याद रहे कि पिछले साल कनाडा ने तीन लाख से ज्यादा भारतीयों के लिए वीसा दिए थे और भारत ने उससे थोड़े ही कम कनाडावासियों के लिए। इस विशाल संख्या को, बिगड़े रिश्ते की गांठ को खोलने के साधन के रूप में इस्तेमाल करने में ही समझदारी है, न कि उसे गुरुगांठ में तब्दील करने का बहाना बनाने में।

इसी प्रकार, कनाडा स्थित नामित खालिस्तान समर्थक आतंकवादी, गुरुपतवंत सिंह पन्नू की पंजाब स्थित संपत्तियों को जब्त करने के फौरन बाद, राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (एनआइए) ने अपनी कार्रवाईयों का दायरा और बढ़ाया है। उसने कनाडा, अमरीका, यूएई, आस्ट्रेलिया आदि में जमे, ऐसे 19 वांछितों की सूची जारी कर, उनके ओसीआइ कार्ड रद्द कराने की तथा उनकी भारत स्थित संपत्तियों की पहचान से शुरू कर, आर्थिक मुश्कें कसने की कार्रवाइयां शुरू कर दी हैं। ये कार्रवाईयां सबसे पहले तो इन सभी के लिए भारत के दरवाजे बंद करेंगी। ये कार्रवाईयां चूंकि मूलत: अपने बचाव की कार्रवाईयां हैं, इसलिए इन पर अगर कोई वास्तविक सवाल उठ सकता है, तो यही कि ये कदम पहले ही क्यों नहीं उठा लिए गए? जहां तक विदेश में शरण लिए बैठे खालिस्तानी प्रचारकों का सवाल है, सीधे उन पर इन कदमों का खास असर तो शायद नहीं पड़े, पर ये कदम कम-से-कम उन्हें शरण देने वाले देशों के सामने भारत की चिंताओं की गंभीरता को तो रेखांकित करेंगे ही और उनकी गतिविधियों पर कुछ अंकुश लगाने का भी काम कर सकते हैं।

फिर भी इस सिलसिले में यह याद रखना चाहिए कि भारत में खालिस्तानी आतंकवाद-विरोधी सक्रियता, सिर्फ कनाडा आदि मेें बैठेे खालिस्तान समर्थकों पर घेरा कसने का काम ही नहीं करेगी, वह खुद हमारे देश में खालिस्तान समर्थकों को पब्लिसिटी मुहैया कराने का भी काम करती है। दूसरे शब्दों में, इस मामले में अनुपात तथा संयम का सहारा लेना इसलिए और भी जरूरी है कि कहीं ‘भेड़िया आया, भेड़िया आया’ का शोर मचाने के चक्कर में, भेड़िये को न्यौत ही नहीं लिया जाए और पंजाब में, जहां अब तक खालिस्तानी आतंकवाद का शायद ही कोई समर्थन है, वास्तव में यह समस्या खड़ी ही नहीं हो जाए। यही इस मामले में विदेश नीति को संकीर्ण घरेलू नीति का विस्तार बनाने का, सबसे बड़ा खतरा है। कूटनीति का क्षेत्र, सुई का क्षेत्र है, वहां तलवार चलाना, काम बिगाड़ ही सकता है।              

*(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)*

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