अकिंत जायसवाल
गुर्जर प्रतिहार राजा मिहिरभोज निस्संदेह एक शक्तिशाली सम्राट थे जिनका नौवीं सदी में उत्तर भारत में एक बड़ा साम्राज्य था। वैसे तो गुर्जर प्रतिहार शासक अपने अभिलेखों में खुद को रघुकुलवँशी क्षत्रिय कुल में जन्मा बताते हैं(बाकी राम और उनके वँश से जोड़ना तो आम बात है तत्कालीन लेखों में किसी भी राजवँश द्वारा, जैसे चालुक्य तो अयोध्या के मूलनिवासी बताते हैं। वो तो सूर्य वंश ( राम ) और चंद्र वंश पर दावेदारी का प्रयास रहता था) और राम के भाई लक्ष्मण से अपना संबंध स्थापित करते हैं लेकिन घटियाला अभिलेख में गुर्जर प्रतिहारों को इनके मूल पुरुष हरिश्चंद्र को ब्राह्मण(लेख में विप्र शब्द है, आप विप्र को ब्राह्मण न मानकर विद्वान मान लीजिए पर पत्नी को क्षत्रिय और पति को विद्वान, मतलब एक ही पंक्ति में दो अर्थों वाले शब्द मेरे हिसाब से तो नहीं निकलना चाहिए, इतिहासकारों ने विप्र शब्द से ब्राह्मण ही माना है) और उसकी क्षत्रिय पत्नी भद्रा से उत्पन्न बताया गया है।
कुछ लोग इन्हें विदेशी शक-सीथियन-हूणों-खजरों से जुड़ा हुआ बताते हैं तो अधिकांश इन्हें यहीं के किसी कबीले का मानते हैं जो अपना शासन स्थापित होने पर उच्च वर्ण में अपना नाम जुड़वा लिए बाकी किसी के पास कोई भी ऐसा पूर्ण ऐतिहासिक सबूत नहीं जो इन्हें किसी एक वर्ण या जाति अथवा पूर्ण रूप से देशी-विदेशी होने पर बिना किसी संदेह के साबित कर सके।
प्राचीन भारतीय शासकों में राजा विक्रमादित्य और राजा भोज दो ऐसे प्रसिद्ध उपनाम हैं जो यहाँ के जनमानस के लोककथाओं के लोकप्रिय नायक रहे हैं। ऐसा केवल साहित्यिक रचनाओं के कारण ही नहीं है बल्कि इन लोककथाओं में इनकी प्रसिद्धि और लोकप्रियता के पीछे प्रचुर ऐतिहासिक प्रमाणों का भी योगदान है।
राजा भोज नाम के प्रथम ऐतिहासिक सम्राट गुर्जर-प्रतिहार राजवंश के थे जिनके राजवंश का उदय आठवीं शताब्दी ई0 के शुरुआत में ऐसे समय में हुआ जब भारतीय क्षेत्रों में अरबी आक्रमण शुरू हो चुके थे। गुर्जर-प्रतिहार वँश के प्रथम शासक नागभट्ट की अरबों पर विजय का प्रमाण राजा मिहिरभोज के ग्वालियर अभिलेख में मिलता है, जहाँ उल्लेखित है कि इन्होंने मलेच्छाधिप की बलवती सेनाओं को परास्त किया। यहाँ मलेच्छाधिप की सेनाओं के मतलब उन अरब आक्रमणकारियों से है जो आठवीं सदी में सिंध, गुजरात, काठियावाड़, राजपुताना और मालवा पर अपना साम्राज्य स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे। इन आक्रमणकारियों के नेता का नाम जुनैद था। इस बात का समर्थन अरबी लेखक अल-बिलादुरी के लेखन से भी हो जाती है जहाँ वह लिखता है कि अरब सेनाओं ने अनेक स्थानों की विजय की लेकिन उज्जैन के विरुद्ध उनके आक्रमण केवल धावे मात्र रह गए। इन धावों को असफल करने का श्रेय निस्संदेह प्रतिहार राजा नागभट्ट को दिया जा सकता है जिसका यशोगान ग्वालियर प्रशस्ति में मिलता है।
अभिलेख की पंक्तियों के अनुसार नागभट्ट प्रथम, मलेच्छ शासक की विशाल सेनाओं को चूर करने वाला, वह मानों नारायण के रूप में अवतरित होकर लोगों की रक्षा के लिए उपस्थित हुआ है। इस बात का अप्रत्यक्ष समर्थन पुलकेशिराज अवनिजनाश्रय के 738 के नौसारी अभिलेख से भी होती है। इस अभिलेख में तजिकों(अरब से सम्बंधित) के सिन्धु,सुराष्ट्र, चावोत्कट मौर्य और गुर्जर(गुर्जरों का केवल भृगुकच्छ का प्रदेश) राज्यों की विजय का उल्लेख तो है लेकिन उनके द्वारा उज्जैन और मालवा की विजय का कोई उल्लेख नहीं, अर्थात प्रतिहारों ने इन्हें सफलतापूर्वक यहाँ से खदेड़ दिया(यह निष्कर्ष प्रतिहारों और अन्य अभिलेखों के आधार पर लिखा जा सकता है, स्पष्ट कहीं लिखा नहीं मिलता कि वहाँ से भगा दिया गया)!
महत्वपूर्ण है कि अरबों के विरुद्ध नागभट्ट की सफलता अल्पकालिक नहीं थी बल्कि उसकी सेनाओं ने अरबों को काफी दूर तक पीछे हटा दिया था जिससे कि वे अधिक समय तक भारत के अंदरूनी हिस्से में आक्रमण करने की चेष्टा न कर सके। इस तथ्य का प्रमाण हमें चाहमान(चौहान) सामंत भर्तुवड्ढ द्वितीय के विक्रम संवत 803(745ई0) के हँसोठ अभिलेख से मिल जाता है। इस ताम्रपट्टाभिलेख में नागभट्ट के राज्य को नागावलोक कहकर संबोधित किया गया है। नागभट्ट प्रथम के द्वारा अरबों की पराजय और उनका विजित क्षेत्रों से वापस पीछे हटने का उल्लेख अल-बिलादुरी कुछ इन शब्दों में करता है कि जुनैद का उत्तराधिकारी तमीम कमजोर सेनानायक था और उसे भारत के ऐसे अनेक स्थानों से पीछे हटना पड़ा जो पहले उसके अधिकार में था। इस तरह प्रतिहार राजवँश के प्रथम शासक ने खुद के प्रतिहारी(द्वारपाल) होने को साबित किया।
नागभट्ट प्रथम के कार्यों को अगले सौ वर्षों तक कायम रखने का कार्य नागभट्ट द्वितीय ने किया और उसने उज्जैन की जगह कन्नौज को अपनी राजधानी बनाई।
नागभट्ट द्वितीय के बाद उसका पुत्र रामभद्र ने अत्यल्प शासन किया। इसी रामभद्र और रानी अप्पादेवी के पुत्र का नाम राजा भोज अथवा मिहिर-भोज था जिसने अपने उपलब्धियों से “प्रभास”और “आदिवराह” जैसे उपाधियों को अर्जित किया। राजा मिहिर भोज के राजनीतिक और सांस्कृतिक उपलब्धियों का विवरण कहीं से भी अतिश्योक्ति नहीं लगता क्योंकि प्रचुर अभिलेखों सहित इसके प्रमाण कल्हण की राजतरंगिणी और अरबी सौदागर सुलेमान के लिखित दस्तावेजों में भी मिल जाते हैं।
राजा भोज का सर्वप्रथम अभिलेख विक्रम संवत 893(836 ई0) का है जिसमें उनके राज्य के सीमा सुरक्षा और सुदृढ प्रशासनिक संगठन का उल्लेख मिलता है। इस अभिलेख के अनुसार राजा भोज ने अपने दादा नागभट्ट द्वितीय के समय के साम्राज्य को पुनः संगठित किया जो कि उनके पिता रामभद्र के समय थोड़ा कमजोर हो गया था। राजा भोज के सैनिक एवं राजनीतिक सत्ता के विस्तार के निश्चित साक्ष्यों की पुष्टि प्रतिहार वँश के सामन्तो के अभिलेखों से भी हो जाती है। इनके राजनीतिक सफलताओं के बारे में ग्वालियर प्रशस्ति में लिखा गया है:- अगस्त्य ऋषि ने केवल एक पर्वत ‘विंध्य’ की वृद्धि रोकी थी लेकिन भोज ने अनेक राजाओं पर आक्रमण कर उन पर शासन स्थापित किया। यह तुलना राजा भोज के शक्ति विस्तार का सशक्त प्रमाण है। अभिलेखों के अनुसार राजा भोज का राज्य विस्तार हिमालय की तलहटियों से लेकर विंध्य, गुजरात, राजपुताना और बंगाल तक विस्तृत था।
गोरखपुर जिले के कहला अभिलेख के अनुसार राजा भोज का मुकाबला शक्तिशाली पाल शासक देवपाल और उसके उत्तराधिकारियों से भी हुआ था जिसमें निश्चय ही सफलता राजा भोज को मिली थी क्योंकि एक जगह लिखा गया है कि उसने गौड़राज की लक्ष्मी का हरण किया था(गौड़=बंगाल)।
पूर्वी पंजाब के पेहवा लेख में भी भोजदेव के कल्याणकारी और विजयी शासन की चर्चा की गई है जिससे राजा भोज के सीमा का निर्धारण पंजाब तक निश्चित रूप से किया जा सकता है। इस अभिलेख की सबसे विशिष्ट बात है कि इसमें घोड़ों के व्यापारियों द्वारा कुछ मंदिरों को दिए जाने वाले धन और क्रय-विक्रय पर लगाये जाने वाले कर संबंधी एक समझौते का उल्लेख है।
दिल्ली में पुराना किला के पास मिले एक खंडित अभिलेख से दिल्ली पर भी भोज के अधिकार की पुष्टि होती है। राजा भोज का यह प्रताप ही था कि तत्कालीन समय लिखे गए स्कन्दपुराण में प्रभासखण्ड नाम से एक अध्याय उन्हीं को समर्पित है। राजा भोज का मुकाबला थोड़े दिनों के लिए दक्कन के राष्ट्रकूट शासकों और और उनकी शक्तिशाली सेनाओं से भी हुई थी जिनमें छिटपुट सफलताओं और असफलताओं का दौर चलता रहा। राजा भोज ने अपनी महान राजनीतिक और सैनिक योग्यताओं से न केवल अपने पैतृक राज्य की सीमाओं को सुदृढ किया बल्कि उन्होंने आगे बढ़कर अपने वंश के पुराने प्रतिद्वंद्वियों दक्कन के राष्ट्रकूट और बंगाल के पालों को भी चुनौती दी। इन सबके बीच राजा भोज की जो सबसे बड़ी उपलब्धि रही, वो थी भारत के पश्चिमी भाग से प्रवेश करने वाले अरब आक्रमणकारियों को रोके रखना तथा उनके द्वारा जीते गए भारतीय प्रदेशों को पुनः स्वतंत्र कराना। हालाँकि यह बड़ा दुखद है कि अरब आक्रमणकारियों के विरुद्ध राजा भोज की सफलताओं का उल्लेख किसी भी भारतीय साहित्य में नहीं मिलता।
राजा भोज ने पश्चिम के तरफ से आने वाले आक्रमणकारियों से भारतीय सीमा की जो रक्षा की है उससे उसके वँश का नाम प्रतिहार अर्थात द्वारपाल होना सार्थक होता है। इस कार्य का सबसे बड़ा ऐतिहासिक प्रमाण हमें स्वयं अरबी-मुसलमान लेखक ही प्रदान करते हैं। अरबी व्यापारी सुलेमान लिखता है कि इस राजा के पास बहुत बड़ी सेना है और अन्य किसी भी दूसरे राजा के पास उसके जैसी अश्व सेना नहीं है(पेहवा लेख भी इसका समर्थन करते हैं)। वह अरबों का शत्रु है, भारत के राजाओं में इससे बड़ा इस्लाम धर्म का शत्रु कोई नहीं है। इसका राज्य जीभ के आकार का है। वह धन-धान्य-वैभव से सम्पन्न है, उसके पास अत्यधिक सँख्या में घोड़े और ऊँट हैं। भारत मे राजा भोज के अतिरिक्त ऐसा कोई राज्य नहीं जो डाकुओं से इतना सुरक्षित हो।
तत्कालीन विदेशी लेखक बिलादुरी कहता है कि अरबों को अपनी रक्षा के लिए कोई सुरक्षित स्थान पाना कठिन था इसलिए उन्होंने अल-हिन्द की सीमा पर एक झील के किनारे अल-महफूज नामक एक नगर को बसाया। शत्रुदेश के लेखकों द्वारा लिखी गईं ये बातें निस्संदेह राजा भोज की महत्ता को प्रकट करते हैं। विदेशी इतिहासकार लेनपुल कहते भी हैं कि सिंध पर अरबों का अधिकार भारतीय इतिहास में केवल एक क्षेपक था। अपनी पराकाष्ठा के दौरान भी अरब सेनानायक इस विशाल देश के केवल एक किनारे मात्र को ही छू सके। इस्लाम की यह एक ऐसी विजय थी जिसका कोई फल उन्हें न मिला। रमेश चन्द्र मजूमदार लिखते हैं कि तत्कालीन समय जब हम विश्व के अन्य भागों में अरबों की आश्चर्यजनक सफलता देखते हैं तो भारत में प्राप्त होने वाली अरबों की मामूली सफलता उन्हें अलग तरीके से दिखाती है। 915 ई0 में आने वाले अरब यात्री अल-मसूदी तो यहाँ तक कहता है कि अरबों ने अपनी शक्ति का केंद्र मुल्तान में एक सूर्य मंदिर इसलिए बिना तोड़े छोड़ रखा था कि जब भी उन्हें गुर्जर-प्रतिहार राजाओं के आक्रमण का भय होता था तो वे उस मंदिर की मूर्ति को नष्ट कर देने का भय दिखाकर अपनी रक्षा करते थे।
राजा भोज के सिक्कों और अभिलेखों में अंकित उसके आदिवराह उपाधि से यह प्रदर्शित होता है कि वह वराहावतार की तरह भारतभूमि को मलेच्छों(अरबों) से मुक्त करना अपना कर्तव्य समझता था।
और हाँ गुर्जर शब्द स्थान विशेष(वर्तमान गुजरात का एक क्षेत्र) से है या किसी विशेष जाति/उपजाति/वँश से इसपे इतिहासकारों के अनेक मत हैं, अगर लिखा जाय तो अलग एक लम्बा लेख बन जायेगा, इसलिए किसी दिन और।
चित्र सांकेतिक