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संविधान को कचड़े की टोकरी दिखाने का सपना देखता आ रहा है संघ परिवार

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डॉ.अभिजित वैद्य

स्वतंत्रता के अमृतमहोत्सव के एक पहले केंद्र सरकार ने हर घर तिरंगा लहराने का आवाहन करने पूर्व
बिल्किस बानो के बलात्कारियों एवं उनकी निष्पाप बेटी के हत्यारों को कारावास से मुक्त किया । स्वतंत्रता
के अमृतमहोत्सव के जलसे में बिलकिस बानों के आक्रोश के गूँज लुप्त हो गए l इस कृति से मोदी सरकार ने
संविधानिक मूल्यों को कलंकित किया l इस वर्ष स्वतंत्रतादिन के एक दिन पहले हिंदुत्ववादी परिवार के एक
विद्वान् ने संविधान परिवर्तन का बिगुल बजा दिया l प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आर्थिक सलाहगार परिषद के
अध्यक्ष विवेक देबरॉय ने ‘मिंट’ में ‘देअर इज ए केस फॉर वी दी पिपल टू इम्ब्रस ए न्यू काँस्टिट्यूशन’ इस
शीर्षक से एक लेख लिखा l ‘इस देश की जनता ने नए संविधान को स्वीकृत करने का समय आ गया है’ ऐसा
इसका मतलब है l संक्षिप्त रुप में अगर कहा जाए तो याह लेख है नचाने वाले के आदेशानुसार स्वामिभक्त
सेवक ने फूँका हुआ बिगुल या जनमत तैयार करने हेतु उठाया हुआ बीड़ा l राजकीय एवं अर्थिक स्वार्थ
साध्य करने के लिए शासक विविध क्षेत्र के अपने निष्ठावान, स्वामिभक्तों को जनमत तैयार करने हेतु हर
तरह के बिगुल फूँकने के लिए आदेश देते आ रहे हैं इसका इतिहास गवाह है l अपनी विवेकबुध्दि गिरवी
रखकर अनेक विद्वान, साहित्यिक, इतिहासकार, संशोधक, कलाकार, पत्रकार इन शासनकर्ताओं की मर्जी में
रहने के लिए इस तरह के बिगुल फूँकते आ रहे हैं l हिटलर ने ऐसी झूठी प्रचार-प्रणाली का जनमत तैयार
करने हेतु बेशर्मी एवं घातक पध्दति से उपयोग किया था । हिटलर द्वारा इस प्रचार-प्रणाली का इस्तेमाल
करना स्वाभाविक था l लेकिन अमेरिका जैसे जनतंत्र देश में पूँजीवादी के स्वार्थ हेतु यह घटित हो रहा है
इसलिए इस नीति पर नॉम चोम्स्की एवं एडवर्ड हर्मन ने संयुक्तरूप से एक किताब १९८८ में लिखा l इसका
नाम था ‘मॅन्यूफॅक्चरिंग कंस्टेंट’ अर्थात ‘जनमत निर्मिती l
विवेक देबरॉय का यह लेख अपने देश के संविधान के परिवर्तन का बिगुल फूँकनेवाला है l जब से भारतीय
संविधान अस्तित्व में आया तबसे हिंदुत्ववादी परिवार को इसकी घृणा है l उस संविधान को हलके से नष्ट
करने का यह प्रयास है l ऐसा होना आसान नहीं है लेकिन अशक्य भी नहीं है l डॉ. बाबासाहब आंबेडकरजी
की अध्यक्षता में स्थापित घटना समिति ने पूरे तीन वर्षों तक अथक परिश्रम करके २६ नवंबर १९४९ को
भारतीय संविधान स्वीकृत किया l स्वतंत्र भारतने डॉ. बाबासाहब आंबेडकरजी जैसे ‘अछूत’ के नेतृत्व में
कार्यरत समिति ने तैयार की हुई और जनतंत्र एवं धर्मनिरपेक्षता का उदघोष करनेवाली घटना स्विकृत की
जिससे संघ बहक गया l ३० जनवरी १९४९ को संघ का मुखपत्र ‘ऑर्गेनाइजझर’ ने संपादकीय में लिखा
की, “सबसे घटित बात ऐसी है की इसमें ‘भारतीय’ जैसा कुछ ही नहीं l स्पार्टा एवं पार्शिया में लिखे गए
संविधान के बहुत पहले मनुने संविधान लिखे l आज भी मनुस्मृति का संविधान विश्व की प्रशंसा
आज्ञाधारकता एवं अनुरूपता को स्वाभाविक तौर पर विकसित करते हैं l लेकिन हमारे संविधान विद्वानों
को इसकी कौड़ी की भी कीमत महसूस नहीं होती l” अतः देखिए कितनी सहजता से संघ स्वतंत्र भारत के
संविधान के लिए मनुस्मृति ही नैसर्गिक विकल्प है ऐसा प्रस्तुत करता है l इतना ही नहीं वह नए संविधान
को भारतीय के रूप में मानता ही नहीं l अप्रत्यक्षरूप में यह विदेशी है ऐसा सूचित करता है l अर्थात डॉ.
आंबेडकरजी द्वारा प्रेषित संविधान के न्याय, स्वातंत्र्य, समता, बंधुता के मूल्यों को अस्वीकृत करता है l

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‘समग्र सावरकर’ इस संकलन के खंड-४ पृष्ठ सं.४१६ पर सावरकर लिखते हैं- “हमारे हिंदू राष्ट्र के लिए वेदों
के तुरंत बाद मनुस्मृति ग्रंथ वंदनीय है क्योंकि वह प्राचीन काल से अपनी संस्कृति के रीतिरिवाज विचार
और आचार की बुनियाद है l सैंकड़ो साल इस ग्रंथ ने हमारे राष्ट्र की अध्यात्मिक एवं दैवी यात्रा संहिताबध्द
की है l आजभी करोड़ों हिंदूओं का अपना जीवन और आचार मनुस्मृति के नियमों के आधार पर चलते हैं l
आज मनुस्मृति यह हिंदू कानून है l”
आगे चलकर १९७७ में इन मूल्यों के साथ समावेश किया हुआ समाजवाद एवं धर्मनिरपेक्षता इन मूल्यों के
बारे में तो संघ नफरत करता है ऐसा बहुत बार दिखता आ रहा है l लेकिन गोलवलकर अपने ‘बंच ऑफ़
थॉट्स’ इस संकलित ग्रंथ में पृष्ठ संख्या २३८ पर लिखते हैं, ‘हमारा संविधान क्लिष्ट, एक ही प्रकार की,
विविध विदेशी देशों के संविधान में से उठाए हुए टुकडें हैं l जिसे अपना कहा जाए ऐसा इसमें कुछ भी नहीं
हैं l हमारा राष्ट्रिय उद्देश्य क्या होना चाहिए और हमारे जीवन की मूलभूत कल्पनाएँ कौनसी होनी चाहिए
इसके बारे में क्या इसमें एक भी शब्द है ? नहीं ! इसी ग्रंथ में पृष्ठ संख्या ३६-३७ पर वे लिखते हैं, ‘हिंदू
लोग मतलब विराट पुरुष, स्वयं ईश्वर ऐसा उन्होंने (मनू) कहा l अपितु उन्होंने हिंदू शब्द का प्रयोग नहीं
किया हो फिर भी ॠग्वेद के पुरुष सूक्त में परमेश्वर का जो वर्णन किया है उसके अनुसार यह स्पष्ट है l उसमें
कहा है सूरज और चाँद उसकी आँखे हैं l आकाश उसकी नाभी से बनाया है और ब्राम्हाण उसका मस्तिष्क,
क्षत्रिय उसकी भुजाएँ, वैश्य उसकी जाँघे और शूद्र उसके पैर l इसका अर्थ ऐसा है की यह चतुर्थस्तरिय
व्यवस्था जिन लोगों में अर्थात हिंदूओं में है वे हमारे भगवान हैं l ईश्वरमस्तक कल्पना की दृष्टता ही हमारा
राष्ट्र इस संकल्पना का गाभा है, जो हमारे विचारों में टपक गया है और जिसने अपनी सांस्कृतिक परंपराओं
की अद्वितीय कल्पनाओं को जन्म दिया है l सावरकर और गोलवलकर ये दो ब्राम्हण श्रेष्ठत्व की कल्पना से
कितने पछाड़ गए हैं और आधुनिक विश्व की विविध वैज्ञानिक संकल्पनाओं से कितने दूर थे यह इससे नजर
आता है l उन्हें स्वतंत्र भारत ने स्वीकृत किया हुआ संविधान क्यों नहीं चाहिए था वह इसलिए की वह
भारतीय समाज को वर्ण व्यवस्था से मनुस्मृति ने हजारों वर्ष निर्माण की हुई पैदाद्शी गुलामी से मुक्ति
देनेवाला था और ब्राम्हण श्रेष्ठत्व को इनकार करनेवाला था l सजातीय जन्मतः श्रेष्ठत्व के कल्पनाओं की
गंदगी में, प्रतिगामी विचारों के कीचड़ में देश को फिरसे फँसा नहीं सके इसका दुख था l अतः मनुस्मृति जैसे
कालबाह्य, मनोविकृत ग्रंथ के ध्वज की शान दिखाते वक्त उन्हें अपराधी नहीं लगता था l उन्हें समता,
बंधुता, न्याय एवं स्वाधिनता पर आधारित स्वतंत्र भारत नहीं चाहिए था l उन्हें विषमता, अन्याय एवं
गुलामी के मूल्यों पर आधारित, हिंसा का समर्थन करनेवाला देश चाहिए था l
संक्षिप्त में अगर कहा जाए तो उन्हें पुष्पमित्र शृंग (इ.स.पू. १८७-१५७) इस ब्राम्हण सेनापति ने अपना
राजा, सम्राट अशोक का पोता, मौर्यवंशीय बुध्द सम्राट बृहद्रथ की कुटिलता से हत्या करके जो शृंगवंशीय
राज्य स्थापित किया, बुध्दधर्मियोंका सत्यानास किया और पुनः मनुस्मृति प्रणित राजव्यवस्था अमल में लाई
वैसी राजव्यवस्था चाहिए थी l सम्राट अशोक ने बौध्द धर्म को राज्य का धर्म बनाने के कारण करीबन डेढ़
शतितक ब्राम्हणों का पुरोहितशाही का धंदा बंद पड़ा था, वह फिरसे शुरु हुआ l अन्य वर्ण के लोगों का
शोषण करने का अधिकार फिर से प्राप्त हुआ l इस व्यवस्था में आगे चलकर मुग़ल एवं ब्रिटिशों के
शासनकाल में कोई बदलाव नहीं हुआ l
इसके लिए जिस मनुस्मृति का ध्वज लेकर वे नाच रहे थे उस मनुस्मृति पर एक नजर डालना आवश्यक है l
मनुस्मृति को इश्वरप्रणित ग्रंथ माना गया l अर्थात ईश्वर ने मनु को कही और मनु ने मानव को बताई l अनेक
विद्वानों के मतानुसार सुमति भार्गव नामक लेखिका ने मनुस्मृति पुष्यमित्र के राजवट में लिखि, मनु को

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प्राचीन इतिहास में बड़ी प्रतिष्ठा होने के कारण उसे मनु का नाम जोड़ दिया गया l मनु को बचाकर
मनुस्मृति का पाप स्त्री के माथे पर लादने का यह प्रयास है ऐसी मेरी आशंका है l आर्य लोगों के काफी
परिवर्तन योग्य कानून बदलकर तैयार किए गए इस ग्रंथ को ईश्वरप्रणित कानून का रूप दिया गया l मूल
परिवर्तनयोग्य चातुर्वर्णय बदलकर उसके स्थान पर जन्माधिष्ठित जातिव्यवस्था निर्माण करके महिलाओं को
गुलाम किया गया l आंतरवर्णीय विवाह एवं सह्भोजन पर पाबंदी लगाई गई l सती की प्रथा, पुनर्विवाह
पाबंदी, बालविवाह ये सब धर्ममान्यहो गए और मुख्यतः दलित और सभी समाज की स्त्री को ज्ञान की
पाबंदी लगा दी l


‘श्री सार्थ मनुस्मृतिः l’ इस ग्रंथ के भाषांतरकार वे.शा.सं. रामचंद्र अंबादास जोशी के मूल संस्कृत ग्रंथ के
अधिकृत मराठी अनुवाद में क्या है इसे अगर हमने देखा तो हम हदर जाते हैं l
अध्याय पहला – जब एक दिन मनु ध्यान लगाकर बैठे थे तब महर्षि उनके पास पहुँचे l तब मनु ने उनकी
यशाविधि पूजा की और महर्षि जी ने भी तब मनु की अति आदरयुक्त तथा विधियुक्त पूजा की l श्लोक १: हे
षटगुणसंपन्न ईश्वर – आप हमें चार वर्ण, एकत्र जातिव्यवस्था के नियम कथन करने के लिए समर्थ है l श्लोक
३ – सर्वज्ञान संपन्न मनु ने महर्षि महोदय की स्तृति करके उत्तर देने में अनुमति दी l श्लोक ३० – ब्रम्हा ने
मुख से ब्राम्हण बाहु से क्षत्रिय, जाँघ से वैश्य तथा पैरों से शुद्रों की उत्पत्ति की l श्लोक ८६ – तेजस्वी ब्रम्हदेव
ने उसका मुख, बाहु जाँघ तथा पैरों से चार वर्ण निर्माण करके उनके विविध कर्मों को सौंप दिया l श्लोक ८७
– पढ़ना, यजन, याजन, दान देना या लेना ऐसे छह कर्मे ब्रम्हा ने ब्राम्हणों को दिए l श्लोक ८८ –प्रजारक्षण,
दान देना, यज्ञ, अध्ययन और विषयासक्त न होना इन्हें क्षत्रियों के कर्म कहा जाए l श्लोक ८९ – पशुपालन,
दान, यज्ञ करना, अध्ययन, व्यापार, साहूकारी तथा खेती वैश्य लोगों के कर्म हैं l श्लोक ९० – इन तीनों वर्णों
का सेवा दुजाभाव – दृष्टी रखकर न करना ये शूद्रों का कर्म ईश्वर ने दिए हैं l श्लोक ९१ – मानव नाभी के
उपरी हिस्से में पवित्र है l श्लोक ९२ – ब्राम्हण इस सृष्टि का मुख्य है क्यों की सबसे पहले उसने जन्म लिया,
उत्तम ऐसे मुख जैसे अवयव से जन्म हुआ और वह अध्यय-अध्यापन करता है l श्लोक ९३ – ब्रम्हदेव ने पुरखों
के, ईश्वर के हवी, कव्य पहुँचने तक, विश्व की रक्षा करने हेतु तप करके उस के मुख से ब्राम्हण को जन्म दिया
l श्लोक ९४ – जिसके कहनेसे ईश्वर और पुरखों हवी,कव्य खाते हैं उन ब्राम्हणों जैसा श्रेष्ठ कोई नहीं है l श्लोक
९५ –पंचमहाभूतों द्वारा निर्मिती वस्तु में कीटादि श्रेष्ठ, उनके ज्यादा लाभालाभ जानकर बुध्दि से काम
करनेवाला पशु; ऐसे बुध्दिमान मानव तथा मानवों में ब्राम्हण श्रेष्ठ है l श्लोक ९९ – श्रेष्ठता एवं कुलीनता जैसे
गुण ब्राम्हण में होने के कारण धरती पर जितना भी द्रव्य है वह ब्राम्हणयोग्य एवं उनकाही है l श्लोक १०० –
ब्राम्हण द्वारा दूसरों का अन्नग्रहण या वस्त्रपरिधान करने का अर्थ है वह खुद उसीका ही इन चीजों का
उपभोग है l श्लोक १०२ – क्षत्रियादिक को न पढ़ाना और केवल अपने शिष्य (ब्राम्हण) को उत्तम पध्दति से
पढाना l श्लोक १०७ – वेद एवं स्मृति कथित आचार यह धर्म है अतः ब्राम्हण समुदाय ने आचार में रात-दिन
तैयार रहना चाहिए l
अध्याय दूसरा – निष्काम कर्म उचित है अपितु यह पर्याप्त नहीं है l वेद का ज्ञान प्राप्त कर लेना वैदिक
धर्मसंबंध रखना आदि सब कर्मफल के ही विषय है l श्लोक ६ – मनु सर्वज्ञानी होने के कारण उसने कहा हुआ
धर्म सभी वेदों में है l श्लोक ९ – श्रुति का अर्थ है वेद और स्मृति का अर्थ है धर्मशास्त्र जिससे धर्मोदय होने के
कारण उसके विरुध्द अपना मत व्यक्त नहीं करना चाहिए l श्लोक १०— इन दो शास्त्रों का मूल्य जो नहीं
करेगा ऐसे ब्राम्हण को या वेदनिंदक नास्तिक को धर्म बहिष्कृत किया जाए l श्लोक ३० – ब्राम्हण का नाम

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मंगलवाचक होना चाहिए, क्षत्रिय का बलवाचक, वैश्य का धनयुक्त तथा शुद्र का निंद्य होना चाहिए (दगडू,
कचरू आदि नाम का यह रहस्य)
अध्याय तीसरा – श्राध्द के अन्न के बारे में श्लोक २४० – कुत्ते की नजर या शुद्र का स्पर्श अन्न को निष्फल
बना देता है l श्लोक २४५ – प्रमाणिक एवं कर्तव्यतत्पर ऐसे दासानों का भागध्येय अर्थात ब्राम्हण के भोजन
समय जमीन पर गिरा हुआ उच्छिष्ट (अर्थात शुद्र ने ब्राम्हण का झूठा खाना सेवन करना)
अध्याय चौथा – श्लोक ९८ – शूद्र के सम्मुख वेद पठन नहीं करना चाहिए l श्लोक ११४ – शूद्रान्न ब्राम्हतेज
का विनाश करता है — इसी अध्याय में किसीका अन्न निषिध्द इसकी सूची भी दी है l जिसमें भूखा,
रोगग्रस्त, वेश्या, भ्रूणहत्या, गोहत्या, पापी, गायक, बढई, नपुसक, विधवा, अपुत्री, नट, दर्जी, लुहार,
सुवर्णकार, पारधी, बुरुड, कलाल, धोबी तथा रँगरेज का समावेश किया गया है l
अध्याय पाँचवा – इसमें मनु ने अभक्ष के बारे में क्या लिखा है यह देखना मनोरंजक होगा l अभक्ष्य प्राणी
एवं पंछियों की लंबी सूची मनुने दी है l इसमें गाय नहीं है l श्लोक २६ – मंत्र, पवित्र्ययुक्त और साथ ही हवी
में से जो मांस शेष रहेगा उसे खा जाए और अगर ब्राम्हण को मांस खाने की इच्छा हुई तो केवल एक बार
मांस खा सकता है l श्लोक ३० – यज्ञ शुरू होने पर मांस खाना इसे दैवविधि एवं केवल शक्ति संपादन करने
हेतु मांस का सेवन करना इसे राक्षसविधि कहते हैं l श्लोक ३१ – कसाई से स्वयं पशु को मारकर या किसीने
लाकर देने पर उसे पितृ-देव आदि को समर्पण करने पर शेष मांस खाने में कोई हर्ज नहीं l श्लोक ३४ – यज्ञ
मधुप्रर्कार में जो मानव यथाशास्त्रविधि मांसाहार करता नही वह मृत्यु के पश्चात इक्कीस जन्म पशु बनता है l
श्लोक ३८— स्वयं-भूवानेसभी पशु यज्ञहेतु पैदा किए हैं अतः यज्ञ में मरे गए पशु यह हिंसा नहीं अपितु
अहिंसा है l इस अध्यायात उदक क्रिया किसकी नहीं करनी चाहिए इसमें गेरुआ रंग के कपडे पहनेवाले
संन्यासियों का समावेश किया है l श्लोक ११७ – चंडाल पंछी के स्पर्श के कारण हुए अपवित्र वस्त्र पर पानी
का छिडकाव करने से वह शुध्द हो जाता है l श्लोक १३८ – शरीर शुध्दिहेतु तीन बार आचमन किया जाए l
दो बार मुख धोना चाहिए, महिलाएँ एवं दलितों के लिए यह कर्म केवल एक बार है l श्लोक १३९ –
ब्राम्हणसेवा करनेवाले दलित ने प्रतिमास मुंडन करना चाहिए l वैश्यों जैसा जन्म-मरण शौचकार्य करना
और ब्राम्हणों का जूठा खाना सेवन करना चाहिए l
अध्याय सातवाँ – श्लोक ३४ — ईश्वर ने राजा को धर्मनिष्ठ ब्राम्हण का तथा चार ही आश्रमों का रक्षण करने
के लिए उत्पन्न किया है । श्लोक ३६ – राजा ने सुबह उठकर वेदज्ञ, नीतिमान, ब्राम्हण की सेवा करनी
चाहिए और उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए l श्लोक ८१,८२,८३,८४ —- ये श्लोक ब्राम्हण को राजा
ने दान देने की महती कहते हैं l
अध्याय आठवाँ – यह अध्याय मनुने दलितों के लिए बताए हुए अमानुष एवं क्रूर सजाओं का है l श्लोक २२ –
ब्राम्हणों के अलावा अन्य वर्ण के लोगों ने अगर झूठा गवाह दिया तो उन्हें दंडित किया जाए और उन्हें
निर्वासित किया जाए l ब्राम्हणों को बिना दंड किए भेजा जाए l श्लोक ४१ – ब्राम्हण को २ रूपए, क्षत्रिय
को ३ रूपए, वैश्य को ४ रूपए तथा शूद्र को ५ रूपए के हिसाब से व्याज लगाना चाहिए l श्लोक १६९ –
अगर ब्राम्हण को शूद्र ने पापमय वाणी से गाली दी तो उसकी जिहवा काँट दी जाए क्यों की वह पाँव से
निर्माण हुआ है l श्लोक २७० – जो शूद्र गाली देने के बाद नाम एवं जाती का उल्लेख उसमें करेगा उसके मुख
में गरम करके लाल किए हुए दस अंगुल डाल देना चाहिए l श्लोक २७८ – क्षत्रिय को शूद्र ने लाठी या हाथ-
पाँव से प्राघात किया तो उसका बदन छाट देना चाहिए l श्लोक २७९—दलित ने ब्राम्हण को मारने हेतु

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लाठी या अपना हाथ उठाया या लत्ताप्रहार किया तो वह हाथ या पाँव कलम करना उचित होगा l श्लोक
२८० – ब्रम्हण समवेत आसन पर बैठनेवाले दलित की कमर पर गरम किए हुए लाल लोहे से चट्टा देकर उसे
निर्वासित किया जाए या उसके कूल्हे को इस तरह से काँटा जाए की वह मर नहीं सकेगा l श्लोक २८१ –गर्व
से ब्राम्हण के सम्मुख पीक लगानेवाले दलित के ओष्ठ काँट जाए l ब्राम्हण के समुख पेशाब करनेवाले का
मूत्राशय तथा अधोवायु छोड़नेवाले का गुद काँटा जाए l श्लोक २८३ – गर्व से ब्राम्हण के केश पकडनेवाले
दलित के हाथ बिना कुछ सोचे काँट दिए जाए l पाँव, मूछें, गला, वृषण आदि देहदंड देने के लिए जिसने
पकड़ लिए उसके हाथ काँट दिए जाए l यह पूरा अध्याय ब्राम्हण का उपमर्द करनेवाला या उसकी संपत्ति
चुरानेवाले को अत्यंत क्रूर सजा बतानेवाला है l लेकिन ब्राम्हण को अत्यंत गंभीर गुनाहों के लिए भी पूरा
अभय देनेवाला है l क्योंकि ब्रम्हहत्या यह पातक होने के कारण ऐसी सजा देकर पापी नहीं बनना चाहिए
ऐसा मनुने स्पष्ट कहा है l
महिलाओं के बारे में मनु के विचार स्वतंत्ररूप में देखना आवश्यक है l अध्याय दूसरा – श्लोक १२– सँजधँज
के पुंसक को दूषित करना महिलाओं का स्वभाव है l अतः ज्ञानी उस रास्ते से दूर जाते हैं l श्लोक १३ –स्त्रियाँ
शरीर का क्रोध एवं काम की बीमारी की वजह से ज्ञानी-अज्ञानी इन्सान को कुकर्मी बना सकती है l श्लोक
१४— माता, भगिनी एवं कन्या के साथ अकेले में नहीं बैठना चाहिए क्योंकि विद्वान भी इंद्रिय समूह के
आगे हार जाते हैं l श्लोक ३९ – अतः स्त्रिया, रत्न, विद्या, शौच, सुवचन, धर्म एवं कला जहाँ से भी प्राप्त होंगे
वहाँ से लेनी चाहिए l अध्याय तीसरा – श्लोक ७२ – मृत बंधू की पत्नी के साथ वह ॠतुमति होते समय तथा
धर्म ने नियुक्त करने पर प्रतिमासी एकबार गमन करना चाहिए l अध्याय चौथा — श्लोक
१४०—राजःस्वला स्त्री के साथ गमन करने से उस व्यक्ति का बुध्दितेज, शक्ति, आँखे तथा आयुः भी कम
होती जाती l और राजःस्वला स्त्री को जो दूर रखता है उसका बुध्दितेज, शक्ति, आँखे, आयुः की
तेजः संपत्ति में वृध्दि होती है l श्लोक १४१-१४२— पत्नी के साथ एक थाली में भोजन करना, उसे भोजन
तैयार करते समय देखना, छींकते समय, जँभाई देते समय, एकांत में आनंदी देखना, आँख में अंजन लगते
समय, तेल से चुपड़ी हुई तथा उसके खुले स्तन देखना आदि कर्म नहीं करने चाहिए और तेज स्विच्छित
ब्राम्हण ने उसे या किसी महिला को प्रसुत होते समय नहीं देखना चाहिए l अध्याय पाँचवा – श्लोक
१४७—बचपन में पिता के, युवावस्था में पति के तथा वृध्दावस्था में बेटे के आश्रय में स्त्री ने रहना चाहिए l
लेकिन स्वतंत्र वृत्ति से नहीं रहना चाहिए l श्लोक १४८ — पिता, पति, पुत्र इनको छोड़कर स्त्री ने कभी भी
रहना नहीं चाहिए l क्योंकि इनसे दूर रहनेवाली स्त्री दुष्कृति हुई तो वह दोनों कुल अर्थात परिवारों को
कलंकित करती है l इसके आगे मनुने ऐसा भी कहा है की पिता गुस्सा होने पर उसने गुस्सा नहीं मानना
चाहिए, बर्तन साफसुतरे माँजने चाहिए, पिता जिसके साथ शादी करेगा उसकी आज्ञा में रहना, पति के
निधन के बाद स्वैराचारी नहीं बनना, पतिसेवा ही परम ध्येय एवं सुख मानना चाहिए, पति की मृत्यु के
बाद भी उसे जो अभिप्रेत नहीं था वह वर्तन नहीं करना, पूरी जिंदगी उसने क्षमावान, नियमबध्द, पतिव्रता
धर्म का पालन करते जिंदगी जी लेनी चाहिए ऐसी एक ना अनेक आज्ञा दीं l पांचवे अध्याय में उसने कहा है
की जब राजा सलाह मशविरा करता है तब उसने दलित एवं महिलाओं को दूर रखना चाहिए l आठवें
अध्याय में कहा है की हरेक पुरष ने हरेक पत्नी को – मुझे तुझसे प्यार है ऐसा झूठा कहा तो वह दोष नहीं है
l आठवें अध्याय में पत्नी, पुत्र, नौकर, सगाभाई, ने गुनाह करने पर परिवार के मुखिया ने उन्हें वेलु की
पतली लंबी टहनी से पीटना चाहिए ऐसा कहा है l नौवें अध्याय में उसने कहा है की परिवार के पुरुष ने
महिलाओं को अपनी काबू में रखना चाहिए, उनपर रात-दिन नजर रखनी चाहिए l साथ ही पुरुष को
देखकर महिलाओं को संभोग की इच्छा होती है, वे चंचल होती है, वे व्यभिचार करने की सँभावना रहती है

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ऐसा भी कहा है l धरती के जन्म से ही स्त्री को चिरनिद्रा, अलंकार आकर्षण,आराम से बैठना, काम, क्रोध,
द्वेष, निंदा, हिंसा आदि दिया है ऐसा ही कहा है l उसके मतानुसार पति के गुण उसमें उतर जाते हैं अतः
नीच योनी की स्त्री उच्च गुणोंयुक्त पति के कारण उत्कर्ष तक पहुँचती है l अतः उसने हर उच्च वर्ण के पुरुष को
निम्न वर्ग की स्त्री के साथ विवाह करने की अनुमति दी है l अर्थात ब्राम्हण, चारों वर्णों की स्त्री के साथ
विवाह कर सकता है ऐसी संमती उसने दी है l मनु ने स्त्रियों को व्यभिचार करने पर मुंडन, गधे पर बिठाकर
सार्वजनिक जुलूस निकालना, उँगली काँटना, कुत्तों के मुह देना आदि भयानक सजाएँ दी हैं l लेकिन पिता
की अनुमति से कन्या के साथ संभोग करने की अनुमति है l व्यभिचार एवं बलात्कार करनेवाले ब्राम्हण को
सौम्य सजा बताई है तो अन्य वर्ण के लोगों को क्रूरता से मारने की सजा सूचित की है l
मनुस्मृति यकीनन कब प्रचलित हुई इसके बारे में कितने भी मतभेद हुए तो फिर भी राम ने शंबूक को दी हुई
सजा और पेशवाई में दलितों के साथ किया हुआ अमानुष व्यवहार यह सब मनुस्मृति से अनुसार था l
प्राचीन काल से दलितों पर जो अत्याचार होते गए उनके उत्तर इस ग्रंथ में मिल जाते है l आज भी दलित
और स्त्रियों पर जिस पध्दति से अपने देश में अत्याचार होते हैं उसकी जड़े मनुस्मृति में मिलती है l इस ग्रंथ
ने भारतीय समाज को गुलाम, कर्मठ, अन्यायकारी, विषमताग्रस्त, हिंसक तथा विज्ञानविरोधी बनाया l
स्वाभाविकतः डॉ. बाबासाहब आंबेडकरजी ने २५ दिसंबर १९२७ को अपने ‘चवदार तले’ आंदोलन में
मनुस्मृति का दहन किया l जिस फ्रेडरिक नित्शा के तत्त्वज्ञान से हिटलर का जन्म हुआ वह नित्शा मनुस्मृति
के प्यार में डुबा था । और मनुस्मृति का समर्थन करनेवाले संघ की स्थापना हिटलर की प्रेरणा से हुई l ऐसे
इस अत्यंत अन्यायी, विकृत, विषैली ग्रंथ का सावरकर, गोलवलकर और उनके अनुयायी आज भी समर्थन
करते हैं और भारतीय संविधान के स्थान पर ऐसा ग्रंथ फिर से जारी करने की भाषा करते हैं यह बात अत्यंत
शरम की एवं लज्जास्पद है l


विवेक देबरॉय ने अत्यंत चलाखी से मनुस्मृति का उल्लेख न करते हुए संविधान बदलने का बिगुल बजाया है
l भारतीय संविधान को उन्होंने नौआबादी की विरासत कहा है लेकिन किसी भी लिखित संविधान की आयुः
१७ वर्षों की होती है ऐसा उन्होंने दावा किया है l अमेरिका के १७८९ से जारी राज्यघटना की आयुः शायद
उन्हें मालूम नहीं होगी l १९९७ में अरुण शौरी ने ‘वर्शिपिंग फॉल्सगॉड्स’ यह किताब लिखकर डॉ.
बाबासाहब आंबेडकरजी की प्रतिमाभंजन का और भारतीय संविधान का बाबासाहब का श्रेय अस्वीकृत
करने का कार्य किया l इसके बदले में उन्हें राज्यसभा एवं केंद्र में मंत्रिपद का तोहफा भी मिला l अटल
बिहारी बाजपेयी ने घटना का पुनर्विलोकन करने के लिए समिति नियुक्त की थी इसे भूलना उचित नहीं
होगा l संघ परिवार किसी भी प्रकार का निमित्त करके संविधान को कचड़े की टोकरी दिखाने का सपना
देखता आ रहा है l विवेक देबरॉय ने भारतीय संविधान को कालबाह्य कहा फिर भी उसके स्थान पर
हिंदुत्ववादीयों ने सर्वार्थ रूप से कालबाह्य हुई, प्रतिगामी और पुरानी मनुस्मृति की प्रतिष्ठापना करनी है
इसकी उन्हें कल्पना है l मनुस्मृति में उपरोल्लिखित श्लोक पढ़ने पर कोई भी विवेकी व्यक्ति इस षडयंत्र के
विरोध में खड़ा रहेगा l केशवानंद भारती के लवाद में सर्वोच्च न्यायालय ने दिए हुए निर्णय के कारण
भारतीय संविधान का मूल ढाँचा पूरी तरह से बदला नहीं जा सकता इसका एहसास हिंदुत्ववादीयों को
होगा ऐसा मानना में फ़िलहाल कोई हर्ज नहीं है l

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