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मुसलमानों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व की सच्चाई को उजागर करती है अब्दुर रहमान की  किताब

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नाज़मा ख़ान

देश की नई संसद में विशेष सत्र का आयोजन किया गया था। सदन में चंद्रयान-3 की सफलता को लेकर चर्चा चल रही थी। इसी दौरान बीजेपी सांसद बिधूड़ी की तरफ से बीएसपी सांसद दानिश अली के लिए ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया जो संसद के इतिहास में न भूलने वाली घटना के तौर पर दर्ज हो गया। घटना को कई दिन गुज़र चुके हैं। कल, 29 सितंबर को दानिश अली ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक पत्र लिखा जिसे उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X पर भी शेयर किया और साथ ही लिखा – “दुनिया देख रही है…आप इस बार भी ख़ामोश हैं।”

देश की संसद में एक मुस्लिम सांसद को ऐसे शब्द सुनने पड़े जो लोकतंत्र के मंदिर की गरिमा को ठेस पहुंचाते हैं। इस एक घटना के बाद से कई सवाल और पहलू सामने आए हैं। पहला, ये कि देश की संसद में चुने हुए मुसलमान प्रतिनिधि के साथ जैसा व्यवहार किया गया उस पर प्रधानमंत्री अब तक ख़ामोश क्यों हैं? दूसरा, सांसद दानिश अली को जो भी कहा गया वो साबित कर रहा था कि सड़क से लेकर संसद तक देश के मुसलमानों को आज क्या झेलना पड़ रहा है। तीसरा, और सबसे अहम कि संसद में कितने मुसलमान हैं, और कितने ऐसे हैं जो मुद्दों को उठाते हैं? 

तीसरे सवाल से ही जुड़ी लगती है हाल ही में आई पूर्व आईपीएस अधिकारी अब्दुर रहमान की नई किताब : ‘एब्सेंट इन पॉलिटिक्स एंड पावर, पॉलिटिकल एक्सक्लूज़न ऑफ इंडियन मुस्लिम्स’ (Absent in Politics and Power Political Exclusion of Indian Muslims)

कौन हैं अब्दुर रहमान?

बिहार के पश्चिमी चंपारण से आने वाले अब्दुर रहमान एक IPS अधिकारी रह चुके हैं। 1997 में महाराष्ट्र काडर मिलने पर उन्होंने कई जिलों में SP, ASP, DIG, IG के पद पर सेवाएं दी। 2019 में जब CAA आया तो उन्होंने इसे असैंवधानिक और आर्टिकल 14 का उल्लंघन करता हुआ पाया और उसके विरोध में त्यागपत्र दे दिया। 

अब्दुर रहमान की पहले भी कुछ किताबें आ चुकी हैं लेकिन उनकी नई किताब जिसका नाम ही बहुत कुछ कहता है, चर्चा में है, हमने अब्दुर रहमान से उनकी इस नई किताब पर बातचीत की। 

सवाल: क्या कहती है ये किताब? 

जवाब: ये किताब कहती है कि जब तक मुसलमान अपना ड्यू शेयर पॉलिटिक्स में नहीं लेते, तब तक उनकी आवाज़ नहीं सुनी जाएगी, उनका ड्यू शेयर कितना है और कैसे उसे हासिल किया जा सकता है। ये किताब बताती है कि मुसलमानों ने 1857 के विद्रोह से लेकर आज़ादी की लड़ाई तक में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, कुर्बानियां दी लेकिन आज जहां वो खड़े हैं वो बहुत ही चिंताजनक स्थिति है। 

क़रीब 140 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में मुसलमान क़रीब 20 करोड़ हैं मतलब पूरी जनसंख्या का क़रीब 14 फीसदी। देश की सबसे बड़ी अल्पसंख्यक आबादी का देश की संसद और विधानसभा में क्या प्रतिनिधित्व है जबकि कितना होना चाहिए? 

आज़ादी के बाद से लेकर आज तक अगर पलट कर देखा जाए तो मुसलमान सिर्फ वोट देता ही दिखा, लीडरशिप की शक्ल में वो ग़ायब रहा, ऐसा क्यों? आख़िर क्यों मुसलमानों के पास जैसी राजनीतिक आवाज़ होनी चाहिए वो नहीं है? 

किताब के कुछ ही पन्ने पलटने से एहसास हो जाता है कि ये किताब नहीं बल्कि एक दस्तावेज़ है जिसे बड़ी ही मेहनत से आंकड़ों के साथ तैयार किया गया है। मुसलमानों की जनसंख्या के हिसाब से संसद से लेकर विधानसभा तक में जो मुसलमानों का प्रतिनिधित्व होना चाहिए था वो तो नहीं रहा है। वहीं लोकल बॉडीज़ जैसे- ग्राम पंचायत, नगर पालिका, शहरों और कॉरपोरेशन लेवल पर हाल और भी बुरा है।  

इस किताब के मुताबिक 1952 से लेकर अब तक लोकसभा के 17 आम चुनावों में कुल 8,992 सांसद चुने गए हैं जिसमें से 520 मुसलमान रहे। जो महज़ 5.78 फीसदी है। जबकि उनकी जनसंख्या के मुताबिक 1,070 होने चाहिए थे।  

ऐसा नहीं है कि ये हालात पिछले 5 साल 10 साल या फिर 15 साल पहले हुए हैं, मुसलमानों के प्रतिनिधित्व तो हमेशा से ही हाशिए पर दिखाई देता है, जैसे नीचे दिए गए इस टेबल में दिखता है:

(किताब में दिए गए कुछ आंकड़े) 

1952 से 2019 तक कांग्रेस ने अपने 8131 टिकट में से 555 टिकट मुसलमानों को दिए जो महज़ 6.83 फीसदी है और 248 मुसलमान उम्मीदवार जीते। 

वहीं बीजेपी/जनसंघ ने अपने 4,622 टिकट में से केवल 50 टिकट मुसलमानों को दिए जो महज़ 1.08 फीसदी है और केवल 4 मुसलमान जीत कर आए। 

सीपीआई ने 1,147 टिकट में से 58 टिकट मुसलमानों को दिए जो 5.06 फीसदी है और 5 मुसलमान उम्मीदवार जीते। 

सीपीएम ने 1, 008 टिकट में से 101 टिकट मुसलमानों को दिए जो 10.02 फीसदी है और जीतने वाले 41 मुसलमान उम्मीदवार थे। 

ये देखने से पता चलता है कि क्षेत्रीय पार्टियों ने कुछ ज़्यादा टिकट दिए हैं लेकिन आबादी के अनुपात में वो भी कम रहा है जबकि सेक्युलर पार्टी कही जाने वाली कांग्रेस के लिए ये नहीं कहा जा सकता। 

हमने अब्दुर रहमान साहब से पूछा कि किताब के नाम में पॉलिटिक्स के साथ पावर लिखा है जिसके बारे में उन्होंने बताया :

“Electoral Politics (चुनावी राजनीति) में आपके कितने प्रतिनिधि हैं सिर्फ यही काफी नहीं है। हमें सिर्फ प्रतिनिधि ही नहीं बनाने, हमें सिर्फ राजनेता ही नहीं बनना बल्कि उसे पावर में भी बदलना है। We have to be part of government also यानी जो Corridors of Power हैं, जो कैबिनेट मिनिस्टर्स हैं, मिनिस्टर्स हैं वहां पर भी हमें जगह चाहिए।”

अब्दुर रहमान क़रीब 20-22 साल तक इंडियन पुलिस सर्विस (IPS) का हिस्सा रहे लेकिन उन्होंने किताब राजनीति से जुड़ी लिखी, हमने उनसे इसकी वजह जाननी चाही तो उनका जवाब था। “जो Political Empowerment है वह Key to all empowerment है। अगर आप राजनीतिक रूप से सशक्त हैं, तो आप हर क्षेत्र में सशक्त हैं इसलिए मैंने इस क्षेत्र को चुना अपने लेखन के लिए।”

इस किताब में बयां किया गया है कि किस तरह से मुसलमानों की सियासी आवाज़ को नज़रअंदाज़ किया गया है। 

देश में मुसलमानों के हालात कैसे रहे हैं और अब कैसे हैं, ये किसी से नहीं छुपा है। 2005-06 में बनी सच्चर कमेटी हमेशा ही चर्चा में रही लेकिन उस कमेटी की सिफारिशों का क्या हुआ, पता नहीं। क्या देश के मुसलमानों के हालात तब तक नहीं सुधरने वाले जब तक उनकी पॉलिटिकल नुमाइंदगी मज़बूत नहीं होती? हमने कुछ ऐसा ही सवाल अब्दुर रहमान साहब से पूछा। 

सवाल: सच्चर कमेटी को आए हुए बहुत वक़्त हो गया अभी हम 2024 के चुनाव के सामने खड़े हैं और आपकी किताब आई है, इस दौरान क्या कुछ बदल गया मुसलमानों को लेकर? 

जवाब: बहुत कुछ बदल गया है। ये तो मैटर ऑफ रिकॉर्ड है, सब जानते हैं कि 2014 तक जो स्कीमें UPA-1 और UPA-2 में चालू की गई थीं, धीरे-धीरे नरेंद्र मोदी की सरकार में बंद कर दी गई और पहले जो मुस्लिम Developmental Subject हुआ करता था, 2014 के बाद वो सिक्योरिटी सब्जेक्ट बन गया यानी मुसलमानों के ख़िलाफ मॉब लिंचिंग, उनके ख़िलाफ़ हिंसा, उनके ख़िलाफ़ सांप्रदायिक दंगे, उनके ख़िलाफ़ Genocidal Calls, अब उनके Empowerment के जो इश्यू हैं, उन्हें पीछे छोड़कर मुसलमान की हिफाज़त कैसे हो वो कैसे अपने सेफ्टी और सिक्योरिटी सुनिश्चित करें वो इस बात पर ध्यान देने लगे। 

सवाल: इस दौर में इस तरह की किताब का आना एक हिम्मत भरा काम है लेकिन क्या किताबों का असर ग्राउंड लेवल पर दिखता है? 

अब्दुर रहमान बहुत ही साफगोई के साथ कहते हैं कि “किताबें अगर सरकार न भी पढ़े तो चलेगा लेकिन भारत की जो मुस्लिम क़ौम है उसको पढ़ना चाहिए और अपनी पॉलिटिकल मजबूती को समझना चाहिए, अपनी कमज़ोरी को समझना चाहिए और कैसे राजनीतिक रूप से सशक्त हों, उनके पास क्या-क्या राजनीतिक विकल्प हैं, उन्हें समझना चाहिए और अपने आप को सशक्त करना चाहिए। 

सवाल: क्या किसी घटना ने इस किताब को लिखने को मजबूर किया ? 

जवाब: नहीं, ऐसी कोई घटना तो नहीं है। मैंने बस यही पाया है कि मुसलमानों की राष्ट्रीय स्तर पर कोई आवाज़ नहीं है और आवाज़ इसलिए नहीं है क्योंकि उनका उचित राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं है, बस उसी चीज़ को बढ़ाने के लिए मैंने ये किताब लिखी। 

सवाल: आंकड़े कैसे और कहां से इकट्ठा किए ? 

जवाब: देखिए अगर आप कोशिश करते हैं, तो बाकी चीज़ें अपने आप इकट्ठा हो जाती हैं, मैंने कोशिश की और जहां-जहां से आंकड़े मिल सकते थे, मैं वहां गया लोगों से गुजारिश की और लोगों ने मुझे डेटा दिया और उसका नतीजा ये किताब आपके सामने है। 

सवाल: ऐसा तो नहीं है कि राजनीति में मुसलमान बिलकुल नहीं थे, कुछ तो थे ही उनकी राजनीति को आप कैसे देखते हैं? 

जवाब: उनके बारे में बिल्कुल इस किताब में लिखा गया है। एक सेक्शन है ‘Performance of Muslim Legislators’ मैंने उनके बारे में लिखा है कि इंडिपेंडेंट मुस्लिम पार्टियों के जो रहनुमा हैं वो खुलकर के बोलते हैं, सेक्युलर पार्टियों के तथाकथित मुस्लिम रहनुमा खुलकर नहीं बोलते।

हमने अब्दुर रहमान की किताब के उस सेक्शन (Performance of Muslim Legislators) को भी देखा जहां उन्होंने लिखा था कि “दुर्भाग्यपूर्ण है कि मुसलमान विधायक अपनी बेसिक ड्यूटी – मुसलमानों के हितों की सुरक्षा करने में असफल रहे हैं, उन्होंने अपनी पार्टी के दबाव में ख़मोशी ही इख़्तियार की।”

जिस दिन अब्दुर रहमान की किताब का विमोचन था, स्टेज पर राष्ट्रीय जनता दल के सांसद मनोज कुमार झा के साथ ही ओवैसी भी मौजूद थे, जिस पर हमने उनसे पूछा कि ओवैसी साहब की पार्टी पर अक्सर दूसरी पार्टियों की बी पार्टी होने के आरोप लगता है, इस पर उन्होंने जवाब दिया:

“आपने वहां ओवैसी जी को देखा, ई.टी मोहम्मद बशीर साहब को देखा, बदरुद्दीन अजमल साहब को देखा, मेरा ये मानना है कि जो तीन मुस्लिम पार्टियां हैं जिनके एमपी और एमएलए हैं जिनका मुस्लिम प्रतिनिधित्व है, इनके लिए मुसलमान प्राइमरी मुद्दा होते हैं बाकी पार्टियों के लिए प्राइमरी मुद्दा नहीं है।  कांग्रेस का ये प्राइमरी मुद्दा नहीं है, क्षेत्रीय पार्टियों का प्राइमरी मुद्दा नहीं है जो ओबीसी बेस्ड पार्टियां हैं उनका ये प्राइमरी मुद्दा नहीं है इसलिए मैंने उनको नहीं बुलाया और इनको बुलाया कि आप इसके बारे में क्या सोचते हैं इसको कैसे बढ़ाया जाए, इसलिए मैंने पहली बार इन तीनों पार्टियों को मंच पर बुलाया कि आप इसके बारे में सोचें। रही बात ओवैसी साहब की तो उनकी चिंता भी यही है कि मुस्लिम प्रतिनिधित्व बढ़ना चाहिए, उनकी रणनीति में थोड़ी अलग बातें हो सकती हैं, उनको कोई राय दे सकता है या उनको भी अपना कोर्स करेक्शन करना चाहिए कि इस तरह से इंडियन डेमोक्रेटिक सेटअप है कि यहां पर हम इस तरह से चलें कि सेक्युकर पार्टियों को जो नुकसान हो उसको कैसे न्यूनतम करके हम अपने शेयर को कैसे बढ़ा लें।”

हमसे बात ख़त्म करते-करते अब्दुर रहमान साहब ने कहा कि “मैंने किताब इसलिए लिखी है कि मुसलमानों का ड्यू शेयर कैसे मिले और Empowerment एक दिन में हासिल नहीं होता, ये एक प्रोसेस है, ये 20-25-50 साल का प्रोसेस है, मुझे लगता है अगली बार हमारी सीटें बढ़ें न बढ़ें कम से कम कोशिश शुरू हो जाए।”

अब्दुर रहमान साहब की बातें भले ही ख़त्म हो चुकी थी लेकिन उनकी किताब बहुत कुछ कह रही है, इस किताब में बताया गया है कि कैसे दलितों और मुसलमानों को देश में हाशिये पर रखने का लंबा इतिहास रहा है, और कैसे इन दोनों के लिए एकता बहुत ज़रूरी है। 

साथ ही इस किताब में बताया गया है कि मुस्लिम वोट बैंक को लेकर क्या हकीकत है और क्या मिथ, इस किताब में इस पर भी चर्चा की गई है कि क्या सेक्युलर पार्टियों ने मुसलमानों का इस्तेमाल किया है? 

आज के इस दौर में ये किताब लोकतंत्र को मज़बूत करने के लिए मुसलमानों की सियासी आवाज़ और उनके प्रतिनिधित्व की बात करती है। उसके लिए कुछ बातें सुझाती है, लेकिन अब देखना होगा ये आवाज़ कहां तक जाती है?

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