80 के दशक में एक अंग्रेजी पत्रिका को दिए इंटरव्यू में घनश्याम दास बिड़ला ने कहा कि वे ख़ुद को एक व्यापारी नहीं मानते. जब उनसे पूछा गया कि क्या हिन्दुस्तान में साम्यवाद पनप सकता है तो उन्होंने साफ़ मना कर दिया. और जब यह पूछा गया कि उन्हें जीवन में सबसे ज़्यादा किसने प्रभावित किया है तो उनका कहना था – ‘गांधीजी और विंस्टन चर्चिल.’
एक ज़माना था जब किसी की रईसियत पर तंज़ कसना होता था तो कहते, ‘तू कौन सा टाटा-बिड़ला है?’ आज हम उसी बिड़ला की बात कर रहे हैं जिसे दुनिया घनश्यामदास बिड़ला (जीडी बाबू) के नाम से जानती है. बिड़ला मारवाड़ी समाज के बनिए होते हैं. गुरचरण दास ने अपनी क़िताब ‘उन्मुक्त भारत’ में लिखा है, ‘मारवाड़ी जिस इज्ज़त के हक़दार हैं, इस देश ने उन्हें उतनी इज्ज़त नहीं बख्शी.’ बावजूद इसके हिन्दुस्तान के व्यापार पर इनका कब्ज़ा होने की कहानी बहुत ही ज़बरदस्त है.
‘मारवाड़’ शब्द ‘मारू’ और ‘वाडा’ के संयोग से बना है. ‘मारवाड़’ का मतलब है ‘मौत की ज़मीन’. यूं तो मारवाड़ राजस्थान के जोधपुर संभाग को कहते हैं पर मारवाड़ी दरअसल राजस्थान के शेखावाटी इलाके से ताल्लुक रखते हैं. मारवाड़ियों के सफल व्यापारी होने पर बहुत रिसर्च हुई है. थॉमस टिमबर्ग ने तो मारवाड़ियों पर डॉक्टरी की है. उनकी सफलता के कई कारण बताये जाते हैं – जैसे मज़बूत पारिवारिक संगठन, जोख़िम लेने की हिम्मत, पैसे की समझ आदि.
ये सारी बातें सही हैं, पर ज़ोखिम लेना और पैसे की समझ उन्हें कैसे आई? तो इसके पीछे तर्क यह है कि शेखावाटी में जीवन बहुत कठिन है. हर संसाधन की कमी है और सबसे बड़ा संसाधन पानी और भी कम है. मारवाड़ियों ने पानी का संचयन किया और सही तरीक़े से इस्तेमाल किया. संसाधनों को सहज कर रखने की सोच पीढ़ी दर पीढ़ी इनके अंदर रच-बस गयी. इसी सोच से इन्होंने पैसे को सहेजा और सही जगह इस्तेमाल किया.
घनश्याम दास बिड़ला का जन्म पिलानी में हुआ था. उनका खानदानी पेशा पैसा ब्याज पर देना था. शेखावाटी के मारवाड़ी जयपुर रियासत जैसी बड़ी और कई छोटी-मोटी रियासतों के राजाओं को ब्याज़ पर पैसा देते थे. एसएन तिवारी ने अपनी किताब ‘फ्रीडम स्ट्रगल एंड रोल ऑफ़ कम्युनिटीज’ में मारवाड़ियों पर लिखा है कि जब राजाओं को युद्ध लड़ने के लिए पैसे की ज़रूरत होती थी तो शेखावाटी के मारवाड़ी ब्याज़ पर पैसा देते थे. बाद में जब यहां के राजाओं और ठाकुरों ने अंग्रेजों की सरपरस्ती कुबूल कर ली और लड़ाइयां बंद हो गयीं तब मारवाड़ी उठकर उन जगहों पर जा बसे जहां व्यापार की संभावनाएं होती थीं.
बड़े शहर जाकर व्यापार सीखने की मारवाड़ियों की रवायत को घनश्याम दास ने भी निभाया और पिलानी से कोलकाता चले आये. यहां वे नाथूराम सराफ के बनाये हुए हॉस्टल में रहने लगे. उस हॉस्टल में कई और मारवाड़ी बच्चे थे. सब एक-दूसरे से अपने अनुभव साझा करते और सीखते. 16 साल की उम्र तक आते-आते उन्होंने अपनी ट्रेडिंग फॉर्म खोल ली और पटसन (जूट) की दलाली में लग गए. पहले विश्व युद्ध में पटसन और कपास की भारी मांग के चलते जीडी बाबू ने खूब मुनाफा कमाया. अंग्रेज़ व्यापारी बिड़ला से नफरत करते थे. उन्होंने पटसन के व्यापार पर एकतरफ़ा कब्ज़ा कर लिया था और यूरोप के कारखानों को ऊंचे दामों पर पटसन बेचते थे. इससे बचने के लिए अंग्रजों ने मुद्रा के विनिमयन को अपने हक में कर लिया तब बिड़ला ने ‘हिंदुस्तान के सोने और स्टर्लिंग की लूट’ की बात कहकर पूरे देश में हंगामा खड़ा कर दिया था. कई बार अंग्रेज कारोबारियों ने उनके व्यापार को बंद करवाने की कोशिशें की पर हर बार नाकाम रहे.
हौसले से लबरेज़ बिड़ला ने तब मैन्युफैक्चरिंग में कदम रखा और 1917 में कोलकाता में ‘बिड़ला ब्रदर्स’ के नाम से पहली पटसन मिल की स्थापना की. 1939 के आते आते ये फैक्ट्री देश की तेहरवीं सबसे बड़ी निजी फैक्ट्री बन चुकी थी. इसी समय जेआरडी टाटा भी हिंदुस्तान के नक़्शे पर उभर रहे थे. एक अनुमान के हिसाब से 1939 से 1969 तक टाटा की संपत्ति 62.42 करोड़ से बढ़कर 505.56 करोड़ (करीब आठ गुना) हो गई थी. उधर घनश्याम दास बिड़ला की संपत्ति 4.85 करोड़ से बढ़कर 456.40 करोड़ यानी करीब 94 गुना हो गयी थी. दोनों ही संपत्ति बना रहे थे पर बिड़ला का मामला दीगर था. उनके साथ न तो कोई पुराना इतिहास था और न ही कोई विरासत. जिस तरह पटसन की दलाली में उन्हें अंग्रेजों से झूझना पड़ा ठीक उसी तरह जब उन्होंने 1958 में हिंडाल्को की स्थापना की तब भी उन्हें अफसरशाही से लड़ना पड़ा.
गुरचरण दास ने लिखा है, ‘…लोगों को लगता कि बिड़ला ने सरकार की बांहें मरोड़कर व्यापार स्थापित किया है. ये लोग ‘हज़ारी कमेटी’ की रिपोर्ट का हवाला देते है जिसमें लिखा था कि 1957 से लेकर 1962 तक बिड़ला ने सरकार द्वारा दिए गए कुल लाइसेंसों में से 20 फ़ीसदी पर कब्ज़ा करके व्यापार में एकाधिकार करने की कोशिश की’. गुरचरण आगे लिखते हैं, ‘ये ग़लत बात है क्यूंकि 1945 में उनके पास 20 कारोबारी कंपनियां थी और 1962 तक बिना किसी सरकारी मदद से उन्होंने 150 कंपनियां बना ली थीं. ’ उस दौर में बिड़ला एक से एक बड़ी फैक्ट्री स्थापित करते जा रहे थे और ऐसा कहा जाता हैं कि उन्ही के डर से लाइसेंस राज और एमआरटीपी जैसे एक्ट लगाये गए थे. वह समाजवाद का दौर था जब किसी पूंजीवादी को ज़्यादा उत्पादन करने से रोका जाता था.
बहुत लोगों को लगता है कि उन्हें कांग्रेस सरकार से नज़दीकी का फ़ायदा मिला. हकीक़त यह है कि नेहरू-गांधी परिवार से उनके ताल्लुकात कुछ ज़्यादा अच्छे नहीं थे. 20 अप्रैल, 1953 को उन्होंने नेहरु को एख पत्र लिखा था जिसके कुछ अंश इस तरह हैं – ‘…मेरी कंपनी को कुछ विदेशी प्रस्ताव मिले हैं जिनमें इंग्लैंड की सरकार के साथ ज्वलनशील पदार्थ की फैक्ट्री लगाना और जर्मनी की सरकार के साथ स्टील प्लांट की स्थापना मुख्य है. मेरी उम्र 60 की हो चुकी है. मुझे पैसा कमाने की अब कोई चाह नहीं है. बस इतना चाहता हूं कि उत्पादन बढ़े जिससे देश को फायदा हो. मैं ये जानना चाहता हूं कि क्या हम इन प्रस्तावों पर आगे बढ़ सकते हैं? मुझे सरकार से किसी प्रकार की मदद नहीं चाहिए बस इतना बता दीजिये कि आपकी सरकार इस बाबत क्या सोचती है.’
उन्हें सरकार से कोई जवाब नहीं मिला. जीडी बाबू की गांधीजी, मदन मोहन मालवीय, सरदार पटेल, लाला लाजपत राय और लाल बहादुर शास्त्री से काफ़ी नज़दीकी रही. नेहरू बिड़ला को संशय की नज़र से देखते थे. इसलिए ही नहीं कि वे सरदार पटेल के क़रीब थे बल्कि इसलिए भी कि वे विलायत से पढ़कर आये थे, समाजवाद से प्रेरित थे और ठेठ देशज और पूंजीवाद के समर्थक थे. व्यापार के साथ-साथ उन्हें राजनीति में भी दिलचस्पी थी.
1915 में घनश्याम दास बिड़ला गांधीजी के साथ जुड़ गये थे. आज़ादी के आंदोलन में जीडी की तीनतरफ़ा भूमिका थी. पहला, उन्होंने पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास के साथ मिलकर ‘फ़िक्की’ की स्थापना की. दूसरा, आज़ादी की जंग में उनसे ज़्यादा धन किसी ने नहीं लगाया. और तीसरा, 1926 में मदन मोहन मालवीय और लाला लाजपत राय की पार्टी की तरफ से वे सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली में गोरखपुर की सीट से चुने गए थे. गांधीजी ने एक जगह लिखा है – ‘मेरे कई गुरु रहे और उनमे से एक जीडी भी हैं…’ 14 मार्च, 1932 को घनश्याम दास बिड़ला के लार्ड टेंपलवुड को लिखे पत्र का मज़मून कुछ इस प्रकार है, ‘…सर , मैं आपको भरोसे का व्यक्ति मानता हूं लिहाज़ा मेरा फ़र्ज़ है कि आप मेरे बारे में जाने. मैं गांधीजी का अनुयायी हूं और एक तरह से उनका ‘प्रिय’ भी हूं. मैंने उनके आंदोलनों में आर्थिक सहायता की है. हालांकि मैंने कभी ‘सविनय अवज्ञा’ आंदोलन में सक्रिय भाग नहीं लिया पर सरकार की नीतियों का घोर आलोचक हूं और इसलिए सरकारी तंत्र में मुझे पसंद नहीं किया जाता…’
बावजूद इसके, 1940 में जब ब्रिटेन की महारानी मैरी हिंदुस्तान आयीं तो लार्ड वावेल देश के कुछ नामचीन लोगों से उन्हें मिलवाना चाहते थे. नेहरु ने टाटा का नाम सुझाया था. हालांकि वावेल मारवाड़ियों से ज़्यादा प्रभावित नहीं थे, पर उनकी नज़र में रानी मैरी को बिड़ला ज़्यादा दिलचस्प लगने वाले थे. वावेल लिखते हैं, ‘…मैं समझता हूं कि रानी को टाटा के बनिस्बत बिड़ला ज़्यादा दिलचस्प लगेंगे. उनके पास काफ़ी कुछ कहने को हैं. आप चाहे मारवाड़ियों के तौर-तरीकों के बारे में कुछ भी कहें पर भोजन पर रानी के साथ बिड़ला की बातचीत रानी को पसंद आएगी…’
मेधा कुदसिया ने जीडी बाबू की जीवनी लिखी है. इसमें उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री और घनश्याम बिड़ला के संबंधों का ज़िक्र किया है. शास्त्री चाहते थे कि बिड़ला देश में औद्योगिक क्रांति लेकर आयें. शास्त्री चाहते थे कि सरकार का चेहरा तो समाजवाद का ही रहे पर भीतर ही भीतर आर्थिक सुधार की प्रकिया भी शुरू हो. गुरचरण दास लिखते हैं कि जो सुधार 1991 में लाये गए थे वे अगर 1965 में लागू हो जाते तो देश का चेहरा कैसा होता! आप को जानकर हैरत होगी कि बिड़ला दुर्गापुर में स्टील प्लांट की स्थापना करना चाह रहे थे और वहां पैसा भी काफी लगा दिया था. फिर न जाने क्या हुआ कि नेहरू ने उनसे यह छीन ले लिया और सरकार ने उस प्लांट की स्थापना की. जीडी बाबू ने इस बात पर कभी नेहरु को माफ़ नहीं किया.
जीडी बाबू अपने बारे में कम ही बात किया करते. पर जब कभी कुछ अपने बारे में कहना होता तो अप्रत्याशित बात करने से नहीं चूकते थे. मसलन 80 के दशक में एक अंग्रेजी पत्रिका को दिए इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि वे ख़ुद को एक व्यापारी नहीं मानते. जब उनसे पूछा गया कि क्या हिन्दुस्तान में साम्यवाद पनप सकता है तो उन्होंने साफ़ मना कर दिया. और जब यह पूछा गया कि उन्हें जीवन में सबसे ज़्यादा किसने प्रभावित किया है तो उनका कहना था – ‘गांधीजी और विंस्टन चर्चिल.’
देश को आजाद कराने में बहुत से क्रांतिकारियों ने अपना खून बहाया, बहुत से स्वतंत्रता सेनानी जेल गए, बहुत से आजादी के लड़ाकों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया. इतिहास ऐसे कई बलिदानियों की गाथा लिख चुका है लेकिन उन दानियों पर बहुत ही कम बात होती है जिन्होंने आजादी की इस लड़ाई में अपना पैसा बहाया और फिर देश को आर्थिक रूप से मजबूत बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया.
आज हम एक ऐसे ही स्वतंत्रता सेनानी और देश के जाने माने बिजनस ग्रुप के संस्थापक की कहानी आपको बताने जा रहे हैं. इन्होंने न केवल स्वतंत्रता संग्राम की मुहिम जारी रखने के लिए धन का दान किया, बल्कि दलितों को उनका अधिकार दिलाने के लिए भी लड़े. आजादी के बाद इन्होंने अपना साम्राज्य मजबूत करने के साथ-साथ भारत की अर्थव्यवस्था को भी मजबूत किया.
हम बात कर रहे हैं भारत से सबसे बड़े बिजनेस साम्राज्यों में से एक बिड़ला ग्रुप के संस्थापक और देश की आजादी में अहम योगदान देने वाले घनश्याम दास बिड़ला की.
आज के दौर में अमीरी की पहचान बताने के लिए लोग ‘अंबानी’ सरनेम का प्रयोग करते हैं लेकिन वो भी एक दौर था जब बिड़ला का नाम लिया जाता था. बिड़ला हमारे देश के सबसे पुराने और सबसे मजबूत बिजनेस साम्राज्यों में से एक रहा है. इसी बिड़ला ग्रुप के संस्थापक थे घनश्याम दास बिड़ला.
10 अप्रैल 1894 को राजस्थान के झुंझुनू जिले के पिलानी गांव में जन्मे घनश्याम दास बिरला एक मारवाड़ी माहेश्वरी समुदाय से संबंध रखते थे. घनश्याम दास के साथ ‘बिड़ला’ उपनाम जुड़ा नवलगढ़ के बिड़ला परिवार के कारण. इसी परिवार के शिवनारायण बिड़ला की कोई संतान नहीं थी. ऐसे में उन्होंने जी.डी बिड़ला के पिता बलदेव दास को गोद लिया और फिर बलदेव दास बन गए बलदेव दास बिड़ला. इस तरह ये उपनाम घनश्याम दास और उनकी आने वाली पीढ़ियों के साथ जुड़ा.
बिड़ला नाम को आगे बढ़ाया
शिवनारायण बिड़ला का परिवार मारवाड़ी समुदाय के पारंपरिक व्यवसाय साहूकारी के लिए जाना जाता था लेकिन शिवनारायण बिड़ला इससे हटकर अलग क्षेत्र में व्यापार का विकास करने के लिए जाने गए. उनके दत्तक पुत्र और घनश्याम दास के पिता बलदेव दास ने अपने भतीजे फूलचंद सोधानी के साथ मिलकर अफीम का व्यवसाय किया और इसे सफल बनाया. उनके साथ साथ घनश्याम दास के बड़े भाई जुगल किशोर भी इसी व्यापार में आगे बढ़े.
बलदेव दास बिड़ला ने 1884 में बॉम्बे में शिवनारायण बलदेव दास और कलकत्ता में 1897 में दलदेव दास जुगल किशोर नामक फार्मों की शुरुआत की. यहां से वह चांदी, रुई, अनाज आदि का व्यापार करते थे. बलदेव दास के चार बेटे थे, जुगल किशोर, रामेश्वर दास, घनश्याम दास और ब्रज मोहन. इन सभी में घनश्याम दास बिड़ला सबसे ज्यादा कामयाब रहे.
दो शादी की, दोनों पत्नि चल बसीं
1905 में घनश्याम दास का विवाह पिलानी के नजदीक स्थित चिड़ावा गांव के महादेव सोमानी की बेटी दुर्गा देवी से हुआ. 1909 में दुर्गा देवी ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम लक्ष्मी निवास रखा गया. दुर्भाग्य शादी के 5 साल बाद ही दुर्गा देवी को टीबी हुआ और वह इस दुनिया से चल बसीं. सन 1912 में घनश्याम दास बिड़ला ने महेश्वरी देवी से दूसरा विवाह किया लेकिन कुछ ही सालों बाद चार बच्चों को जन्मद देने के बाद वह भी टीबी की चपेट में आ गईं और 6 जनवरी 1926 को इस दुनिया से चल बसीं. इसके बाद घनश्याम दास ने विवाह नहीं किया और अपना सारा समय अपने व्यापार में लगाने लगे. उनकी उम्र मात्र 32 साल थी.
केवल 5वीं तक की पढ़ाई
शिक्षा की बात करें तो घनश्याम दास मात्र पांचवी कक्षा तक ही पढ़ पाए थे लेकिन व्यापार में वह पढ़े लीखों को पीछे छोड़ने की क्षमता रखते थे. घनश्याम दास परिवार की परंपरागत साहूकारी व्यवसाय को निर्माण के क्षेत्र में मोड़ना चाहते थे. इसलिए कोलकाता चले गए. व्यापार में उन्होंने हमेशा अपने दूरदर्शी नजारियों का उपयोग किया. व्यापार के लिए भी शुरुआत में उन्होंने ऐसा व्यवसाय चुना जिसमें अभी तक किसी अन्य भारतीय ने कदम नहीं रखा था. ये व्यापार था जूट का, इसी व्यापार के लिए वह कलकत्ता आए थे क्योंकि बंगाल जूट का सबसे बड़ा उत्पादक था. उस समय जूट के व्यापार पर अंग्रेजों का एकछत्र राज था.
एक कमरे के मकान में रहकर अंग्रेजों को दी थी चुनौती
उन दिनों घनश्याम दास अपने भाई के साथ एक कमरे के मकान में रहते थे. उसी कमरे में सोते थे ,खाना बनाते थे तथा कपड़ा धोते थे. इसके बावजूद उन्होंने हिम्मत दिखाते हुए अंग्रेजों को चुनौती दी और इस व्यापार में उतर गए. हालांकि उन दिनों अंग्रेजों को चुनौती देना पानी में रह कर मगरमच्छ से वैर करने जैसा था लेकिन घनश्याम दास ने हार नहीं मानी. जैसा कि पहले से ही ये अंदाजा था कि घनश्याम दास के इस प्रयास में अंग्रेज अड़चन जरूर डालेंगे, वैसा ही हुआ. सबसे पहले तो जूट के व्यापार के लिए सभी बैंकों ने उन्हें कर्ज देने से मना कर दिया. दूसरी तरफ जब बिड़ला अपने व्यवसाय के लिए अच्छी जमीन खरीदने गए तो वहां भी अंग्रेजों ने उन्हें पीछे धकेलने की कोशिश की. दरअसल, अंग्रेज ये नहीं चाहते थे कि जूट के व्यवसाय में कोई भारतीय उन्हें टक्कर दे.
अंग्रेजों ने खड़ी कीं मुश्किलें
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अपनी मिल शुरू करने में भी उन्हें काफी मुश्किल हुई. उन्हें मिल के लिए विदेशी मशीनें मंगवानी थीं लेकिन रुपए का भाव गिरने के कारण उन मशीनों की कीमत एकदम से दोगुनी हो गई. हालांकि इनमें से कोई भी परेशानी घनश्याम दास बिड़ला को अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ने से न रोक सकी. उन्होंने जूट का व्यापार शुरू कर दिया. यहां भी उनकी दूरदर्शिता काम आई. जब वह विदेश से कोई नई मशीन मंगवाते तो उसके स्पेयर पार्ट्स भी साथ में ही मंगवा लेते थे. ऐसे में मशीन के अचानक खराब होने के बाद भी काम नहीं रुकता था.
घनश्याम दास बिड़ला की एक खासियत ये थी कि जब भी वह कोई काम करते तो इस विश्वास के साथ करते कि ये जरूर सफल होगा. उनका ये विश्वास और धैर्य हमेशा काम आया. जूट के व्यापार में भी उनका धैर्य रंग लाया. उसी दौरान प्रथम विश्व युद्ध ठन गया, जिसके कारण पूरे ब्रिटिश साम्राज्य में जूट की कमी हो गई. ये समय बिड़ला के लिए आगे बढ़ने का था और वह बढ़े भी.
बिड़ला ग्रुप की रखी नींव
Shri. Ghanshyam Das Birla was among the great architects of India’s industrial growth. His vision laid the foundation of the Aditya Birla Group. This Founder’s Day, we fondly remember Shri. G.D. Birla. Read more at: https://t.co/xgOsuMwCd4 pic.twitter.com/18KwznzOit— Aditya Birla Group (@AdityaBirlaGrp) April 21, 2021
इसके बाद सन 1919 में घनश्याम दास बिड़ला ने उस साम्राज्य की नींव रखी जो साल दर साल फलता फूलता रहा. जी हां, यही वह साल था जब उन्होंने 50 लाख की लागत से ‘बिड़ला ब्रदर्स लिमिटेड’ की स्थापना की. इसके बाद उन्होंने ग्वालियर में एक मील शुरू किया. इसके बाद घनश्याम दास द्वारा शुरू किया गया बिड़ला ग्रुप का ये सफर कभी रुका ही नहीं. हिंदुस्तान मोटर्स की स्थापना कर इस ग्रुप ने भारत को कार उद्योग में उतारा. देश की आजादी के बाद कई पूर्व यूरोपियन कंपनियों को खरीद कर चाय और टेक्सटाइल उद्योग में निवेश किया. इसके साथ ही सीमेंट, रसायन विज्ञान, स्टील पाइप जैसे क्षेत्रों में भी आगे बढ़े.
स्वतंत्रता संग्राम को दी आर्थिक मजबूती
एक तरफ घनश्याम दास बिड़ला व्यापार के क्षेत्र में अंग्रेजों को चुनौती दे रहे थे तो इसी दौरान वह देश के स्वतंत्रता संग्राम से भी जुड़े रहे. बताया जाता है कि घनश्याम दास बिड़ला 1916 में पहली बार महात्मा गांधी से मिले. समय के साथ साथ इन दोनों में गहरी मित्रता हुई. आगे चल कर बिड़ला महात्मा गांधी के करीबी मित्र होने के साथ साथ उनके सलाहकार एवं सहयोगी के रूप में भी जाने गए. अपनी हत्या से 4 महीने पहले से महात्मा गांधी घनश्याम दास बिड़ला के दिल्ली निवास पर ही रह रहे थे.
एक तरफ दूसरे क्रांतिकारी जहां खून बहाकर और जेल जा कर स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा बन रहे थे वहीं घनश्याम दास उन गिने चुने स्वतंत्रता सेनानियों में से थे जो आर्थिक रूप से देश को आजाद कराने की मुहिम में जुटे हुए थे. उन्होंने कई मौकों पर स्वतंत्रता आंदोलन के लिए आर्थिक मदद दी और अन्य धन्नासेठों से भी आजादी की लड़ाई में समर्थन करने की अपील की.
इसके साथ ही भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान घनश्याम दास ने एक ऐसे व्यवसायिक बैंक का सपना देखा जो पूरी तरह से भारतीय पूंजी और प्रबंधन से बना हो. उनका ये सपना यूनाइटेड कमर्शियल बैंक के रूप में 1943 में पूरा हुआ. इस बैंक की स्थापना कोलकाता में की गई. भारत के सबसे पुराने व्यवसायिक बैंकों में से एक इस बैंक को अब यूको (UCO) बैंक के नाम से जाना जाता है.
जब अंग्रेजों ने जारी किया था वारेंट
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युवा घनश्याम दास शुरुआत में क्रांतिकारी गतिविधियों का हिस्सा भी रहे. इसके लिए अंग्रेज पुलिस ने उनके खिलाफ वारंट भी जारी किया था. राजस्थान के स्वतंत्रता सेनानियों की ग्रंथमाला लिखने वाले लेखक डॉ. रामधारी सैनी के अनुसार 22 वर्षीय घनश्याम दास बिड़ला उस समय अंग्रेजी प्रशासन की नजर में आ गए थे जब उन्होंने अपने कमरे में कारतूस से भरी पेटी छुपाई थी. उन दिनों घनश्याम दास कोलकाता के मारवाड़ी क्लब का हिस्सा थे.