मुनेश त्यागी
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों से आजादी लेने के साथ-साथ यह भी कामना की गई थी कि भारत में हजारों साल से पहले शोषण, जुल्म, अन्याय ,भेदभाव, गरीबी भुखमरी और जुल्मों सितम से भी मुक्ति मिलेगी। इसी आंदोलन के साथ-साथ स्वतंत्रता सेनानियों की और सारे आंदोलनकारियों की यह भी मांग थी कि भारत में हजारों साल से चले आ रहे अन्याय पर रोक लगे, इसका पूरी तरह से खात्मा हो और पूरी जनता को, किसानों मजदूरों को सस्ता और सुलभ न्याय मिले।
हमारे शहीदों और स्वतंत्रता सेनानियों की इन्हीं मांगों को भारत के संविधान में स्थान दिया गया। भारत के संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है कि भारत के सभी लोगों को आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक न्याय मिलेगा, अन्याय के समस्त स्रोतों का पूर्ण रूप से विनाश कर दिया जाएगा और इसी भावना के तहत और इसे सिद्धांत रूप में स्वीकार करते हुए, भारत के संविधान में प्रस्तावित किया गया कि भारत की तमाम जनता को सस्ता और सुलभ न्याय दिया जाएगा, मोहिया कराया जाएगा और इसमें राज्य या किसी राज्य के अधिकारी की मनमानी नहीं चलेगी, इसमें कोई बहाना नहीं बनाया जाएगा।
मगर आज हम देख रहे हैं कि भारत में 5 करोड़ से ज्यादा मुकदमें भारत की विभिन्न अदालतों में लंबित हैं। वहां मुकदमों के अनुपात में न्यायालय, स्टैनों, पेशकार और बाबू नहीं हैं। ऐसे ही हजारों मामलों में उत्तर प्रदेश के हजारों मजदूरों के साथ अन्याय किया जा रहा है जिस वजह से उनके कई लाख परिवारजन पीड़ित हैं। उत्तर प्रदेश में श्रम न्यायालयों और औद्योगिक न्यायाधिकरणों में 50% से ज्यादा श्रम न्यायालयों और 40% से ज्यादा औद्योगिक न्यायाधिकरणों में जजों के पद खाली पड़े हुए हैं।
इसी के साथ-साथ उत्तर प्रदेश के श्रम कार्यालयों में अस्सिटेंट लेबर कमिश्नर यानी एएलसी के 50% से ज्यादा पद खाली पड़े हुए हैं। अन्याय की ओर सरकारी संवेदनहीनता की हद यह है कि इन अधिकांश न्यायालयों में और श्रम कार्यालयों में पेशकार नहीं हैं, स्टेनो नहीं हैं, और मुकदमों के अनुपात में कर्मचारी नहीं हैं। हमने देखा है कि कई श्रम न्यायालयों और न्यायाधिकरणों में पेशकर नहीं हैं और स्टेनो नहीं हैं। चार-चार, पांच-पांच साल काम करने के बाद भी ये अदालतें चाहकर भी अपने आदेश नहीं दे सकतीं, अपने फैसले नहीं दे सकतीं, क्योंकि इनमें स्टेनो ही नहीं हैं और इस प्रकार करोड़ों करोड़ों रुपए वेतनों में खर्च हो जाते हैं, मगर स्टैनों और पेशकार न होने की वजह से न्यायिक अधिकारी लोग मजदूरों को और वादकारियों को समय से इंसाफ दे पाने में अपने को असमर्थ मेहसूस रहे हैं।
इस मामले को लेकर उत्तर प्रदेश के अधिकांश इंडस्ट्रियल लॉ रिप्रेजेंटेटिव एसोसिएशनों के सैकड़ों अधिवक्ता पिछले तीन महीनों से कार्य का बहिष्कार करने को मजबूर हो रहे हैं। वे सरकार की इस न्याय विरोधी असंवेदनहीनता की आलोचना कर रहे हैं और वे लगातार मांग कर रहे हैं कि इन आदतों में समय रहते पीठासीन अधिकारी स्टैंड और पेशकार नियुक्त किए जाएं और मजदूरों को, उनके परिवारों को, समय से सस्ता और सुलभ न्याय दिया जाए। वे लगातार धरने, प्रदर्शन कर रहे हैं। मुख्य सचिव, श्रम आयुक्त और मुख्यमंत्री को लगातार ज्ञापन भेज रहे हैं मगर सरकार इस मामले में कोई सुनवाई नहीं कर रही है जैसे वह अंधी, गूंगी और बहरी हो गई है और कुछ भी सुनने, समझने और करने को तैयार नहीं है।
अब तो ऐसे लगने लगा है कि सरकार की यह नीति ही हो गई है कि कानून और न्याय का सिर्फ नाटक और दिखावा करो, मगर जनता को समयबध्द तरीके से सस्ता और सुलभ न्याय मत दो। सरकार अब इसी नीति पर चल रही है। मामले की हद तो यहां तक पहुंच गई है कि पिछले दिनों हमने कमिश्नर को एक ज्ञापन दिया और जिसमें मांग की थी कि मजदूरों को और वादकारियों को सस्ता और सुलभ न्याय देने के लिए समस्त श्रम कार्यालय में और न्यायाधिकरण में पीठासीन अधिकारियों पेशकारों और स्टैनों की नियुक्तियां की जाए। पर यहां तो कमिश्नर का ही दर्द उभर आया और वे कहने लगे और अपना दुखड़ा सुनाने लगे कि आपने तो हमारी मांगें ही उठा दीं। हम भी इसी समस्या से जूझ रहे हैं। हमारे यहां भी पर्याप्त संख्या में स्टैनों, पेशकार और कर्मचारी नहीं हैं जिस कारण कार्य बाधित हो रहे हैं।
कई मामलों में तो देखा गया है की जज लेबर कोर्ट में उपस्थित हैं, मगर वह पेशकार नहीं है और जज खाली बैठा है और वह बिना कुछ काम करने के लिए अभिशप्त हैं। अब इस मामले को लेकर जनता और श्रम प्रतिनिधियों के पास इस आंदोलन को तेज करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं रह गया है। आंदोलन के बाद भी जब सरकार ने कोई सुनवाई नहीं की तो इंडस्ट्रियल लेबर लॉ रिप्रेजेंटेटिव एसोसिएशन के सदस्यों को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जनहित याचिका आधार करनी पड़ी जिसमें सरकार से जवाब मांगा गया है।
इससे पहले भी एक जनहित याचिका पांच साल पहले उच्च न्यायालय में डाली गई थी जिसमें उच्च न्यायालय द्वारा उत्तर प्रदेश सरकार को आदेश दिया गया था कि वह छः महीने के अंदर श्रम न्यायालय में समय से जजों की नियुक्ति का कार्यक्रम पेश करे। मगर अफसोस की बात है की सरकार ने इस आदेश का उल्लंघन किया और उसने इस विषय में कोई कदम नहीं बढ़ाया और कोई कार्यवाही नहीं की।
इस मामले में सरकार द्वारा बरती जा रही लापरवाही को सरकार की बदनियति और सस्ते और सुलभ न्याय के लेकर असंवेदनशीलता ही कहा जाएगा क्योंकि सरकार की मजदूरों, वादकारियों और उनके परिवार जनों को सस्ता और सुलभ न्याय देने की कोई मंशा नहीं है और वह जान पूछकर संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन कर रही है, उन्हें रौंद रही है और जनता को आंदोलन करने के लिए बाध्य कर रही है।