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*आत्मविकास के लिए विष सावित होता है निंदारस*

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              ~ राजेंद्र शुक्ला (मुंबई)

       निन्दा करने में लक्षित व्यक्ति को अपने से छोटा सिद्ध करने की मनोवृत्ति काम करती है। जबकि अपने बारे में वह यही विश्वास रखता है, कि उसमें वे कमियांँ लेशमात्र भी नहीं है। परिणामत: उसे लगता है कि वह दूसरों की अपेक्षा श्रेष्ठ है। यही आत्म-तुष्टि की आकांँक्षा उसे निन्दालु प्रवृत्ति से मुक्त नहीं होने देता।

       इसी आत्म-तुष्टि के कारण निन्दा करने में रस आता रहता है, जिसे ओछी वृत्ति के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है? आत्म-विकास के लिए आत्म-समीक्षा को सबसे प्रथम सूत्र माना गया है। निन्दालु प्रवृत्ति के व्यक्ति में आत्म-समीक्षा करने की क्षमता कुण्ठित हो जाती है। उसका सारा चिन्तन दूसरों की कमियांँ खोजने में लगा रहता है।

       अपने प्रति जब पहले ही श्रेष्ठ भावना बन चुकी हो, तो आत्म-समीक्षा करने की आवश्यकता ही क्या रह जाती है? जिससे कि सुधार की आवश्यकता का अनुभव हो सके। अतएव निन्दालु प्रवृत्ति वाले व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास की समस्त संभावनाएँ नष्ट हो जाती है और अपने चारों ओर रहने वाले लोग उससे नाराज रहते और घृणा की दृष्टि से देखते हैं।

       निन्दा करने वाले व्यक्ति को दूसरों की निन्दा करने में जितना आनन्द मिलता है, किसी दूसरे व्यक्ति के द्वारा कही गई अपनी निन्दा सुनने पर वह उतना ही उद्विग्न हो उठता है। वस्तुतः होता यह है कि जब दूसरों के दोष सामने कहने का साहस नहीं होता, तभी पीठ पीछे निन्दा करके अपने मन का गुबार निकालने का प्रयास किया जाता है।

        प्रशंसा जिसकी की गई है, उस तक पहुंँचे अथवा न पहुंँचे इसमें सन्देह है, परन्तु पीठ पीछे की गई निन्दा उस व्यक्ति तक किसी मनचले सन्देशवाहक के द्वारा पहुंँच ही जाती है। यदि समझदारी से काम लिया जाए, तो निन्दा के स्थान पर प्रशंसा करने की प्रवृत्ति को पोषण प्रदान करना चाहिए। इससे संबंधित व्यक्ति तक भले ही हमारी सद्भावना न पहुंँचे परन्तु सामने वाले व्यक्ति अपनी प्रशंसात्मक प्रवृत्ति से प्रभावित हुए बिना न रहेंगे।

       निन्दा करने से बचने में जितनी समझदारी है, दूसरे के द्वारा की गई निन्दा सुनकर भी मन को सन्तुलित बने रहना तथा इसमें से अपने आत्म-विकास के लिए उपयोगी तथ्य निकाल लेना उससे भी बड़ी बुद्धिमानी है। निन्दालु व्यक्ति के तथ्यों से प्रभावित होकर बदला लेने की भावना तो स्वयं को भी उसे अध:पतन की ओर घसीटेगी। अतएव अपनी शक्ति को दुरुपयोग से बचाए रखने में ही औचित्य है।

       निन्दा पर विजय प्राप्त करने के लिए वहीं रहना चाहिए, जहांँ अपमान व तिरस्कार होता है। भागने पर तो निन्दा कहीं भी अपना साथ न छोड़ेगी। यथार्थ निन्दा जहांँ व्यक्तित्व के परिष्कार में सहायक बनती है, वही झूठा दोषारोपण करने के कारण समय पर न केवल निन्दक उपहासास्पद स्थिति में पहुँचता है, अपितु निन्दा सहन करने वाले की गरिमा जन सामान्य के सामने अधिक उज्जवल स्वरूप में निखर उठती है।

       जो व्यक्ति निन्दा करने की प्रवृत्ति से बचना चाहता है, उसे अपने समय को कभी खाली नहीं रहने देना चाहिए। खाली समय में ही मस्तिष्क उटपटाँग चिन्तन करता तथा जो न करना चाहिए, उसे करने में संलग्न रहता है। इसलिए बचे समय का उपयोग किसी रचनात्मक कार्य में करना चाहिए। यह भी न बन पड़े तो मौन धारण करने का अभ्यास करना चाहिए, परन्तु निन्दा करने की कुप्रवृत्ति से बचने का पुरुषार्थ अवश्य करना चाहिए।

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