~ राजेंद्र शुक्ला (मुंबई)
शरीर को निरोग, परिपुष्ट और दीर्घकाल तक जीवित रखने की इच्छा तो सभी करते हैं, पर यह भूल जाते हैं कि इस आकांँक्षा की पूर्ति का एकमात्र साधन सादा जीवन-उच्च विचार का सिद्धान्त है।
रुग्णता, दुर्बलता और अल्प-जीवन का दुर्भाग्य कहीं आसमान से नहीं टपकता और न किसी पर दैव-दुर्विपाक की तरह टपकता है। आहार-विहार में व्यतिक्रमण का ही यह दुष्परिणाम है, जिसके कारण बीमार पड़ना और बेमौत मरना पड़ता है।
वन्य प्राणियों की तरह यदि प्रकृति का अनुसरण करते हुए सरल, सौम्य जीवन जिया जा सके, तो उसके बदले अक्षुण्ण आरोग्य का चिरस्थायी लाभ हर किसी को मिल सकता है। मनुष्य उच्छृंखलता अपनाकर शरीर के साथ अनुपयुक्त छेड़खानी करता है। उस पर अनुचित दबाव डालता है, फलत: वह टूटने लगता है और समय से पूर्व ही असमर्थ हो जाता है।
थोड़ी समझदारी से काम लिया जाय और आहार-विहार में सादगी का समावेश रखा जाय, तो समझना चाहिए कि आरोग्य-रक्षा का आधा प्रावधान बन गया। सादगी का अर्थ भोजन, वस्त्र, सोने-उठने में स्वाभाविक क्रम का अपनाना है। इन प्रयोजनों में कृत्रिमता न बरती जाय, चटोरापन का परिचय न दिया जाय, उद्दण्डता न अपनायी जाय, तो उस स्वास्थ्य संकट से बचा जा सकता है, जिसके कारण असमय में ही असमर्थता और वृद्धावस्था आ घेरती है। इसके लिए मानसिक सन्तुलन बनाने की सर्वप्रथम आवश्यकता पड़ती है।
सन्तोषी, हँसती-हँसाती और मिल-जुलकर रहने की नीति इस सन्दर्भ में सर्वोत्तम है। अनावश्यक महत्वाकांक्षाएंँ और दूसरों के सामने अपने बड़प्पन का हौआ खड़ा करने वाला अहंकार ही वह कुमार्ग है, जिस पर चलने वाले अपने स्वास्थ्य से हाथ धो बैठते हैं।
समग्र स्वास्थ्य के दो भाग हैं- शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक सन्तुलन। दोनों एक दूसरे के साथ अविच्छिन्न रूप से गुंँथे हुए हैं। एक गिरेगा तो दूसरा भी टूटेगा। इसलिए जिन्हें वस्तुतः स्वास्थ्य का महत्व विदित हो, उसे प्राप्त करने की वास्तविक अभिलाषा हो, तो गांँठ बाँध लेनी चाहिए, कि यह लाभ रहन-सहन में सादगी और चिन्तन में हंँसने-हंँसाने की आदत डालने से ही प्राप्त हो सकेगा।
हल्की-फुल्की, स्वल्प-सन्तोषी और अलमस्तों जैसी चिन्तारहित ज़िन्दगी जी सकना मनुष्य की सबसे बड़ी बुद्धिमानी है। उस पर कृत्रिमता और महत्वाकांँक्षा को सहज ही न्योंछावर किया जा सकता है। इस सन्दर्भ में ईमानदारी, जिम्मेदारी और वफ़ादारी का दृष्टिकोण अपनाकर जीवनचर्या को सुव्यवस्थित, सुसंस्कृत स्तर का रखा जा सकता है।
देशों में इस दृष्टि से जापान के नागरिक बहुत भाग्यवान है, जिन्हें अलमस्ती की ज़िन्दगी जीने की कला सामाजिक प्रचलन के रूप में उपलब्ध होती है और वे अधिक शारीरिक, पारिवारिक और सामाजिक क्षेत्रों में समुन्नत स्तर का जीवनयापन करते हैं। विश्व में सबसे अधिक आयु जापानी लोगों की होती है। मात्र जापान ही नहीं विश्व के किसी भी कोने में रहने वाला कोई भी व्यक्ति सादा जीवन-उच्च विचार की नीति को अपनाकर स्वास्थ्य सम्पदा का लाभ चिरकाल तक लेता रह सकता है।
भारत में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो कोई जादू चमत्कार के आधार पर नहीं, सुनियोजित जीवनचर्या अपनाकर दीर्घजीवी हुए और स्वल्प साधनों के रहते हुए भी सदा स्वस्थ, बलिष्ठ रहे हैं। चिन्तातुर, अधिक दौड़-धूप करने वाले, लालची, उद्विग्न, असन्तोषी स्वभाव के मनुष्यों की साँसें प्राय: लम्बी चलती है और जल्दी-जल्दी सांँस लेने के कारण बेमौत मरते हैं।
निरोग दीर्घ जीवन का न कोई रहस्य है और न विशेष उपचार। इसे सादा जीवन-उच्च विचार की नीति अपनाकर कोई भी सफलतापूर्वक उपलब्ध कर सकता है।