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विश्वकर्मा योजना मनुवादी व्यवस्था का ताजा उदाहरण

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समाज में पुनः मनुवादी व्यवस्था लागू करना, यही हिंदुत्ववादियों का असली मकसद है। विश्वकर्मा योजना इसका ताजा उदाहरण है। इस योजना के जरिए बढ़ई, लोहार, मोची, कुम्हार जैसी दस्तकार और कारीगर जातियों को उनके पारंपरिक पेशे में धकेलना है। 

प्रो. रविकांत

नरेंद्र मोदी सरकार दस वर्ष पूरे करने जा रही है। वर्ष 2014 में नरेंद्र मोदी को एक ऐसा भारत मिला, जो आर्थिक मोर्चे पर दुनिया के विकसित देशों से होड़ कर रहा था। सबसे बड़ी नौजवान आबादी की आंखों में बड़े-बड़े सपने पल रहे थे। विविधता से भरे हुए भारत में एक ऐसा मध्यवर्ग उभरकर सामने आ चुका था, जो अपनी तरक्की और भविष्य को लेकर गंभीर था। भावुक देशभक्ति से लबरेज यह वर्ग देश की आंतरिक समस्याओं का त्वरित समाधान चाहता था। साठ साल के जवान लोकतंत्र ने नरेंद्र मोदी को, भारत को अधिक सशक्त और समुन्नत बनाने का मौका दिया था। अब, जबकि मोदी सरकार अपने दो कार्यकाल पूरा करने जा रही है, यह जांचना जरूरी है कि दस वर्षों में देश कहां पहुंचा है? नौजवानों के सपनों का क्या हुआ? सामाजिक लोकतंत्र कितना मजबूत हुआ? दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों और स्त्रियों की स्थितियों में क्या बदलाव हुए? 

सत्ता पक्ष का दावा है कि नरेंद्र मोदी की एक दशक की सियासत से भारत को एक नई पहचान मिली है! उसका कहना है कि भारत विश्वगुरु बन चुका है! जबकि 75 साल की आजादी के अमृतकाल में भी भारत बाहरी से ज्यादा भीतरी चुनौतियों से जूझ रहा है। 

पिछले एक दशक में दलितों-वंचितों पर होने वाले हमले बेतहाशा बढ़े हैं। गुजरात का ऊना कांड और यूपी का हाथरस कांड इसके सबसे ज्वलंत उदाहरण हैं। हालांकि दलितों, वंचितों और महिलाओं पर जुल्मों का एक लंबा इतिहास रहा है। पराधीनता का एक पूरा युग, जो बहुत भयावह और विद्रूप रहा है। आजादी के बाद इन अत्याचारों को रोकने के लिए कई कानूनी प्रावधान किए गए। ऐसे विधानों ने दलितों वंचितों को संरक्षण प्रदान किया और दबंगों पर अंकुश लगाया। लेकिन पिछले कुछ सालों में, एक नया पैटर्न देखने में आया है कि पूरा प्रशासनिक तंत्र उत्पीड़नकारी अपराधियों के पक्ष में खड़ा हो जाता है। उत्तर प्रदेश के हाथरस में दलित बेटी के बलात्कार और मौत के बाद, आंदोलनकारी दलित संगठनों और विपक्षी राजनीतिक दलों के विरोध के बावजूद उस परिवार को अभी भी न्याय नहीं मिला है। दिन-ब-दिन ऐसी घटनाओं की फेहरिस्त लंबी होती जा रही है।

चुनावी साल आते-आते हिंदुत्व की जगह सनातन शब्द को स्थापित करने की कोशिश की जा रही है। तमिलनाडु की द्रविड़ राजनीति और संस्कृति के जरिए सामाजिक न्याय के मुद्दे पर सनातन की आलोचना की गई। उत्तर भारत में इस मुद्दे पर अभी भी बहस जारी है। संघ-भाजपा ने शब्द भले ही बदल दिया हो लेकिन एजेंडा वही है। वस्तुत: हिंदुत्व की सनातनता वर्णवाद और असमानता में निहित है। समाज में पुनः मनुवादी व्यवस्था लागू करना, यही हिंदुत्ववादियों का असली मकसद है। विश्वकर्मा योजना इसका ताजा उदाहरण है। इस योजना के जरिए बढ़ई, लोहार, मोची, कुम्हार जैसी दस्तकार और कारीगर जातियों को उनके पारंपरिक पेशे में धकेलना है। अब नाई का बेटा सिर्फ बाल काटेगा और कुम्हार का बच्चा केवल घड़ा बनाएगा। वह कलक्टर, एसपी, डॉक्टर, इंजीनियर बनने का सपना नहीं देख सकता। हुकूमत कलम-किताब छीनकर बच्चों के हाथों में छैनी, वसूली, रांपी पकड़ाना चाहती है। दर्जनों सरकारी संस्थानों का निजीकरण कर दिया गया। इसके जरिए रोज-ब-रोज आरक्षण को बेमानी बनाने की कोशिशें की जा रही है। लैटरल एंट्री के जरिए उच्च प्रशासनिक पदों पर सवर्णों को नियुक्त किया जा रहा है।। इतना ही नहीं, भारत का संविधान तक इस सरकार के निशाने पर है। 

सर्वविदित है कि संविधान से हिंदुत्ववादी पहले से ही नफरत करते रहे हैं। सामाजिक समता और सेकुलरिज्म को मिटाकर आरएसएस भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहती है। हिंदू धर्म की बुनियाद वर्ण और जाति है, जो असमानता और भेदभाव पर आधारित है। हिंदू व्यवस्था में दलित और स्त्रियां सदियों से भेदभाव, शोषण और अन्याय के शिकार होते रहे हैं। शिक्षा, शस्त्र और संपत्ति से उन्हें सदैव वंचित रखा गया। इस ब्राह्मणवादी व्यवस्था में सदियों तक द्विजों की शोषणकारी सत्ता जारी रही। हिंदुत्व हो या सनातन, वस्तुत: यह ब्राह्मणवाद का ही दूसरा नाम है। इसीलिए डॉ. आंबेडकर हिंदू राष्ट्र के खिलाफ थे। उन्होंने अपनी किताब ‘पाकिस्तान : द पार्टीशन ऑफ इंडिया’ में लिखा था कि, “अगर भारत में हिंदू राष्ट्र स्थापित होता है तो यह दलित वंचितों के लिए बहुत बड़ी आपदा साबित होगा। हिंदू कुछ भी कहें लेकिन हिंदुत्व स्वतंत्रता, समानता और बंधुता के लिए खतरा है। इसलिए हिंदुत्व लोकतंत्र के अनुकूल नहीं है। इसलिए हिंदू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।” ब्रिटिश राज से तुलना करते हुए डॉ. आंबेडकर ने चेतावनी के लहजे में कहा था कि, “दलितों के लिहाज से हिंदू भारत ब्रिटिश भारत से अधिक क्रूर साबित होगा।”

नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री

संविधान सभा में जब नए भारत की बुनियाद रखी गई। ग़रीबी, अशिक्षा और असमानता की चुनौतियों के बीच राष्ट्र के नेतृत्व ने संविधान के जरिए सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र बनाने का सपना देखा। धीरे-धीरे देश इस ओर बढ़ चला। दलितों और आदिवासियों को आरक्षण के जरिए शिक्षण संस्थानों और नौकरियों में अवसर प्राप्त हुए। 1990 के दशक में पिछड़े वर्ग का भी आरक्षण लागू हुआ। आजादी के 50 साल होने तक हाशिए के इन तबकों में एक उच्च शिक्षित मध्यवर्ग उभरकर सामने आया। इस तबके में राजनीतिक चेतना का विकास भी तेजी से हुआ। इसे काउंटर करने के लिए हिंदुत्ववादियों ने मंदिर व मस्जिद के नाम पर सांप्रदायिक राजनीति को खड़ा किया। मंडल के प्रभाव को ध्वस्त करने के लिए कमंडल की राजनीति शुरू हुई। सांप्रदायिक राजनीति के जरिए सवर्ण हिंदुत्ववादी सत्ता में पहुंचे। नरेंद्र मोदी ने पिछड़ों और दलितों के भीतर विभाजन को तीव्र करके माइक्रो सोशल इंजीनियरिंग के जरिए पूर्ण बहुमत हासिल किया। संघ प्रचारक रहे मोदी ने अपने एजेंडे को पूरी शिद्दत के साथ लागू किया। नई संसद के उद्घाटन से लेकर सड़क की राजनीति में हिंदू प्रतीकों का जमकर इस्तेमाल हुआ। 

कहना अतिरेक नहीं कि देश में सांप्रदायिक विभाजन की एक ऐसी खाई बना दी गई, जिसे पाटने में दशकों लग जाएंगे। कोरोना आपदा हो या मणिपुर की जातीय हिंसा, नरेंद्र मोदी हुकूमत ने जिस असंवेदनशीलता का परिचय दिया, उससे जाहिर है कि उसके लिए बहुमत राज करने का एक औजार मात्र है। देश के लोगों और उनके दुःख-दर्द से उनका कोई लेना-देना नहीं है। 

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