*प्रोफेसर राजकुमार जैन*
7 अक्टूबर से टेलीविजन के सामने बैठकर कभी हिंदुस्तान के तथा कभी विदेशी चैनलों खासतौर से अलजजीरा, रशिया टुडे, बीबीसी, सीएनएन, एनएचसी एनएच वर्ल्ड, फ्रांस 24, डी w, वगैरा चैनलों पर मै एक से दूसरे चैनल को उलटता पुलटता रहता हू, इस उम्मीद के साथ कि शायद अब जंग खत्म होने की खबर देखने को मिले। हिंदुस्तानी चैनलों और बाहरी मुल्कों के चैनलों की रिपोर्ट अलग-अलग नक्शा पेश कर रही है। इजरायली हमास जंग में दोनों तरफ से एक दूसरे पर जो हमले हो रहे हैं उससे इंसानों, संपत्तियो, इमारतो, पुलों, अरबो खरबो के हथियारों की जो बर्बादी हो रही है, उसकी भरपाई कब और कैसे हो पाएगी? कुछ कहा नहीं जा सकताl परंतु इस लड़ाई से हिंदुस्तान को भी सियासी रूप से कम नुकसान नहीं हुआ। हमारे अति उत्साही प्रधानमंत्री जो अक्सर विदेशी हुक्मरानों से मिलते वक्त कभी कंधे पर, या कमर में हाथ, हाथ में हाथ मिलाते वक्त मेरा दोस्त घोषित कर देते हैं। बिना यह जाने की विदेश नीति का पहला पाठ है की कोई किसी का स्थाई दोस्त या दुश्मन नहीं होता, केवल मुल्क का हित ही स्थाई होता है। इस्राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू से व्यक्तिगत दोस्ती की तरंग तथा मुस्लिम मुल्कों के विरोध में शुरू में ही इजरायल की तरफदारी कर दी।
1937- 39 में जब कांग्रेस पार्टी के सदर जवाहरलाल नेहरू थे। उन्होंने डॉ राममनोहर लोहिया को कांग्रेस के विदेश विभाग का सचिव नियुक्त किया था। तथा पहली बार कोई ठोस विदेश नीति का खाका लोहिया ने नेहरू की निगरानी में तैयार किया था। जिसमें गुटनिरपेक्षता अथवा किसी भी ब्लॉक में शामिल न होने की विदेश नीति बनाई थी, जो अभी तक जारी थी। उसको जल्दबाजी में प्रधानमंत्री ने तोड़कर हालिया जंग में फिलिस्तीन समर्थक मुल्कों को नाराज कर लिया। जिसके कारण इजरायल फिलिस्तीन इस जंग में भारत जो मध्यस्थता कर सकता था वह मौका गवा दिया। अब अपनी जल्दबाजी को सुधारने की कोशिश भी कर रहे हैं, परंतु जो नुकसान होना था वह हो गया।
तीन मजहबों के मरकजो की जमीन पर होने वाले इस युद्ध का पुराना इतिहास है ।और यह कभी भी बम, गोलो, मिसाइलो, आणविक हथियारों से हल नहीं होगा। आज नहीं तो कल वार्ता की मेज पर इनको आना ही होगा। परंतु इस दौर में मानवता को शर्मसार, बेकसूर इंसानों बच्चों औरतों का संहार, इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती इंसानों का खात्मा, चाहे वह इजरायल की मिसाइल या बम से हुआ हो या हमास की दागी मिसाइल के फुस्स हो जाने पर गिरी हो। औरतो बच्चो के खून से सने चेहरे, लोथडे हुए शरीर तथा हमास की कैद में बंद इजरायली स्त्री बच्चों को बचाने कोई राष्ट्र संघ, संस्था, बड़ी डींग हांकने वाले दौलत और हथियारों से लैस जंगी मुल्क सामने नहीं आया सब अपना अपना निशाना साधने में लगे हैं। लगता है हथियारों के बल पर इंसानियत का कत्लेआम रुकने वाला नहीं है। अफसोस इस बात का है कि जिस यहूदी निजाम ने हमास से बदला लेने के लिए फिलिस्तीन के आवाम का राशन पानी दवाई जैसी बुनियादी जरूरतो पर पाबंदी लगाकर
मरने के लिए मजबूर किया है। उस यहूदी समाज के पुरखों ने जो बर्बरता, तबाही, जुल्म सहे थे उसको पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते है तवारीख के मुताबिक यहूदी धर्म की शुरुआत यरूशलम से मानी जाती है। जहां पर दुनिया के तीन बड़े मजहबों यहूदी, ईसाईं और इस्लाम के पवित्रम मरकज हैं। इस धर्म की शुरुआत पैगंबर अब्राहम ने की थी। यहूदी धर्म का जन्म मिस्र के नील नदी से लेकर आज के इराक के दजला फुरात नदी के बीच के इलाके में शुरू हुआ।
इसका इतिहास लंबा है। परंतु आधुनिक इतिहास बताता है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश राज वाले इस इलाके को दो भागों में बांट दिया गया। जिसमें एक अरब इलाका तथा दूसरा यहूदियों के लिए। जहां यहूदी अक्सरियत में है ,उन्हें इसराइल को। तथा यरुशलम अंतरराष्ट्रीय कंट्रोल में रहेगा। 1948 में इस्रायल को मान्यता मिल गई तकरीबन साढे सात लाख फिलिस्तीनियों को अपना मुल्क छोड़ना पड़ा। इसके बाद दोनों मुल्कों में मुसलसल तकरार होती रही इस्राइल और फिलिस्तीन दोनों ही मुल्क यरूशलम को अपनी राजधानी मानते हैं। यरुशलम इस्रायलियो और फिलिस्तीनयो का पवित्र शहर है। यह इस्लाम, अरब का सबसे अहम मुद्दा है। पैगंबर इब्राहिम को अपने इतिहास से जोड़ने वाले तीनों मजहब यरुशलम को अपना पवित्र धर्म स्थान मानते हैं। यरुशलम में बनी ‘अलअक्सा मस्जिद’ को मक्का मदीना के बाद सबसे पवित्र माना जाता है। यहूदी इसे ‘टेंपल टाउन’ कहते हैं, जहां ईसा मसीह को सूली पर चढ़ाया गया। यहूदियों के लिए ‘डोम ऑफ द रॉक’ यहीं पर है। इसमें मुसलमान भी आस्था रखते हैं,इस जगह को लेकर यहूदी और फिलिस्तीनियों के बीच झगड़ा है।
यहूदियों पर हुआ जुल्म ‘होलोकास्ट’ था। जिसका मकसद यहूदियों का खात्मा था। होलोकास्ट की शुरुआत एडोल्फ हिटलर के1933 में जर्मनी का चांसलर बन जाने पर हुई। वह यहूदियों से नफरत करता था, शासन में आते ही नाजियों ने बड़े पैमाने पर यहूदियों की हत्या करनी शुरू कर दी। उनके खिलाफ भेदभाव के कानून बनाए गए, बहाना बनाया गया की प्रथम विश्व युद्ध में 1914 -1918 में जर्मनी की हार के लिए यहूदी जिम्मेदार थे। जर्मन अपने को श्रेष्ठ ‘आर्यन कौम’ तथा यहूदी जाति को सबसे नीच और खतरनाक तथा जर्मनी की सभी दिक्कतों का कारण मानते थे। होलोकास्ट एक ऐसी मुहीम थी जिसने यूरोप की पूरी यहूदी जमात को जिसकी 1930 में तकरीबन 90 लाख तादाद थी उसको खत्म करना था। यहूदियों को खत्म करने की शुरुआत पोलैंड में खुलें ‘आशविच कैंप’ यानी मौत का दूसरा नाम गैस चैंबर। होलोकास्ट इतिहास का वह नरसंहार था जिसमें 6 साल में 60 लाख यहूदियों की हत्या की गई थी। जिसमें 15 लाख बच्चे थे। जर्मनी से यहूदियों को खदेड़ा गया, जर्मनी के शहरों में यातना शिवर बनाए जाने लगे। यहूदियों को गुलामो की तरह रखा जाने लगा। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी ने जिन-जिन देशों पर कब्जा किया वहां वहां कंसंट्रेशन कैंप, यातना शिविर बना दिए। शिविरो में पहुंचने के बाद बच्चों, बीमार और बुजुर्गों को गैस चैंबर में डालकर मार दिया जाता था। तंदुरुस्त यहूदियो से गुलाम का काम लेते थे। लाशों को जलाने के लिये भट्टीया बनाई गई थी। 1941 की शुरुआत में नाजी सैनिकों ने यहूदियों को खुली खाइयो के सामने खड़ा किया और फिर मशीनगनों से भून दिया। यहूदी महिलाओं के साथ नाजी सैनिक बलात्कार करते थे। जब महिलाओं को लाया जाता तो षपाशविक, इंसानियत की हदों को तोड़ने वाला बर्ताव कया जाता था। हिटलर के समर्थकों ने 1941 में स्थानीय यहूदियों पर बड़े पैमाने पर गोलीबारी शुरू कर दी। इसके कारण पूर्वी यूरोप के 1500 से अधिक शहरों, कस्बों और गांवो मे स्थानीय यहूदी की हत्या पूरे क्षेत्र में फैल गई। फिर वे यहूदियों के शहर के बाहरी इलाकों में कब्र खुदवाते। आखिर में इन सभी पुरुषों महिलाओं बच्चों को इन गढ्ढो मैं धकेल कर गोली मार देते। मोबाइल गैस चैंबर का इस्तेमाल कार्बन मोनोऑक्साइड के निकलने के कारण यहूदियों का दम घोटने के लिए करते। जब यहूदियों को दूसरे शहरों में भेजा जाता तो कई दिनों तक रेल के अंदर खड़ा रहना पड़ता था, उन्हें भोजन पानी गर्मी और चिकित्सा देखभाल से वंचित रखा गया। इस अमानवीय यात्रा के कारण अक्सर यहूदी रास्ते में ही मर जाते थे। होलोकास्ट की क्रूरता का अंत 1945 में जब इंग्लैंड अमेरिका रूस ने दूसरे विश्व युद्ध में जर्मनी को हरा दिया, जाकर खत्म हुई। युद्ध समाप्त होने पर जो यहूदी बच गए थे उन्हें अपने परिवार के खोने के एहसास ने गहरे अवसाद का शिकार बना दिया।
परंतु अफसोस, इसी यहूदी समाज के हुक्मरान सरपरस्त फिलिस्तीन के आवाम के साथ वही बर्ताव कर रहे हैं। लगता है कि हथियारों के बल पर इंसानियत का कत्लेआम कभी रुकने वाला नहीं है।इसका आखिरी इलाज महात्मा गांधी का अहिंसात्मक सत्याग्रह, जिसको वतन में रहने वाले आम नागरिक ही अपनी सरकारों को युद्ध से परहेज करने के लिए मजबूर करते हैं, शायद वही कारगर होगा।