मोहम्मद शाहीन
जब भी इस्राइल ने बेगुनाह फिलिस्तीनियों पर बमबारी करनी होती है, दुनिया को दिखाने के लिए पहले जवाज़ पैदा करा लेते हैं. इसके लिए ज़्यादा कुछ नहीं करना पड़ता, बस अपने एजेंट हमास को इशारा करना होता है कि सौ पचास फुलझड़ी रॉकेट इस्राइल की तरफ फेंक दे, इसके बाद इस्राइल को अपने बचाव के बहाने फिलिस्तीन पर बमबारी का मोरल राइट मिल जाता है.
यह सिलसिला हर 6 महीने में चलता रहता है. इसी तरह फिलिस्तीन में खौफ ओ हिरास फैलाकर फिलिस्तीनियों को हिजरत पर मजबूर किया जाता है. हिजरत होती है तो ज़मीनें भी खाली होती हैं. ज़मीन खाली होती हैं तो नई यहूदी बस्तियों के सेटलमेंट का रास्ता भी साफ होता रहता है. इसके साथ-साथ यहां भी हमास में मुस्तकबिल की खिलाफत देखने वालों को सोशल मीडिया पर लाइक कमेंट बटोरने का मवाद मिलता रहता है.
ग़ासिब इस्राइल के सरकारी पेज लगातार अपनी अमवात की तादाद बढ़ाकर बताते जा रहे हैं. पहले 300 बताए गए, फिर 500, फिर 700, फिर 1000, और अब 1200 बता रहे हैं. मकसद ये है ये लोग ग़ाज़ा की बेगुनाह अवाम पर मज़ालिम के पहाड़ तोड़ने की फिराक में हैं. खुद को दुनिया की सबसे मज़लूम क़ौम जताकर दुनिया की सिम्पैथी हासिल करने का इस्राइली हथकंडा पुराना है.
किसी को नहीं पता इस्राइल के कितने शहरी मरे, कितने फौजी मरे. किसी को नहीं पता इस्राइल जितना जानी नुकसान बता रहा है, उतना हुआ भी है या नहीं. लेकिन एक बात पूरी दुनिया जानती है इस्राइल में हमला करने के लिए ग़ाज़ा के बेगुनाह शहरी नहीं आए थे, औरतें, बूढ़ें नहीं आए थे, छोटे छोटे मासूम बच्चे इस्राइलियों को मारने नहीं आए थे. फिर भी ग़ासिब इस्राइल की ज़ालिम फौज फिलिस्तीन के बेकसूर शहरियों पर हमलावर है.
सिविल आबादी पर फॉस्फोरस बम गिराए जा रहे हैं, जो इन्टरनेशनल क़वानीन में बैंड हैं. मस्जिदों पर एयर स्ट्राइक की जा रही है. रिहायशी इमारतों पर मिसाइलें दागी जा रही हैं. फिलिस्तीन की बेगुनाह अवाम अपने ज़ख़्मी बच्चों को किसी तरह बचाकर अस्पताल तक ला रही है तो इन्सानियत के दुश्मन इस्राइली हुक्मरान अस्पतालों पर भी बम गिरा रहे हैं. ग़ाज़ा से आने वाले विजुअल इतने दर्दनाक हैं कि देखे नहीं जा रहे. बेशर्मी की इंतहा ये है पूरी दुनिया की दारोग़ाई का ठेकेदार अमेरिका ज़ुल्म को ताक़त से रोकने के बजाय शैतानों का साथ दे रहा है. याद रखो दुनिया के ज़ालिमों, तुम्हारी हुकूमत फिरऔनों नमरूदों से बढ़कर नहीं है, एक दिन तुम्हें भी फना हो जाना है.
फिलिस्तीन में यहूदी
1970 में इस्राइली संसद ‘कनेसट’ ने कानून बनाया कि जिन यहूदियों की इस्राइल के क़याम यानी 1948 के पहले फिलिस्तीन (ईस्ट यरूशलम, वेस्ट बैंक, गाज़ा) में जहां कहीं भी प्रॉपर्टी हुआ करती थी, उस प्रॉपर्टी को वापस ले सकते हैं और सरकार इसमें यहूदियों की मदद करेगी. दरअसल ब्रिटिश के मकबूज़ा फिलिस्तीन में 1917 के बालफोर डिक्लियरेशन के बाद यहूदियों के जत्थे आना शुरू हो गए थे, जो हिटलर के एंटी यहूदी होलोकॉस्ट के बाद बहुत ज़्यादा बढ़ गए थे.
ब्रिटिश काल में यहूदी यहां आते और ग़रीब फिलिस्तीनियों से उनकी ज़मीन मुंह मांगी क़ीमत पर खरीद लेते थे. जब यहूदियों की तादाद किसी किसी इलाके में बढ़ने लगी तो इन्होंने ज़बरदस्ती भी ज़मीन कब्ज़ानी शुरू कर दी. ज़ाहिर है पुश्त पर ब्रिटिश एम्पायर जो खड़ा था. ज़बरदस्ती से मुराद ये कि कुछ लोग अपनी ज़मीन बेचकर चले जाते थे और कुछ नहीं बेचते थे, तो ऐसा होता था कि दो यहूदी के बीच में किसी मुसलमान की ज़मीन होती थी, तब दो यहूदी मिलकर एक ब्लॉक बनाते और बीच वाले मुसलमान को ताक़त के ज़ोर पर भगा देते थे. ये कारनामे बड़े पैमाने पर अंजाम दिए गए और तारीख में दर्ज भी हैं.
इन्हीं प्रॉपर्टी को दोबारा हथियाने के लिए ही इस्राइल हुकूमत ने यह कानून बनाया था. इस कानून में सबसे बड़ी खामी यह थी कि समानता के अधिकार का वॉयलेशन हो रहा था, वॉयलेशन इस तरह कि बहुत सारे फिलिस्तीनियों की ज़मीनें इस्राइल ऑक्युपाई एरिया में भी 1948 से पहले हुआ करती थी, फिलिस्तीनियों को यह कानून हक़ नहीं दे रहा था कि वो भी इस्राइली इलाकों में 1948 से पहले की अपनी प्रॉपर्टी क्लेम कर सकें. सिर्फ यहूदियों को हक़ दिया जा रहा था कि वो फिलिस्तीन टेरेटरी में अपनी पुरानी ज़मीन वापस ले सकते हैं.
दो भाग में बंटे फिलिस्तीन
दरअसल हुआ ये था कि जब UNO के ज़रिए इस्राइल क़ायम हुआ तो UNO ने ही दो राष्ट्र सिद्धांत के तहत फिलिस्तीन को दो आज़ाद देशों में बांट दिया था. 48% फिलिस्तीन के लिए, 44% इस्राइल के लिए और 8% ओल्ड यरूशलम सिटी के लिए. यरूशलम को इन्टरनेशनल सिटी बनाकर सीधे UNO के अंडर दे दिया गया था. इसी बंटवारे के मुताबिक दोनों जगहों से मुसलमानों और यहूदी आबादी की अदला बदली हुई थी. इस बंटवारे को मुसलमानों ने माना नहीं, इस मुद्दे पर 1948 की पहली अरब इस्राइल जंग हुई.
जंग में अरबों को शिकस्त हुई और जंग का नतीजा ये निकला कि जो इस्राइल पहले 44% हिस्से का मालिक बनाया गया था, वो अब 72% हिस्से पर कब्ज़ाधारी हो गया. इसी कब्ज़े में वेस्ट यरूशलम भी शामिल है जो पहले इस्राइल के पास नहीं था. 1967 में फिर अरब इस्राइल दूसरी जंग हुई जिसे सिक्स डेज वॉर कहा जाता है. इसमें अरबों को फिर शिकस्त हुई और इस्राइल अब वेस्ट बैंक, ईस्ट यरूशलम, गोलान हाइट्स और गाज़ा के साथ सहराए सीनाई पर भी काबिज़ हो गया.
1973 में फिर से अरब इस्राइल तीसरी जंग हुई जिसे योमे किप्पूर जंग कहा जाता है. इसमें जंगबंदी होने पर मिस्र ने इस्राइल से शांति समझौता करके सहराए सीनाई तो वापस ले लिया लेकिन बदले में मिस्र की तरफ से इस्राइल को रिकॉग्नाइज़ किया गया. इस तरह मिस्र पहला अरब मुल्क बना जिसने इस्राइल को मान्यता दी. कुल मिलाकर 1973 के बाद इस्राइल के पास अब गोलान हाइट्स, गाज़ा, ईस्ट यरूशलम और वेस्ट बैंक भी जुड़ चुके थे.
फिलिस्तीन की आजादी और यासिर अराफात
1948 / 1967 / 1973 की अरब इस्राइल जंगों में जीते इस्राइल ने फिलिस्तीनी इलाकों को अपने कब्ज़े में लेकर टेरेटरी घोषित कर दिया लेकिन अमलन कब्ज़ा बरकरार ना रख पाया क्योंकि इन इलाकों में आज़ादी मूवमेंट चल ही रहे थे. अरब इस्राइल जंगों के दरम्यान यासिर अराफात ने फिलिस्तीन की आज़ादी के लिए लड़ रहे अलफतह और दीगर ग्रुपों को मिलाकर 1964 में फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन (PLO) बनाया.
दुनिया के सौ से ज़्यादा मुल्कों ने PLO को फिलिस्तीन का वाहिद नुमाइंदा माना है. 1974 से PLO को UNO में ऑब्जर्वर का दर्जा हासिल है. यासिर अराफात दुनिया के अकेले नेता थे जिनके पास कोई मुल्क ना होते हुए भी UNO की जनरल असेंबली में स्पीच करने का मौका मिला. 13 सितंबर, 1993 को अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की मध्यस्थता में इस्राइली प्रधानमंत्री यित्साक रॉबिन और PLO के सदर यासिर अराफात ने नार्वे की राजधानी ओस्लो में शांति समझौता किया.
समझौते के मुताबिक तय पाया गया कि इस्राइल 1967 से अपने कब्जे वाले फिलस्तीनी इलाकों से हटेगा, एक फिलस्तीनी अथॉरिटी का कयाम किया जाएगा और एक दिन फिलिस्तीनियों को एक देश के तौर पर आज़ादी मिलेगी. इस समझौते से नाराज़ एक फंडामेंटल यहूदी ने 1995 में प्रधानमंत्री यित्साक रॉबिन को क़त्ल कर दिया. समझौते के मुताबिक ग़ाज़ा और वेस्ट बैंक में फिलिस्तीन अथॉरिटी की सिविल खुद मुख्तार हुकूमत क़ायम हो गई. इस निज़ाम से नाराज़ होकर एक दूसरे फंडामेंटल ग्रुप हमास ने फौरन ही बग़ावत करके इंतिफादा नामी लड़ाई छेड़ दी जो रुक रुक कर आज तक जारी है.
इस तमाम जद्दोजहद के दौरान फिलिस्तीन मुद्दा बराबर UNO की सिक्योरिटी काउंसिल में छाया रहा. हर बार हमेशा सिक्योरिटी काउंसिल ने फिलिस्तीन के हक़ में और इस्राइल के विरोध में एकराय से रिजॉल्यूशन पास किए, जिनमें इस्राइल के सबसे बड़े हामी अमेरिका की भी सहमति शामिल रही.
UNO में फिलिस्तीन
तहरीर का ये हिस्सा सुप्रीम कोर्ट के सीनियर वकील प्रोफेसर फैज़ान मुस्तफा के वी-ब्लॉग से फैक्ट लेकर लिखा गया है. 23 दिसंबर 2016 का UNO सिक्योरिटी काउंसिल (जिसमें अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, चीन, रूस शामिल हैं और पांचों के बहुमत के बाद ही रिजॉल्यूशन पास होता है) का रिजॉल्यूशन नं. 2334 कहता है कि इस्राइल का फिलिस्तीन एरिया में सेटलमेंट गैरकानूनी है. इस्राइल ग़ासिब यानी ज़बरदस्ती कब्ज़ाधारी ऑक्युपाई पॉवर है. इस्राइल को अविलम्ब कब्ज़ा किए इलाके फौरन छोड़ने होंगे.
ईस्ट यरूशलम में भी इस्राइल की तमाम ऑक्युपाई एक्टिविटी इन्टरनेशनल लॉ के मुताबिक कतई ग़ैर कानूनी हैं, लिहाज़ा इस्राइल फौरन वहां से भी पीछे हटे. इसी रिजॉल्यूशन में पुराने कई रिजॉल्यूशन को कोट भी किया गया है जिनमें हर एक में इस्राइल के खिलाफ प्रस्ताव पारित हुए हैं. 1969, 1973, 1979, 1980, 2002, 2003, 2008 के इन सभी प्रस्तावों को उपरोक्त रिजॉल्यूशन में कोट करके और मज़बूत बनाया गया है.
इसी रिजॉल्यूशन में UN काउंसिल ने इन्टरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस 2004 के फैसले का भी हवाला दिया है, जिसमें कहा गया था कि किसी भी देश को दूसरे देश में घुसकर ज़बरदस्ती कब्ज़ा करने की इजाज़त नहीं है और इस्राइल फिलीस्तीन में ज़बरदस्ती कब्ज़े कर रहा है. इतना ही नहीं इसी रिजॉल्यूशन में कहा गया है कि इस्राइल सरकार फिलिस्तीन टेरेटरी की डेमोग्राफी बदलने की कोशिश कर रही है. मुसलमानों को हटाकर वहां यहूदियों को बसाकर यहूदी मिजॉरिटी स्टेबलिश कर रही है.
इसी में आगे कहा गया है कि इस्राइल UNO के 1967 के उस फैसले को भी चुनौती दे रहा है जिसमें दोनों टेरेटरी के लिए लाइनों के ज़रिए नए सिरे से दो राष्ट्रों की सीमा निर्धारित की गई थी और इस्राइल का ये इकदाम निहायत खतरनाक साबित होगा. इसी रिजॉल्यूशन में सबसे खास आर्टिकल ये है कि दोनों टेरेटरी में से किसी भी टेरेटरी की तरफ से, सिविल आबादी को टारगेट करके किया गया कोई भी हिंसात्मक हमला हाइली कंडेम्डेबल होगा और इसे आतंकवाद माना जाएगा.
इस्राइल दरअसल इसी आर्टिकल को बुनियाद बनाकर तमाम इन्टरनेशनल लॉ को पसेपुश्त डालता है और खुद पर हुए हमले दिखाकर रिटेलिएट के अधिकार के तहत अपना जवाबी हमला शो करता है. यही वो बेसिक पॉइंट है जहां इस्राइल को ग्लोबल कम्युनिटी की हिमायत हासिल होती है क्योंकि इस्राइल खुद को विक्टिम शो करता है इसलिए ग्लोबल वर्ल्ड इस्राइल के साथ खड़ा दिखाई देता है.
हमास और इस्राइल
दो साल पहले इस्राइल की कोर्ट ने उपरोक्त 1970 के कानून को हरी झंडी देकर फैसला सुना दिया कि कानून सही है और यहूदियों को फिलिस्तीन टेरेटरी में अपनी पुरानी ज़मीन वसूल करने का अधिकार है. ये दरअसल ईस्ट यरूशलम के 36 फिलिस्तीनी परिवारों का मुकदमा था, जो बरसों से कोर्ट में चल रहा था. इस फैसले से उन फिलिस्तीनी परिवारों के घर छिनने का खतरा पैदा हो गया था.
ज़ाहिर है इसके बाद दीगर हज़ारों लोगों के मकानात ज़मीनें भी छिनने ही वाले थे. इसी को लेकर ईस्ट यरूशलम में प्रोटेस्ट चल रहे थे, जो होते होते मस्जिद उल अक्सा तक जा पंहुचे थे. इसी गर्मागर्मी के दौरान यहूदियों ने एक और उकसाऊ कार्रवाई ये की कि 14 मई 1967 की याद में विजय जुलूस निकाला और खासकर मस्जिद उल अक्सा के बाहर गेटों के पास निकाला. जलूस था इसलिए भड़काऊ नारेबाजी भी हुई होगी, नतीजा ये हुआ कि प्रोटेस्ट कर रहे फिलिस्तीनियों ने इस जलूस पर पथराव कर दिया, इसके बाद मस्जिद में पुलिस के साथ जमकर बवाल हुआ.
ये सारा मामला ईस्ट यरूशलम में चल रहा था. इसका गाज़ा के कन्ट्रोलर हमास से सीधा कनेक्शन नहीं था लेकिन इसके बाद हमास की एन्ट्री होती है. हमास ने उसी दिन 10 मई की रात तक की डेडलाइन जारी करते हुए धमकी दी कि इस्राइल तुरंत फिलिस्तीन टेरेटरी से अपने तमाम कब्ज़े छोडकर वापस इस्राइल टेरेटरी में लौटे वरना रॉकेट हमले किए जाएंगे. डेडलाइन खत्म होने पर हमास ने गाज़ा से इस्राइली शहरों की रिहायशी आबादियों पर रॉकेट हमले शुरू कर दिए.
इसके बाद क्या हुआ आपको पता ही है कि इस्राइली सरकार और बड़े बड़े इस्राइली मीडिया ने फुलझड़ी पटाखा रॉकेट के विजुअल्स दुनिया को इस तरह दिखाकर पेश किए जैसे इस्राइल पर परमाणु हमला हो गया हो. दो दिन तक इस्राइल विक्टिम बनकर यही दिखाता रहा कि देखो हम बर्दाश्त कर रहे हैं, हम पहल नहीं कर रहे, हम मज़लूम हैं और हमास हमलावर है. यही वो बेसिक पॉइंट है जिस पर ग्लोबल कम्युनिटी की सिम्पैथी इस्राइल के साथ खड़ी होती है और ये पहली बार नहीं है हमेशा हर बार यही होता है.
सिर्फ इस नुकते को छोड़कर अमेरिका समेत सारी दुनिया इस्राइल के खिलाफ है और उसे ग़ासिब ज़ालिम मानती है, मगर जब भी इस्राइल को दुनिया की नज़रों में फज़ीहत का सामना होता है, तभी हमास इस्राइल के लिए संकटमोचक बनकर सामने आता है. आप हज़रात प्लास्टिक गाज़ियों के बनाए भौकाल से क़ता नज़र होकर खुले ज़हन से सोचेंगे तो आपके सामने पूरा सीन खुलकर वाज़ेह होता चला जाएगा.
मस्जिद उल अक्सा को फिलहाल बिल्कुल खतरा नहीं है और ना ही इस्राइल इस पोजिशन में है कि इस्लामी दुनिया के साथ पूरी दुनिया की नाराज़गी एक साथ मोल ले सके. कल क्या होगा वो अलग बात है मगर आज तो यही है कि इस्राइल की औकात ही नहीं है कि इन्टरनेशनल कम्युनिटी को बाईपास करके एक कदम भी आगे बढ़ा सकें. इस्राइल इन्टरनेशनल क़वानीन से बंधा हुआ है मगर पिछले तीस साल से हमास उसके बहुत काम आ रहा है.
इस्राइल को पता है कि फिलिस्तीन में मौजूद 70/80 लाख लोगों को मारा नहीं जा सकता इसलिए हर साल हमास से रॉकेट छुड़वाए जाते हैं और हर साल फिलिस्तीन पर इस्राइली मिसाइल हमले होते हैं. नतीजे में हर साल लाखों फिलिस्तीनी अपने घर बार छोड़कर हिजरत कर जाते हैं. अब जो परिवार खुद ही मुल्क छोड़कर जा रहे हों उनकी वजह से कौन से इन्टरनेशनल कानून के तहत इस्राइल पर अतंराष्ट्रीय अदालत में मुकदमा चलाया जाए ?