डॉ. विकास मानव
हम प्राक्काल से ही नवरात्र या नवदुर्गापर्व को बड़ी आस्था के साथ मनाते आये हैं। बावज़ूद इसके हममें से अधिसंख्य लोग ऐसे हैं जो बिना इसकी वास्तविकता जाने, बिना इसका अर्थ और प्रयोजन समझे अन्धविश्वासी बनकर ‘मक्षिका स्थाने मक्षिका’ वाली कहावत चरितार्थ करते रहेे हैं।
हम सब यही समझते हैं कि प्राचीन समय में जब अधर्म, पाप, अनाचार, अत्याचार बहुत बढ़ गया और असुरों के द्वारा देवों को सताया जाने लगा तो सारे देवों ने मिलकर अपने-अपने तेज से एक ऐसी दिव्यशक्ति का प्राकट्य किया जिसे ‘दुर्गा’ कहा गया। फिर इसी शक्तिस्वरूपा दुर्गा ने असुरों का विनाश किया। इस शक्ति के नौ विभिन्न रूपों को ही ‘नवदुर्गा’ कहा गया।
दरअसल इस पौराणिक आख्यान से थोडा हटकर एक अलग पहलू पर भी हमें विचार करना है जो वैज्ञानिक और खगोलीय तथ्यों को भी अपने आप में समेटे हुए है।
नवरात्र का पर्व वह पर्व है जिसमें नौ रात्रियों का समावेश है : नव+रात्रि=नवरात्रि। जहाँ नव रात्रियों की अवधि पर्यन्त जिस पर्व का आयोजन हो उस पर्व का नाम–‘नवरात्र’ कहलाता है।
_यह समय खगोलीय दृष्टि से एक विशिष्ट समय होता है। यह वह अवसर होता है जब ब्रह्माण्ड में असंख्य प्रकाश-धाराएँ हमारे ‘सौरमण्डल’ पर झरती हैं। ये प्रकाश-धाराएँ एक दूसरे को काटते हुए अनेकानेक त्रिकोणाकृतियां बनाती हैं और एक-के-बाद- एक अंतरिक्ष में विलीन होती रहती हैं। ये त्रिकोण आकृतियां बड़ी ही रहस्यपूर्ण होती हैं। ये भिन्न वर्ण, गुण, धर्म की होती हैं।_
‘हिरण्यगर्भ संहिता’ के अनुसार ये प्रकाश-धाराएँ ‘ब्रह्माण्डीय ऊर्जाएं’ हैं। ये हमारे सौरमण्डल में प्रवेश कर और विभिन्न ग्रहों, नक्षत्रों, तारों की ऊर्जाओं से घर्षण करने के बाद एक ‘विशिष्ट प्रभा’ का स्वरुप धारण कर लेती हैं।
वैदिक विज्ञान के अनुसार ये दैवीय ऊर्जाएं हैं जो ‘इदम्’ से निकल कर ‘ईशम’ तक आती हैं।
अध्यात्म शास्त्र में ‘इदम्’ को ‘परमतत्व’ कहा गया है। ‘ईशम’ का अर्थ है–‘इदम् ‘का कर्तारूप। अर्थात् इदम् निर्विकार, निर्गुण, निराकार अनन्त ब्रह्मस्वरुप है और ईशम है सगुण, साकार, ईश्वररूप।
ये ऊर्जाएं फिर ‘ईशम’ से निकल कर अपने को तीन तत्वों में विभक्त कर लेती हैं।
ये तत्व हैं–अग्नि, आप (जल) और आदित्य। आदित्य भी अपने को तीन तत्वों में विभक्त कर लेता है। ये तत्व है–आकाश, वायु और पृथ्वी। इस प्रकार पांच रूप (अग्नि, जल, वायु, आकाश और पृथ्वी)-ये पंचतत्व के रूप में जाने गए हैं।
शोध और अनुसन्धान के द्वारा आज यह स्पष्ट रूप से सिद्ध हो चुका है कि ‘तत्व’ ही ऊर्जारूप में बदल जाता है। ‘तत्व’ ही ‘ऊर्जा’ है और ‘ऊर्जा’ ही ‘तत्व’ है।
इन ऊर्जाओं के गुण-धर्म अलग-अलग होते हैं। आज का विज्ञान इन्हें ही
‘इलेक्ट्रॉन’, ‘प्रोटॉन’ और न्यूट्रॉन के नाम से पुकारता है। ज्योतिष के हिसाब से ये ही ज्ञानशक्ति, बलशक्ति और क्रियाशक्ति हैं।
कालांतर में उपासना पद्धति विकसित होने पर उपासना भूमि में ये ही महासरस्वस्ती, महालक्ष्मी और महाकाली के रूप में स्वीकार की गयीं। इन शक्तियों के वाहक रूप में ब्रह्मा, विष्णु और महेश की कल्पना की गयी। इन्हें तंत्र में पंचमुंडी आसन कहा गया है।
हिरण्यगर्भ संहिता के अनुसार ये पांचों ऊर्जाएं सौर मण्डल में प्रवेश कर ‘सौरऊर्जा’ का रूप धारण कर लेती हैं तथा नौ भागों में विभाजित हो जाती हैं और नौ मंडलों का अलग-अलग निर्माण कर लेती हैं। ये नौ मंडल ही ज्योतिष के ‘नवग्रह’ हैं।
_इन ग्रहों से विभिन्न वर्णों की रश्मियाँ झरती हैं जो समस्त चराचर जगत को अपने प्रभाव में ले लेती हैं। इन्हीं से जीवों की उत्पत्ति होती है, प्राणियों में जीवन का संचार होता है। पृथ्वी पर भी इन्हीं से जीवन, जल, वायु, वनस्पति, खनिज, रत्न, धातु तथा विभिन्न पदार्थो का निर्माण हुआ है।_
पञ्च तत्वों के संयोजन में विभिन्न क्रमों के बदलाव से विभिन्न पदार्थों की रचना हुई है।
वैज्ञानिकों के अनुसार ये ऊर्जाएं पृथ्वी पर उत्तरी ध्रुव की ओर से क्षरित होती हैं और पृथ्वी को यथोचित पोषण देने के बाद दक्षिणी ध्रुव की ओर से होकर निकल जाती हैं। इसी को वैज्ञानिक लोग ‘मेरुप्रभा’ कहते हैं।
इसी ‘मेरुप्रभा ‘के कारण पृथ्वी का चुम्बकत्व होता है। मनुष्य के अन्दर भी अपना चुम्बकत्व उसी के फलस्वरूप होता है। मनुष्य शरीर में रीढ़ की हड्डी के भीतर सुषुम्ना नाड़ी होती है। यहाँ पर परम शून्यता रहती है। इसीलिए इसे ‘शून्यनाड़ी’ भी कहा गया है।
यहाँ स्थित वह परमशून्य उस परमतत्व का ही रूप है जो अनादि काल से मनुष्य के शरीर में सुप्तावस्था में रहता आया है।
नवरात्र के दिनों में मनुष्य को अनायास ही एक अलौकिक अवसर हाथ लग जाता है जब उसकी चेतना में
आलोड़न होने लगता है। इस समय मनुष्य के अन्दर चुम्बकीय शक्ति में भी वृद्धि हो जाती है।
अन्तर्ग्रहीय ऊर्जा की दृष्टि से उत्तरी ध्रुव प्रदेश अत्यन्त रहस्यमय है। उस प्रदेश में ऊर्जाओं की छनने की क्रिया संघर्ष के रूप में देखी जा सकती है। टकराव के फलस्वरूप एक विलक्षण प्रकार की ऊर्जा-कम्पन उत्पन्न होता है जिसके प्रकाश की चमक प्रत्यक्ष रूप से देखी जा सकती है। उसी चमक को ‘मेरुप्रभा’ कहते हैं।
_मेरुप्रभा का दृश्यमान रूप जितना विलक्षण और अद्भुत है, उससे कहीं अधिक विलक्षण और अद्भुत है उसका अदृश्य रूप। इस मेरुप्रभा का प्रभाव समस्त भूतल पर पड़ता है। इससे सम्पूर्ण भूगर्भ में, समुद्र-तल में, वायुमंडल में, ईथर के महासागर में जो विभिन्न प्रकार की हलचलें होती रहती हैं, उनका बहुत कुछ सम्बन्ध इसी मेरुप्रभा से होता है। इतना ही नहीं, उसकी हलचलें जीवधारियों की शारीरिक, मानसिक स्थितियों को भी प्रभावित करती हैं।_
ब्रह्माण्ड का सर्वश्रेष्ठ प्राणी होने के नाते मनुष्यों पर तो उसका प्रभाव विशेषरूप से पड़ता है।
उत्तरी ध्रुव पर धरती भीतर की ओर धंसी हुई है जिस कारण 14000 फ़ीट गहरा समुद्र बन गया है। इसके विपरीत दक्षिणी ध्रुव 19000 फ़ीट कूबड़ की तरह उभरा हुआ है। उत्तरी ध्रुव पर वर्फ बहती रहती है तथा दक्षिणी ध्रुव पर वर्फ जमी रहती है। दक्षिणी ध्रुव पर रात धीरे-धीरे आती है। सूर्यास्त का दृश्य काफी समय तक रहता है।
_सूर्यास्त हो जाने के बाद महीनो अन्धकार छाया रहता है। ध्रुवों पर सूर्य- रश्मियों की विचित्रता के फलस्वरूप अनेक विचित्रताएं दिखाई देती हैं दूर की चीजें हवा में लटकती हुई जान पड़ती हैं।_
पृथ्वी का जो चुम्बकत्व है और उसके कण-कण को प्रभावित करता है, वह ब्रह्माण्ड से आने वाले शक्तितत्व के प्रवाह के कारण है। वह शक्ति-प्रवाह अति रहस्यमय है। मेरुदण्ड में स्थित सुषुम्ना नाड़ी में यह शक्ति-प्रवाह कार्य करता है। दूसरे शब्दों में यही शक्तितत्व ‘जीवन तत्व’ है।
_यह शक्तितत्व-प्रवाह उत्तरी ध्रुव की ओर से आता है और दक्षिण की ओर से बाहर निकल जाता है। इसीलिए उत्तरी-दक्षिणी–दोनों ध्रुवक्षेत्र होने पर भी दोनों के गुण-धर्म में भिन्नता है। दोनों की विशेषताओं में काफी अन्तर है।_
मार्च/ अप्रैल और सितम्बर/अक्टूबर अर्थात् चैत्र और आश्विन माह में जब पृथ्वी का अक्ष सूर्य के साथ उचित कोण पर होता है, तो उस समय पृथ्वी पर अधिक मात्रा में ‘मेरुप्रभा’ झरती है जबकि अन्य समय पर गलत दिशा होने के कारण वह मेरुप्रभा लौट कर ब्रह्माण्ड में वापस चली जाती है। वैज्ञानिकों का कहना है कि वह मेरुप्रभा में नौ प्रकार के उर्जा-तत्व विद्यमान हैं।
_प्रत्येक ऊर्जा-तत्व अलग- अलग विद्युत्धारा के रूप में परिवर्तित होते हैं। वे नौ प्रकार की विद्युत्धाराएँ जहाँ एक ओर प्राकृतिक वैभव का विस्तार करती हैं, वहीँ दूसरी ओर समस्त जीवधारियों, प्राणियों में जीवनीशक्ति की वृद्धि और मनुष्यों में विशेष चेतना का विकास करती है।_