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कब तक कब्रगाह बनते रहेंगे कोटा के कोचिंग सेंटर!

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एक पखवाड़े पहले राजस्थान के कोटा शहर में पीजी में रहने वाली एक 17 साल की स्टूडेंट ने अपने रूम का दरवाजा बंद कर लिया था। मकान मालिक भी उससे दरवाजे खोलने की मिन्नत करता रहा लेकिन उसने इनकार कर दिया। लड़की रात को डिनर के लिए नहीं आई थी, इससे शक बढ़ा। आखिरकार कॉल पर सूचना के बाद होप सोसाइटी के लोग पहुंचे और करीब 1 घंटे तक समझाने-बुझाने के बाद एक काउंसलर उसे दरवाजा खोलने के लिए राजी कर लिया।

होप सोसाइटी एनजीओ के संस्थापक और कोटा के मनोचिकित्सक डॉ. एमएल अग्रवाल कहते हैं, ‘लोग उन छात्रों की संख्या को देखते हैं, जिन्होंने आत्महत्या कर ली लेकिन कोई भी उन बच्चों की संख्या को नहीं देखता, जिन्हें बचाया गया है।’ हाल ही में, NEET की तैयारी कर रहे यूपी के एक स्टूडेंट ने आत्महत्या कर ली थी जिससे 2023 में कोटा में खुदकुशी करने वाले स्टूडेंट की संख्या बढ़कर 26 हो गई।

इस शहर के लिए ये कोई नई समस्या नहीं है और हर बार जब यह मुद्दा राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में आता है, तब स्थानीय प्रशासन आत्महत्याओं को रोकने के लिए छात्रावासों की बालकनियों में स्प्रिंग-लोडेड पंखे या जाल लगाने जैसे कदम उठाता है। हालांकि, ऐसे लोग और संगठन हैं जो मानते हैं कि इस तरह के तरीके कारगर नहीं हो सकते। इस समस्या का समाधान मेंटल हेल्थ काउंसलिंग में है। मिसाल के तौर पर , होप सोसाइटी दो तरीकों से काम करती है – एक स्टूडेंट या तो हेल्पलाइन नंबर पर कॉल कर सकता है या फिर व्यक्तिगत रूप से क्लिनिक जा सकता है। संगठन का कहना है कि उसने अब तक 11,500 स्टूडेंट्स की मदद की है।

होप सोसाइटी की टीम सभी कॉलों का विवरण दर्ज करती हैं और समस्या की गंभीरता के आधार पर तय करती है कि किस स्तर के हस्तक्षेप की जरूरत है। कुछ मामलों में, टीम ने छात्रों में बाइपोलर डिसॉर्डर और स्किज़ोफ्रेनिया जैसी मानसिक बीमारियों का पता लगाया है। डॉक्टर अग्रवाल कहते हैं, ‘ऐसे छात्रों को जब उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है तो वे कोटा के दबावों के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं।’ वह सुझाव देते हैं कि सभी कोचिंग संस्थानों को स्टूडेंट को दाखिला देने से पहले उनकी मानसिक स्वास्थ्य की जांच करनी चाहिए। इस साल जून में, कोटा पुलिस ने भी स्टूडेंट सेल शुरू करने के लिए कार्रवाई की, जो छात्रों को मानसिक स्वास्थ्य परामर्श प्रदान करती है और उन छात्रों की पहचान करती है जिनमें डिप्रेशन के लक्षण दिखते हैं।

कोटा पुलिस के स्टूडेंट सेल के इंचार्ज ठाकुर चंद्रशेखर कुमार कहते हैं कि उनकी टीम में सादे कपड़ों में भी पुलिस अफसर रहते हैं। वे स्टूडेंट से नियमित तौर पर कैफे या चाय की दुकान जैसे दोस्ताना माहौल में बात करते हैं ताकि उनकी चुनौतियों और परेशानियों को समझ सकें। अगर उन्हें लगता है कि किसी स्टूडेंट में डिप्रेशन के लक्षण दिखाई दे रहे हैं, तो वे उसे काउंसलर के पास भेजते हैं।

कोटा पुलिस के स्टूडेंट सेल के लिए काम करने वाले एक काउंसलर बताते हैं, ‘जब युवा घर से इतना दूर आते हैं और दिन में 16 घंटे से ज्यादा पढ़ाई करते हैं तो अच्छे आवास और भोजन की कमी का उन पर नकारात्मक असर पड़ता है।’

कोटा में प्राइवेट काउंसलर भी हैं, लेकिन उनकी शिकायत है कि मेंटल हेल्थ काउंसलिंग को लेकर उन्हें आमतौर पर कोचिंग संस्थानों का सक्रिय समर्थन नहीं मिलता है। कुछ का आरोप है कि कोचिंग संस्थान उन्हें अपने पोस्टरों या छात्रों को दिए जाने वाले लेक्चर में कहीं भी आत्महत्या शब्द का जिक्र नहीं करने के लिए कहते हैं।

द टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (TISS) ने भी कुछ साल पहले कोटा में छात्रों को मेंटल हेल्थ सर्विस देने की कोशिश की थी, लेकिन वित्तीय सहित तमाम कारणों से प्रोजेक्ट को बंद करना पड़ा।

TISS के ह्यूमन इकोलॉजी स्कूल की असिस्टेंट प्रफेसर अपर्णा जोशी कहती हैं, ‘वहां सपोर्ट सिस्टम बहुत कम है और मेंटल हेल्थ सर्विस को कोचिंग सेंटरों के साथ जोड़ना होगा।’ जोशी भी कोटा में TISS के उस प्रोजेक्ट का हिस्सा थीं।

स्टूडेंट काउंसलिंग को लेकर हमारे सहयोगी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया के सवालों जवाब में, कोटा के सबसे बड़े संस्थानों में से एक, एलन कोचिंग इंस्टिट्यूट ने कहा कि वे ‘नियमित काउंसलिंग सेशंस, पैरेंट-टीचर मीटिंग, वैकल्पिक करियर को लेकर सेशंस के साथ-साथ मॉटिवेशनल और साइकॉलजिकल काउंसलिंग कराते हैं।’

एलन इंस्टिट्यूट ने ये भी कहा कि सेशंस के दौरान, माता-पिता को अपने बच्चों के साइकॉलजिकल इशूज से निपटने के बारे में भी शिक्षित किया जाता है। उन्होंने आगे कहा कि वे स्टूडेंट की भलाई के लिए एक सहयोगी दृष्टिकोण के महत्व को पहचानते हैं और एनजीओ और बाहरी काउंसलर्स की विशेषज्ञता का लाभ उठाते हैं।

इस तरह के तमाम प्रयासों के बावजूद, कुछ स्टूडेंट का कहना है कि उनके पास थेरेपी के लिए समय नहीं है। राजस्थान के झुंझुनू के 17 साल के करण सिंह कोटा में पिछले एक साल से तैयारी कर रहे हैं। उन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया को बताया कि उनका शेड्यूल पूरी तरह से पढ़ाई और रिवीजन से भरा है, जिससे अन्य गतिविधियों के लिए शायद ही कोई समय बचता है। वह कहते हैं, ‘कोचिंग सेंटर सोचते हैं कि काउंसलिंग जैसी चीजें सिर्फ समय की बर्बादी हैं।’

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